Friday, December 23, 2022

लुगदी लेखन से संक्रमित व्यंग्य विधा


 आलेख 

जवाहर चौधरी 


व्यंग्य साहित्य की महत्वपूर्ण विधा है और इन दिनों व्यंग्य लेखन खूब हो रहा है । लेकिन हालात ऐसे हैं कि इस पर पूरी तरह खुश नहीं हुआ जा सकता है । केवल व्यंग्य ही नहीं कविताओं और लाघुकथाओं का ‘उत्पादन’ भी खूब है । परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि छप खूब रहे हैं लेकिन पढ़ने वाले घटते जा रहे हैं । दैनिक दनादन, ख़बर ब्लास्ट, धरम धमाका, ज्वाला ज्योति टाईप सैकड़ों अख़बारनुमा प्रकाशन हो रहे हैं । लघुपत्रिकाएं भी खूब निकल रही हैं । अब तो इ-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हो रहा है । चाहे रस्मीतौर पर ही सही इन्हें व्यंग्य, लघुकथा, कविता वगैरह की  जरुरत रहती है ।  साहित्य कभी अख़बार में सम्मान के साथ छपता था, लेकिन अब फिलर की तरह इस्तेमाल हो रहा है । बड़े अख़बारों में साहित्य जरा सा ‘परोसा’ जाता है जैसे राजस्थानी थाली में दो हरी मिर्च । तीन-चार सौ शब्दों  में लिखे की मांग ज्यादा है चाहे उसमें कोई बात न हो, सिर्फ शाब्दिक जुगाली हो । मालिकों की दिलचस्पी विज्ञापनदाताओं में है, उन्हें लेखक ज्यादा मिल जाते हैं । इससे सुविधा यह होती है कि विज्ञापन से बच रही जगह इन छोटी रचनाओं से भरी जा सकती है । मोटे तौर पर यह स्थिति है पत्र-पत्रिकाओं की ।

कुछ लोग रोज दो-तीन ‘व्यंग्य’ लिख डालते हैं । मुर्गी रोज अंडा दे तो खुश हुआ जा सकता है लेकिन यही काम व्यंग्यकार करे तो पाठक निराश होता है । हालाँकि शरद जोशी प्रतिदिन लिखते थे लेकिन वे शरद जोशी थे । उनका विषय चयन, दृष्टि, भाषा और समझ साधना से विकसित हुई थी । वे पारिश्रमिक ले कर लिखते थे । अब तो लेखक को पारिश्रमिक देने का चलन प्रायः खत्म हो गया है  । लेकिन कोई दिक्कत नहीं, आत्ममुग्ध लेखक कतरन या इ-कतरन पा कर खुश है । इधर लेखकों में एक नई लोटम-लोट होड़ दिखाई देने लगी है । आप लिख रहे हैं, आपके लिखे का उपयोग पत्र-पत्रिकाएं मुफ्त में करती हैं । लेकिन परम-आभारी लेखक हो रहा है !! फेसबुक और वाट्सएप पर व्यंग्यकार के शब्द संपादकों के लिए साष्टांग हुए जा रहे हैं । छपने पर इतना लज्जित होना पड़े तो अगली पीढ़ी सोच में पड़ जाएगी । इस पर विचार करने की जरुरत है । लेखक को अपने सम्मान की रक्षा स्वयं करना होगी । अगर ये काम हम खुद नहीं कर पा रहे हैं तो दूसरा कैसे करेगा !! किसी समय ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ जैसे विषय पर गंभीर विमर्श हुआ करता था । आज मान लिया गया है कि ‘मैं छपता हूँ इसलिए लिखता हूँ’ । लेखक के दिमाग से समाज, व्यवस्था, मूल्य और बदलाव जैसे लक्ष्य धूमिल होते जा रहे हैं । दूसरी तरफ पुस्तक प्रकाशन का क्षेत्र मंडी हो गया है । संपादक न अख़बारों में हैं न पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में । लिखी सामग्री लेकर आइये, किताब लेकर जाइये, यही नहीं अब तो लगता है किताब लेकर आइये और पुरस्कार लेकर जाइये । साहित्य लूडो हो गया है, पासा फैकों और खेल शुरू । तपस्या और साधना का साथ छोड़ कर ज्ञान वाट्सएप के अंधे घोड़े पर सवार  है । लिखने वालों में भी पढ़ने की आदत समाप्त हो रही है । समय बहुत तेजी से बदल रहा है । दो तीन महीने में  फटाफट फर्राटेदार व्यंग्यकार बना जा रहा है ।

