Thursday, August 3, 2023

परसाई को याद करते हुए देशकाल


 

आलेख

जवाहर चौधरी

    परसाई को अकेले याद नहीं किया जा सकता है । परसाई के साथ समय नत्थी रहता है, चाहे उनका हो या आज का । आजादी के समय, 1947 में परसाई लगभग 23 वर्ष के थे और देश में सत्ता परिवर्तन और राजनीतिक प्राथमिकताओं को समझ रहे थे । यही वह आयु भी होती है जब व्यक्ति अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को भी महसूस करता है । परसाई की पारिवारिक पृष्ठभूमि आर्थिक रूप से सुविधाजनक नहीं थी । कम उम्र में ही उन्होंने अपनी माँ को खो दिया था । अपनी आत्मकथा गर्दिश के दिनमें उन्होंने लिखा है, “साल 1936 या 37 होगा। मैं शायद आठवीं का छात्र था । कस्बे में प्लेग फैला था रात को मरणासन्न माँ के सामने हम लोग आरती गाते थे । कभी-कभी, गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते, माँ बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेती और हम भी रोने लगते । फिर ऐसे ही भयकारी त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर माँ की मृत्यु हो गई । पांच भाई-बहनों में मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था । कुछ समय बाद पिता भी चल बसे । चार छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारी परसाई जी कन्धों पर आ गयी । नौजवान हरिशंकर अपनी, परिवार की, समाज की और देश की चिंताओं को एक साथ लेकर बड़ा हुआ ।

विभाजन की पीड़ा के साथ धार्मिक पहचान ने नफ़रत के दरवाजे खोले । बहुसंख्यक समाज धार्मिक, सामाजिक निर्योग्यताओं और पाखंड से बाहर नहीं था । गुलामी में जी रहे समाज के लिए शुरुवात में इतना ही काफी था कि वह आजाद है । लेकिन राहत के दिन ज्यादा नहीं टिके । सपनों से आबद्ध देश का बेरोजगार युवा हताश और क्रुद्ध होने लगे । कुछ जरुरी काम निबटा कर सत्ता जिम्मेदारी से सुख की और मुड़ने लगी । कुछ चलाकियां भी राजनीतिक जीवन में पैठने लगीं । झूठ, भ्रष्टाचार, बेईमानी कोई नयी चीज नहीं थी, लेकिन अब आज़ादी के साथ थी । ये चीजें आज भी हैं लेकिन आज के भारत ने इसे सहज और सामान्य मान लिया है । उस समय इसका विरोध होता था । आज विरोध नहीं होता है लेकिन दिखावे का विरोध होता है । परसाई लिखते हैं “हर आदमी बेईमानी की तलाश में है , और हर आदमी चिल्लाता है कि बड़ी बेईमानी है “ । मूल्य बदले और ‘नमक का दरोगा’ प्रेमचंद के साथ चला गया । आज उपरी कमाई योग्यता की श्रेणी में है । पहले भ्रष्ट आदमी कानून से डरता था अब कानून को जेब में रखता है । जिन पर कानून के सम्मान का भार है वही उसकी आबरू तार तार करने की विद्या में पारंगत हैं । सोचिये आज अगर परसाई यह सब देखते तो कितना सह पाते ! बड़ी उम्मीदों के साथ उन्होंने कहा था कि “मैं शाश्वत साहित्य नहीं लिखता । मैं चाहता हूँ कि मैं आज जो लिख रहा हूँ वह कल मिट जाये ।“ हम देख रहें हैं कुछ मिटा नहीं, बल्कि बढ़ गया । लगता है अंग्रेज गए लेकिन गुलामी नहीं गयी । देश ने अपने स्वदेशी अंग्रेज और गुलाम चुन लिए । ग्राम स्वराज की कल्पना यह थी कि छोटे गांवों में रहने वाले, गरीब कुछ उद्यम करेंगे, अपने पैरों पर खड़े हो सकेंगे और स्वाभिमान से जी सकेंगे, एक नया भारत बनेगा  । लेकिन आज मुफ्त की सरकारी सुविधाओं से वोट देने वाली मशीन बनते जा रहे हैं गरीब । चालाकियों का वैधानिकीकरण हो चला है, जो घूँस पहले पारसाई के ज़माने में छुप छुपा कर दी जाती थी अब कल्याण योजनाओं के आवरण में खुलेआम विज्ञापन दे दे कर दी जाती है ! जनमत को पतुरिया की तरह देखा जा रहा है ! नाच मेरी बुलबुल तुझे पैसा मिलेगा । परसाई का लेखन राजनीति धुर्तताओं, धार्मिक पाखंड, सामाजिक दुराभाव आदि पर मात्र फटकार नहीं थी, उनका लेखन जनशिक्षा और जनचेतना के लिए था । वे चाहते थे कि जनता के दिमाग की खिड़कियाँ खुलें और वे सोचें । पारसाई आज भी अपने लिखे से दिशा देते दिखाई देते हैं । जनता की आँखों पर पट्टी पड़ी रहे इसकी तमाम कोशिशों (धर्म, मंदिर-मस्जिद, साम्प्रदायिकता आदि) के बावजूद परसाई से गुजरते हुए व्यक्ति वह नहीं रहता जो पहले था । इस घोर षड्यंत्रकारी समय में परसाई पहले से कई गुना ज्यादा प्रासंगिक हैं । वर्तमान राजनीतिक सन्दर्भ में देखें तो उनकी यह बात कितनी अर्थपूर्ण है – “आत्मविश्वास धन का होता है, विद्या का भी और बल का भी, पर सबसे बड़ा आत्मविश्वास नासमझी का होता है ।“

