Thursday, July 21, 2016

मानव कौल का कहानी संग्रह

मानव कौल का यह पहला कहानी संग्रह  है जिसमें उनकी बारह कहानियां पाठकों के सामने हैं. मानव बहुमुखी हैं, लेखन के आलावा वे फिल्मों, थिअटर में अभिनय कर रहे हैं. नाटकों का निर्देशन वे करते रहे हैं . काई पो चे  और वजीर जैसी फिल्मों में काम मानव के करियर को रेखांकित करते हैं. किताब के फ्लेप पर लिखा है कि उनके लेखन की तुलना निर्मल वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल के लेखन से की जाती  है. 
संग्रह की सभी कहानियाँ मनोवैज्ञानिक जटिलता और संवेगों के स्वर में हैं. हर कहानी प्रथम पुरुष यानी मैं से शुरू होती है और पाठक को लगता है कि कहानीकार अपनी  आपबीती सुना रहा है. आसपास कहीं, अभी अभी से ...., मौन के बादलकी, टीस आदि कहानियाँ हालाँकि नए ढंग से कही गई हैं किन्तु इनके आंतरिक गठन में इतनी अमूर्तता और क्लिष्टता है कि पाठक को  साथ चलने में कठिनाई होती है. दूसरा आदमी, गुना-भाग , माँ’ ‘मुमताज भाई  पतंग वाले और तोमाय गान शोनाबो अपेक्षाकृत अधिक संप्रेषित होती हैं तो इसलिए कि इनमें पाठक संवाद कर पाता है. कथानक अपनी क्लिष्टता के बावजूद लीक से हट कर हैं और कुछ कहानियों में रोचक भी है. लेकिन सामान्य पाठक के लिए कहानी के अंत तक पहुंचना चुनौती प्रतीत होता है. 
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Thursday, June 16, 2016

एक बादशाह और दो गज जमीन की मुराद

आलेख 
जवाहर चौधरी 

बादशाह बहादुरशाह जफ़र को भारत में मुग़ल शासन के आखरी चराग की तोहमत के साथ याद  किया जाना, सच्चाई के बावजूद  इतिहास की क्रूरता है. वे एक प्रतिभाशाली शायर, कुशल लेखक, उदारवादी शासक और सूफी मिजाज थे. ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा उनकी राजनितिक ताकत लगातार कम की गई बावजूद इसके वे परम्परागत शाही दरबार और शान-ओ-शौकत को कायम रहे रहे. उन्हें अपनी बदकिस्मती का आभास नहीं था ऐसा नहीं है , वे अपनी बेबसी को भी देख रहे थे.
विलियम डेलरिंपल की किताब लास्ट मुग़ल पिछले दिनों से चर्चा में है. जकिया जाहिर ने इसका हिंदी अनुवाद किया है . यह किताब उनके लिए भी बहुत दिलचस्प है जो इतिहास में रस नहीं ले पाते हैं. हिंदुस्तान से मुग़ल साम्राज्य के अंत के वे निर्णायक दिनों को जानना बेहद रोमांचक है.
मई १८५७ की एक सुबह मेरठ से कारतूस में चर्बी होने के सन्दर्भ के साथ तमाम विद्रोही और सैनिक दिल्ली में आ गए और ईसाइयों, अंग्रेजों को जहाँ भी मिले मरते गए. ऐसा ही वे छोटी छोटी जगहों से भी करते और विजयी होते आये थे. जल्द ही दिल्ली उनके कब्जे में थी. चूँकि बादशाह जफ़र देश के एक सर्वमान्य व्यक्ति थे, विद्रोहियों ने उनसे  नेतृत्व, धन, हथियार और अन्य व्यवस्थाओं की आशा की. इधर जफ़र का खजाना खाली था, वे खुद तंगहाल थे. विद्रोहियों को वेतन और खाना तक उपलब्ध नहीं करा सके. नतीजतन विद्रोहियों ने शहर में लूटपाट करना शुरू कर दिया. वे अब जफ़र की इज्जत नहीं करते थे, उन्होंने महल का दुरूपयोग भी शुरू कर दिया था. हताशा और अनिश्चय के इस दौर में अंग्रेज अपनी ताकत इकठ्ठा कर वापस लौटे और हजारों जवाबी हत्याओ के बाद बादशाह भी बगावत के जुर्म में गिरफ्तार कर लिए गए. समय ने करवाट ली और अपना सब कुछ लुटा कर, सोलह में से चौदह बेटों और तमाम बेगमों, रिश्तेदारों, सेवकों, दासियों और शाही रुतबे को आँखों के सामने तबाह देखते हुए ८३ वर्षीय बादशाह आखिर सात अक्टूबर की एक अँधेरी सुबह जब अंग्रेज घड़ियों में तीन बज रहा था, एक बैलगाड़ी में अपनी प्यारी दिल्ली से हमेशा के लिए रुखसत हुए. बाद में उनके साथ तमाम बेअदबी होती रही, मखुल तक उदय जाता रहा. अंत में लंबे मुकदमे के बाद उन्हें दिसंबर १८५७ में रंगून भेज दिया गया. यहाँ बादशाह और उनके खानदान वगैरह  के जिनकी संख्या इकत्तीस थी, खानेपीने का खर्च ग्यारह रूपये प्रतिदिन तय किया गया. सात अक्टूबर १८६२ को सुबह पांच बजे उन्होंने प्राण त्यागे. उनके जनाजे में बमुश्किल सौ-दो सौ लोग जमा हुए जिनमे से ज्यादातर दूसरे कामों से निकले शहरी थे.
लेखक कहते है,--  .... उनकी जिंदगी को नाकामयाबी के अध्ययन की तरह देखा जा सकता है  : आखिर हिंदुस्तान कि गंगा जमुनी तहजीब का अंत उनके दौर में हुआ और १८५७ के गदर में उनका योगदान कतई बहादुरी भरा नहीं था. कुछ इतिहासकार उन पर इल्जाम लगते हैं कि बगावत के दौरान उन्होंने अंग्रेजों से खतो किताबत जारी रखी, कुछ कहते हैं कि उन्होंने बागियों का नेतृत्व करके विजय हासिल करने में रूचि नहीं ली. लेकिन यह समझ पाना मुश्किल नहीं है कि ८२ साल की उम्र में जफर और क्या कर सकते थे. शारीरिक रूप से वह  कमजोर थे, दिमाग थोड़ा असंतुलित हो गया था और उनके पास इतना पैसा नहीं था कि वह सिपाहियों को तनख्वाह तक दे पाते, जो उनके झंडे के नीचे जमा हुए थे. अस्सी साला बुजुर्ग घुडसवार फ़ौज का नेतृत्व नहीं कर सकते थे. उन्होंने बहुत कोशिश की लेकिन बागी फौजों को दिल्ली की लूटमार करने से नहीं रोक पाए.  
ब्लूम्सबरी पब्लिशिंग से प्रकाशित ५८० पेज पूरी किताब १८५७ के उन आठ महीनों के लगभग हर दिन का एक प्रामाणिक ब्यौरा प्रस्तुत करती है. लेखक ने सैकड़ों दस्तावेजों, पत्रों और दूसरे सबूतों से अपने काम उल्लेखनीय बनाया है . खुशवंत सिंग लिखते हैं कि (द लास्ट मुगल) रास्ता दिखाती है कि इतिहास किस तरह लिखा जाना चाहिये .....