विचारणीय यह भी है कि क्या हम अन्दर से भी व्यंग्यकार हैं ! भीतर कुछ उबलता है, कुछ खदबदाता है या सारे तेवर प्लास्टिक हैं ? कबीर ने कहा है “मन न रंगाये जोगी कपड़ा रंगाये; मन न फिराये जोगी मनका फिराये” । व्यंग्य आक्रोश का लेखन है, व्यंग्य हस्तक्षेप है, व्यंग्य असहमति का लेखन हैं । व्यंग्य चिरौरी या चाटुकारिता नहीं हैं, न ही व्यंग्य केवल मनोरंजन या गुदगुदी है । सपाट, थुलथुले और पिलपिले व्यंग्य पत्र-पत्रिकाओं में कमर्शियल ब्रेक की तरह होते हैं । जबकि व्यंग्य एक गंभीर और उद्देश्यपूर्ण लेखन है, जिसका प्रकाशन भी गंभीरता से होना चाहिए । आजकल लेखक राजनीति पर व्यंग्य लिखने से बचते हैं या लिखते भी हैं तो प्रशस्ति-वाचन की तरह, वंदना करते हुए । या फिर लेखक बहुत से सेफ-सब्जेक्ट उठाता है, जैसे फूल-तितली, पत्नी-साली, मेकअप-मोटापा, दाढ़ी-मूंछ, कवि-कविता आदि ।   अब तो पुरस्कार वगैरह पर भी खूब कलम घिसाई हो रही है । मानो हमने तय कर लिया है कि सत्ता और व्यवस्था को छूना नहीं है । किसी को नाराज नहीं करना है, लोग कहीं काटने वाला लेखक न मान लें, कहीं कोई देशद्रोही न कह दे, सरकार दुश्मन न हो जाये । सब लोग अच्छा कहें, वाह वाह करें, लाइक-कमेन्ट मिल जाएँ तो व्यंग्यकार-जी का दिन शुभ हुआ । यदि हमारे मन में कोई सवाल नहीं है, कोई आशंका नहीं है, सब अच्छा लग रहा है, चाहे बुरा ही क्यों न हो । हमें किसी से कोई मतलब नहीं है, न आम आदमी से, न समाज से, न ही देश से । हम छप कर सुखी हैं और हमारा लेखन भी स्वान्तः सुखाय है !  हमें किसी से कुछ लेने देना नहीं है, न हमारी कोई जिम्मेदारी है । यदि यही अभीष्ट है लेखन का तो हमें जरा ठहर कर अपने लेखक होने को जाँचना चाहिए । अगर हम व्यंग्यकार हैं तो मान कर चलिए कि छोटे-बड़े जोखिम के दायरे में भी हैं । व्यंग्य लेखन हमारा चुनाव है तो जोखिम उठाने की हिम्मत रखना भी जरुरी है । सिस्टम को देख कर अन्दर जो आक्रोश पैदा हो जाता है उसे बेबकी और खरेपन के साथ, लेकिन सलीके से बाहर आने दीजिये, रोकिये मत । आक्रोश को कीर्तन में बदल कर पेश किया तो हम किसी के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे, स्वयं अपने साथ भी नहीं । अगर साहित्य से किसी का हित नहीं हो रहा, परिष्कार, संस्कार नहीं हो रहा, वैचारिक स्तर पर कोई सुधार नहीं हो रहा, और तो और ऐसी लुगदी व्यंग्य रचनाओं से खुद लेखक को भी कोई मुकाम हासिल नहीं हो रहा है, तो क्यों लिखी जाना चाहिए !! सिर्फ इसलिए कि छप जाता है ? परसाई, शरद जोशी की परंपरा का वाहक बाज़ार के सामने बैरा हो गया लगता है । आर्डर  मिलता है कि कुछ भी ले आओ खट्टा-मीठा मजेदार, लेकिन ‘स्पाइसी’ नहीं होना चाहिए । हम देख रहे हैं कि व्यंग्य को चुटकुलों का फैमिली मेंबर बनाया जाने लगा है ! सौ डेढ़ सौ शब्दों की रचनाएँ मांगी जा रही हैं ! कल कहेंगे पचास शब्द का व्यंग्य भेजिए । और अगर हम ही इनकी मांग पूरी करते रहे तो विधा की विकृति के लिए जिम्मेदार कौन होगा ?

सवाल यह कि रास्ता क्या है ? जो फिसलन चल रही है उसे जारी रहने दें ? पोल्ट्री फार्म की मुर्गी बनें या लेखक के तौर पर अपने सम्मान की रक्षा के लिए जागरूक हों । परसाई ने लिखा है कि “डरो मत किसी से, डरे कि मरे, सीने को ऊपर से कड़ा कर लो, भीतर तुम जो भी हो, जिम्मेदारी को गैर-जिम्मेदारी से निबाहो” । यहाँ गैर-जिम्मेदारी से मतलब यथाशक्ति हस्तक्षेप से है । लेखक के लिए भी देश और समाज पहले है । गरीब, बेहाल आमजन पहले हैं । इसके लिए सत्ता, व्यवस्था से भिड़ना पड़े तो यह कर्तव्य है हमारा ।

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Monday, August 15, 2022

समय से सक्षात्कार कराता व आलोचनात्मक विवेक से तंज करता संग्रह



समीक्षा 
सुरेश उपध्याय,इंदौर
 

                गांधी जी की लाठी मे कोंपले ख्यात व्यंग्यकार  जवाहर चौधरी का अद्विक पब्लिकेशन प्रा. लि., दिल्ली से हाल ही मे प्रकाशित ग्यारन्हवा व्यंग्य संग्रह है. साहित्य की विभिन्न विधाओ मे सक्रिय श्री चौधरी के ग्यारह व्यंग्य संग्रह,  दो उपन्यास, दो कहानी संग्रह, एक लघुकथा संग्रह व एक नाटक पूर्व मे प्रकाशित है.