लेकिन एक सवाल मन में आता है कि अपने कालमों से फटकार लगाने वाले परसाई आज अगर होते तो उन्हें छापता कौन ! माहौल लालच और भय का है । पहले अख़बार छपने के बाद बिकता था अब इसका उल्टा है । संपादक गायब हो गए हैं, धंधा मालिक कर रहे हैं । परसाई की फटकार जनता और सरकार तक  कैसे पहुँचती ! कोई सांप ले कर पहुंचे तो सत्ता उसे दूध पिला कर टोकरी में बंद कर लेती है । मिडिया चाहे अनचाहे शहनाई वादन कर रहा है, परसाई इस स्थिति पर कैसी प्रतिक्रिया देते ! आज प्रतिरोध की सबसे अधिक आवश्यकता है । यदि परसाई की रचनायें जनता के सामने रखीं जाएँ तो वे प्रभावी और प्रासंगिक होंगी ही । लेकिन व्यंग्य के नाम पर वही छापा जा रहा है जो व्यंग्य नहीं है । फूल-पत्ती पर लिखो, साड़ियों और श्रंगार पर लिखो लेकिन भूख और गरीबी पर मत लिखो, भ्रष्टाचार और बेईमानियों पर मत लिखो, सरकार पर मत लिखो । मिडिया ने व्यंग्य को मनोरंजन मान लिया गया है जो परसाई को कतई बर्दाश्त नहीं है । अन्धविश्वास और अवैज्ञानिकता को रोकने की कोशिश में दशकों लगे लेकिन पाखंड की प्राणप्रतिष्ठा में देर नहीं लगी । वे लिखते हैं – “ अश्लील पुस्तकें कभी नहीं जलाई गईं । वो अब अधिक व्यवस्थित ढंग से पढ़ी जा रही हैं“ । यहाँ किन पुस्तकों की बात की जा रही है वह स्पष्ट है । जो इस दावे के साथ आये थे कि हमारी चाल, चरित्र और चेहरा अलग है वे कुर्सी पकड़ते ही बदल गए । विचारधारा के कंबल से उनकी मोटी चमड़ी ज्यादा सुरक्षित हो गयी । शुरुवात छड़ी से की थी लेकिन आज क्या सुलूक होता यदि परसाई होते  !  दाभोलकर, गौरी लंकेश, कल्बुर्जी, गोविन्द पानसरे वगैरह भी स्वस्थ समाज के लिए आवाज उठा रहे थे ।

