Thursday, July 28, 2011

* सपने देखने का समय ---


आलेख 
जवाहर चौधरी 


                इच्छाएं , अभिलाषाएं या सपने ही हमारे होने को जीवन के दायरे में लाता है । बिना सपनों के मनुष्य-जीवन का आरंभ ही कहां होता है ! मात्र सांसें लेने और भूख-प्यास मिटा लेने का नाम जीवन तो नहीं है । पिछली पीढ़ी यानी माता-पिता, शिक्षक , महापुरूष आदि युवा आंखों में सपने इसलिये बोते हैं कि हाड़ मांस के इन तरूवरों में सार्थकता के पल्लव फूटें । सपनों के बिना भविष्य संदिग्ध है फिर चाहे वो व्यक्ति का हो, समूह का हो या फिर राष्ट्र् का ही क्यों न हो ।
क्रांतिकारी कवि पाश  सपनों को यानी अभिलाषाओं , इच्छाओं को सबसे जरूरी मानते हैं । उन्होंने लिखा है --

मेहनत की लूट ... सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार ..... सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी .... सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे बिठाए पकडे़ जाना ..... बुरा तो है 
पर सबसे खतरनाक नहीं होता 
सबसे खतरनाक होता है ....
मुर्दा शांति  से भर जाना  
न होना तड़फ का ... सब सहन कर जाना
सबसे खतरनाक होता है 
हमारे सपनों का मर जाना

          जब सपने मरते हैं तो सभ्यता पर विराम लगने लगता है । सपने सभ्यता के पहिये हैं । अभिलाषा ही हमारे उद्देश्य व लक्ष्य तय करती है । कहते हैं - जहां चाह होती है , वहां राह होती है । यदि चाह ही नहीं है तो राह हो भी तो नहीं के समान है । गांधीजी ने मन , वचन और कर्म का महत्व बताया था । कोई बात सबसे पहले मन में आना जरूरी है , इच्छा करना आवश्यक  है, उसके बाद ही वो वचन या कर्म में बदलती है । जब कामना ही नहीं होगी तो कर्म कैसे होगा । ईश्वर  कहता है - आरजू कर , हक जता , हाथ बढ़ा और ले जा ।
विद्यार्थी जीवन सपने देखने और उन्हें सच करने के लिये स्वयं  को तैयार करने का समय होता है ।  वो जवानी जवानी नहीं है जिसकी आंखों में सपने और दिल में हौसले नहीं हों । दुष्यंत कुमार की पंक्तियां किसे याद नहीं है -
कौन कहता है आसमान में सूराख हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों 
           सपना ऐसा ही होना चाहिये - आसमान में सूराख करने का और हौसला भी उतना ही बुलंद । हमारे पूर्व राष्ट्र्पति डा . अब्दुल कलाम देश  के युवाओं को सिर्फ एक ही बात कहते हैं कि सपने देखो , बड़े सपने देखो , इच्छाएं-अभिलाषाएं रखो और उन्हें पूरा करने की चुनौती स्वीकारो । आज देश  युवाओं से सपने देखने की मांग कर रहा है ।
इस शेर  को भी हमने कई बार पढ़ा-सुना होगा -
खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बंदे से पूछे .....बता तेरी रजा़ क्या है 

Wednesday, July 20, 2011

* Mumbai terrorist attacks / कायर आतंकी हमले करते हैं और समर्थ सदा शांतिवार्ताएं !!

                
आलेख 
जवाहर चौधरी 
 बम विस्फोट के तत्काल बाद लहुलुहान जनता पर        धमाकेदार बयानों का हमला हुआ । लोग पहले की अपेक्षा दूसरे हमले से ज्यादा घायल हुए और उनका ध्यान आतंकवदियों से कुछ देर के लिए हट गया । पहले हमलावर गायब हो गए और दूसरे सुर्खियों में आ गए, दोनों की इच्छा पूरी हुई । सुर्खियां लोकतंत्र के बाजार में बड़ी पूंजी है, चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं । नए सूट आदि सिलवा कर वे अब शांतिवार्ता के लिए तैयार होंगे । परिधान अच्छे और नए हों तो हमारा मन प्रसन्न और सामने वाला शांत  रहता है ।  शांतिवार्ता के पहले एक वातावरण बनाना पड़ता है । शांतिवार्ता करना मात्र कबूतर उड़ाना नहीं है सुबह सुबह , वातावरण बनाने  के लिए मुर्गे भी उड़ाना पड़ते हैं रात को । वे लोग धमकों से आतंक का वातावरण बनाते हैं और हम शांतिवार्ता करके चट-से उस पर पानी फेर देते हैं । शांतिवार्ता दिमाग का खेल है और दुनिया जानती है कि हमारे पास दिमाग है । हमने दुनिया को हिसाब लगाने के लिए शुन्य  दिया और खुद धीरे धीरे एक सौ इक्कीस करोड़ हो गए । एक धमाके में वे सौ-दो सौ मारते हैं जबकि हमारे यहां मात्र पांच मिनिट में दो सौ से ज्यादा आबादी बढ़ जाती है । हमारा सिद्धान्त है कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो तुरंत दूसरा गाल आगे कर दो । सरकार के पास अपना पक्ष मजबूत करने के लिए अब दो सौ बयालीस करोड स्वदेशी  गाल हैं, ‘मेड इन इंडिया’ । और क्या चाहिए अहिंसा समर्थक सरकार को ! राज की बात बतांए ? बिगड़े हुओं से बार बार शांतिवार्ता करो तो वे पागल हो जाते हैं और फिर अमेरिका जैसे म्यूनिसपेलिटी वाले रैबिज से बचाव के नाम पर उन्हें आसानी से मार भी देते हैं । हींग लगे न फिटकरी और रंग भी आए चोखा । अहिंसक के अहिंसक रहे और निबटा भी दिया । अपनी अपनी राजनीति है प्यारे । है कि नहीं ? 
            जनता को समझना होगा कि शांतिवार्ता हमारी सर्वाधिक महत्वपूर्ण विदेश नीति है । हमने युद्ध से ज्यादा शांतिवार्ताएं लड़ी हैं, अंदर भी और बाहर भी । सरकार एक बार शांतिवार्ता पर उतारू हो जाती है तो फिर अपने आप की भी नहीं सुनती है । अभी एक बाबा से शांतिवार्ता की, मात्र दो दिन में उनकी उमर दस साल बढ़ गई और समर्थक चौथाई  रह गए । इसके बाद सामने वाला हमले भले ही करता फिरे , युद्ध नहीं कर सकता । दरअसल इसमें हमारी कूटनीति  है, सीमापार वाले शांतिवार्ताएं करना चाहते नहीं, क्योंकि उन्हें वार्ता करना आती नहीं है और हम उन्हें शांतिवार्ता के मोर्चे पर बुला कर बार बार पटकनी मारते हैं । अभी देखो, इधर धमाके हुए उधर फट्ट-से हमने चेतावनी दे दी कि शांतिवार्ता पर धमाकों का कोई असर नहीं होगा । सुनते ही उनको सांप सूंघ गया होगा । पिछली बार उन्होंने छाती ठोक के सबूत मांगे थे , हमने ढ़ेर सारे दे दिए, आज तक उसकी छानबीन में लगे हैं और माथा ठोक रहे हैं । 
कायर हमेशा  आतंकी हमले करते हैं और समर्थ सदा शांतिवार्ताएं । जाहिर है कि हम समर्थ हैं ।