अंत में जफ़र कि मशहूर गजल -----

लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलमे नापयादर में

उम्रे-दराज मांग कर लाए थे चार दिन
दो आरजू में कट गए दी इंतजार में

बुलबुल को पासबां से न सैयाद से गिला
किस्मत में कैद लिखी थी फसले बहार में

कह दो हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ दिले दागदार में

एक शाखे-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा  दिए हैं दिले लालाजार में

दिन जिंदगी के खत्म हुए  शाम हो गई
फैला के पांव सोयेंगे कंजे-मजार में

कितना है बदनसीब जफर  दफ्न के लिए
दोग्ज जमीन भी ना मिली कू-ए-यार में


Monday, June 6, 2016

‘मेक इन इंडिया’ का समाजशास्त्र !!

आलेख 
जवाहर चौधरी 

इन दिनों मेक इन इंडिया की ओर सबका ध्यान है. देश की जनसंख्या  एक सौ बत्तीस करोड़ से अधिक हो गई है. हर साल लगभग एक करोड़ नए हाथ काम मांगने के लिए तैयार हो रहे हैं, जबकि पिछले वर्षों के रह गए बेरोजगारों की बड़ी तादात भी मौजूद होती है. उस पर देश भर में हर कोई चाहता है कि उसे सरकारी नौकरी ही मिले. हर साल एक करोड़ रोजगारों का सृजन करना किसी भी सरकार के लिए असंभव ही कहा  सकता है.
गाँधी जी का मत था कि आजाद भारत में ग्रामीण और कुटीर उद्योगों को सरकार प्राथमिकता दे, ताकि लोग छोटे उद्योगों में पीढ़ी दर पीढ़ी खपें और धन का विकेन्द्रीकरण भी हो. लेकिन नेहरु वैश्विक प्रवृतियों को देख रहे थे. दुनिया के साथ चलने और बढने के लिए बड़े उद्योग का चुनाव उन्होंने किया. यह नीति कितनी सफल रही है इस पर लंबी बहस हो सकती है, होती रही है. कलकत्ता, कानपुर, दिल्ली, मुंबई, देवास, इंदौर जैसे तमाम औद्योगिक नगरों को याद किया जा सकता है जहां प्रदूषण, भीड़, झुग्गी बस्तियां, अपराध, गन्दगी, बीमारी जैसी दिक्कतें विकराल रूप में मौजूद हैं. नदियाँ, और दूसरे जल स्त्रोत बर्बाद हैं, आज तक हम गंगा और यमुना को भी साफ नहीं कर पाए हैं, जबकि उनसे  धार्मिक भावना भी जुडी हुई है आमजन की. नगरों से पेड़ गायब हैं और हवा हानिकारक हो गई है, झुग्गियों में जीवन नारकीय है.
इतनी बातें  इसलिए याद आ रहीं हैं कि सरकार मेक इन इण्डिया के तहत दुनियाभर के उद्योगों को भारत में आमंत्रित कर रही है. निश्चित ही वे अपने साथ बड़े बड़े उद्योग ले कर आयेंगें, हमारी जमीनों का उपयोग करेंगे (यहाँ ध्यान रखना होगा कि भारत में जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है और अनुमानों के अनुसार २०३० में देश की जनसंख्या एक सौ बावन करोड़ से अधिक होने जा रही है.) ये उद्योग बिजली और पानी का भी उपयोग करेंगे ( देश में जलसंकट और बिजलीसंकट की स्थिति है.) माना कि बिजली बना लेंगे लेकिन जल का क्या होगा ? पर्यावरण को लेकर अलग से कुछ कहने की जरुरत नहीं है.

फिर यह चिंता भी है कि हमें मिलेगा क्या !? शायद कुछ रोजगार, कुछ टेक्स, उत्पादों पर भारत का नाम, वैश्विक प्रतिस्पर्धा में हम, दूसरे देशों के साथ आर्थिक संबंधों में कुछ लाभ. आज आधुनिक तकनीक में मैन-पावर बहुत काम लगता है. (हमारी कपडा मीलों के अधुनिकीकरण से हजारों लोग बेकार हुए हैं.) आटोमेशन की अत्याधुनिक तकनीक के साथ आने वाले ये उद्योग कितना रोजगार मुहैया करा पाएंगे पता नहीं. टेक्स भी कब मिलेगा ? पहले तो इन्हें ही तमाम छूट देना होंगी तब ये आयेंगे. मुनाफा तो वे अपने देश ही ले जायेंगे. पर्यावरण का क्या होगा, जल, बिजली और यातायात के सम्बन्ध हानि का कोई अनुमान लगाना कठिन हैं. ये कुछ प्रश्न हैं जिन पर निसंदेह विशेषज्ञों ने चिंतन किया होगा. फ़िलहाल इस योजना के लिए ९३० करोड़ का प्रावधान किया गया है लेकिन पूरी योजना पर बीस हजार करोड़ खर्च हो सकता है. सामान्यजन की चिंता मेक इन इंडिया के समाजशास्त्र को समझने की है.
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Friday, June 3, 2016

