आलेख
व्यंग्य साहित्य की महत्वपूर्ण विधा
है और इन दिनों व्यंग्य लेखन खूब हो रहा है । लेकिन हालात ऐसे हैं कि इस पर पूरी
तरह खुश नहीं हुआ जा सकता है । केवल व्यंग्य ही नहीं कविताओं और लाघुकथाओं का ‘उत्पादन’
भी खूब है । परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि छप खूब रहे हैं लेकिन पढ़ने वाले घटते जा
रहे हैं । दैनिक दनादन, ख़बर ब्लास्ट, धरम धमाका, ज्वाला ज्योति टाईप सैकड़ों
अख़बारनुमा प्रकाशन हो रहे हैं । लघुपत्रिकाएं भी खूब निकल रही हैं । अब तो
इ-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हो रहा है । चाहे रस्मीतौर पर ही सही इन्हें व्यंग्य,
लघुकथा, कविता वगैरह की जरुरत रहती है । साहित्य कभी अख़बार में सम्मान के साथ छपता था, लेकिन
अब फिलर की तरह इस्तेमाल हो रहा है । बड़े अख़बारों में साहित्य जरा सा ‘परोसा’ जाता
है जैसे राजस्थानी थाली में दो हरी मिर्च । तीन-चार सौ शब्दों में लिखे की मांग ज्यादा है चाहे उसमें कोई बात
न हो, सिर्फ शाब्दिक जुगाली हो । मालिकों की दिलचस्पी विज्ञापनदाताओं में है,
उन्हें लेखक ज्यादा मिल जाते हैं । इससे सुविधा यह होती है कि विज्ञापन से बच रही
जगह इन छोटी रचनाओं से भरी जा सकती है । मोटे तौर पर यह स्थिति है पत्र-पत्रिकाओं
की ।
कुछ लोग रोज दो-तीन ‘व्यंग्य’ लिख
डालते हैं । मुर्गी रोज अंडा दे तो खुश हुआ जा सकता है लेकिन यही काम व्यंग्यकार
करे तो पाठक निराश होता है । हालाँकि शरद जोशी प्रतिदिन लिखते थे लेकिन वे शरद
जोशी थे । उनका विषय चयन, दृष्टि, भाषा और समझ साधना से विकसित हुई थी । वे
पारिश्रमिक ले कर लिखते थे । अब तो लेखक को पारिश्रमिक देने का चलन प्रायः खत्म हो
गया है । लेकिन कोई दिक्कत नहीं, आत्ममुग्ध
लेखक कतरन या इ-कतरन पा कर खुश है । इधर लेखकों में एक नई लोटम-लोट होड़ दिखाई देने
लगी है । आप लिख रहे हैं, आपके लिखे का उपयोग पत्र-पत्रिकाएं मुफ्त में करती हैं ।
लेकिन परम-आभारी लेखक हो रहा है !! फेसबुक और वाट्सएप पर व्यंग्यकार के शब्द संपादकों
के लिए साष्टांग हुए जा रहे हैं । छपने पर इतना लज्जित होना पड़े तो अगली पीढ़ी सोच
में पड़ जाएगी । इस पर विचार करने की जरुरत है । लेखक को अपने सम्मान की रक्षा
स्वयं करना होगी । अगर ये काम हम खुद नहीं कर पा रहे हैं तो दूसरा कैसे करेगा !! किसी
समय ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ जैसे विषय पर गंभीर विमर्श हुआ करता था । आज मान लिया
गया है कि ‘मैं छपता हूँ इसलिए लिखता हूँ’ । लेखक के दिमाग से समाज, व्यवस्था,
मूल्य और बदलाव जैसे लक्ष्य धूमिल होते जा रहे हैं । दूसरी तरफ पुस्तक प्रकाशन का
क्षेत्र मंडी हो गया है । संपादक न अख़बारों में हैं न पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र
में । लिखी सामग्री लेकर आइये, किताब लेकर जाइये, यही नहीं अब तो लगता है किताब
लेकर आइये और पुरस्कार लेकर जाइये । साहित्य लूडो हो गया है, पासा फैकों और खेल शुरू
। तपस्या और साधना का साथ छोड़ कर ज्ञान वाट्सएप के अंधे घोड़े पर सवार है । लिखने वालों में भी पढ़ने की आदत समाप्त हो
रही है । समय बहुत तेजी से बदल रहा है । दो तीन महीने में फटाफट फर्राटेदार व्यंग्यकार बना जा रहा है ।
विचारणीय यह भी है कि क्या हम अन्दर
से भी व्यंग्यकार हैं ! भीतर कुछ उबलता है, कुछ खदबदाता है या सारे तेवर प्लास्टिक
हैं ? कबीर ने कहा है “मन न रंगाये जोगी कपड़ा रंगाये; मन न फिराये जोगी मनका