          व्यंग्य को साहित्य की विधा के रूप मे स्थापित होने मे लम्बी जद्दोजहद से गुजरना पडा है. उसके पक्ष – विपक्ष के अपने वाजिब तर्क है. यदि आज भी कहीं संशय की स्थिति है तो इस संग्रह को अवश्य पढा जाना चाहिए,यह एक मुक्कम्मल व्यंग्य  संग्रह है. सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई ने व्यंग्य को जीवन से साक्षात्कार और जीवन की आलोचना कहा है. इस कसौटी पर भी यह व्यंग्य संग्रह खरा उतरता है.

धर्म, अर्थ, समाज, राजनीति, मीडिया व पारिस्थिति की जनजीवन को गहराई से प्रभावित करते है. इस संग्रह मे इन सभी क्षेत्र मे व्याप्त विसंगतियों , विडम्बनाओं  व विद्रुपताओं  को उकेरा गया है. राजनीति, लोकतांत्रिक मूल्यो व संस्थाओं  के क्षरण की चिंताए इसमें  दृष्टिगोचर होती है. भूमंडलीकरण, निजीकरण व उदारीकरण की आर्थिक नीतियों  से उपजी गरीबी, महंगाई , बेरोजगारी, मंदी, भुखमरी , आत्महत्याओ की चिंता के साथ शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र मे लूट व उपभोक्तावाद के प्रभावो को भी रेखांकित किया गया है. मौद्रीकरण के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र की बिक्री पर तीखा व्यंग्य किया गया है.

            आधुनिक दृष्टि, प्रगति के दावों  व अनेक कानूनों  के बावजूद सामाजिक विषमता व भेदभाव की जो स्थितिया हैं , उसका समाजशास्त्री व मनोविज्ञानी की तरह विश्लेषण जवाहर चौधरी जी ने किया है. इस अंतर्द्वंद को कठिन डगर दलित के घर की मे गहराई से उभारा गया है. स्थानीय से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक की घटनाओ और परिदृष्य का एक बडा केनवास इसमे है. आदमी है या कोई वायरस और चिडिया से खतरा मे मजहबी कट्टरपंथ व आतंकियो के दमन मे स्त्रियों  की विकराल होती तकलिफों  पर तंज है.

                  संग्रह की कई रचनाए कोरोना काल की है. इस दौर के सबसे विभत्स वाक्य आपदा मे अवसर  का उल्लेख भले इसमे न हो – इसकी विभत्सता का प्रभावी चित्रण किया गया है.  बेमारी बाजार मे राम-देसी-वीर  मे इस कालखंड की लूट, कालाबाजारी, अमानुषता के साथ पारिवारिक दायित्व व अंधविश्वास को भी रेखांकित किया गया है.  गांधी जी की लाठी मे कोंपले  फिल्म पीपली लाइव व गणेश जी के दूध पीने के समय की याद ताजा कर देती है – जिसे अवैज्ञानिक व अंधविश्वास आधारित अफवाह के प्रसार के लिए लिटमस टेस्ट की तरह देखा गया था.

               भावनाओं के आहत होते, झूठ को सच के तौर पर परोसते, राष्ट्रप्रेमी होने के दावे करते, राष्ट्रद्रोही के प्रमाणपत्र बांटे जाते, विकास की माला जपते तथा भयावह कारुणिक स्थिति में  आदमी की खुशहाली के दावे करते समय पर प्रभावी व्यंग्य को –  नए अंधो का हाथी, लांग लिव सुल्तान, अनुभव कीजिए आजादी, खुशी एक हवा, अश्वत्थामा हतौ, भावना आहत करे – सत्ता मे आए, सब चंगा है जी  शीर्षक व्यंग्य मे देखा जा सकता है।  बानगी स्वरूप कुछ उद्धरण – “ जिसका झूठ भी सच लगे वही सच्चा लीडर होता है।  जब वह कहता  है कि सब अच्छा है तो सबको मान लेना चाहिए कि सब अच्छा है. जो शंका करके शगुन बिगाडेगा वह देशद्रोही माना जाएगा (नए अंधो का हाथी), “जब सुल्तान देशप्रेम की बात करते है तो इसका मतलब रियाया यह माने कि वे मोहब्बत कर रहे है. ऐसे मे रियाया को चाहिए कि मोहब्बत मे सच – झूठ, सही – गलत, वादा – सौदा वगैरा कुछ नही देखे – सुल्तान प्रेम ही देशप्रेम है ( लांग लिव सुल्तान), “कोई कितने भी मन्हगाई को लेकर उकसाए, पेट्रोल के भाव बताए, कोरोना वाले मौत के आंकडे गिनवाए,आप विचलित नही होंगे, शांति से बैठेंगे. जिस समय आजादी का आनंद लेने की प्रक्रिया चल रही है, उस समय किसी भी प्रकार का विचलन देशद्रोह माना जाएगा (अनुभव कीजिए आझादी)”, “धराधीश के लिए खुश होना सच्ची देशभक्ति है ----- हर समय रूदन का दासकेपिटल लिए फलफूल रही खुशी मे खलल डालना देशद्रोह है ( खुशी – एक हवा)”, “जो झूठ को झूठ मानते है वे गलत तरीके से शिक्षित है और कम्यूनिस्ट भी है, इनसे सख्ती से निपटने की जरूरत है. हाथो मे लाल रूमाल लेकर, सच के नाम पर आदर्श सामाजिक व्यवस्था को बिगाडने की इजाजत इन्हे नही दी जा सकती है (अस्वत्थामा हत:)”, “चुनाव आते ही भावना आहत कर दे या भावना आहत हो चुकी हो तो तुरंत चुनाव करवा ले  -------- भावनाए पोल्ट्री फार्म की मुर्गियो की तरह होती है, जिन्हे मार देने के लिए ही पाला जाता है. लोकतंत्र मे आहत भावना सत्ता के लिए रेड कारपेट होती है (भावना आहत करे –सत्ता मे आए), “मजदूरो के पैर धोने से अर्थव्यवस्था और बैंको की कर्जनीति पर कोई असर नही पडेगा. जो लोग दशको से गरीबी हटाओ का नारा लगाते रहे है, उन पर पांच मजदूरो के पैरो की धुलाई भारी पडेगी ( धराधीश के कर-कमलो से)

