Monday, July 22, 2019





आत्मस्वीकृतियाँ 



इस दौर का सबसे ज्यादा पुरस्कृत प्रेम-पत्र
लिखने वाला मैं बहुत बुरा प्रेमी रहा
मैं उन पत्रों से ही प्रेम कर बैठा


जो कभी अपने संताप के विरुद्ध

समय-कुसमय लिखता रहा था



फिर मैंने ही
घृणा की पराकाष्ठा भी लिखी
लेकिन युद्ध करना हमेशा टालता रहा


सुविख्यात कवि
श्री योगेंद्र कृष्णा ( पटना )
 की वाल से      

मजदूरों किसानों वंचितों
के संघर्ष पर
रचनाएं लिख खूब

प्रशंषित-पुरस्कृत होता रहा

लेकिन उनके कभी काम नहीं आया


पेड़ों पहाड़ों नदियों जंगलों
पर खूब कविताएं लिखीं
और उनका कटना सूखना और जलना

केवल निहारता रहा

शून्य में अदृश्य का सुख तलाशता

दृश्य को अनदेखा किया


मेरी जीत को उत्सव में
बदल देने वाले अनगिन अनाम लोग

जीवन की जंग हार चुके थे

और हम दूर से दर्ज करते रहे 

खौफनाक उन दृश्यों को

जबकि बच सकती थी कुछ जानें

हाथ में एक पत्थर भी जो उठाया होता


दुख को इतना मांजता रहा
कि भीतर सुख की चिंदियां
उड़ने लगीं लेकिन वो दुख

केवल मेरा रहा और सुख की

चिंदियां भी मेरी


नहीं बोलने की जगह
मुसलसल बोलता रहा
जहां बोलना ज़रूरी था

चुप्पियां चुन लीं

जिन्हें सुनना ज़रूरी नहीं था

उन्हें ही सुनता रहा

और इस तरह दोस्त तो क्या

कोई सच्चा दुश्मन भी नहीं बना पाया

अंधेरों के खिलाफ 
जो भी शब्द बुने
उजालों ने चुन लिए



मुद्दतों बाद
जब घर के आईने में देखा
तो बेहिस अपना चेहरा 

भयावह हासिलों का

अश्लील विज्ञापन-सा दिखा

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Thursday, May 16, 2019

कवि की भाषा


तादयुस्ज रोज़विच (पोलिश Tadeusz Różewicz - जन्म 9 अक्टूबर 1921) यूरोप के महान कवियों मे से हैं।  कविता और नाटक दोनो विधाओं मे उन्होने पोलिश साहित्य मे ऐतिहासिक फेरबदल किया है।  सत्ताकेंद्रित राजनीति मे मौजूद किसी भी तरह की हिंसा को उन्होने कभी भी स्वीकृति नहीं दी। दूसरे विश्वयुद्ध के परिणामों को वे कभी सह नहीं पाए। नाज़ीवाद ने जब आश्वित्ज़ मे बर्बर जन-संहार किया तब सारी दुनिया मे यह प्रश्न पूछा जाने लगा था कि क्या अब भी कविता लिखी जा सकती हैं? पोलिश कविता के नए रूप के आविष्कार के साथ रोज़विच ने कविता को संभव बनाया।  उनके पास अद्भुत काव्यात्मक ईमानदारी है। रोज़विच की कविताओं की साधारणता और विलक्षण सरलता देखने लायक है।




कवि एक ही भाषा में
 बात करता है
बच्चे से
 घुसपैठिए से
धर्मगुरु से
राजनीतिक से
पुलिस वाले से


बच्चा मुस्कुराता है
 घुसपैठिए को लगता है
 उसका मखौल बन रहा है
राजनीतिक अपमानित अनुभव करता है
 धर्मगुरु को खतरा महसूस होता है

पुलिसवाला
कमर कसने लगता है

शर्मिंदा कवि
 क्षमा मांगता है
और अपनी गलती
दोहराता है

*पोलिश कवि - तदेऊष रुज़ेविच

Sunday, April 21, 2019

मौसम बदल रहे हैं...


