Friday, May 28, 2010

* Caste census / जातिवार जनगणना




आलेख 
जवाहर चौधरी 
         

          पहली बात तो यह कि हम मानते हैं कि जाति बुरी है । लेकिन यह भी मानना होगा कि हम , अगड़े-पिछड़े सब , चाहे-अनचाहे इससे चिपटे बैठे हैं । जो लोग कहते हैं कि हम जाति नहीं मानते वे कच्छा-बनियान जाति का ही पहनते पाए जाते हैं ।




यह देखना होगा कि इसकी जिम्मेदारी किसकी है ? पिछड़े और दलित यदि हीन स्थिति में नहीं हों तो उन्हें अपमानित हो कर आरक्षण लेने की क्या जरुरत है ! उनकी इस हीन दशा की जड़ों में कौन है ? अगड़े यदि अपनी जाति-गौरव को परचम की तरह प्रयोग करेंगे , जाति उनका परिचय-पत्र /आई-कार्ड/ होगा , वे जाति के आधार पर आर्थिक ,सामाजिक, राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संगठित होंगे तो शेष रहे लोग अपने आप निम्न जाति के घोषित हो जाएंगे । अगर हम बकरियों के झुण्ड में से दस को श्रेष्ठ नस्ल का घोषित करेंगे तो शेष रही अपने आप नस्लहीनता की श्रेणी में आ जाएंगी । अपने को श्रेष्ठता के पद से मंडित करने वालों के लिए कहीं यह गले की हड्डी साबित होता प्रतीत हो रहा है ।


            दूसरी बात , जाति है तो उसकी गणना करने में क्या दिक्कत है ! अगर शरीर में कोई बीमारी है तो रक्त परीक्षण से बचना कोई उपाय नहीं है । सरकार उन्हें कोई आरक्षण दे न दे, कोई योजना बनाए न बनाए किन्तु इससे हमारी सामाजिक संरचना तो स्पष्ट होगी । यह तो साफ होगा कि ‘वोट हमारा-राज तुम्हारा’ जैसे नारों की हकीकत क्या है । मलाई मारने वाले किस जाति के लोग ज्यादा है और सड़क-भवन जैसे निमार्ण कार्यों व कृषि जैसे कामों में हाड़ तोड़ने वाले कौन और कितने हैं । अभी एक परदा है और उसके पीछे सत्ता का अवैध देह व्यापार हो रहा है । यह परदा हटना चाहिए ।




सूचना का अधिकार जबसे समाज को मिला है बहुत सी बेजा हरकतों पर डर सा बैठ गया है । देश की जनता जानना चाहती है कि जो जाति प्रथा समाज, धर्म और राजनीति को इतने गहरे तक प्रभावित कर रही है वास्तव में इसकी स्थिति क्या है । जो नासूर सदियों से शरीर में मौजूद है , उसे पाले रखने की बजाए एक बार नश्तर से गुजर जाने देना अच्छा है । जो भी होगा जन्नत की हकीकत सामने आएगी ।




शंका व्यक्त की जाती है कि लोग लालच में अपनी जाति बदलने में संकोच नहीं करते हैं । यह सही है कि लालच के कारण ही लोग अपमानों के बावजूद अपनी जाति से चिपके रहना चाहते हैं । हमें अपने चिंतन में इस सत्य को शामिल रखना चाहिए कि आजाद भारत में आरक्षण ही जिसने दलितों को हिन्दू समाज में रोके रखा है वरना उन्हें बौद्ध, सिक्ख, ईसाई या मुसलमान हो जाने में ज्यादा लाभ है । हालांकि यह बहस का विषय हो सकता है ।



बहुत दिनों बाद आप पानी की टंकी साफ करना चाहते हैं तो जरुरी है कि पहले उसे अच्छी तरह मचाया जाए । इससे बेशक पानी गंदा होगा , लेकिन टंकी की सफाई के लिए यह आवश्यक है । जातिवार जनगणना से जिनकी बंधी मुट्ठी लाख की है और खुल जाने पर जिसके खाक हो जाने का डर जिन्हें ज्यादा है वे शोर ज्यादा मचा रहे हैं ।