बिखरे बिखरे से दुनिया के इकलौते सौ करोड़

आलेख 
जवाहर चौधरी 


जब प्रधान मंत्री यह कहते हैं कि सबका साथ, सबका विकास तो उनकी बात पर विश्वास कर लेने को दिल चाहता है. सदियों से हमारे चिन्तक, समाजसुधारक और महापुरुष भी यही चाहते और कहते आये हैं. लोकतंत्र स्थापित हुआ, कानून बनें, शिक्षा बढ़ी, तकनीक का विकास हुआ इसने समाज के पारंपरिक स्वरुप को बदला. विभिन्न सेवाओं के लिए चली आ रही सदियों पुरानी पारस्परिक निर्भरता के बंधन ढीले होने लगे. इसमें कोई संदेह नहीं कि सामाजिक-आर्थिक स्तर पर भारतीय समाज अच्छी स्थिति में है. मात्र ८०-९० वर्ष पुराना प्रेमचंद के युग का समय तेजी से इतिहास में समा रहा है. लेकिन ग्लोबल समय में रहते हुए हमारी यह खुशफहमी कमजोर दिखाई देती है क्योंकि दूसरे देश दूसरे समाज इस यात्रा में हमसे तेज चल रहे हैं.
दरअसल हम अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं और परम्पराओं तथा तकनीक व सभ्यता के बीच द्वन्द की स्थिति में फंसे दिखाई देते हैं. जुगत सिर्फ इतनी कि जितना लाभ उतना समझौता. ना परम्पराएँ छूट रहीं हैं ना पकड़ी जा रही हैं. भारत में बहुसंख्यक समाज अपने को सौ करोड़ मानते हुए भी उस आत्मविश्वाश में नहीं होता है जिसमें उसे होना चाहिए. वह जानता है कि चार वर्ण और सैकड़ों जातियों में बंटा समाज जिसे चट्टान होना था वह अपनी अवैज्ञानिक सोच के कारण बलूरेत सा चूर चूर है.
विडंबना यह है कि दूसरे समाजों की मौजूदगी और प्रतिस्पर्धा के कारण खुद की एक ताकत भी होना जरुरी है. नकल में अक्सर अकल को नजरंदाज कर दिया जाता है. सामने वाले अपने समूह के प्रति उदार मान्यताओं के कारण कम संख्या में भी मजबूत दिखाई देते हैं. अपनी मान्यताओं को लेकर कट्टरता उन्हें मजबूत बनाती है. जबकि सनातन धर्मी जबाबी कट्टरता के प्रयास में बिखर जाते हैं.
हिंदू समाज के सामने अपने को सामाजिक स्तर पर संगठित करना सदियों से एक चुनौती रही है. हालाँकि समय बदला, हमारी व्यावहारिक समझ बदली, लेकिन सोच नहीं बदली. खासतौर से इनदिनों जबकि छोटी बड़ी जातियां अपने तथाकथित स्वाभिमान और पहचान के लिए रैलियां, जलसे, उत्सव और गौरव ग्रन्थ आदि निकलने में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं. ऐसा करते वक्त वे आने वाली पीढ़ी को भी उसी मानसिकता में ढालने का काम कर रहे हैं जिससे बाहर आने कि जरुरत है. कहा जाता है कि हिंदू समाज में उदारता बहुत है. हाँ, वह उदार दिखाई देता है, अनेक मामलों में (जिसके विस्तार में जाने की यहाँ गुंजाईश नहीं है) लेकिन अपने ही निम्न तबके, मसलन दलित, पिछड़े और छोटे काम करते हुए गुजरा करने वालों के प्रति वह सामान्यतः असहिष्णु रहा है, जबकि इनकी संख्या आधे से अधिक है. वे आँख की किरकिरी रहे हैं कभी परम्परावादी कारणों से तो इनदिनों आरक्षण जैसे कारणों से. यदि दुनिया की इस इकलौती सौ करोड़ जनसंख्या को एक मजबूत इकाई बनाना है तो उसे एक आतंरिक उदारता का विकास करना जरुरी है. कहने को चार चार शंकराचार्य नेतृत्व दे रहे हैं, हर तीन वर्ष में कुम्भ का समागम होता है लेकिन नहाने-धोने और विवादों के आलावा कुछ हासिल नहीं होता है. तकनीकी विकास और राजनितिक चेतना को छोड़ दिया जाये तो हिंदू समाज में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है. सौभाग्यवश लोकतंत्र है और कानून भी अनुकूल हैं. हमें परस्पर उदार होने की जरुरत है, इस नारे के मर्म को समझें- सबका साथ, सबका विकास .


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Monday, May 30, 2016

जनसंख्या किसीके खेलने का सामान न हो .....

          
आलेख 
जवाहर चौधरी 


 इन दिनों जब देश  के सभी राजनीतिक दल अपने अपने घरेलू मसलों में बुरी तरह से उलझे हुए हैं और चिंतित सरकार भी जश्न  मनाते हुए अपना आत्मविश्वास  बढ़ाने की कोशिश में है तब चुपके से एक आंकड़ा हमें लाल झंड़ा दिखाता नजर आता है और 30 मई 2016 को देश  की जनसंख्या 1,325,378,156 ( एक सौ बत्तीस करोड़, त्रेपन लाख, अठहत्तर हजार, एक सौ  छप्पन ) हो जाने सूचना देता है। हांलाकि अभी भी भारत विश्व  में दूसरे सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश  है लेकिन 2025 में उसका स्थान दुनिया में नम्बर वन हो जाएगा और तब हमारी जनसंख्या 146 करोड़ होगी। इन्टरनेट पर     IndianPopulation clock  दिखाई देती है जिसमें लगभग हर सेकेण्ड के साथ बढ़ती जनसंख्या को देखना एक डरावना अनुभव देता है। ( आप Indian population clock पर क्लिक कर एक बार उस घड़ी को अवश्य देखें ) जनसंख्या घड़ी बताती है कि देश  की जनसंख्या 2050 में एक सौ सत्तर करोड़ हो जाने वाली है तो हमें अपने बच्चों का ध्यान आता है कि वे किस तरह का भयानक जीवन जीने वाले हैं।  