                जनता की चुप्पी व जनपक्षधर राजनीति की कमजोर स्थिति का चित्रण भी इसमे है तो बेमेल राजनीतिक गठजोड पर शेर के नाखून पर नेल पालिश तथा पीठ खुजाइए सरकार मे प्रभावी तंज है. हिंदी भाषा और साहित्य के बारे मे समझ को लेकर तीखा तंज  प्रेमचंद मुंशी थे जो बाद मे सम्राट हो गए थे  (सम्राट मुंशी है जन्हा) किया गया है. विश्वविख्यात जर्मन नाटककार ब्रेख्त ने कहा था – जब जनता अपने नेताओ का विश्वास खो देती है तो उन नेताओ को अपने लिए दूसरी जनता चुन लेनी चाहिए’, जवाहर चौधरी एक अलग अंदाज मे कहते है  लोग देखना चाहते है लेकिन नही देख रहे है. लोग सोचना चाहते है लेकिन नही सोच रहे है. लोग बोलना चाहते है लेकिन नही बोल रहे है. शासन करने के लिए इससे बेहतर जनता और कन्हा मिलेगी (सब चंगा है जी)’.

               संग्रह की धारदार भाषा के साथ स्थानीय बोली व टोन व्यंग्य की प्रभावशीलता को कई गुना बढा देते है. प्रुफ की कुछ त्रुटिया अनदेखी रही है तथा  नए अंधो का हाथी  के बाद शिक्षा गैर जरूरी लगती है. यह सूचना क्रांति का युग है, जिसमे 24 घंटे सातो दिवस सैंकडो चैनल, रेडियो, प्रिंट मीडिया व सोशल मीडिया सक्रिय है. ऐसे मे वेक्सिन (प्रीवेंटिव) व रेमडेसिविर (क्यूरेटिव) को एक दिखलाना विस्मित करता है. आवरण चित्र मे लाठी पर बेल दिखाई दे रही है, दो-चार कोंपले फूटती दिखाई देती तो यह ज्यादा संगत दिखाई देता. बहरहाल, इस प्रभावी व्यंग्य संग्रह का स्वागत है. यह पाठको को आकृष्ठ करेगा, सोचने व विचार करने के लिए नए आयाम देगा व नए व्यंग्य लेखको को दिशा देगा, ऐसा विश्वास है.   

                                                                          सुरेश उपध्याय,इंदौर

                                                                              94245 94808

Sunday, May 15, 2022

धापू पनाला में मंडलेकर : व्यंग्य चुपके चुपके जैसे कि प्रेम

 



समीक्षा 

जवाहर चौधरी



कैलाश मंडलेकर हिंदी व्यंग्य का एक महत्वपूर्ण नाम है . वे केवल लगातार नहीं लगातार अच्छा लिख रहे हैं . सद्य प्रकाशित ‘धापू पनाला’ उनका छठा व्यंग्य संग्रह है . धापू पनाला का अर्थ जानने की चेष्टा करेंगे तो निराश हो सकते हैं, दरअसल ये रचना में उल्लेखित एक गाँव का नाम है . पुस्तक में कुल बयालीस रचनाएँ हैं . जिनमे से अधिकांश व्यवस्था, जिसे सिस्टम कहने पर लोग जल्दी समझते हैं, और आम मानवीय चरित्र को ले कर रची गयी हैं . कैलाश जी की शैली इस तरह की है कब वे व्यंग्य करते, गुदगुदाते आगे निकल जाते हैं पता नहीं चलता . जैसे कोई नर्स बच्चे को चिड़िया दिखाते हुए इंजेक्शन लगा देती है और बच्चा समझ ही नहीं पता है कि रोऊँ या हँसू . सरलता से जटिल को कह जाना या जटिल को सरलता से कहना बहुत कठिन है जो यहाँ देखा जा सकता है . 

