Wednesday, July 8, 2020

नाटक ‘बकरी’ : हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का दस्तावेज़


आलेख 

                      जवाहर चौधरी  


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म: 15 सितम्बर1927; मृत्यु: 23 सितम्बर1983) वे प्रसिद्ध कवि एवं कथाकार थे । सर्वेश्वर दयाल सक्सेना 'तीसरे सप्तक' के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं ।  कविता के अतिरिक्त उन्होंने कहानीनाटक और बाल साहित्य भी रचा । वे आकाशवाणी में सहायक निर्माता; दिनमान के उपसंपादक तथा पराग के संपादक रहे । र्वेश्वर दयाल सक्सेना का साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ । चरचे और चरखेस्तम्भ में दिनमान में छपे आपके लेख विशेष लोकप्रिय रहे । सन 1983 में कविता संग्रह खूँटियों पर टंगे लोगके लिए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया । यहाँ उनके व्यंग्य नाटक बकरी पर एक टिप्पणी ।

 

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के इस राजनीतिक व्यंग्य नाटक का कथा सारांश यह है कि कुछ बेकार, अपराधी, उचक्कों को एक भिश्ती दिखता है जो मसक (बकरी की खाल में पानी भर कर छींटने-सींचने में उपयोग किया जाता है) से पानी छींटते और गाते उधर से गुजरता है । उसे देख उन्हें एक षड्यंत्रकारी युक्ति सूझती है । वे गाँव से एक बकरी पकड़ कर उसे गांधीजी की बकरी घोषित कर देते हैं । गरीब बकरी वाले का विरोध अनसुना कर दिया जाता है । वह गाँव वालों को लेकर आता है लेकिन उनकी भी नहीं चलती है । बकरी को महिमामंडित कर उसके प्रति आस्था जगाई जाती है और पूजा-पैसा सब मिलने लगता है । बकरी उनके लिए राजनीति चमकाने का साधन हो जाती है । दारोगा, पंडित, कानून  और धन सहयोगी होते हैं । बकरी सेवा संघ, बकरी सेवा प्रतिष्ठान, बकरी सेवा मण्डल आदि बनाए जाते हैं । एक युवा गाँव वालों को समझता है कि वे लोग तुम्हें मूर्ख बना रहे हैं । आज गांधी कि बता कर बकरी ले गए, कल कृष्ण कि बता कर गाय ले लेंगे परसों बलराम के बैल कह कर उन्हें छीन ले जाएंगे । लेकिन डरे, दबे, अशिक्षित, धर्मभीरु, असुरक्षित, निरुपाय गरीब गाँव वाले नहीं मानते । उधर बकरी उठाने वाले चुनाव चिन्ह ‘बकरी’ पर वोट लेने में सफल हो जाते हैं । जीत के बाद के होने वाले जश्न में उसी बकरी को पकाया जाता है । अब सत्ता है, सरकार है तो ईनाम, पुरस्कार, सहायता आदि का सिलसिला चलता है । चूंकि मसक वाले से ही उन्हें आइडिया मिला था, इसलिए उसको पुरस्कार के तौर पर बकरी की खुबसूरत ताजा खाल दी जाती है ताकि वह नयी मसक बना कर पूरे जोश के साथ अपना काम करे । नाटक का अंत भिश्ती के  बेटे और गाँव वालों के उग्र विरोध से होता है ।