भारत परम्पराओं और त्योहारों का देश है । त्योहार मौके  होते हैं जब छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, अपने-पराये सब गिले-शिकवे दूर कर एक हो जाते हैं । साँझा संस्कृति है हमारी । शासन की जिम्मेदारी है कि ऐसे अवसरों का सदुपयोग समाज को संगठित करने के लिए करे । लेकिन राजनीति साधने के लिए धर्म और जाति के नाम पर समाज बंट रहा है । एक तरह की अयाचित कट्टरता पैठती जा रही है । त्योहारों पर उल्लास का माहौल होना चाहिए लेकिन डर का क्यों है ! अपने आलेख ‘मुहर्रम और दशहरा की बधाई’ में परसाई लिखते हैं -“साधो, मुहर्रम और दशहरा एक ही दिन हो और शहर सांप्रदायिक मामले में नाजुक हो तो पंद्रह दिन पहले से पुलिस और प्रसाशन घबड़ाने लगता है । साधारण नागरिक भी चिंतित हो जाता है । जिला प्रशासन ऊपर भयंकर रिपोर्ट भेजता है कि शहर में भारी तनाव है ।“  आज तनाव समस्या नहीं है अवसर है । अवसरों का सृजन होता है । ‘देशभक्ति का विभाजन’ में परसाई कहते हैं –“ साधो, अब यह स्पष्ट हो गया है कि दक्षिणपंथी राजनीतिक दल यह मानते हैं कि जो ‘भारत देश’ नाम की जायदाद है उस पर इंदिरा गाँधी ने कब्ज़ा कर रखा है । ... यह कब्ज़ा नाजायज है और इस जागीर पर असली हक़ उनका है ।“ 

आज  ‘जागीर’ पर इस कब्जे को देख कर परसाई के सामने बड़ी चुनौती होती । सम्पत सरल जैसे कुछ  व्यंग्यकार पूरी ताकत और हिम्मत से अपना विरोध दर्ज करते हैं लेकिन सत्ता की खाल पर कोई असर नहीं होता  है ।  जनता थोड़े से फ्री राशन पर आँखें मूँद लेती है । चोर चाँद दिखा कर ऊँट चुरा रहा है और लोग समझ नहीं पा रहे हैं ।  परसाई (चर्बी, गंगाजल और एकात्मकता यज्ञ ) में लिखते हैं - “ इस देश का मूढ़ आदमी न अर्थनीति समझता है, न योजना, न विज्ञान, न तकनीक, न विदेशनीति । वह समझता है – गौ माता, गौ हत्या , चर्बी, गंगाजल, यज्ञ । वह मध्ययुग में जीता है और आधुनिक लोकतंत्र में वोट देता है । इस असंख्य मूढ़ मध्ययुगीन जन पर राज करना हो तो इसे आधुनिक मत होने दो । इसे गौ माता, गंगा जल , यज्ञ और रथ में उलझाये रखो । “ क्या आपको नहीं लगता है वे व्यंग्य नहीं लिख रहे थे, देश का भविष्य बांच रहे थे ! यहाँ सवाल यह भी है कि विपक्ष क्या कर रहा है !? इस समय देश से वामपंथी तो जैसे गायब ही हो गए हैं !! दो चार कहीं हैं भी तो बिजुका की तरह ।  पारसाई के शब्दों में – “आज देश की हवा में जहर है । यह आकस्मिक और कुछ समय आवेश-उन्माद नहीं है । यह ठन्डे दिमाग से बनायीं गयी योजना है, जिसका उदेश्य सांप्रदायिक नफ़रत, टकराव और विभाजन के द्वारा देश की सत्ता पर कब्ज़ा करना है । ... मैं सत्य कहता हूँ कि तीस तीस सालों के मेरे मित्रों से, जिनसे मैं खुल कर बातें करता था, अब हिचक से सावधानी से बात करता हूँ । इस राजनीति ने काफी हद तक समाज को बाँट दिया है” । (भारतीय गणतंत्र : आशंकाएं और आशाएं ).

