Monday, April 1, 2024

लघुकथाओं का चैतन्य-लोक


 

लघुकथाओं का चैतन्य-लोक

जवाहर चौधरी

“मैडम, धार करने की दुकान का कोई शो-रूम नहीं होता । धार का शोरूम से क्या लेना देना ! ... एक ईंट का टुकड़ा, कुछ पुराने कबेलू , एक-दो टेके के पत्थर और एक चक्का । बस इतने में घर का सारा कोहराम निपट जाता है ।“ चैतन्य त्रिवेदी की ये पंक्तियां साहित्य के शो-रूम और बाज़ार में लघुकथा के मुकाम को रेखांकित करती है । उनकी धारदार लघुकथाओं का तीसरा संग्रह ‘ईश्वर के लिए’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है । इसके पहले उनके दो लघुकथा संग्रह ‘उल्लास’ और ‘कथा की अफवाह’ खासे चर्चित रहे हैं । उल्लास को सन दो हजार में किताबघर प्रकाशन का प्रतिष्ठित ‘आर्य स्मृति सम्मान’ मिला है । उल्लास ने हिंदी लघुकथाओं को एक न्य ट्रेंड दिया है ऐसा माना जाता है । वरिष्ठ रचनाकारों व आलोचकों के इस मत की पुष्टि बाद के दोनों संग्रहों में होती दीखती है ।

ताजा संग्रह ‘ईश्वर के लिए’ में 127 लघुकथाएँ प्रेषित हैं । संख्या की दृष्टि से यह एक बड़ा संग्रह है । वैसे भी चैतन्य त्रिवेदी की रचनायें फटाफट पढ़ते जाने वाली नहीं होती हैं । आकर से वे भले ही लघु हों लेकिन विचार में विस्तार समेटे होती हैं । लघुकथा के सरलीकृत स्वरुप के आदी पाठकों को चैतन्य त्रिवेदी की कथाएं विस्मित करती हैं ।  कई बार इन पर क्लिष्टता के आरोप भी लगते हैं लेकिन जब वे लघुकथा के आशय तक पहुँच जाते हैं तो रचना के सौन्दर्य से प्रभावित हुआ बिना नहीं रहते हैं । एक जगह वे लिखते हैं -  “शब्द को चिरजीवी बनाना चाहते हो तो पाठक को खोजने दो । तुम दर्शन का दृष्टिकोण लिए कोई काम करोगे तो पाठक अपने आप पढ़ कर इस मार्ग पर स्वयं काम करने लगेगा” । (किताब का रास्ता ) । चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथाएं कविता की तरह प्रतीकों में बात करती हैं । जैसे “नाव और नदी के बीच कुछ तय हुआ है, ऐसा पता चला है । ... क्या तय हुआ है ? .... सुनने में तो यही आया है कि किनारा तय हुआ है । ... फिर नदी किनारा छोड़ कर चली गयी और समुद्र में जा मिली, और नाव जिस किनारे लगी वह घड़ियाली आंसुओं का मुहाना निकला । एक और रचना की पंक्तियाँ हैं –“वास्तुकार हँसा- जिंदगी में ज्यादा कुछ नहीं चाहिए होता है, बस लौट पड़ने को एक रास्ता और गिर पड़ने को घर के भीतर खुलता कोई दरवाजा “ । यह एक पंक्ति जीवन संघर्ष के विस्तार को व्यक्त कर देती है । सच्चा साथ की एक पंक्ति है – “पत्थरों के साथ ईमानदारी के साथ रहो तो वे धड़कनों के भी सच्चे साथी बन जाते हैं “।   शीर्षक कथा ‘ईश्वर के लिए’ करुणाजनक है । इश्तहार चिपकाने वाले का बच्चा गुम हो गया है । वह बच्चा ढूँढ रहा था और काम देने वाले उसे बार बार जल्दी आने को कह रहे थे । मदद हेतु एक ने उसके बच्चे का फोटो माँगा और गुमशुदा की तलाश का विज्ञापन बना दिया । अब वह दूसरे इश्तहारों के साथ इसे भी चिपकाने लगा । इस दौरान सूचना मिली कि बच्चे की लावारिस लाश देखि गयी है । यह उसके बच्चे की ही लाश थी । वह बिलख उठा, उसने पास के बड़े से पत्थर पर गुमशुदा बच्चे वाला इश्तहार चिपका दिया । लोगों ने कहा इसका क्या मतलब अब ! बच्चा तो मर चुका है । वह बोला –यह ईश्वर के लिए है ।“यहाँ चैतन्य पाठक को उस भरोसे की ओर ले जाते हैं जिसके सहारे आदमी का संघर्ष और अस्तित्व बचा हुआ है ।