                        आज हमारे पास रोजगार की समस्या है, हर साल लगभग सवा करोड़ की दर से बढ़ रही जनसंख्या के कारण देश  के सामने इतने रोजगार के सृजन की असंभव चुनौती है। हांलाकि सरकार अपने संभव उपायों से संघर्ष करती दिखाई देती है लेकिन अनुकूल परिणाम नहीं मिलते हैं। मेक इन इंडिया एक बड़ी पहल है जिसमें हम विश्व  के तमाम उद्योगो को अपने यहां आमंत्रित कर रहे हैं ताकि लोगों को रोजगार मिले। यह जानते हुए कि उद्योग अपने साथ क्या ले कर आते हैं। हमारा ही अनुभव है कि बड़े उद्योगों ने हमारा पर्यावरण ( जल, वायु, ध्वनि ) कितना खराब किया है। आज हमारी सारी नदियां प्रदूषित हैं, नगर झुग्गी बस्तियों से पीड़ित हैं, धूल-धुंआ और सफाई की समस्या कहां नहीं है। किन्तु हम आज हम मजबूर हैं, और सब जानते हुए भी बड़े उद्योगों के लिए लाल कालीन बिछाना पड़ रही है। 
                            राजनीतिक दलों को बिना लाभ हानि सोचे इस वक्त जनसंख्या को लेकर एकमत होना चाहिए और अपनी पक्ष रखना चाहिए। दुःखद है कि दो बड़े दल अपने अपने कारणों से इस मुद्दे पर चुप लगाए रहते हैं। 1977 के कड़वे अनुभव के बाद कांग्रेस प्रायः जनसंख्या नियंत्रण पर मुखर नहीं होती है और इसके उलट भाजपा में ऐसे लोग हैं जो अनेक बार ज्यादा बच्चे पैदा करने का मशविरा दे चुके हैं। क्षेत्रीय दलों को तो लगता है कि ये उनकी समस्या ही नहीं है। जो बाहर हैं उनकी सारी मशक्कत सत्ता में आने की है और जहां सत्ता में हैं वहां अगली बार फिर सत्ता में बने रहने की जुगत चलती रहती है। कोई भी राज्य अपने यहां की जनसंख्या के प्रति चिंतित दिखाई नहीं देता है। अगर वोट न हों तो गरीबों की ओर वे देखें भी नहीं ( शायद )। भ्रष्टाचार हमारे यहां मुद्दा है लेकिन कुछ नहीं हुआ, वह बढ़ा ही है। मंहगाई मुद्दा होती है लेकिन बढ़ी ही है। इसी तरह बेराजगारी, अपराध, घोटाले, सांप्रदायिकता, जातिवाद, दबंगवाद, पर्यावरण, आवास वगैरह क्या नहीं है जिस पर चर्चा नहीं होती। लेकिन जनसंख्या को कोई छूता नहीं । 
                              जनसंख्या का मुद्दा अगर इसी तरह अछूत बना रहा तो देश  इस पर सोचना भूल जाएगा। माल्थस ने कहा है कि अगर मनुष्य जनसंख्या को लेकर सचेत नहीं होंगे तो प्रकृति को आपदाओं के माध्यम से यह काम करना पड़ेगा। आज हम जलसंकट, आवास, भीड़भाड़, अपराध, फसाद, आदि तमाम दिक्कतों से गुजर रहे हैं। कुछ औंधी सोच के लोग यह कहते भी सुने जाते हैं कि आगे किसी युद्ध के लिए उन्हें जनसंख्या की जरूरत पड़ेगी। मानो जनसंख्या उनके खेलने का सामान हो। अगर ऐसा नहीं होना चाहिए तो एक सौ बत्तीस करोड़ लोगों को जनसंख्या पर सोचना चाहिए। यह अनिवार्य है।
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Thursday, May 26, 2016

यदि मैं प्रस्तुतकर्ता नहीं होता तो कोई और होता ......


   
 
आलेख 
जवाहर चौधरी 


वरिष्ठ कवि कृष्णकांत निलोसे का चौथा कविता संग्रह ‘‘समय, शब्द और मैं !’’ शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। पूर्वकथन में उन्होंने अपने को जिस तरह से व्यक्त किया, कविता और समय पर जो कहा  है वह मनन करने योग्य है। साहित्य प्रेमियों के लिए यहां प्रस्तुत है --

काल के विस्तार में समय का दृष्य
                              यदि कहा जाए कि ये कविताएं अभिव्यक्त होने के पूर्व भीअपने अस्तित्व में थीं, तो इसका तात्पर्य यही है कि कविता सर्वत्र तथा सर्वकालिक भाव में अपने में अंतर्निहित है। कवि तो मात्र  माध्यम है। समय के आगत और अनागत के बीच जो पुल बनता है, वह है शब्द। वह व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। इसी पुल पर चलता काव्य-पुरूष अपनी आवाजाही करता है। मैं तो मात्र इन कविताओं का प्रस्तुतकर्ता हूं। यदि मैं प्रस्तुतकर्ता नहीं होता तो कोई और होता। लेकिन ये कविताएं अवतरित होतीं जरूर, क्योंकि ये कविताएं समय-शब्द और चेतना /काव्य-पुरूष /की कार्य-कारण अभिव्यक्ति है। वैसे तो इसे संयोग ही माना जाना चाहिए कि मैं इन कविताओं का कवि हूं। परंतु कोई भी संयोग निप्रयोजित या अनायास नहीं होता। काल के अखंड वृहत-विस्तार में समय एक दृष्य है और काव्य-पुरूष एक दृष्टा, जो भाषा या शब्द के माध्यम से अपनी चेतना को अभिव्यक्ति देता है। 
                          जहां एक ओर कविता में अलगाव नहीं होता, तो वहीं सम्पूर्ण लगाव भी नहीं। कविता भला किसको किससे जोड़ेगी ? काव्य-पुरूष को घटना से या अन्य मनुष्य से ? मनुष्य को प्रतिबिंब से, परछाई से ? समय को शब्द से, उच्चारण से ? किन्तु समस्त घटना संसार तो काव्य-पुरूष की आत्मा में ही होता है।
                       कविता, काव्य चेतना है जो केवल जोड़ती नहीं, वह अपने भीतर अभिषिक्त  करती हैं। अभिमान रहित, स्नेह से बुला लाती हैं, लिवा लाती हैं। जन्म-मृत्यु, हास्य-रुदन, आंसू-लहू को, हृदय के शतदल कमल पर आहूत कराती है। सदा आंदोलित, नित्स संघटित घटना को, अविच्छिन्न समय को, अनबोली व्यथा को, अव्यक्त अभिमान को, अबूझ दुःख को, असंपूर्ण उच्चारण को और अनुपलब्ध यंत्रणा को, अपनी सार्वभौम चेतना से अभिषिक्त करती है। 
                                            एक ओर काव्य-पुरुष की अंतरात्मा बिल्कुल निष्कम्प, निर्विकल्प है, वहीं दूसरी ओर, समय अग्नि-शिखा तथा धुंएं का केन्द्र बिन्दु है - अधीर, अस्थिर और आन्दोलित। वहीं जन्म लेती है कविता। बाहर के सारे दृष्य भीतर के अंधेरे में प्रखर ताप से तप्त होते रहते हैं। वहीं राह तलाशता रहता है, ढूंढता रहता है काव्य-पुरुष। इस संकलन की कविताएं निमंत्रण देती हैं: आओ ! एक बार देख लो समय का चेहरा शब्द के दर्पण में।
-- कृष्णकांत निलोसे

Wednesday, May 25, 2016

पाप हैं कि धुलते ही नहीं !!