फिराये” । व्यंग्य आक्रोश का लेखन है, व्यंग्य हस्तक्षेप है, व्यंग्य असहमति का
लेखन हैं । व्यंग्य चिरौरी या चाटुकारिता नहीं हैं, न ही व्यंग्य केवल मनोरंजन या
गुदगुदी है । सपाट, थुलथुले और पिलपिले व्यंग्य पत्र-पत्रिकाओं में कमर्शियल ब्रेक
की तरह होते हैं । जबकि व्यंग्य एक गंभीर और उद्देश्यपूर्ण लेखन है, जिसका प्रकाशन
भी गंभीरता से होना चाहिए । आजकल लेखक राजनीति पर व्यंग्य लिखने से बचते हैं या लिखते
भी हैं तो प्रशस्ति-वाचन की तरह, वंदना करते हुए । या फिर लेखक बहुत से
सेफ-सब्जेक्ट उठाता है, जैसे फूल-तितली, पत्नी-साली, मेकअप-मोटापा, दाढ़ी-मूंछ,
कवि-कविता आदि । अब तो पुरस्कार वगैरह पर भी खूब कलम घिसाई हो
रही है । मानो हमने तय कर लिया है कि सत्ता और व्यवस्था को छूना नहीं है । किसी को
नाराज नहीं करना है, लोग कहीं काटने वाला लेखक न मान लें, कहीं कोई देशद्रोही न कह
दे, सरकार दुश्मन न हो जाये । सब लोग अच्छा कहें, वाह वाह करें, लाइक-कमेन्ट मिल
जाएँ तो व्यंग्यकार-जी का दिन शुभ हुआ । यदि हमारे मन में कोई सवाल नहीं है, कोई
आशंका नहीं है, सब अच्छा लग रहा है, चाहे बुरा ही क्यों न हो । हमें किसी से कोई
मतलब नहीं है, न आम आदमी से, न समाज से, न ही देश से । हम छप कर सुखी हैं और हमारा
लेखन भी स्वान्तः सुखाय है ! हमें किसी से
कुछ लेने देना नहीं है, न हमारी कोई जिम्मेदारी है । यदि यही अभीष्ट है लेखन का तो
हमें जरा ठहर कर अपने लेखक होने को जाँचना चाहिए । अगर हम व्यंग्यकार हैं तो मान
कर चलिए कि छोटे-बड़े जोखिम के दायरे में भी हैं । व्यंग्य लेखन हमारा चुनाव है तो
जोखिम उठाने की हिम्मत रखना भी जरुरी है । सिस्टम को देख कर अन्दर जो आक्रोश पैदा
हो जाता है उसे बेबकी और खरेपन के साथ, लेकिन सलीके से बाहर आने दीजिये, रोकिये मत
। आक्रोश को कीर्तन में बदल कर पेश किया तो हम किसी के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे,
स्वयं अपने साथ भी नहीं । अगर साहित्य से किसी का हित नहीं हो रहा, परिष्कार,
संस्कार नहीं हो रहा, वैचारिक स्तर पर कोई सुधार नहीं हो रहा, और तो और ऐसी लुगदी व्यंग्य
रचनाओं से खुद लेखक को भी कोई मुकाम हासिल नहीं हो रहा है, तो क्यों लिखी जाना
चाहिए !! सिर्फ इसलिए कि छप जाता है ? परसाई, शरद जोशी की परंपरा का वाहक बाज़ार के
सामने बैरा हो गया लगता है । आर्डर मिलता
है कि कुछ भी ले आओ खट्टा-मीठा मजेदार, लेकिन ‘स्पाइसी’ नहीं होना चाहिए । हम देख
रहे हैं कि व्यंग्य को चुटकुलों का फैमिली मेंबर बनाया जाने लगा है ! सौ डेढ़ सौ
शब्दों की रचनाएँ मांगी जा रही हैं ! कल कहेंगे पचास शब्द का व्यंग्य भेजिए । और
अगर हम ही इनकी मांग पूरी करते रहे तो विधा की विकृति के लिए जिम्मेदार कौन होगा ?
सवाल यह कि रास्ता क्या है ? जो
फिसलन चल रही है उसे जारी रहने दें ? पोल्ट्री फार्म की मुर्गी बनें या लेखक के
तौर पर अपने सम्मान की रक्षा के लिए जागरूक हों । परसाई ने लिखा है कि “डरो मत किसी
से, डरे कि मरे, सीने को ऊपर से कड़ा कर लो, भीतर तुम जो भी हो, जिम्मेदारी को
गैर-जिम्मेदारी से निबाहो” । यहाँ गैर-जिम्मेदारी से मतलब यथाशक्ति हस्तक्षेप से
है । लेखक के लिए भी देश और समाज पहले है । गरीब, बेहाल आमजन पहले हैं । इसके लिए
सत्ता, व्यवस्था से भिड़ना पड़े तो यह कर्तव्य है हमारा ।
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