एक लघुकथा (विमर्श का तथ्य)  बौद्धिक चिंतन और विमर्श को निशाने पर लेती है । प्रबुद्धजन और चिन्तक खाते पीते हुए लोकतंत्र, संस्कृति, मूल्य और नैतिकता की बहस पर लगे हुआ हैं और पास एक भूखा कुछ पा जाने की प्रतीक्षा में खड़ा है । विद्जनों ने उसे कुछ खाना देने का आश्वासन दिया है । लेकिन उसे कुछ मिल नहीं पाता है । चर्चा से उकताया वह कहता है – “सर, मैं तो सिर्फ इतना कहने आया हूँ कि मेरी भूख मर गयी है” ।  चैतन्य की लघुकथाओं में व्यंग्य भरपूर है जिसे उन्होंने सलीके से वापरा है । उनके व्यंग्य की धार लघुकथाओं की पहुँच सुगम बना देती है ।

मानवीय संवेदनायें और संबंधों की बारीक बुनावट और समझ उनकी कई लघुकथाओं में दिखाई देती है । “घर के लोग मायूस खड़े थे । आदमी किस्मत के चलते दवाइयों पर जिन्दा रहने की कोशिश में ..... उस शाम डाक्टर जब राउंड पर आए तो मरीज ने कहा – अब घर चले जाना चाहता हूँ । यहाँ पड़े रहने से क्या फायदा ! क्या महिना भर क्या हफ्ता, जाना ही तो है अब । वह अपने घर में, और अपने में रहने का यह आखरी मौका गंवाना नहीं चाहता ।“ डाक्टर का कहना था कि जिंदगी के ये शेष रहे दिन  अस्पताल के दम पर हो निकालेंगे । यहाँ हम लोग हैं , कैसी भी ऊंच नीच में दौड़े चले आएंगे । मरीज कहता है – अरे सिर्फ एक-डेढ़ महीने के लिए आप इतनी जहमत क्यों उठाते हो ! सत्तर बहत्तर का हो गया हूँ । जितना जिया अब तक अपने दम पर जिया । फिर कुछ दिनों के वास्ते अपने दम पर जिए आदमी के लिए यह अस्पताल क्या दम मार लेगा ! ” ( अस्पताल क्या दम मार लेंगे ! ) यहाँ लेखक ने जीवन के अंतिम समय की उलझन को बहुत आसानी से सुलझाने का प्रयास किया है । अस्पताल में महीने पंद्रह दिनों के लिए अपनी मट्टीपलीत कराते और बावजूद इसके भगवान से मौत मांगते मरीजों को किसने नहीं देखा होगा ।                                          चैतन्य त्रिवेदी अपने समकाल को निर्भीकता से व्यक्त करते हैं । लेखक में ईमानदारी और साहस आज समय और साहित्य की जरूरत है । यदि रचनाकार क्रूरता व विसंगतियों का सामना नहीं करेंगे तो और कौन करेगा । नमूने की ये पंक्तियाँ - “कुछ लोग शहर में ईश्वर का काम करते हैं । वे सब अपनी अपनी तरह से अपने ईश्वर को दूसरों के ईश्वर से अलग बनाये रखने की कोशिश में लगे मिलते  हैं  । उन्हें या तो अपने लोगों पर संदेह है कि कहीं ये लोग दूसरों के ईश्वर की तरफ न चले जाएँ । या फिर उस ईश्वर पर संदेह है कि कहीं वो एक न हो जाएँ । कई बार तो यह लगने लगता है कि वे जो जानते हैं , इतना तो ईश्वर भी अपने बारे में नहीं जनता होगा । उन्होंने ईश्वर को आदत बना लिया, समझ की तरह ।”  (प्रतीक्षारत )

लघुकथा इनदिनों साहित्य की लोकप्रिय विधा हो गयी है । बहुत लिखा जा रहा है । किन्तु चैतन्य त्रिवेदी की लाघुकथाओं से गुजरना, गुजरना नहीं ठहरना होता है । उनकी रचनाएँ घटना प्रधान नहीं होती हैं । वे अपनी रचनाओं में चाबी देते हैं, ताला आपको खोलना होता है । इसमें कोई संदेह नहीं कि लघुकथा साहित्य में यह किताब दिशादर्शन का महत्त्व रखेगी ।

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पुस्तक – ईश्वर के लिए /  

लेखक – चैतन्य त्रिवेदी

प्रथम संस्करण – 2023 / 

प्रकाशक –प्रलेक प्रकाशन, मुंबई  

मूल्य – रु. 249 -