श्री नरेंद्र शर्मा एक बहुआयामी व्यक्तित्व हैं । उनका
जीवन अनुभव विविधताओं से परिपूर्ण है । अवलोकन
की सूक्ष्म दृष्टि और संवेदना का विस्तृत फ़लक उन्हें
एक गंभीर रचनाकार के रूप में प्रस्तुत करता है । हिन्दी
के साथ वे उर्दू में भी रचते हैं । कविता और गज़लों के
माध्यम से जीवन दर्शन उनकी विशेषता है ।
यहाँ उनकी ताजा रचनाएँ ।
अवलोकनार्थ प्रस्तुत है ----




ज़िन्दगी ... वरक़ वरक़ ...
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जीवन की इस पुस्तक ने तो बना दिया घनचक्कर,
किसी पेज़ पर पहेलियाँ हैं और किसी पर उत्तर !


सुख और दुःख के एक सरीखे चित्र दिए और पूछा,
लालबुझक्कड़ इन दोनों में बतलाओ दस अंतर !


एक सफ़े पर विज्ञापन था, "किस्मत नई करालो",
"शर्तें लागू" लिखा हुआ था, बेहद  छोटे अक्षर !


अनुक्रम के अनुसार कोई भी लेख नहीं खुलता है,
छापने वाले ने डाले हैं उलटे सीधे नंबर !


शीर्षक है "रिश्ते" किताब का, बाइंडिंग कमज़ोर,
वरक़ वरक़ हो जाती है ये चंद रोज़  के अन्दर !


 - नरेन्द्र शर्मा



मौसम बदल रहे हैं...

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तनहाइयों से इतना घबराने लगा हूँ मैं
अपने ही अक्स से बतियाने लगा हूँ मैं


बेरोज़गार दिल को कुछ काम तो मिलेगा
सुलझे हुए मसलों को उलझाने लगा हूँ मैं


महफ़िल में दोस्तों का  जी ऊबने लगा है
ढलते ही शाम वापस घर आने लगा हूँ मैं


मौसम बदल रहे हैं, बदलेंगे दिन कभी तो
ख़ुद को इसी बहाने बहलाने लगा हूँ मैं


ख़ानाखुराक मेरा बिलकुल बदल गया है
पीता हूँ अश्क़ अब ग़म खाने लगा हूँ मैं


- नरेन्द्र शर्मा

Monday, April 1, 2019

भैरप्पा का ऐतिहासिक उपन्यास "आवरण "

                 
आलेख 
जवाहर चौधरी               


    हाल में  ऐतिहासिक उपन्यास "आवरण" पढ़ने का मौका मिला । यह मूलरूप से  कन्नड़ में लिखा भैरप्पा का उपन्यास है और हिंदी में प्रधान गुरुदत्त द्वारा अनूदित है । कन्नड़ में इसके 23  से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । आरंभ में तो यह इतना लोकप्रिय हुआ कि हर सप्ताह संस्करण छापने पड़े । हिंदी में  सन 2010 में किताबघर से प्रकाशित हो कर आया । भैरप्पा के और भी उपन्यास हिंदी में अनूदित हुए और खूब लोकप्रिय हुए हैं ।
              पाठकों ने जहां उपन्यास "आवरण" को हाथों हाथ लिया और लोकप्रिय बनाया वहीं इसकी आलोचना भी कम नहीं हुई । अब तक इस उपन्यास की आलोचना/समीक्षा में पाँच कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं और पत्र-पत्रिकाओं में ढेरों लेख लिखे जा चुके हैं । वामपंथी विचारधारा के समर्थक भैरप्पा के इस काम पर अपनी नापसंदगी व्यक्त करते रहे हैं । इस कृति में लेखक ने मुस्लिम समाज की वर्तमान प्रवृत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर कथा का ताना-बाना बुना है जो रोचक तो है ही चौंकाने वाला भी है । इतिहास के तमाम वे तथ्य जो या तो इतिहासकारों ने छोड़ दिए  या उनसे छूट गए, उनमें से कुछ  पुस्तक सामने रखती है।
                 लेखक उपन्यास के संदर्भ में लिखते हैं की "इस उपन्यास की ऐतिहासिकता के विषय में मेरा अपना कुछ भी नहीं है प्रत्येक अंश के लिए जो ऐतिहासिक आधार है उनको साहित्य की कलात्मकता जहां तक संभाल पाती है वहां तक मैंने उसे उपन्यास के अंदर ही शामिल कर लिया है।"
             एक पाठक के तौर पर मुझे लगता है की भैरप्पा के इस उपन्यास को पढ़ा जाना चाहिए । यह बहुत सारे सच को सामने रखता है और  ऐसे प्रश्नों का उत्तर देता है जो पीढ़ियों से अनुत्तरित चले आ रहे हैं । हो सकता है कि इसमें कुछ बातें विवादास्पद सी प्रतीत हों,  लेकिन जीवन में कितना कुछ विवादास्पद घटित हो रहा है , उसके आगे यह कुछ भी नहीं है । खासकर  तब  जब वह  हमारी  आंखें खोलता है  और  देखने की , सोचने की  दृष्टि भी  निर्मित करता है । बहुत समय बाद मैं ऐसी कृति पढ़ पाया हूं जिसने आरंभ से अंत तक मन मस्तिष्क को कहीं भी विचलित नहीं होने दिया ।
                इन दिनों साहित्य की कृतियां प्रकाशित तो बहुत हो रही है लेकिन छोटे बड़े शहरों में उनके विक्रय केंद्र लगातार खत्म होते जा रहे हैं । शुक्र यह है की अमेज़न और फ्लिपकार्ट जैसी ऑनलाइन कंपनियों से छूट के साथ साहित्यिक पुस्तकें उपलब्ध हो जाती हैं ।  किताबघर दिल्ली से प्रकाशित इस उपन्यास का मूल्य 245 रुपए है और खासी छूट के साथ ऑनलाइन उपलब्ध है । 