आलेख 
जवाहर चौधरी 


हाल ही में सिंहस्थ का एक माह तक चला मेला समाप्त हुआ है. खबर कि  है करोड़ों लोगों ने उज्जैन की
पवित्र शिप्रा नदी में डुबकी लगाई और अपने अब तक किये पाप धोए. गीता में लिखा भी है कि काया वस्त्र कि तरह है जिसे आत्मा बदलती रहती है. यानी मृत्यु के बाद आत्मा नया शरीर ग्रहण कर लेती है. यह क्रम चलता रहता है जब तक कि मोक्ष न हो जाये. मोक्ष का सम्बन्ध कर्म फल से होता  है. मनुष्य जो करता है उसके हिसाब से पाप या पुण्य उसके खाते में जमा होते रहते हैं. रोजाना पूजा-पाठ, ब्रत-उपवास करते भक्त जन पाप का भार कम करते हैं और पुण्य का बढाते हैं. रहा-सहा पाप कुम्भ आदि में धो लिया जाता है. इस प्रकार आम भारतीय श्रद्धालु पूरी तरह पवित्र और अपने नित्य जीवन में सुख-शांति का अधिकारी भी है. यहाँ इस बस बात को नहीं भूलना है कि आस्थावानों में अधिक प्रतिशत गरीबों का है जो प्रायः अशिक्षित है, जिनके पास रहने-खाने कि समस्या है, जो शारीरिक रूप से इतने कमजोर और हीन हैं कि उनमें जीवन संघर्ष का उत्साह देखने को नहीं मिलता है. बीमारी की हालत में वे चिकित्सा की जगह चमत्कार की आशा करते हैं. इसीलिए बाबाओं के जाल में फंसते रहते हैं.
               अब सवाल यह है कि इतनी आस्था, इतनी भक्ति, इतनी श्रद्धा और विश्वास कि भगवान पत्थर का हो तो भी पिघल जाये तो यहाँ करोड़ों आस्थावान नारकीय जीवन क्यों जी रहे हैं ! कहते हैं कि पूर्व जन्म के पापों के कारण इस जन्म में आदमी को भुगतना पड़ता है ! तो फिर पूजा, परिक्रमा, स्नान, घ्यान आदि का क्या हुआ. अभी लेखक हरि जोशी कि एक किताब पढ़ी जिसमे उन्होंने अपने अमेरिका प्रवास के संस्मरण लिखे हैं. वहाँ का जीवन उन्मुक्त है. लोग पढ़े लिखे और परिश्रमी हैं, अच्छा खाते-पीते हैं और आमतौर पर सब सुखी हैं. हरि जोशी लिखते हैं कि आश्चर्य होता है कि यहाँ घर्मिकता उतनी नहीं है जितनी कि भारत में है, चर्च भी रोज नहीं जाते हैं, प्रार्थना में भी अधिक समय नहीं लगते हैं ! लेकिन आम अमेरिकी सुखी है, समृद्ध है, ऐसा क्यों आखिर !! इसपर सोचने कि जरुरत है.
             हर तीन वर्ष में कुम्भ का मेला होता है, हरिद्वार, नासिक, प्रयाग यानी इलाहबाद और उज्जैन में बारी बारी से. इसलिये एक स्थान का क्रम बारह वर्षों के बाद आता है. इनमें करोडो लोगों की भागीदारी होती है और सरकारें जनता के टेक्स का हजारों करोड़ रुपया इंतजाम में खर्च करतीं हैं. साल दो साल पहले से तैयारी में मानव श्रम लगाया जाता है. निसंदेह इसका लाभ भी होता है कि उस स्थान को कुछ नए निर्माण मिल जाते हैं, कुछ व्यवस्थाएं हो जाती हैं, लेकिन उनकी उम्र बहुत कम होती है और अगले कुम्भ तक वे बनी नहीं रहती हैं. इस तरह देश में प्रायः हर समय कहीं न कहीं कुम्भ मेले कि तैयारी चलती रहती है. इतना धन और मानव श्रम विकास की योजनाओं में लगे तो देश के लोग ज्यादा सुखी हो सकते हैं. सवाल सिर्फ आर्थिक नहीं है. इन मेलों से जनता को प्रेरणा किस बात की मिलती है !! भाग्यवादी और अकर्मण्य लोग अपने विश्वास को पकडे बैठे रहते हैं. साधू-संत उन्हें पाखंड के पाठ पढ़ा कर वापस सदियों पीछे धकेल देते हैं. समय के साथ कोई उन्हें बदलने की शिक्षा नहीं देता है. पिछले साठ वर्षों में बीस से अधिक कुम्भ हो चुके हैं, इस बीच दुनिया बदल चुकी है लेकिन हिंदू समाज की सामाजिक समस्याएं वहीं की वहीं हैं, बल्कि कुछ बढ़ी ही हैं. मै नहीं कहता कि कोई दिन ऐसा आएगा जब इस तरह के मेलों की प्रासंगिकता पर लोग प्रश्नचिन्ह लगाएंगे. जिन करोड़ों लोगों को सैकड़ों वर्षों से अंधविश्वासी बनाया जाता रहा हो, और अब सरकारें भी भक्त की तरह सहयोग में लगी पड़ी हो तो बदलाव की उम्मीद कम हो जाती है. लेकिन एक सवाल पर विचार करना ही चाहिए कि इस कवायद से हासिल क्या होता है. नई पीढ़ी से बहुत आशा है, इस तरह की बातों को शायद वही समझे.

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Tuesday, February 23, 2016

इतिहास के पन्नों पर आत्माओं का जिक्र !

