Tuesday, July 17, 2012

* दिल है कि मानता नहीं .

                    

आलेख 
जवाहर चौधरी 

  विश्वबिहारी जी के यहाँ बेटी की सगाई का प्रसंग आया . जरुरी था कि पास -पडौस और नातेदारों को इस अवसर पर आमंत्रित  किया जाये और भोजन व्यवस्था भी हो . वे खुद अनेक जगह आमंत्रित होते रहे हैं किन्तु भोजन कहीं नहीं करते हैं . होटल का खाना भी वे नहीं खाते हैं . वजह साफ सफाई को लेकर है . आयोजनों में बनाने वाले पसीने में गंधाते कर्मचारी , उनके वस्त्र ,  बर्तन  वगैरह सब चिकट और अस्वच्छ होते हैं . सामग्री को लेकर भी आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता है .घर में पत्नी सब्जी को ठीक से धो कर , नमक के पानी में आधा -एक घंटा रखती है तब बनाने के लिए काटती है . यहाँ केटरर पोटली से सब्जी सीधे बिना देखे  भाले काट  कर  छौंक देता है . न घी तेल की कोई गारंटी , न आटे - मैदे की . जहाँ रसोई बनती है वहां कचरा और गीलापन होता है . मक्खियों की भरमार इतनी कि पता नहीं चलता कि खाद्य सामग्री है या मक्खियों का छत्ता . इन्हीं कारणों से विश्व बिहारी नहीं खाते हैं .

                   आज उनके पास अवसर है, वे जिस तरह की व्यवस्था को नापसंद करते हैं , उसे सुधार सकते हैं । लेकिन छोटा परिवार , कोई भगदौड़ करने वाला नहीं है । नातेदारों में कुछ हैं , किन्तु सब व्यस्त हैं । न-न करते भी तीन सौ मेहमान हो रहे हैं । घर में व्यवस्था हो नहीं सकती और होटल बजट को अंगूठा दिखा रही है । पांच दिनों की उहापोह के बाद आखिर एक केटरर को विथ -मटेरियल तय किया । रेट उसने बताया था चार सौ रुपए प्रति प्लेट । लेकन बोला कि सौ रुपए प्रति प्लेट में भी कर सकता है । तमाम तरह की हिदायतों के बाद सौदा एक सौ पचहत्तर रुपए प्रति प्लेट पर ठहरा । घर के सामने की सड़क पर शामियाना तान कर व्यवस्था हुई, जिसके एक कोने में आड़ करके भोजन बनाने की जगह निकाली गई । विश्व  बिहारी वह सब  देख रहे थे जो देखना पसंद नहीं करते हैं ।
मेहमान आए , सबने निर्विकार भाव से आनंद लिया, जैसा कि हर जगह होता है । दो घंटे में सारे कार्यक्रम निबट गए ।
सब के जाने के बाद विश्व  बिहारी अंदर अपने किचन में  आम के अचार के साथ सुबह की रोटियां खा रहे थे ।

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