1974 में लिखा गया सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का यह नाटक भारतीय लोकतन्त्र के उन छिद्रों को रेखांकित करता है जिनको आज भी दुरुस्त नहीं किया जा सका है । बल्कि यह कहा जा सकता है कि इनमें वृद्धि हुई है । पाँच दशकों में कई सरकारें बदलीं, अनेक पार्टियां सत्ता में आईं गईं लेकिन सत्ता का चरित्र नहीं बदला । विचारधाराएँ भिन्न हो सकती हैं, झंडे अलग हो सकते हैं, आदर्शों में होड हो सकती है लेकिन एक फार्मूले की तरह राजपथ के टेढ़े रास्तों में कहीं कोई बदलाव नहीं दिखाई देता है । हर सत्ता को धर्म, कानून, पुलिस, सेना और अपराधियों का संबल होता है ।  बकरी बोल नहीं सकती है सो उसका मनचाहा इस्तेमाल किया जा सकता है । यहाँ बकरी एक प्रतीक भर है । बकरी की जगह आज गाय हो सकती है, नदियां, पेड़, पौधे, पक्षी हो सकते हैं, दिवंगत महापुरुष, लीडर, संत आदि हो सकते हैं । यही क्यों बकरी कि जगह संस्कृति या इतिहास भी हो सकते हैं । आमजन रोटी से लड़ता रहे और  विचार तक नहीं पहुंचे । लोगों को उतना ही मिलना चाहिए कि वह अगले चुनाव में फिर वोट देते समय बहकने को तैयार किए जा सकें । हर दल  ने एक बकरी बांध रखी है, कोई गांधी की बता सकता है तो कोई अयोध्या की । बकरी को आगे करके वोट खींच लिए जाते हैं उसके बाद जनता जनार्दन को कुछ नहीं मिलता सिवा खाल के । बकरी हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का प्रामाणिक दस्तावेज़ है । नाटक हमारी राजनीति का कुरूप चेहरा दिखाता है जो पाठक/दर्शक स्तब्ध कर देता है । 

नाटक में जगह जगह पंच लाइन हैं जिनकी मार दूर तक जाती है । बकरी वाला बताता है कि उसकी बकरी दो हजार की है तो जवाब आता “गांधीजी की बकरी है, दो हजार की नहीं सौ करोड़ की है” (अब सवा सौ )। “गांधी जी कि बकरी शाकाहारी होती है ।“ “बकरी सादगी, प्रेम और अहिंसा का पाठ पढ़ती है ..... जब उसने आज तक तुझे कुछ कहा (पढ़ाया) नहीं तो बकरी तेरी कैसे हो गयी !” वगैरह । इस नाटक में पांच गीतों का रचनात्मक प्रयोग किया गया। प्रमुख गीत 'बकरी को क्या पता था, मशक बन कर रहेगी, पानी भरेंगे लोग और यह कुछ न कहेगी', 'धर्म-ईश्वर-भाग्य सबकी उंगलियों पर नाचता है', 'जिस धूल से शहरों में मची रंगरेलियां जिन छप्परों के बल पर खड़ी हैं हवेलियां उस आदमी को आदमी वह मानते नहीं, जब काम निकल जाता है पहचानते नहीं', 'हर ऐश करा जाएगी यह गांधी जी की बकरी' और 'दिन में दो रोटी के हो जब देश में लाले पड़े, हो सभी खामोश सबकी जबां पर ताले पड़े' से कथानक को प्रभावी बनाते हैं ।

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Monday, May 18, 2020

वो जो रस्किन बॉन्ड है !