Monday, July 11, 2011

.. चला गया वह ....प्यार भरे दिल के साथ ... बिना कुछ कहे-सुने .

भले तुम दूर चले गए हो फिर भी मेरे साथ ही हो
तुम्‍हारे प्‍यार की सांसों को महसूस करती हूं मैं
उदास उसांसों के साथ घिरती है रात
और हम दोनों के बारे में बातें करती है
जो कुछ भी था तुम्‍हारे और मेरे बीच इस क़दर शाश्‍वत

कि अलविदा के बारे में हम कभी सोच भी नहीं सकते
तुम इस समंदर और उस सितारे के बीच रहोगे
रहोगे मेरी नसों के किनारों पर
कुछ मोमबत्तियां जलाऊंगी मैं और पूछूंगी ईश्‍वर से
कब लौटकर आ रहे हो तुम...

[ कवि श्री गीत चतुर्वेदी द्वारा किया गया अनुवाद अंश .]

Tuesday, July 5, 2011

* जल्दी से बुड्ढा-डोकरा हो जाए !!


आलेख 
जवाहर चौधरी            

  बहुत वर्ष हुए नानी को सिधारे । जब भी मुलाकात होती थी, खूब लाड़ करती थीं और आशीष  देती थीं कि ‘जल्दी से बुड्ढा-डोकरा हो जाए ’ । तब इतनी तो समझ थी ही कि बुड्ढा-डोकरा होना कोई अच्छी बात नहीं है । खुद नानी इस हाल में आश्रित सी थीं तो फिर ये कैसा आशीर्वाद  ! मैं विरोध जताता कि नानी ऐसा मत बोला करो । जवाब में वे कहतीं कि ‘अभी नहीं समझेगा तू ’ ।

            आज जब साठवां गुजर रहा है तो छः दशकों  की बीती नजरों के सामने दौड़ जाती है । कितना लंबा वक्त लगा यहाँ तक पहुंचने में और किस तरह ! वो भी देखना पड़ा जिसकी कल्पना नरक में भी नहीं हो सकती । लेकिन उस सब का जिक्र नहीं करूंगा । क्योंकि दुःख की दुकान नहीं होती, दुःख का बाजार नहीं सजता और न ही किसी के लिए दुःख का कोई मूल्य होता है । लेकिन भुगतना तो पड़ता ही है .जीवन संघर्ष में बिना जख्मी हुए कोई बुड्ढा-डोकरा नहीं हो सकता है . हालांकि कहा जाता है कि सुख बांटने से बढ़ता है और दुःख बांटने से घटता है । लेकिन आज के भागते युग में किसके पास समय  है । रिश्ते  अजब गणितों में बदल गए है । अगर आप सुखी हैं तो दुनिया दुःखी है और इसका विपरीत भी होता है  । यानी दुनिया सुकून से है यदि आप दुःखी हैं । इन हालात में कौन किसका दुःख बांटने खड़ा हो पाता है, यदि मजबूरी न हो । यों देखा जाए तो कोई सुखी नहीं है । हरेक के जीवन में दुःख हैं, इसलिए किससे आशा कीजिये  । इसलिए बुड्ढा-डोकरा हो जाना सुकून की बात भी है . बहुत कम लोग होते हैं जो समय की गुफा के सामने अलीबाबा होने का अवसर पा जाते हैं । नानी के आशीषों  का मतलब और गालिब का यह शेर  अब समझ में आ रहा है । 



कहूं किससे मैं कि क्या है, शब् -ए-गम बुरी बला है
मुझे क्या था मरना, अगर एक बार होता