            

आलेख 
जवाहर चौधरी 

पिछले जन्म में ईसाई रहा हो, आज मेरा शरीर हिंदू है, और अगली बार मुस्लिम के घर पैदा हुआ तो ! प्रश्न सामने आता है कि आस्थाएं शरीर की हैं या मेरी !? मैं शायद तब भी वही था जो इस जन्म में आज हूँ और आगे भी वही रहूँगा. आज जो शरीर हिंदू समर्थक है वो कल इसका विरुद्ध भी हो सकता है. गीता में कहा गया है कि जिस तरह हम वस्त्र बदलते हैं, आत्मा उसी तरह शरीर बदलती है. वस्त्र के साथ हम नहीं बदलते, इसी तरह शरीर बदलने से भी हम नहीं बदलते हैं. मुझे विश्वास है कि मैं वही हूँ, निरंतर वही. निष्ठाएं, मान्यताएं, पारस्परिक सम्बन्ध आदि सब मिले हुए शरीर के साथ हैं. यहाँ तक कि सुख-दुःख भी शरीर की अनुभूतियाँ हैं. शरीर से अलग होने का संज्ञान होने पर इन अनुभूतियों की प्रबलता कम हो जाती है. ऐसा मैंने अनेक बार अनुभव किया है. जब मैं अपने को भूल जाता हूँ तो शरीर हो जाता हूँ. तब शरीर की हर अनुभूति निर्बाध मुझ तक पहुंचती है. कई बार बुखार और अन्य शारीरिक पीडाओं के समय ऐसा लगता भी है. जीवन में अनेक उतर चढाव आते हैं, लेकिन वह सब शरीर और उसकी चेतना के हिस्से में आया भाग है. अनेक बार बड़े बूढों के मुंह से सुना है कि देह धरे का दंड है सो देह को भोगना ही पड़ेगा. और भोगती भी वही है.
शायद इसका कारण उम्र हो, अनचाहे ही इन दिनों बार बार यह प्रश्न कौंध रहा है कि मैं कौन हूँ. खासकर उस वक्त जब एकांत में होता हूँ.( उम्र के साथ एकांत के अवसर भी बढ़ रहे हैं ) कई बार यहाँ वहाँ पढा-सुना है कि हम वो नहीं हैं जिस पहचान के साथ अब तक जीते रहे हैं. भिन्न भूमिकाओं में हमारी भिन्न पहचान हैं पर वह पहचान शरीर की है, शरीर के साथ हैं. हालाँकि शरीर मेरा है और मैं उसका ध्यान भी रखता हूँ, उसे पसंद भी करता हूँ, उसमें अपनापन महसूस करता हूँ, ;लेकिन उससे आलग हूँ. जैसे एक बच्चा अपने खिलौने पर अपना स्वामित्व मानता है, उसे पसंद करता है, उसके साथ खेलता है. लेकिन उसका अस्तित्व खिलौने से अलग होता है. न वो खिलौने में है और न खिलौना उसमें है. 
 किन्तु ये भी तय है कि मुझे एक दिन अपना शरीर छोडना है जैसा कि हर किसी को छोडना है. उस शरीर को जिसने जाने अनजाने तमाम वो काम किये जिसमें मेरा सहयोग और सहमती नहीं थी. यानी मेरी इच्छा के विरुद्ध, कई बार मना करने के बाद भी. मैं बहुत सी बातों को नहीं मानता हूँ, लेकिन शरीर, जिस परिवार में, समाज में या जिस व्यवस्था में निरंतर बना हुआ है, समाज के सम्मान को रखने और स्वयं को बनाये रखने के लिए उसे बहुत कुछ ऊँचा-नीचा करना पड़ता है. मेरी सोच अलग है और बने रहने के लिए शरीर की जरुरत अलग. किसी बात पर मैं राजी भले ही नहीं हूँ पर शरीर को करना पड़ता है. दो अलग अलग इकाइयां हैं जो आपस में इस तरह से उलझी हुई हैं जिन्हें पृथक देखना कठिन है. शरीर को भूख लगती है तो वह मुझसे कुछ नहीं मांगता, व्यवस्था के अंतर्गत उसके जैसे दूसरे शरीर से मांगता है. मैं सब देखता हूँ किन्तु भौतिक जगत में मेरा हस्तक्षेप नहीं के बराबर है. फिर एक सवाल कि। ...... आप क्या हैं ? और क्यों हैं ?
आंगन में एक पिंजरा लटका है, उसमें  एक चिड़िया है. समझ में नहीं आता कि चिड़िया है इसलिए पिंजरा है या पिंजरा है इसलिए चिड़िया है ? लेकिन सच्चाई यह है कि पिंजरा और चिड़िया दोनों हैं. इनमें से एक भी नहीं हो तो दूसरा अप्रासंगिक हो जाये. पंछी है तो पिंजरे का अर्थ है और पिंजरा है तो पंछी है. मैं हूँ यह बात मुझे शरीर से जोड़ती है और जब जानना चाहता हूँ कि मैं कौन हूँ तो इसका सिरा अनंत की ओर मुड़ जाता है. वैज्ञानिक कहते हैं कि ब्रह्माण्ड में अनेक पृथ्वियाँ हैं, सैकड़ों की संख्या में. वहाँ जीवन है, म्रत्यु भी होगी ही. बहुत संभव है कि आत्माएं एक पृथ्वी से दूसरी पृथ्वी पर आती जाती रहती हों. फिर मेरा क्या है ? मेरे शरीर का क्या ? धन संपत्ति, नाते रिश्ते, लिया दिया, कुछ भी नहीं ! न विचार, न तर्क, न धर्म, न  वाद कोई. अगर इतना निरर्थक है जीवन, इतना  निष्प्रयोजन है शरीर, तो विचलन होता है. कृष्ण ने भी गीता में आत्मा की महिमा बताई है, शरीर को तो मरने-काटने और नष्ट करने योग्य, दूसरे शब्दों में अर्थहीन कहा है...... तब ?....... 
युद्ध तो शरीर को ही करना पड़ा. 
सुनिए, कोई कह रहा है ..... तुम आत्मा हो, आत्मा अमर होती है .... किन्तु इतिहास शरीर बनाते हैं, ... इतिहास  के पन्नों पर आत्माओं का जिक्र नहीं होता है .
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Thursday, July 30, 2015