Sunday, May 16, 2010

KHAP KE KHILADI खाप के खिलाड़ी

     
आलेख 
जवाहर चौधरी 
 
         हरियाणा की खाप पंचायतों की चर्चा इनदिनों देश के सुदूर कोनों तक में हो गई है । हिन्दुओं में विवाह तय करते समय मंगल- शनि व गोत्र का ध्यान रखने की पंरपरा सामान्य रही है । किन्तु पिछले कुछ समय से इस मामले जिस तरह की कट्टरता देखने को मिल रही है वह चौंकाने वाली और दुखःद है । दरअस्ल समय के बदलाव के साथ हमारी जीवन शैली और परिस्थितियों में बहुत बदलाव हुआ है । जहां शिक्षा और समझदारी थी वहां बदलाव को जल्दी स्वीकारा गया और जहां पिछड़ापन बना हुआ है वहां अभी भी पंरपराओं के पीछे लोग अपने ही बच्चों की जान लेने पर अविश्वसनीय रुप से आमादा हैं ।



चिंताजनक बात यह है कि खाप पंचायतों का फितूर जाने अनजाने अन्य लोगों को भी अपनी चपेट में ले रहा है । मीडिया में चर्चाएं हो रहीं हैं, जहां लोग गोत्र को भूल चुके थे वहां प्रयास करके इसकी धूल झाड़ी जाने लगी है ।

राजस्थान में वर्षों बाद रुपकुंवर नाम की युवती सती हुई थी तो सती प्रथा के पुनर्जीवित हो जाने का खतरा पैदा हो गया था । अनेक विद्वानों और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इसके समर्थन में लिखना-कहना आंरभ कर दिया था । लेकिन सौभाग्य से कानून ने सख्ती कम नहीं की और देश वापस दलदल में गिरने से बच गया ।

खाप के खिलाड़ी नेता इनदिनों राजनीतिक रुप से दबाव बनाना चाहते हैं कि उनकी गोत्र मान्यता के अनुरुप संविधान में संशोधन किया जाए । जाति-राजनीति करने वाले लोकदल के नेता ओमप्रकाश चौटाला को तो खाप- शरण होने में कोई शरम नहीं आई होगी किन्तु कांग्रेस के शिक्षित और युवा सांसद नवीन जिन्दल का खाप की चपेट में आना चौंकाने वाला है । ये दोनों हाल ही में खाप-पंचायत में उपस्थित हुए, उनका समर्थन किया और उन्हें कानूनी मान्यता दिलवाने का भरोसा भी दे आए । चौटाला  तो खाप-दूत बन कर गृहमंत्री चिदंबरम से मिले भी और हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन की मांग भी कर आए । यह शुरुवात है , यदि वे खाप के सामने घुटने नहीं टेकते तो चुनाव में उनके विरुद्ध वोट न देने का ‘फतवा’ जारी हो सकता है ।

सवाल यह है कि हिन्दू विवाह अधिनियम देश के नब्बे करोड़ के लिए प्रभावी है । एक क्षेत्र या जाति समूह के हिसाब से इसमें बदलाव की मांग नहीं की जा सकती । जातियों में अपने स्तर पर अनेक परंपराएं होती हैं जिनके पालन को लेकर लोग कानून की उपेक्षा करते भी हैं । किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि कोई परंपरा कानून से उपर हो गई । पुराने समय में सती प्रथा एक परंपरा ही थी । जिस समय राजा राममोहन राय ने अपनी भाभी के सती हो जाने के बाद इस मुद्दे को उठाया, देश में प्रतिवर्ष लगभग एक हजार आठ सौ स्त्रियां सती हो रही थीं, और यह उस समय संबंधित जातियों का मान्य आचरण था । राजस्थान, हरियाणा, उ.प्र., बिहार और म.प्र. में भी अक्षय तृतिया और देवउठनी ग्यारस पर बालविवाह बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं । दहेज प्रथा ,घूंघट प्रथा आदि अनेक परंपराएं हैं जिनके प्रति जातियों का दुराग्रह होता ही है । क्या इन्हें कानून सम्मत बनाने की हम कल्पना भी कर सकते हैं ? नवीन जिन्दल जैसे युवा व शिक्षित नेताओं से अपेक्षा यह है, चूंकि वे नई दुनिया को समझने वाले हैं अतः पिछड़े लोगों की दृष्टि पर जमी धुंध साफ करें । उन्हें नई दिशा दें और नए विचारों के लिये जमीन तैयार करें । गांधीजी जब देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तब समाज में छूआछूत और सवर्णों के अनुदार आचरण की परंपरा मौजूद थी । लेकिन उन्होंने अपनी शक्ति इन्हें ठीक करने में लगाई, जो उस समय आसान काम नहीं था । तर्क दिया जा सकता है कि गांधीजी को किसी से वोट नहीं चाहिए थे । लेकिन आज कांग्रेस में राहुल गांधी हैं जिन्हें वोट चाहिए और वे उ.प्र. के दौरों में, घोर जातिवादियों के बीच जाते हुए भी जातिप्रथा या खाप जैसी बेहूदा बातों का समर्थन नहीं कर रहे हैं ! स्पष्ट, आधुनिक और प्रगतिशील विचारों व आचरण वाले नेता कभी जातियों के वोट से नहीं बने हैं । नेहरु, इंदिरा, शास्त्री, अटलबिहारी या अड़वानी अपनी जातियों के वोट से देश के नेता नहीं बने । जाति से केवल चौटाला  जैसों की राजनीति चलती है जो कितनी दीर्घकालीन और कितना विस्तार पाती है यह किसी से छुपा नहीं है ।