आलेख 
जवाहर चौधरी 


रस्किन बॉन्ड का नाम मेरी उम्र के लोग भी बचपन से सुनते आ रहे हैं । बहुत से लोग उन्हें कहानी वाले बाबा भी कहते हैं । खूब कहानियाँ लिखी हैं उन्होने, खासकर बच्चों के लिए । 19 मई 1934 को भारत में ही जन्में थे रस्किन । आजादी के बाद वे भारत में ही रहे । माता-पिता गोरे, इंगलेंड से थे सो देखने में वे विदेशी लगते हैं लेकिन हैं भारतीय, और भारतीयता से भरे हुए भी । हिमाचल प्रदेश के कसौली में पैदा हुए थे सो पहाड़ी जीवन और प्रकृति उनकी रचनाओं में जीवंत हो कर आते हैं । इस समय यानी 19 मई 2020 को रस्किन 86 वर्ष के हैं और अभी भी काफी सक्रिय हैं । पिछले दिनों लिटरेरी फेस्टिवल में इंदौर आए थे वे और पूरी ऊर्जा से अपनी उपस्थिती दर्ज करवा रहे थे । रस्किन अविवाहित हैं और जाहिर है दैनिक जीवन में कुछ कठिनाइयों के साथ गुजर करते होंगे, खासकर इस उम्र में ।
रस्किन जब सत्रह साल के थे उनका पहला उपन्यास ‘रूम ऑन द रूफ’ छपा था । इसके लिए 1957 में उन्हें जॉन लिवेलीन राइस पुरस्कार मिला था । बाद में अनेक बड़े सम्मान और पुरस्कार रस्किन को मिले । जिसमें भारत का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार 1992 में, पद्मश्री-1999 और पद्मभूषण-2014 उल्लेखनीय हैं । उनके सुदिर्ध काम और योगदान को रेखांकित करने के लिए उन्हे लाइफ टाइम अचिवमेंट अवार्ड -2017 में दिया गया ।
रस्किन ने अनेक उपन्यास, कहानियाँ व निबंध लिखे हैं । कविता की उनकी चार पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं । उनकी लगभग एक सौ तीस किताबें प्रकाशित हैं अब तक । उनकी रचनाओं पर कई फिल्में भी बनी हैं । रस्किन की किताबें प्रायः पाठकों के बीच पहली पसंद होती हैं ।
एक बड़े लेखक का अध्ययन कक्ष प्रायः हमारी जिज्ञासा का सबब होता है । रस्किन कहाँ बैठ कर लिखते हैं । कब लिखते हैं । उनका कमरा कैसा है । बड़े लेखक का अध्ययन कक्ष भी भव्य होता होगा !! लेकिन यहाँ फोटो में रस्किन अपने अध्ययन कक्ष में दिखाई दे रहे हैं । इसे गौर से देखिए, एक बहुत साधारण सा कक्ष है जिसमें रखी सारी चीजें बहुत समान्य हैं । लगता है हमारा अपना ही टेबल और उस पर रखी बेतरतीब किताबें । पास में पड़ा हुआ एक साधारण सिंगल बेड बिस्तर है जिस पर औढने बिछाने की वही चादरें हैं जो हर दूसरे आम घर में दिखाई देती हैं । लकड़ी के दो सादे कस्बाई शेल्फ ठुके हुए हैं जिन पर अखबार बिछा कर समान रख हुआ है । टेल्कम पावडर, तेल की बोतल और कुछ दवाइयाँ भी दिखाई दे रही हैं । दीवार पर क्लिप से कार्य सूची टंगी हुई है । दोनों शेल्फ के बीच बहुत सी चिपकियाँ है जो यादी की का काम करती होंगी । पलंग के नीचे एक पुराना बक्सा है लोहे का । इसे देख कर बावर्ची फिल्म की याद आ रही है । जिसमें घर के मुखिया हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय अपने पलंग के नीचे लोहे बक्सा अंत तक दबाए रखते हैं । टेबल किताबों और फाइलों से इतनी भरी पड़ी है कि रस्किन को पलंग पर बैठ कर जरा सी जगह में लिखना पड़ रहा है । शायद उन्हें अपनी इस बेतरतीबी का ख्याल है इसलिए फोटो खींचने पर असहमति के तीव्र भाव उनके चेहरे पर साफ हैं । दो मनी प्लांट लगे हैं, शेल्फ पर किसी देवी की तस्वीर (पेंटिंग) रखी है दीवार पर भी दो चित्र हैं और एक कछुआ भी । पूरी तरह से एक मध्यवर्गीय समान्य भारतीय का कमरा है । कहीं से भी इसमें इंगलेंड या आधुनिकता की घुसपैठ दिखाई नहीं दे रही है । न ही ऐसी कोई सुविधाएं नजर आ रही हैं जो एक बड़े लेखक को अलग से रेखांकित करती हैं । कहते हैं एक सफल आदमी के पीछे औरत का हाथ होता है जो प्रायः उसकी पत्नी होती है । यहाँ पत्नी नहीं है और कमरा अस्तव्यस्त है तो जाहिर है उसका हाथ भी नहीं है । लेकिन रस्किन सफल है तो वो क्या है जो उन्हें रस्किन बॉन्ड बनाता है !!
शायद इसका जवाब बहुत पहले महाभारत में दिया गया है । अर्जुन को कुछ नहीं दिखता सिवा चिड़िया की आँख के । लेखक जो सुविधाओं में अपनी सफलता ढूंढते हैं वो भ्रम में हैं । बंगला लेखक शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने भी अपना पहला उपन्यास सत्रह साल की उम्र में झड़ियों के बीच बैठ कर लिखा था क्योंकि घर में विभिन्न कारणों से वे लिख नहीं सकते थे । लक्ष्य हो, लगन हो तो बाहरी सुविधा/असुविधा का खास महत्व नहीं रह जाता हैं । सुविधाएं ज़्यादातर मामलों में हमें भटकाती हैं और आलसी बनती हैं । किसी ने ठीक ही कहा है कि आराम, सुविधा और आलस्य के कारण हम वह भी नहीं कर पाते हैं जिसको करने में हम दक्ष या योग्य हैं ।