टीवी के लिए आचार संहिता हो






आलेख 
जवाहर चौधरी 


इनदिनों घरों में  लोग अक्सर चिढ़ कर टीवी बंद कर देते हैं। उस दिन मैंनें भी बंद किया और रात तक चालू नहीं किया। पिछले तीन-चार दिनों से एक फांसी को लेकर हर चैनल पर इतनी घमासान मची थी जितनी शायद उस दिन भी नहीं मची जब 257 बेकसूर लोग घमाकों में मारे गए थे और सैकड़ों घायल हुए थे। एक लोकतांत्रिक देश  की बुनियाद में संविधान होता है। देश का हर नागरिक कानून के दायरे में है। हमारी न्याय व्यवस्था पर धीमें काम करने का आरोप अक्सर लगता रहा है। उक्त प्रसंग में भी देखें तो मामला 22 साल पुराना है। यह भी कहा जाता है कि कानून की तमाम गलियों के कारण कई बार अपराधी छूट भी जाते हैं। कानून स्वयं मानता है कि चाहे सौ अपराधी छूट जाएं पर एक बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए।
                          इस सिद्धांत और विचार के प्रकाश में अपराधी को अपना बचाव करने के असीम अवसर हमारी न्याय व्यवस्था प्रदान करती है। ऐसे में अगर सर्वोच्च न्यायालय अपना काम कर रहा है तो टीवी चैनलों को अनावश्यक बहसें कर वातावरण को कलुषित करने की क्या जरूरत है ? नेता तो अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रख कर बयान देते हैं न कि सत्य, दे और नैतिकता के आधार पर बोलते हैं। जनता इस बात को समझती भी है और उनके बयानों की प्रायः खिल्ली उड़ाती है। किन्तु अफसोस टीवी चैनल इनसे अपनी रोटी या जिसे ये लोग कहते हैं टीआरपी सेंकती है। उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि टीआरपी से अंततः कौन जुड़ा हुआ है। टीवी के उनके दर्शक  ही टीआरपी हैं। दर्शक  मासूम ही सही पर टीवी के अन्नदाता हैं। टीवी को इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि खबरों को मिर्च-मसाला लगा कर इस तरह प्रस्तुत न करे जिससे किसी को भड़कने या भड़काने का मौका मिल जाए। जनता बड़े प्रयासों और धैर्य से सामाजिक सौहार्द का सृजन करती है।  यह बात और है कि स्थिति बिगड़ने पर खबरों के बाजार में नया बिकाऊ  माल आ जाता है। किन्तु चैनलों को टुच्ची व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा से बचना चाहिए। सरकार का भी दायित्व बनता है कि टीवी के लिए आचार संहिता का सख्ती से पालन करवाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर खुल्ली छूट नहीं मिल जाना चाहिए। आखिर दे में फिल्मों के लिए भी सेंसर बोर्ड है, नियम कायदे हैं तो टीवी ‘नंदी’ बने बेलगाम  कैसे घूम सकते हैं। दंगों के समय दंगा-लाइव, घमाकों के समय घमाका-लाइव, द्वेष फैलाने वालों के साथ उकसाती बहसें-लाइव ! पश्चिम  वालों ने इसे इडियट बाक्स कहा लेकिन हमारे यहां यह अग्ली-बाक्स होता जा रहा है।
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Wednesday, June 17, 2015

वेलकम विनाश !

                 

आलेख 
जवाहर चौधरी 


मुझे याद है उन्नीस सौ सत्तर-इकहत्तर के दिन थे जब देश  में हमारी बढ़ रही जनसंख्या की चिंता सुर्खियों में आ गई थी। हालाॅकि उस समय जनसंख्या करीब सत्तवन करोड़ ही थी, लेकिन जनसंख्या की रफ्तार को समझ लिया गया था। पत्र-पत्रिकाओं में खूब लेख छप रहे थे। ‘जनसंख्या विस्फोट’ के खतरों पर बहसें थी और माल्थस आदि के हवाले से कहा जा रहा था कि अगर हमने अभी कुछ नहीं किया तो प्रकृति अपने तरीके से जनसंख्या नियंत्रित करेगी किन्तु वह भयानक होगा। विद्वान बता रहे थे कि आने वाले दशकों में हमें कितना अन्न, कपड़े, घर और रोजगार की जरूरत पड़ेगी। कितने स्कूल और अस्पताल चाहिए होंगे। यह भी बताया जा रहा था कि जनसंख्या अधिक हुई तो इंसानों को घोड़ों की तरह खड़े खड़े सोना पड़ेगा। कुछ अतिवादियों का मानना था कि जनसंख्या रोकी नहीं गई तो लोगों को नरमांस खाना पड़ सकता है। 
                         सौभाग्य से विज्ञान ने हमारा साथ दिया और आज जब देश की जनसंख्या सवा सौ करोड़ है और  हालात इतने बुरे नहीं हैं जितनी  की कल्पना की गई थी। अनेक कमियों के बावजूद देश मजबूत हुआ है, हमारा लोकतंत्र न केवल दुनिया का बड़ा लोकतंत्र है अपितु श्रेष्ठ भी है। अब तो यह भी मानना होगा कि जनता परिपक्व हो गई है और सरकार पर केवल विपक्ष ही नहीं वह भी निगाह रखती है। शिक्षा का प्रतिशत बढ़ा है, प्रतिव्यक्ति आय बढ़ी है, मीडिया की पहुंच आखरी आदमी तक बन गई है। लेकिन अफसोस तूफानी गति से बढ़ रही जनसंख्या को लेकर देशव्यापी सन्नाटा है।
1975-76 में जब जनसंख्या वृद्धि की चिंता चरम पर थी, संजय गांधी ने जनसंख्या नियंत्रण के नेक इरादों से कुछ कठोर कदम उठाए। परंपरावादी सोच के चलते लोगों ने इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। विरोध हुआ तो दबाव भी बनाया गया। अगले चुनाव में अन्य के साथ इस मुद्दे को भी विरोधियों ने भुना लिया। कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। किन्तु ज्यादा दुखःद यह है कि उसके बाद राजनीतिक दलों ने जनसंख्या नियंत्रण का नाम लेना भी बंद कर दिया। डर ने एक जरूरी सरकारी नीति को नितांत स्वैच्छिक बना दिया। उस पर आश्चर्यजनक यह कि कुछ सिरफिरे-मूढ़ नेताओं ने आठ-दस बच्चे पैदा करने के लिए उकसाना शुरू कर दिया ! 
                      आज हर बात की चिंता है, हर छोटे-बड़े मामले पर घरने प्रदर्शन  हैं। कई कई महात्मा गांधी पैदा होने की कोशिश  में हैं और दिल्ली में मैदान पकड़ने की फिराक में रहते हैं। लेकिन जनसंख्या को लेकर कोई कुछ नहीं बोल रहा है। वैज्ञानिक बता रहे हैं कि भारत 2030 में 145 करोड़ के साथ दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा, यानी चीन से भी आगे। 2050 में भारत की जनसंख्या 160 करोड़ के आसपास होगी। अभी 125 करोड़ में दुनिया का हर छटवा आदमी हिन्दुस्तानी है। आप देख सकते हैं कि हर जगह भीड़ है। बाजार हों, रेल्वे स्टेशन हो, सड़क हो, होटल-रेस्त्रां हों, स्कूल-कालेज हों, हर जगह भीड़ ही भीड है। यात्रा करना अब नरक भोगने के बराबर है। चिंता होती है कि हम अपने बच्चों के लिए कैसी दुनिया छोड़ कर जा रहे हैं !! 1947 में जब हम आजाद हुए थे तो मात्र पैंतीस करोड़ थे। इस बात को हर कोई भूल चुका है ऐसा लगता है। चीन ने अपनी जनसंख्या के लिए जरूरी कदम उठाए और एक बच्चे की नीति लागू की। आज उसकी वुद्धि नियंत्रण में है। जब हम जनसंख्या बढ़ाने में लगे थे चीन ने अपना ध्यान ताकत बढ़ाने तें लगाया। आज वह अमेरिका के बाद दूसरी महाशक्ति है। हमारे सभी राजनीतिक दलों को देश हित में एक सामूहिक निर्णय ले कर जनसंख्या नियंत्रण की पुख्ता नीति बनाना होगी। यदि शीघ्र ऐसा नहीं हुआ तो हमारी जनसंख्या को बड़े विनाश के लिए तैयार रहना होगा। 