जो लोग लम्बे समय तक सत्ता में रहने के आदी हो चुकते हैं उन्हें विरोध करना आता ही नहीं है । जो आज सत्ता में हैं वे पहले भी विरोध करते थे आज भी अतीत का विरोध और निंदा करते हुए शासन कर रहे हैं । यहाँ भी परसाई भविष्य दृष्टा हैं - (बारूद पर  बैठ कर माला पहनना ) “ साधो, गाँव गाँव में प्रचार हो रहा है कि यह कांग्रेस की सरकार हिन्दुओं को वनस्पति में गाय की चर्बी और मुसलमानों को सूअर की चर्बी खिला रही है । इसके साथ ही सम्प्रदायिकता का जहर फैला रही है । तनाव पैदा कर रही है । जेट युग में रथ दिखा रही है । सरकारी जाँच कहती है कि वनस्पति में चर्बी नहीं मिलायी जा सकती है । इसके बावजूद  चर्बी का प्रचार चल रहा है । गरीब और माध्यम वर्ग की मुसीबत हो रही है । यह सब क्यों हो रहा है ? यह दंगे करने के लिए हो रहा है । देश का विघटन करने के लिए हो रहा है । यह कांग्रेस और उसकी सरकार  की मिटटी पलीद करने के लिए हो रहा है । मगर कांग्रेसी इस प्रचार की काट नहीं करते । शहरों, कस्बों में दांत निपोरते हुए शोभा यात्रा निकाल रहे हैं ।  उन्हें खबर नहीं है की उनकी शोभा पर डामर पोता जा रहा है । “ देश के बैंकों से हजारों करोड़ का ऋण ले कर  कई लोग भाग गए । कईयों ने अपने ऋण माफ़ करवा लिए । सरकार ने भारी कर्ज ले लिया, संपत्तियां बिक गयीं । अनेक तरह के निर्माण पर खर्च हो रहा है । शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे मदों को उपेक्षित रखा जा रहा है । आज देश को एक नहीं कई कई हरिशंकर परसाई की जरुरत है । कभी नेहरू ने कहा था कि धर्म का जन्म डर और अज्ञान से हुआ है । आज धर्म की पुनर्स्थापना के प्रयास शीर्ष पर हैं ।  सो कई कई  नेहरू भी चाहिए देश को । चीजें बहुत तेजी से बदली हैं । मध्यकालीन व्यवस्था का प्रतीक राजदंड सेंगोल स्थापित किया जा चुका है अब । एक जगह परसाई लिखते हैं (चर्बी का हल्ला ) “ साधो, धंधे और मुनाफे की नैतिकता अलग होती है । धर्म आचरण अलग होता है । कानून किताबों की चीज है, धंधे में आचरण की नहीं । अगर ये सिद्ध हो जाये कि आदमी की चर्बी ज्यादा अच्छी क्वालिटी की और  सस्ती होती है तो गुप्त रूप से स्वस्थ आदमियों के बूचड़खाने खुल जायेंगे और आदमी की चर्बी निकलने लगेगी । सरकार के मंत्रियों के, पुलिस अफसरों के, शासन के अधिकारियों के सहयोग से ही ये बूचडखाने चलेंगे । वैसे धार्मिक उन्माद के कारण धीरे धीरे सारा देश आदमी का बूचड़ खाना हुआ जा रहा है ।“