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Tuesday, April 14, 2020

क्वारंटाइन ! ... नहीं तो !



आलेख 
जवाहर चौधरी 

वैसे तो अक्सर इस खिड़की के पास बैठता हूँ, लेकिन इन दिनों यही एक जगह है जहाँ मुझे बैठने का मौका मिल रहा है । यह खिड़की खास तौर पर मुझे पसंद है, क्योंकि ये आँगन में खुलती है और सड़क से होते हुए दूर खड़े आसमान छूते टीवी टावर और उसके बाद अनंत तक दृष्टि को विस्तार दे देती है । नीला साफ आकाश, कुछ टुकड़े बादल, मंडराती चीलें इस वक्त दीख रही हैं । अभी लॉकडाउन के चलते प्लेन बंद हैं, वरना रोजाना सुबह सात बीस पर मुंबई की पहली उड़ान इसी खिड़की से हो कर जाती है । बांग्ला फिल्मों में जब नायक या नायिका कोई महत्वपूर्ण संवाद बोल कर खिड़की से बाहर देखते हैं तो दृश्य में दूर एक ट्रेन धुंवा उड़ाती गुजरती है । लगता है ढेर सारा अवसाद ट्रेन के साथ छुक छुक करता चला गया । दर्शक एक राहत सी महसूस करते होंगे । ऐसा ही कुछ प्लेन को देख कर भी लगता है । कई बार जब मन उदास होता है इस खिड़की से जरूरी ऊर्जा ले कर उठता हूँ । आज जब क्वारंटाइन में हूँ तो ऑक्सीज़न भी यहीं से मिल रही है, ताजी हवा । खिड़कियाँ हवाओं से कितना याराना रखती हैं । चालीस दिनों के क्वारंटाइन में जीवन मानों इस खिड़की पर सिमट आया है ।
उम्र के बढ़ते जाने के साथ व्यक्ति का संसार सिकुड़ता जाता है । पिताजी की याद आती है । आपाधापी इतनी कि भोर में निकलते तो शाम से पहले कभी घर लौटना उनके लिए संभव नहीं था । लेकिन उम्र के साथ वे अनिच्छा पूर्वक सिमटते चले गए । शहर से मोहल्ला, गली,  उसके बाद घर आँगन और अंत में बिस्तर । संसार इसी तरह किश्तों में छूटता है शायद । उस पुराने घर में ऐसी खिड़की नहीं थी जैसी अभी मेरे सामने है । सही दिशा में खुलने वाली खिड़की हो तो लगता है जीवन है और गति बनी हुई है, चाहे बंद क्यों न हो । आप कहेंगे यह भ्रम है । तो बना रहे भ्रम । भ्रम ही आदमी को सन्यास आश्रम तक खींच लाता है । और सच ! राम नाम के साथ मिल कर सत्य हो जाता है । पच्चीस दिन हो गए बंद हुए लेकिन इस खिड़की की वजह से लगता नहीं कि कहीं कुछ छूट रहा है ।  बल्कि रोज ही ऐसा कुछ नया जुड़ रहा है जो पहले संज्ञान में नहीं था । मानो बंद पहले था, अब तो खुल रहा है ।  