किताब को समझने के लिए किताब से ही कुछ लेना होगा . यों हर रचना में पंच हैं लेकिन कुछ उदाहरण बात को समझने के लिए . ‘चिंटू भैया के मध्य से व्यवस्था पर तंज देखें . – “चिंटू भैया होर्डिंग में हँसते हुए दिखाई दे रहे हैं. उनकी हँसी यह साबित कर रही है कि वे किसी भी बात पर या बिना किसी बात के भी हँस सकते हैं .सारा देश उनके लिये लाफ्टर क्लब जैसा है . इस देश में रह कर यदि कोई हँस नहीं रहा है तो या तो वह मूर्ख है या फिर डिप्रेशन का मरीज .” डेढ़ जीबी डाटा खा कर खाली बैठा बेरोजगार व्यंग्यकार के थाने  में अपनी एफआईआर लिखवाता नजर आता है, -“ अजीब विडम्बना है . कालेज के सामने खड़े हो तो पुलिस पकड़ती है . रेलवे प्लेटफार्म पर जाएँ तो जीआरपी तंग करती है . रात में बस स्टेंड पर वाचमेन धमकता है . बाज़ार में खड़े हो तो दुकानदार को शक होता है, छत पर जाएँ तो माँ बाप सवाल पूछते हैं . .... होस्टलों के दरवाजे उनके लिए बंद हैं वे कहाँ जा कर खड़े हों ? रात में खुद के घर में भी चोरों की तरह घुसते हैं .... माई बाप आप हमें बताओ हम किन दरवाजों पर दस्तक दें ?!” आज युवाओं की यही हालत है . उन्हें दिशा नहीं मिल रही है . वह पूरी तैयारी से लगेज ले कर खड़ा है जिस भी गाड़ी में जगह मिल जाएगी चढ़ जायेगा . फुरसतिया प्रेम के जोखिम भी खूब हैं, ‘जिस गली में तेरा घर न हो बलमा’ में वे बताते हैं – “यदि कोई देख नहीं रहा हो तो जूते खाने में किसी को ग्लानी नहीं होती है . पराये शहर में आदमी ख़ुशी खुशी पिट लेता है ... वह जब अपने शहर में आता है तो उसके चेहरे के हाव भाव से पता नहीं चलता कि अगला देहरादून में जूते खा कर आ रहा है .”    दूसरी रचना ‘चल चल रे नौजवान’ में कैलाश युवाओं की पीड़ा को विस्तार देते हैं , - “भाई साब बहुत कन्फ्यूजन है नौजवानों को . आगे आने के चक्कर में आइआइटी से एम टेक तक कर डाला बेचारों ने . बाद में एमबीए भी कर लिया . फिर जो जो कर सकते थे सब कर डाला . पढाई के पीछे जमीन बेच डाली, ऊपर से लोन भी ले फंसे बैंक से . अब हालत ये है कि सौ की वेकेंसी निकलती है तो लाखों पहुँच जाते हैं इंटरव्यू देने .” ये आज की त्रासद स्थिति है जिससे हर घर को गुजरना पड़ रहा है . 

दूसरी तरफ  जमीन के जादूगर हैं जो बिना कुछ अच्छा किये करोड़ों बना रहे हैं . ‘खेती को लाभ का घंधा बनाने वाले’ में इनका भी खुलासा है – “ सेठ जी मुस्कराते हुए खेत से बाहर  निकल गए . वे सोच रहे थे खेती को लाभ का धंधा बनाने के लिए जरुरी नहीं कि खेत में फसल ही उगाई जाये, खेत में कालोनी काट कर बंगले भी बनाये जा सकते हैं और करोड़ों कमाए जा सकते हैं .” बाज़ार की यह दुष्टता आज हर खेत भुगत रहा है . राजनीति समाज के हर कोने तक पहुँच गयी है, उसका असर सब पर होता है चाहे वह कितना ही गैर राजनितिक क्यों न हो . यही वजह है कि आज ज्यादातर व्यंग्य राजनीति पर होते हैं . व्यंग्य ‘बंगले के पीछे तेरी बेरी के नीचे’ एक सुन्दर रचना है . “बहुत झंझट है साहब मुख्यमंत्री बनाने में . ढाई-तीन साल तो बंगले के रेनोवेशन में ही लग जाते हैं . एक दफे आदमी विपक्ष से तालमेल बैठा सकता है पर ये वास्तु वालों और इंटीरियर वालों से निपटना मुश्किल है . पंडितजी ने कहा कि ग्रे कलर की टाइल्स आपकी राशी से मेल नहीं खाती है और स्विमिंग पूल भी इशान कोण पर हुआ तो सरे किये धरे पर पानी फिर जायेगा. जबकि इंटीरियर वाला स्विमिंग पूल को इंच भर भी खिसकने को राजी नहीं है ... गलत गठजोड़ होने पर न बंगला बचता है न कुर्सी .”  इसी तरह “गिरिजा बाबू की अंतिम यात्रा’ में उनके चेले की अमानवीयता उजागर होती है . नेता अपने उस्ताद के कारण ही बना है लकिन अब दूसरी पार्टी में होने से चाह कर भी उनके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होता है .   “गिरिजा बाबू उनके पिता तुल्य थे . राजनीति में रिश्तों का आकलन आसानी से नहीं किया जा सकता . यहाँ जो पिता तुल्य होता है वह कई बार पिता से भी बड़ा होता है . ... गिरिजा बाबू समझ गए कि उनका चेला पक्का लीडर बन चुका है . जो देश को भले ही डुबा दे पर खुद तैर कर निकल जायेगा .” कुछ संकेत समकालीन भी हैं –“इधर सब तरफ राष्ट्रीय भावना का बोलबाला है . आदमी पडौसी से भले ही जूतम पैजार कर ले पर राष्ट्र से झक मर कर प्रेम करता है . ... कचरा इकठ्ठा करने वाली गाड़ियों तक से राष्ट्र प्रेम के नगमें सुनाई देते हैं .”  देशभक्ति की परिभाषाएं बदल रही हैं . –“बार्डर पर लड़ते हुए गोली खाना ही देश भक्ति नहीं है . बैंक का घपला करके भी देश भक्त हुआ जा सकता है . शर्त बस इतनी है कि आप देश छोड़ कर मत जाइये . देश भक्ति का यह दुर्लभ नमूना है .” (चुप रहे तो दिल के दाग जलते हैं ) व्यंग्यकार का गुस्सा यहाँ समझा जा सकता है . 