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संस्मरणों के सहारे पड़ताल : हिंदी व्यंग्य की प्रवृत्तियां और परिवेश


 

आलेख

जवाहर चौधरी

जिस तरह से हिंदी व्यंग्य पल्लवित हुआ है वह चौंकाने वाला है । लेकिन यह भी चिंता की बात है कि इस फसल का कोई रखवाला नहीं है । कोई मेढ़ (फेंसिंग) नहीं है, जमीन खुली पड़ी है । कहीं कहीं बिजूके हैं भी तो नहीं होने जैसे । कहाँ फसल है और कहाँ खरपतवार कुछ समझ में नहीं आता है । व्यंग्य की इस जमीन को समझने समझाने की कोशिश में समय समय पर कुछ किताबें आई हैं । श्यामसुन्दर घोष की ‘व्यंग्य क्या, व्यंग्य क्यों,’ शेरजंग गर्ग की ‘व्यंग्य के मूलभूत प्रश्न’, सुरेश कान्त की ‘व्यंग्य: एक नयी दृष्टी’ , राहुल देव की विमर्श पुस्तक ‘आधुनिक व्यंग्य का यथार्थ’, गौतम सान्याल की ‘कथालोचन के नए प्रतिमान’ जिसमें कथा के साथ व्यंग्य पर भी सार्थक टिप्पणियां हैं । एक अरसे तक ‘व्यंग्य विविधा’ पत्रिका के माध्यम से मधुसूदन पाटिल और पिछले बीस वर्षों से ‘व्यंग्य यात्रा’ के साथ प्रेम जन्मेजय व्यंग्य की जमीन में खाद पानी दे रहे हैं । इसी क्रम में कैलाश मंडलेकर अपने ताजा काम के साथ व्यंग्य परिवेश की पड़ताल के उदेश्य से प्रवेश कर रहे हैं । उनकी पुस्तक ‘हिंदी व्यंग्य की प्रवत्तियां और परिवेश’ हाल ही में शिवना प्रकाशन से प्रकाशित हुई है ।

अपनी बात रखते हुए कैलाश कहते हैं – “समकालीन व्यंग्य पर चर्चा करते हुए एक दफे परसाई जी ने कहा था “सही व्यंग्य व्यापक जीवन परिवेश को समझने से आता है ...उक्त वक्तव्य के परिप्रेक्ष्य में यदि हम आज के व्यंग्य लेखन को रख कर देखना चाहें तो हम पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पाते हैं कि हम अपने समय की समग्र व्याख्या कर पा रहे हैं ! हमसे क्या छूटते जा रहा है इसकी पड़ताल करते जाना भी आज के व्यंग्यकार का दायित्व है ।“ ... हमसे क्या छूट रहा है ! आज के व्यंग्य उद्योग को यही जानने और समझने की जरुरत है । बहुत शालीनता के साथ कैलाश इस बात को कहते हैं – “हिंदी के समकालीन व्यंग्य पर आत्मसंतुष्टि, दोहराव और आत्ममुग्धता के गहरे आरोप लगाये जाते हैं । मैं जानता हूँ कि ये आरोप फैशन के तौर पर नहीं लगाये गए हैं । इनमें सच्चाई भी है ।“ ...  व्यंग्यकार में जवाबदेही का बोध शिद्दत से होना चाहिए । व्यंग्य की कलम समाज के व्यापक हित में जिम्मेदारी और जोखिम लेती है । व्यंग्य लेखन चिड़ियाघर घूमना नहीं है । पुस्तक इस बात की चिंता भी करती है कि व्यंग्य के नाम पर जो सतहीपन, चुटकुलेबाजी वगैरह चल रही है वह न व्यंग्य के हित में है और न ही लेखक के हित में । कहा जा सकता है कि नए व्यंग्य लेखक के पास कोई व्यवस्थित दिशा निर्देश नहीं है । सलीका आएगा कहाँ से ! इसका मतलब यह हुआ कि हम अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों को ठीक से नहीं देख पाए हैं । उनकी व्यंग्य दृष्टि, भाषा, शैली, विषय की पड़ताल, कहने का साहस, जोखिम, कला आदि सब कम-अधिक छूट रहा है । व्यंग्य में डूबे बगैर, उसका व्याकरण समझे बगैर कोई व्यंग्य के कॉकपिट में कैसे बैठ सकता है ! किताब इसी बात को समझाने का प्रयास करती है कि व्यंग्य लेखन एक साधना है । व्यंग्य दृष्टि कुदरती तौर पर सबको नहीं मिल जाती है । फिर व्यंग्य में भाषा भी महत्वपूर्ण है । पुस्तक में  कैलाश अपनी तमाम व्याख्याओं में भाषा की और इशारा करते चलते हैं ।