Tuesday, May 11, 2010

Matrubhoomi: A Nation Without Women

आलेख 
जवाहर चौधरी 


मातृभूमि
ए नेशन विदाउट वुमन



                    भारत में कन्या भ्रूण हत्या का प्रसंग सदियों पुराना है । इसके कारणों को दोहराने की आवष्यकता नहीं है । पिछली जनगणना में हमारे अनेक राज्यों में स्त्री-पुरुष अनुपात में चिंताजनक अंतर सामने आया है । पंजाब और हरियाणा में तो लड़कियों की इतनी कमी है कि वहां दक्षिण भारत और अन्य जगहों से लड़कियां खरीद कर विवाह करने के प्रकरण सामने आए हैं । आज भी लड़कियों को मारने की प्रथा बंद नहीं हुई है । फर्क केवल यह हुआ है कि भ्रूण परीक्षण से पता करके अब उन्हें जन्म से पहले ही मार दिया जाता है ।

                 ‘मातृभूमि - ए नेशन विदाउट वुमन’ मनीष झा की 2005 में रिलीज, इस मायने में एक महत्वपूर्ण फिल्म है कि यह कन्या हत्या की इस समस्या को गहरे असर के साथ दर्शक के मन में उतार देती है । फिल्म का आरंभ प्रसव के दृश्य से होता है । लड़की पैदा होती है जिसे दूध के तपेले में डुबो कर मार दिया जाता है । यह प्रथा, विकृत प्रवृत्ति और मानसिकता का प्रतिनिधि दृश्य आक्रोशित करने वाला है ।
गांव में पांच लड़कों और अधेड़ जमींदार पिता का एक परिवार है । लड़के विवाह योग्य हैं पर पंड़ित द्वारा आसपास दूर दूर तक छान मारने पर भी कोई लड़की उपलब्ध नहीं है । ब्लू फिल्म के शौकीन गांव में हालात इतने बिगड़े हुए हैं कि छोटे लड़के यौन शोषण का सहज शिकार हैं, यहां तक कि गाय-भैंस और बकरियों को भी नहीं छोड़ा जाता है । बाप दहेज की लालच में लड़के को लड़की के कपड़े पहना कर ब्याहने से नहीं चूक रहे हैं । पूरा गांव स्त्री की छाया से भी महरुम है ।

                ऐसे में पास ही कहीं एक लड़की कलकी का पता चलता है जिसे पिता ने उसे बहुत छुपा कर पाला है । पंडित जमींदार को यह सूचना देता है । बात आगे बढ़ती है पर लड़की का पिता एक लाख रुपए के प्रस्ताव के बावजूद जमींदार के बड़े लड़के से ज्यादा उम्र का होने के कारण अपनी लड़की का विवाह नहीं करता है । लेकिन पांच लाख व पांच गाएं ले कर पांचों लड़कों से लड़की ब्याह देता है । ससुराल में कलकी को अपने पतियों के साथ ससुर को भी झेलना पड़ता है । सप्ताह में हर दिन कलकी को एक के साथ सोना होता है । सारे पुरुषों में सबसे छोटा बेटा सुदर्शन और स्वभाव में मानवीय होने के कारण कलकी उसे पसंद करने लगती है । यह बात अन्य भाइयों और पिता को खटकती है और षड़यंत्र पूर्वक वे उसकी हत्या कर देते हैं । जाहिर है अब कलकी पर इनकी पशुता दूने वेग से आक्रमण करती है ।