कालोनी में अनेक दन्त  चिकित्सक अपना क्लिनिक खोले हैं . तमाम दांतों को गिनने के बाद बड़े भोले अंदाज में लेखक लिखता है “मैंने देखा है कि दांत दर्द के मामले में परिवार वाले ज्यादा मददगार साबित नहीं होते हैं . आप सौजन्तावश ऊपर की दाढ बताना चाहते हैं जहाँ दर्द हो रहा है, पर वे आपके मुंह में झांकने के बजाये बाहर सड़क पर मेंगनी कर रही बकरियों को देखना पसंद करते हैं”. कहने को ये सादे बोल हैं लेकिन घर में हप्ते भर का अबोला करने के लिए काफी हैं . इसी बात को अगली रचना ‘बिगड़ा हुआ कूलर और एक अदद ठेले वाले की तलाश’ में कुछ सफाई की तरह कहा है – “(कूलर का ) पंखा अपनी धुन में चलता रहता है और पम्प अपने तरीके से . दोनों में कोई गहरी अंतरंगता और तालमेल नहीं होता है . जैसे पति-पत्नी में नहीं होता है फिर भी गृहस्थी की गाड़ी चलती रहती है.”  स्कूल चाहे शहर के हों या गाँव के शिक्षकों की मानसिकता एक ही है . “बारिश के दिन ....” से बानगी है, –“ स्कूल में पढाई के आलावा सब कुछ होता था . शिक्षकगण संगीत के आयोजन के लिए प्रोत्साहित करते थे ताकि कुछ दिनों के लिए स्कूल की छुट्टी हो सके . संगीत का आयोजन जब चरमोत्कर्ष पर पहुँचता तब शिक्षक लोग ताड़ी पीने चले जाते थे . स्कूल का नाम दरअसल बहुउद्देशीय प्राथमिकशाला था . इस कारण उसका उपयोग अनेक उद्देश्यों के लिए किया जाता था .” बाज़ार व्यंग्यकार की नजर से अछूता नहीं है . “बाज़ार और व्यावसायिकता ने सारी पारंपरिक धरोहरों को सौदा सुलफ की वास्तु बना दिया है . यह नाली पर फर्शी रख कर इत्र की दुकान खोलने का दौर है . दुर्गन्ध से ऊर्जा पैदा करने की तकनीक खोजी जा रही है . सड़ांध का ऐसा महिमा मंडन पहले कभी नहीं हुआ .” (राष्ट्रिय त्योहारों का मौसम और दीनबंधु जी की उदासी ) 

संग्रह में अनेक रम्य रचनाएँ हैं जो पढ़ने का सुख ही नहीं देती हैं हमें अपना आसपास भी दिखाती हैं . शीर्षक रचना ‘धापू पनाला में बसंत की आगवानी’ पचपन वर्षीय मास्टर दयाराम में तमाम दुश्वारियों के बीच प्रेम के अंकुरित होने की कोमल कथा है . जीवन में अगर प्रेम हो तो आदमी के लिए कठिनाइयाँ कैसी भी हों कोई मायने नहीं रखती हैं . इसी तरह के जीवनोंपयोगी सन्देश और अनेक तुलसी के छंद भी पुस्तक को ऊंचाई प्रदान करते हैं . विश्वास है कि कैलाश मंडलेकर के पूर्व प्रकाशित व्यंग्य संग्रहों की तरह पाठक इसको भी पसंद करेंगे. हाल ही में मंडलेकर जी को मध्यप्रदेश का प्रतिष्ठापूर्ण ‘शरद जोशी सम्मान’ मिला है, उनकी व्यंग्य रचनाएँ इस सम्मान पर उनका हक़ साबित करती हैं . 


पुस्तक – धापू पनाला 

लेखक – कैलाश मंडलेकर 

प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सीहोर – मप्र 

प्रथम सांस्करण – २०२२ 

मूल्य – रु . २००/--


समय की नब्ज़ पकड़कर चलता एक व्यंग्य संग्रह


 समीक्षा आलेख : 

व्यंग्य संग्रह : गाँधीजी की लाठी में कोपलें 
लेखक : जवाहर चौधरी 
प्रकाशक : अद्विक पब्लिकेशन प्रा॰ लि॰ दिल्ली 
मूल्य : 160/- 
समीक्षक : शैलेन्द्र शरण 

"समय की नब्ज़ पकड़कर चलता 
एक व्यंग्य संग्रह"