पहले अध्याय में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के व्यंग्य परिवेश की परिचयात्मक चर्चा है । कहते हैं ज्यादातर हिंदी व्यंग्य इन्ही दो प्रदेशों से आया है । इसलिए लेखक का इन प्रदेशों पर नजर रखना उचित है । परसाई और जोशी की कर्म भूमि ने अनेक उल्लेखनीय व्यंग्यकार दिए हैं हिंदी को । कैलाश जी ने शिद्दत से तमाम व्यंग्यकारों को अपने चिंतन में शामिल किया है । ‘परसाई की व्यंग्य चेतना‘ और ‘परसाई और जाने पहचाने लोग’ संस्मरणात्मक लेख हैं । परसाई जी को निकट से देखने समझने का मौका मिला है कैलाश मंडलेकर को । वे बता रहे हैं कि परसाई ने संस्मरण लिखे लेकिन आत्मकथा के लिए कहा कि ‘नहीं लिखूंगा’ । उनका मनना था कि “आत्मकथा में सब छुपा लिया जाता है और वही लिखा जाता है जो व्यक्तित्व को गरिमा प्रदान करे ।“ यहाँ झूठ से सज्जित आत्मप्रशंसा की ओर संकेत है । हालाँकि परसाई आत्मकथा लिखते तो निसंदेह अपने समय और समाज को ही अनावृत करते । यही काम वे अपनी रचनाओं में करते रहे थे । अपने सच को लिखना साहस और जोखिम का काम है । हालाँकि उनके संघर्षपूर्ण जीवन पर एक अधिकृत पुस्तक हो जाती तो अच्छा होता । शरद जोशी के लेखन की खूबियों की चर्चा ‘शरद जोशी – परिक्रमा से प्रतिदिन तक !’ आलेख में हुई है । कैलाश लिखते हैं – “शब्द कैसे तराशे जाते हैं और भाषा को हथियार कैसे बनाया जा सकता है इसे शरद जोशी के मार्फ़त ही समझा जा सकता है ।“ व्यंग्य में जहाँ परसाई सीधे सीधे लाठी चलाते दिखाई देते हैं वहीं शरद जोशी हरी लचीली बेंत से काम चलाते हैं । बावजूद इसके उनकी मार का असर कम नहीं होता है । वैचारिक रूप से व्यंग्यकार प्रतिबद्ध प्रायः नहीं होता है । उसकी प्रतिबद्धता व्यवस्था के शिकार अंतिमजनों से होती है । शरद जी के व्यंग्य इसलिए भी लोकप्रिय हुए हैं कि “वे पीड़ित के गूंगे गम को सहलाते हैं और बहुत अपनत्व के साथ उसके बाजू में खड़े होते हैं” । इसी तरह श्रीलाल शुक्ल को याद करते हुए ‘रागदरबारी’ पर सारवान आलेख है । रागदरबारी हिंदी व्यंग्य का महत्वपूर्ण और लोकप्रिय उपन्यास है जिसमें ग्रामीण भारत के विसंगत जीवन का चित्रण रोचक व मारक है । इसी क्रम में महत्वपूर्ण व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी लिखते हुए मंडलेकर पत्रिका ‘अक्षर पर्व’ में लिखे स्व. ललित सुरजन के सम्पादकीय का जिक्र करते हैं – “रविंद्रनाथ त्यागी का पिछले दिनों कभी निधन हो गया । कब, किस तारीख को, कहाँ ? मालूम नहीं । रायपुर क्या भारत के किसी समाचार पत्र में यह खबर पढ़ने को नहीं मिली । टीवी के किसी चेनल ने इसे प्रसारित नहीं किया । ... अंग्रेजी की बात छोडिये, हिंदी के किसी के पत्रों को भी यह खबर नहीं मिल सकी ।“ ये पंक्तियाँ चौंकती ही नहीं टीसती हैं मन में ।  विस्तार में जाने से यहाँ किसी गलतफहमी की बात भी प्रतीत होती है । पता चलता है कि श्रीलाल जी का निधन 28 अक्तूबर 2011 को लखनऊ में हुआ । अंतिम संस्कार गोमती के किनारे भैंसा कुण्ड श्मशान घाट पर था । जिसने भी उनके निधन का समाचार मिलता जा रहा था वह भैंसा कुण्ड पहुँच रहा था । ( समाचार की तफसील बीबीसी के पोर्टल पर दर्ज है ।)  लेकिन ललित सुरजन जी के लिखे को कैसे नकारा जाए । इस घटना पर काम होना चाहिए और सच्चाई का पता लगाना चाहिए ।

