Tuesday, April 14, 2020

क्वारंटाइन ! ... नहीं तो !



आलेख 
जवाहर चौधरी 

वैसे तो अक्सर इस खिड़की के पास बैठता हूँ, लेकिन इन दिनों यही एक जगह है जहाँ मुझे बैठने का मौका मिल रहा है । यह खिड़की खास तौर पर मुझे पसंद है, क्योंकि ये आँगन में खुलती है और सड़क से होते हुए दूर खड़े आसमान छूते टीवी टावर और उसके बाद अनंत तक दृष्टि को विस्तार दे देती है । नीला साफ आकाश, कुछ टुकड़े बादल, मंडराती चीलें इस वक्त दीख रही हैं । अभी लॉकडाउन के चलते प्लेन बंद हैं, वरना रोजाना सुबह सात बीस पर मुंबई की पहली उड़ान इसी खिड़की से हो कर जाती है । बांग्ला फिल्मों में जब नायक या नायिका कोई महत्वपूर्ण संवाद बोल कर खिड़की से बाहर देखते हैं तो दृश्य में दूर एक ट्रेन धुंवा उड़ाती गुजरती है । लगता है ढेर सारा अवसाद ट्रेन के साथ छुक छुक करता चला गया । दर्शक एक राहत सी महसूस करते होंगे । ऐसा ही कुछ प्लेन को देख कर भी लगता है । कई बार जब मन उदास होता है इस खिड़की से जरूरी ऊर्जा ले कर उठता हूँ । आज जब क्वारंटाइन में हूँ तो ऑक्सीज़न भी यहीं से मिल रही है, ताजी हवा । खिड़कियाँ हवाओं से कितना याराना रखती हैं । चालीस दिनों के क्वारंटाइन में जीवन मानों इस खिड़की पर सिमट आया है ।
उम्र के बढ़ते जाने के साथ व्यक्ति का संसार सिकुड़ता जाता है । पिताजी की याद आती है । आपाधापी इतनी कि भोर में निकलते तो शाम से पहले कभी घर लौटना उनके लिए संभव नहीं था । लेकिन उम्र के साथ वे अनिच्छा पूर्वक सिमटते चले गए । शहर से मोहल्ला, गली,  उसके बाद घर आँगन और अंत में बिस्तर । संसार इसी तरह किश्तों में छूटता है शायद । उस पुराने घर में ऐसी खिड़की नहीं थी जैसी अभी मेरे सामने है । सही दिशा में खुलने वाली खिड़की हो तो लगता है जीवन है और गति बनी हुई है, चाहे बंद क्यों न हो । आप कहेंगे यह भ्रम है । तो बना रहे भ्रम । भ्रम ही आदमी को सन्यास आश्रम तक खींच लाता है । और सच ! राम नाम के साथ मिल कर सत्य हो जाता है । पच्चीस दिन हो गए बंद हुए लेकिन इस खिड़की की वजह से लगता नहीं कि कहीं कुछ छूट रहा है ।  बल्कि रोज ही ऐसा कुछ नया जुड़ रहा है जो पहले संज्ञान में नहीं था । मानो बंद पहले था, अब तो खुल रहा है ।  
सामने अशोक का पेड़ है । पैंतीस छत्तीस वर्ष हुए इसे बच्चे की तरह लाया था एक नर्सरी से । आज देखता हूँ कि कितना बड़ा हो गया है ! आम दिनों में इसकी ओर ध्यान ही नहीं गया कभी । हालांकि मई जून में जब खूब तपन होती है, अपना स्कूटर इसी की छाया में रखता आया हूँ, और बारिश में भी । कभी कभी जब खुले में बैठने का मन होता है इसके नीचे कुर्सी डाल कर बैठता हूँ, किन्तु घ्यान नहीं दिया । लग रहा है स्वार्थी हूँ, मतलबी कहीं का । लेकिन आज इस खिड़की से अपने इस अशोक को देखते हुए जाने क्यों लग रहा है जैसे बरसों बाद अपने युवा बेटे से मिल रहा हूँ ! जैसे आँगन में खड़ा वह मुस्करा रहा है, अभी भी । उसकी खुशी हिलते पत्तों और झूलती डालों से व्यक्त हो रही है । यंत्रवत मेरा हाथ उठता है और अशोक की ओर देखते हुए हिला देता हूँ, कुछ ऐसे जैसे उसे पहचान गया हूँ । वह भी झूम उठता है । अशोक ने भी देखा होगा आज मुझे शायद पहली बार गौर से, वरना घंटियाँ सी क्यों बज रही हैं कानों में । सुना है अशोक खूब सारी ऑक्सीज़न देता है । देना ही चाहिए, बच्चे ही तो काम आते हैं जीवन के उत्तरार्ध में ।
अशोक के नीचे छाया में एक पटिया लगाया हुआ है । बहुत पहले जब लकड़ी का काम चल रहा था घर में, तब पत्नी ने कार्पेंटर से खास तौर पर बनवाया था । इस पर मिट्टी के दो सकोरे रखे हैं । एक पानी का और दूसरे में चूरी हुई रोटी होती है । देख रहा हूँ कि यहाँ  गिलहरियों का एक कुनबा दिन भर उछलकूद करता रहता है । बहुत सी चिड़ियाएँ हैं, गौरैया, ललमुनिया, मैना का जोड़ा और कबूतर भी । बहुत छोटी, गहरे काले रंग की दो चिड़िया भी आती है लंबी चोंच वाली । ये रोटी नहीं खाती हैं , गुड़हल का पौधा है, उसके फूलों से कुछ चुनती सोखती रहती हैं । इतना मीठा बोलती हैं कि लगता है जैसे अपने होने का कर्ज उतार रही हैं । आप बैठे सुनते रहिए जब तक मौका मिले । अमरूद के पेड़ से एक कच्चा फल गिरता है, कुतरा हुआ । ये गिलहरी का काम है, बहुत शैतान हैं । कितने सारे फल रोज गिरा देती है । सोचता हूँ ये आँगन, ये फल वाले पेड़, किलकारियों और उछलकूद के नाम ही तो थे । लगता है अकेला नहीं हूँ, भरापूरा घर है । सबने मिल कर इसे अपना घर बनाया है । जोइंट फेमिली है हमारी, और हुकुम है क्वारंटाइन में रहो !!
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