प्रेमचंदजी साहित्य के  उद्देश्य के संबंध में कहते हैं कि - “निस्संदेह काव्य और  साहित्य का उद्देश्य  हमारी अनुभूतियों की तीव्रता बढ़ाना है, पर मनुष्य का जीवन केवल स्त्री-पुरुष प्रेम का जीवन नहीं है । साहित्य उसी रचना को कहेंगे,  जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और सुंदर हो तथा जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो।
साहित्य की विधा कोई भी हो वह साहित्य तभी होगी जब वह हमारी अनुभूतियों की तीव्रता को बढ़ाती हो, दिल और दिमाग पर असर डालती हो । जवाहर चौधरी जी का व्यंग्य संग्रह "गांधीजी की लाठी में कोंपलें" पढ़ते हुये प्रेमचंद जी के यही शब्द याद आ गए । जवाहर चौधरी जी के व्यंग्य इस कसौटी पर खरे उतरते हैं । उनके व्यंग्य उद्वेलित करते हैं, अनुभूतियों को कुरेदते हैं तथा मन और मस्तिष्क में हलचल सी पैदा करते हैं । 
उनकी एक रेखांकित करने वाली योग्यता यह है कि उनके व्यंग्य बमुश्किल देड़ से दो पृष्ठों से बड़े नहीं होते किन्तु इतने मजबूत होते हैं कि इससे अधिक कहने की उन्हें आवश्यकता ही महसूस नहीं होती और न पाठक को यह अवसर मिल पाता है कि वह कह सके कि इस विषय का अमुक पक्ष छूट गया । विषय चयन के बाद आरंभ करने के लिए उन्हें बस एक पंक्ति के सहारे की जरूरत होती है उसके बाद पंक्ति-दर-पंक्ति जो वे कहते हैं वह किसी चमत्कार की तरह हमें विस्मित करती चलती है । पूरे व्यंग्य को छोटी-छोटी की पंक्तियों में लिखते हुये वे सच इस तरह कहते चले जाते हैं जैसे बात-चीत कर रहे हों । प्रत्येक दूसरी पंक्ति में निहित, ऐसे कटाक्ष बमुश्किल ही अन्य कहीं देखने को मिलते हैं । ये पंक्तियाँ सूत्र वाक्य की तरह होती हैं । याद रह जाती हैं जैसे :
"निर्णय लिया कि नहीं खाएँगे दलित के घर, लेकिन पता नहीं कैसे-कैसे गाँधीछाप विचार आते रहे । "
"राजनीति में भरोसा गले में बंधा ताबीज़ होता है "
"आप आज़ाद हैं, इस बात का अनुभव करने का सबसे अच्छा तरीका ये हैं की मुँह बंद रखिए । बोलिए मत । बोले की अनुभव खत्म । "
"करते करते बैल भी सीख जाता हैं ।"
"समय के साथ शक्ल इतनी बदल जाती है कि आदमी खुद अपने आप से परायापन महसूस करने लगता है । " 
"तू चेनलवालों से जायदा अक्कलवाली हो गई है क्या ।"
"धार्मिक विद्वानों ने कहा है कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है और लोगों ने इस झूठ को श्रद्धापूर्वक पचा लिया । इसी को राष्ट्रप्रेम कहते हैं । " 
"राजनीति कुर्सी के पाये से बंधी कुतिया है । जिसे बैठना हो उसे कुतिया की पीठ सहलाना ही पड़ती है । " 
ऐसे उदाहरण जवाहर चौधरी जी के प्रत्येक व्यंग्य में बहुतायत से पढ़ने को मिलते हैं । 
लेखक मनोभावों को भी व्यंग्य में बड़ी कुशलता से व्यक्त करते हैं । "रॉयल्टी !  ये क्या होता हैं ?" शीर्षक व्यंग्य में इसका सटीक उदाहरण देखने को मिलता है । 
"रॉयल्टी! ये क्या होता है ?" प्रकाशक ने पाण्डुलिपि पर रखे पेपरवेट को उठाकर किनारे किया। "
उनके व्यंग्य के कंटैंट हमेरे मन-मस्तिष्क को आलोकित करते चलते हैं और मुखमंडल को प्रफुल्लित, जैसे हमें जो बात कहनी थी वह बात लेखन ने सटीक उसी तरह कह दी हो । उनके व्यंग्य के विषय विविध हैं । लगभग सभी विषयों पर उनकी कलम चली है और खूब चली है । 
इस संग्रह के पहले ही व्यंग्य "नए अंधों का हाथी" की आरंभिक पंक्तियाँ बेहद सशक्त और निर्भीक हैं वे लिखते हैं " अंधे वे भी होते हैं जिनकी आँखें होती हैं । जैसे खोपड़ी होने का यह मतलब नहीं कि आदमी में दिमाग भी होगा । कहते हैं अनुभव से आदमी सीखता है । अंधे स्पर्श से अनुभव करते हैं ।... अब हाथी देखने को नहीं मिलते हैं । सुना है राजनीति में आ गए हैं । राजनीति में सारे हाथी नहीं होते हैं ; घोड़े, गधे, लोमड़, सियार ही नहीं मेंढक भी होते हैं । राजनीति अगर ठीक से खेली जाये तो मेंढक ही आगे चलकर हाथी हो जाता है ।"  