वरिष्ठ व्यंग्यकार अजातशत्रु राष्ट्रीय फलक पर बहुत समय से अनुपस्थित चल रहे हैं  । व्यंग्य पर उनके दो संग्रह हैं, ‘आधी वैतरणी’ और ‘शर्म कीजिये श्रीमान’ । अब उनका लेखन ज्यादातर संगीत और फिल्मों पर केन्द्रित है । व्यंग्य एकदम बंद नहीं है, स्थानीय अख़बार में लिखते हैं । पुस्तक में उनसे एक लम्बा साक्षात्कार हैं जिसमें महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर सार्थक चर्चा है । महत्वपूर्ण व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी के दो चर्चित उपन्यासों ‘हम न मरब’ और ‘स्वांग’ से उनके रचनात्मक कौशल और व्यंग्य-दर्शन को समझने का प्रयास है । व्यंग्य परिवेश में ‘भेन्चो’ जैसी गाली पर पहले काफी विवाद हुआ है, इस पर भी कैलाश सुविधाजनक विस्तार लेते दिखाई देते हैं । पत्रिका ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक प्रेम जन्मेजय व्यंग्य जगत में सबसे अधिक सक्रीय व्यक्ति हैं । न केवल पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं से बल्कि साहित्यिक आयोजनों में भी उनकी उपस्थिति व भूमिका महत्वपूर्ण होती है । प्रेम जी की किताब  ‘हिंदी व्यंग्य की धार्मिक पुस्तक: हरिशंकर परसाई’ को चर्चा में लेकर उनके संपादन-कौशल और व्यंग्य-बोध पर विमर्श करता आलेख है । हिंदी की महत्वपूर्ण लेखिका सूर्यबाला कई विधाओं में लिखती हैं और चर्चित हैं । व्यंग्य पर भी इनकी कलम शिद्दत से चली है । उनके संग्रह ‘भगवान ने कहा था’ के बहाने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर बात की गयी है । इसी तरह व्यंग्यकार जवाहर चौधरी के व्यक्तित्व कृतित्व पर चार लेख हैं । व्यंग्य संग्रह ‘बाजार में नंगे’ और उपन्यास ‘उच्चशिक्षा का अंडरवर्ल्ड’ को चर्चा में लिया गया है ।  ‘सुशिल सिद्धार्थ का व्यंग्य बोध’ के अंतर्गत उनकी विशिष्ट व्यंग्य दृष्टि, साहित्यिक दृष्टि और लेखन  शैली का पता चलता है । यशवंत व्यास वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं और अपनी अलग शैली के लिए पहचाने जाते हैं । उनका व्यंग्य संग्रह ‘कवि की मनोहर कहानियां’ पिछले दिनों चर्चा में रहा है । इसी को सामने रखते हुए उनकी विशिष्ट व्यंग्य शैली को समझने की कोशिश की गयी है । शांतिलाल जैन बहुत सधा हुआ लिखते हैं । उनके नये व्यंग्य संग्रह ‘आप शुतुरमुर्ग बने रहें’ से अनेक रचनाओं पर बात की गयी है । मध्यप्रदेश के कुछ युवा रचनाकारों को कैलाश मंडलेकर विमर्श में रखते हैं । व्यंग्य का भविष्य जिनके हाथों में है उनके लेखन की विशेषताओं को रेखांकित करना इसका उदेश्य है । विनोद साव का उपन्यास ‘भोंगपुर 30 कि.मी.’,  पियूष पाण्डे का संग्रह ‘डिबेट में कबीर’, वीजी श्रीवास्तव का ‘इत्ती सी बात’ कमलेश पांडे का ‘आत्मालाप’ पर समीक्षात्मक आलेख हैं ।   मुकेश राठौर, विवेकरंजन श्रीवास्तव, सुधीरकुमार चौधरी के आलावा ‘हिंदी व्यंग्य में स्त्री स्वर-एक शिनाख्त’ और भाषा खण्ड में ‘निमाड़ी भाषा के लोक वैभव’ पर अच्छे आलेख हैं जो व्यंग्य परिवेश में स्त्री लेखन और बोली भाषा की भूमिका पर प्रकाश डालती है ।