Saturday, March 14, 2015

ठहराव के खिलाफ जिंदगी

                      

आलेख 
जवाहर चौधरी 

  आज की भागती जिन्दगी ने हर तरह के ठहराव को नकार दिया लगता है। परिवार को ही लीजिए, इस समय लाखों की संख्या में तलाक के प्रकरण कोर्ट में लंबित हैं और प्रतिदिन सैकड़ों नए प्रकरणों की भूमिका तैयार हो रही है। मुंबई, दिल्ली या बैंगलोर के आंकडे सुर्खियों में दिखाई दे जाते हैं लेकिन छोटी जगहों में भी पारिवारिक तनाव हर चौथे घर में जगह बना चुका दीखता है। जहां तलाक का सब्र और समझ नहीं हैं वहां आत्महत्या और हत्या तक हो रही हैं। हाल ही में दिल्ली के एक इंजीनियर पर पत्नी को क्रिकेट के बैट से पीट कर मार डालने की खबर चौंका रही है। छोटे शहर में भी पारिवारिक तनाव/विवाद के चलते आत्महत्या की खबरें प्रायः छपती रहती हैं। यह अच्छा है कि स्त्रियों में शिक्षा, सामर्थ्य  और चेतना बढ़ी है, इसके साथ ही उनकी अपेक्षाएं और साहस भी बढ़ा है। इस विषय पर कारण आदि पर जाने से विस्तार अलग हो जाएगा। दरअसल इस पृष्ठभूमि पर मुझे एक बहुत पुरानी घटना याद आ रही है।
                लगभग पैंतालीस साल पहले का वाकया है, हमारे एक साथी रामेन की शादी होना तय हुआ। उन दिनों लड़की देखने या लड़के से पूछने का रिवाज नहीं था। बड़े अपने हिसाब से देखभाल कर सब तय कर लिया करते थे। लड़कों की हिम्मत नहीं कि कोई सवाल कर लें। खेती करने वाले परंपरावादी कृषक संयुक्त परिवार, और हर घर में सामंती रवैया। ऐसे में रामेन को पता चला कि जिस लड़की से उसका विवाह होने जा रहा है वह सांवली और लंगड़ी है। उस जमाने में इधर लड़कियों के पढ़ेलिखे होने का तो सवाल ही नहीं था। खुद रामेन किसी तरह दसवीं कक्षा तक पहुंचा था। रामेन की हिम्मत नहीं कि अपने पिता से या अपने घर में किसी से इस विषय में कुछ कह पाए। मैं दूसरे परिवार का, चौधरी पुत्र। हमारा बीज यानी सीड्स का व्यापार भी था। रामेन के पिता प्रायः हमारे प्रतिष्ठान पर बैठते थे सो मेरा उनसे राफ्ता था। रामेन मुझसे सालेक भर छोटा है। इस दृष्टि से मैं भी उसके पिता का सामना करने का अधिकार तो नहीं ही रखता था। लेकिन बात जब कहीं बन नहीं पा रही हो तो साहस किया। कहा कि रामेन लंगडी लड़की से विवाह नहीं करना चाहता है। सुन कर वे गंभीर हो गए। बोले- अगर लड़की विवाह के बाद लंगड़ी होती तो क्या हम या रामेन उसे निकाल देते ? मैंने कहा वो बात अलग होती। लेकिन अभी तो ......। 
                        वे बोले -‘‘ अगर कहीं रामेन लंगडा होता तो क्या उसका विवाह नहीं हो पाता ? कोई न कोई लड़की तो उसे पति बनाती ही ना ?
                         इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाया मैं। उन्होंने साफ किया कि - ‘‘ शादी -ब्याह दो परिवारों का संबंध है, बच्चे उसमें निमित्त मात्र होते हैं। रिश्तेदारी  में खानदान देखा जाता है। लड़की लंगडी सही पर उसके बच्चे अच्छे होंगे। परिवार को और क्या चाहिए। ...... और अब हमने जुबान दे दी है। बात अटल है और उससे पीछे हटना कतई संभव नहीं है। ’’
                         रामेन की नहीं चली। हम विवाह में शामिल हुए। उस जमाने में वैसे भी पत्नी को ले कर घूमने का रिवाज नहीं था। विवाह होते ही सारी समस्याएं भी समाप्त हुई मान ली गईं। जीवन की चक्की प्रेम से चल पड़ी। एक पैर का दोष  कहीं बाधा नहीं बना और वे जीवन का पहाड़ लांध गए। 
                       हाल ही में रामेन के बेटे के विवाह का निमंत्रण मिला तो गुजरा हुआ सामने आ गया। लड़की ठीक है लेकिन गरीब घर की है। रोमन बोला- ‘‘ अंग की पूरी है और यही हमारे लिए बड़ी बात है। बच्चे खुश  रहें और क्या चाहिए। लगा उसने पैतालीस साल पुरानी कमी को आज सुधार लिया है। लेकिन तलाक कोई विचार न पहले कहीं था और पक्के तौर पर आगे भी नहीं होगा। पारिवारिक गरिमा की वैसी मिसाल शायद अब तो पिछड़ापन ही माना जाएगा। 
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