उनकी दृष्टि में राजनीति खेल की तरह है जिसमें मेंढक भी वक़्त पड़ने पर कमाल दिखा सकता है । यह व्यंग्य वर्तमान राजनीति की पड़ताल भी करता है और राजनीतिक विदुपताओं पर उंगली उठाने से नहीं चूकता, न ही किसी तरह का संकोच करता है । जबकि ऐसी निडरता से अधिकतर लेखक बचते नज़र आते हैं । ऐसी निर्भीक अभिव्यक्ति में जोखिम होता है किन्तु जवाहर जी उठाते हैं और सच कहने से गुरेज नहीं करते । वे इस जोखिम से वाकिफ भी हैं इसलिए किताब की छोटी सी भूमिका में कह देते हैं कि " अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर पहरे बहुत हैं लेकिन व्यंग्य प्रायः पकड़ से बाहर रहता है, जब तक कि कोई हाथ धोकर ही पीछे न पड़ा हो । जवाहर चौधरी जी विनम्र भी हैं वरिष्ठ, अनुभवी और स्थापित व्यंग्यकार होकर भी बड़ी विनम्रता से कहते हैं । " हिन्दी में बड़े-बड़े व्यंग्य लेखक सक्रिय हैं ; मध्यप्रदेश तो व्यंग्य का गढ़ ही है । इनके बीच 'जवाहर चौधरी' नाम तो बहुत छोटा है । " फलदार पेड़ की तरह है उनकी यह विनम्रता । 
उनका यह संग्रह कोविड काल की उपज है । यह एक ऐसा समय था जब दुनिया भय और अनिश्चितता से भरी हुई थी । घर के सदस्य कोविड नियमों का पालन करते हुये 'घर में ही एक दूसरे से दूरी बनाए हुये थे । जवाहर भाई इस विषय में लिखते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से बहुत उथल-पुथल सी मची रही मन में । सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक वातावरण विचलित करने वाला बना रहा । कुछ ऐसा घट रहा था जो मंजूर नहीं था लेकिन हो रहा था ।... कितने ही संबंधी, मित्र, परिचित कोविड की भेंट चढ़ गए । जो साथ उठते-बैठते रहे, उनके अंतिम दर्शन तक संभव नहीं हुये । अखबारों और सोशल मीडिया में असंख्य जलती चिताओं को देखकर दिल डूबने लगता है । हर पल संशय, पता नहीं कौन, कब चला जाये । एक छींक से घर का कोना-कोना सहम जाये । जिंदगी जैसे खिड़की पर बैठी गौरैया है, जरा॥ आहट से फुर्र हो जाएगी । लोग इतना डर गए कि हवाओं से भी उन्हें खतरा महसूस होने लगा । यह संवेदना, यह करुणा जवाहर जी के व्यंग्यों में भी यत्र-तत्र उभरकर अलग से दिखाई पड़ती है । सिर्फ कविता ही करुणा से नहीं उपजी, लेखन की प्रत्येक विधा का आवश्यक तत्व है करुणा । 
उनके व्यंग्य की अंतिम पंक्ति किसी व्यङ्गोक्ति की तरह होती है जो हमें विचारों में जकड़ लेती है । इस स्थान पर वे अधिकतम श्रम करते प्रतीत होते हैं क्योंकि यह विशेषता उनके प्रत्येक व्यंग्य में परिलक्षित होती है । शीर्षक व्यंग्य 'गांधीजी की लाठी में कोपलें' के अंत का उदाहरण देखें :
"इधर देर से चुप बैठी चौधरानी बोल पड़ी, "पीपल जब मुंडेर पर उग सकता है तो गांधीजी की लाठी पे क्यूँ नहीं ! चौधरी ने घुड़क दिया, ओए चुप कर... । तू चेनलवालों से ज्यादा अक्कलवाली हो गई है क्या !  
गांधीजी की लाठी पर निकल आई कोपलों को लेकर मीडिया के घमासान को जवाहर जी इस व्यंग्य में बड़े प्रेम से घेरते हैं और जनसामान्य के भीतर जो बातें चल रही होती हैं, वह सब कह देते हैं ।
जवाहर चौधरी जी ने व्यंग्य का जो शिल्प गढ़ा है उसमें वे अलग से पहचाने जा सकते हैं । उनकी भाषा भी उनके नाम की ओर संकेत कर देती है । कम लिखकर अधिक कह जाने की यह कला सबके पास नहीं होती । कोई भी लेखक विषय पर आने के बाद उसे तराशता है, इस तराशने और अपनी बात के समर्थन में दो चार वाक्य अधिक लिख ही देता है । जबकि जवाहर जी के साथ ऐसा नहीं है । वे छोटे-छोटे वाक्यों से लेख को बांधते हैं और विषय से कतई नहीं दूर नहीं होते । समालोच्य किताब में ऐसा कोई भी व्यंग्य ऐसा नहीं है जो महत्वपूर्ण न हो । जिसे पढ़ा जाने से टाला जा सके । भाषा पर उनकी मजबूत पकड़ है, इसी भाषा से वे समाज की विषमताओं की नब्ज़ पकड़ते चलते हैं यहाँ तक कि वे पाठक की नब्ज़ पर भी बराबरी से पकड़ बनाए रखते हैं । समान्य और असामान्य विषयों पर छोटे-छोटे यह व्यंग्य अत्यधिक  कसावट लिए हुये तो हैं ही, साथ ही इनकी मारक क्षमता इन्हें पढ़कर ही महसूस की जाना चाहिए ।  
                   


  






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