आलोचना खण्ड में डॉ विजयबहादुर सिंह से हिंदी साहित्य परिदृश्य पर विस्तार से बात हुई है । उनके वैचारिक संवाद पर आकलन परक आलेख पुस्तक को समृद्ध करता है । अंतिम खण्ड ‘यादों के गलियारे में श्री सूर्यकान्त नागर पर एक अच्छा फीचर है जो उनके संघर्षों और रचनात्मकता के तमाम पड़ावों की अधिकृत जानकारी देता है । कैलाश मंडलेकर अपने गुरु डॉ सुरेश मिश्र को बहुत आदर के साथ याद करते हैं जिन्होंने उन्हें इतिहास पढाया था । स्व. प्रभु जोशी पर भी प्रभावी संस्मरणात्मक आलेख हैं ।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आलोचना की परंपरागत शैली से हट कर कैलाश मंडलेकर ने एक नए ढंग से व्यंग्य परिवेश को जानने और अभिव्यक्त करने की कोशिश की है । पाठक संस्मरणात्मक लेखन के माध्यम से व्यंग्य प्रवृत्तियों और बारीकियों से परिचित होता चलता है । पुस्तक अकादमिक गुणवत्ता के साथ रचनात्मक कृति का आनंद भी देती है । हालांकि बहुत से महत्वपूर्ण व्यंग्यकार इस पुस्तक में छूट गए हैं ।  जब व्यंग्य की प्रवृत्ति और परिवेश पर केन्द्रित पुस्तक है तो उनकी कमी अखरती है । बहरहाल कुछ चावलों से हांड़ी का जायजा मिल जाता है । उम्मीद की जा सकती है कि व्यंग्य के पाठकों और शोधकर्ताओं को इस पुस्तक से कुछ जरुरी सहायता अवश्य मिलेगी । 

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पुस्तक – हिंदी व्यंग्य की प्रवृत्तियां और परिवेश

लेखक – कैलाश मंडलेकर

प्रकाशक – शिवना प्रकाशन, सीहोर – मप्र

संस्करण – 2023

मूल्य – रु. 350/ --