सामने अशोक का पेड़ है । पैंतीस छत्तीस वर्ष हुए इसे बच्चे की तरह लाया था एक नर्सरी से । आज देखता हूँ कि कितना बड़ा हो गया है ! आम दिनों में इसकी ओर ध्यान ही नहीं गया कभी । हालांकि मई जून में जब खूब तपन होती है, अपना स्कूटर इसी की छाया में रखता आया हूँ, और बारिश में भी । कभी कभी जब खुले में बैठने का मन होता है इसके नीचे कुर्सी डाल कर बैठता हूँ, किन्तु घ्यान नहीं दिया । लग रहा है स्वार्थी हूँ, मतलबी कहीं का । लेकिन आज इस खिड़की से अपने इस अशोक को देखते हुए जाने क्यों लग रहा है जैसे बरसों बाद अपने युवा बेटे से मिल रहा हूँ ! जैसे आँगन में खड़ा वह मुस्करा रहा है, अभी भी । उसकी खुशी हिलते पत्तों और झूलती डालों से व्यक्त हो रही है । यंत्रवत मेरा हाथ उठता है और अशोक की ओर देखते हुए हिला देता हूँ, कुछ ऐसे जैसे उसे पहचान गया हूँ । वह भी झूम उठता है । अशोक ने भी देखा होगा आज मुझे शायद पहली बार गौर से, वरना घंटियाँ सी क्यों बज रही हैं कानों में । सुना है अशोक खूब सारी ऑक्सीज़न देता है । देना ही चाहिए, बच्चे ही तो काम आते हैं जीवन के उत्तरार्ध में ।
अशोक के नीचे छाया में एक पटिया लगाया हुआ है । बहुत पहले जब लकड़ी का काम चल रहा था घर में, तब पत्नी ने कार्पेंटर से खास तौर पर बनवाया था । इस पर मिट्टी के दो सकोरे रखे हैं । एक पानी का और दूसरे में चूरी हुई रोटी होती है । देख रहा हूँ कि यहाँ  गिलहरियों का एक कुनबा दिन भर उछलकूद करता रहता है । बहुत सी चिड़ियाएँ हैं, गौरैया, ललमुनिया, मैना का जोड़ा और कबूतर भी । बहुत छोटी, गहरे काले रंग की दो चिड़िया भी आती है लंबी चोंच वाली । ये रोटी नहीं खाती हैं , गुड़हल का पौधा है, उसके फूलों से कुछ चुनती सोखती रहती हैं । इतना मीठा बोलती हैं कि लगता है जैसे अपने होने का कर्ज उतार रही हैं । आप बैठे सुनते रहिए जब तक मौका मिले । अमरूद के पेड़ से एक कच्चा फल गिरता है, कुतरा हुआ । ये गिलहरी का काम है, बहुत शैतान हैं । कितने सारे फल रोज गिरा देती है । सोचता हूँ ये आँगन, ये फल वाले पेड़, किलकारियों और उछलकूद के नाम ही तो थे । लगता है अकेला नहीं हूँ, भरापूरा घर है । सबने मिल कर इसे अपना घर बनाया है । जोइंट फेमिली है हमारी, और हुकुम है क्वारंटाइन में रहो !!
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