                  मौका देख कर वह घरेलू नौकर-लड़के रघु के साथ भागने का असफल प्रयास करती है, फलस्वरुप रघु को जान गंवाना पड़ती है । अब सजा के तौर पर उसे गौशाला में सांकल से बांध दिया जाता है । बारी बारी से ‘मर्द’ उसका यौन शोषण करते रहते हैं । इसबीच गांव के दलित जमींदार के घर नौकर रहे अपने लड़के रघु की मौत का बदला लेने के लिये रात में छुप धावा बोलते हैं और गौशाला में जमीदार की बहू कलकी को बंधा देख उसके साथ बलात्कार कर लौट जाते हैं । कलकी गर्भवती हो जाती है ।

इस खबर से गांव के दलित लोग मानते हैं कि जमींदार के घर पैदा होने वाले बच्चे के बाप वे हैं । बात सामने आती है और सामूहिक संघर्ष में बदल जाती है । इधर जमींदार कुपित हो कर कलकी को मार डालना चाहता है लेकिन नया नौकर, एक लड़का, उस पर चाकू से अनेक वार कर उसकी जान ले लेता है और कलकी को बचा लेता है । अगले दृश्य में कलकी का प्रसव है , लड़की के जन्म से सुखांत होता है ।

                     दरअस्ल यह कहानी भविष्य की, चेतावनी देने वाली कहानी है । यह दुनिया में कहीं भी हो सकता है, लेकिन भारत के संदर्भ में तो है ही । भ्रूणहत्या के मामले में भारत जितना जाहिल और गंवार है उतना शायद ही कोई और देश होगा । किन्तु केवल अशिक्षित और पंरपरावादी लोगों पर दोष मढ़ कर हम या कोई भी, इस पाप से मुक्त महसूस नहीं कर सकते हैं । सैकड़ों वर्ष पुरानी इन परंपराओं के पीछे पुरुषों की कायरता ही प्रमुख है जो अपनी बेटियों का भरण-पोषण और रक्षा करने से बचते रहे हैं ।

                       बात बात में धर्म और संस्कृति को याद करने वाला समाज अपनी ही बच्चियों के मामले में इससे विमुख कैसे हो जाता है ! धर्म में ‘पवित्रता का प्रावधान’ इन हत्याओं के लिए इसलिए जिम्मेदार है कि व्यक्ति पाप करके किन्हीं पूजाओं और दान से इसे ‘धो’ सकता है ! यह धारणा किसने पैठा दी है कि विषेष मुहुर्त में गंगा स्नान करने से पापियों के पाप धुल जाते हैं । या पापी के मरने के बाद भी ब्राहम्ण-भोज और कुछ क्रियाएं करने से उसे स्वर्ग में जगह मिल जाती है । पाप से बचने के प्रावधान पाप को बढ़ाने के उपाय ही हैं । जब तक यह बात समझ में नहीं आती कायरों के समाज में न अपराध कम होंगे न पाप ।

                            फिल्म का सबसे अच्छा पक्ष उसका निर्देशन और फिल्मांकन है । विषय में संभावना होने के बावजूद कहीं भी अश्लीलता नहीं है । मनीष झा की समझ को देख कर आश्चर्य होता है । यदृपि वे कम आयु के, एकदम नौजवान हैं, किन्तु दर्शकों को बार-बार लगता है कि वह श्याम बेनेगल की फिल्म देख रहा है । किसी सामाजिक समस्या पर उद्श्यपूर्ण फिल्म बनाना आज वैसे भी लीक से हट कर चलना है । उस पर विषय की प्रस्तुति ऐसी है कि दर्शक में मन में गहराई तक उसका असर होता है और में वह इस समस्या से खुद को बेहद चिंतित पाता है । फिल्म को अनेक देशी-विदेशी अवार्ड मिले हैं । कलकी के रुप में तुलिक जोशी और जमींदार की भूमिका में सुधीर पांडे अद्भुत हैं । इनके अलावा सभी कलाकारों से मनीष झा ने बहुत सधा हुआ काम लिया है ।