                                                                                   -------

Thursday, March 21, 2019

चैतन्य त्रिवेदी की कविता --- मैं इसे क़त्ल का ही नाम दूंगा !



    इंदौर के वरिष्ठ कवि 
   और ख्यात लघुकथाकार
    श्री चैतन्य त्रिवेदी 




मैं इसे क़त्ल का ही नाम दूंगा !
      
       भले ही लोग पूछें 
     परिचित या रिश्तेदार  
     आसपड़ौस चर्चारत रहें  
     क्या हो गया था 
     कल तक तो ठीक थे  
    बीमार थे क्या 
    क्या हो गया था 
    लेकिन मैं इस दुनिया की
    आम रीत का शब्द -
   मृत्यु , नहीं मानूँगा  
   यह ईश्वर द्वारा प्रायोजित 
    मेरा कत्ल है 
    मुझे पहले पहल के
उस वाक्य पर भी
नहीं विश्वास --
     मृत्योर्मा अमृतं गमय
     क्योंकि आँख जब 
     समझ में शुरू हुई
    सपनों और कल्पनाओं से 
     भरी हुई थी 
     सपनों से भरी आँखें 
    किसी मृत्यु से किसी अमरता से 
   ज्यादा बड़ी और चमकदार भी 
   जैसे जैसे जान रहा हूँ --
   यह उम्र नहीं है 
   शिकार की तरफ धकेलने की साजिश कोई 
 जिसे तारीख की तरह 
  पहचानते, डरे हुए लोग
  मैं अभी भी तैयार नहीं 
  जिस तरह दुनिया धुंधला गई है 
  वैसी ही नजर से
आसमान के बारे में बताऊँ,
जबकि मैं 
  तितलियों के रंग साफ साफ
  अभी भी पहचान सकता हूँ 
  भौंरो की आवाज में 
    गुनगुना भी सकता हूँ 
   लेकिन ईश्वर अपने धार्मिक 
   कारिंदो के साथ 
   पीछा कर रहा है मेरा 
   कई कथाएँ लिए 
  जब कि वह जानता है 
 आत्मा में जितना पसंद है वह मुझे 
 कथा किस्सो में नहीं 
उन तारीखों और दिनों में भी 
   कोई दिलचस्पी नहीं जहाँ ईश्वर ने 
  चमत्कार खास लोगों के लिए किए 
    शरीफ और सीधे साधों को 
 बेरहमी से मरने के लिए छोड़ दिया 
  अगर वह अपने फैलाए गए किस्सो से,
स्वयं को अलग कर ले
  तो मैं भी उसे मृत्यु के नाम पर 
   मेरे कत्ल के इल्जाम से 
    मुक्त कर दूँगा 
    पर ऐसा होगा नहीं 
धार्मिक कारिंदे
जो कथाओं में ढो रहे
अपना अपना ईश्वर 
  वे सब अपने अपने ईश्वर की तरफ से 
 मेरी हत्या कर सकते हैं 
  आखिर क्यों हजारों सालों से 
 इन कथाओं की उम्मीद पर 
 ईश्वर जानने देखने या महसूस करने की
चाह जगाए हुए हैं 
जबकि ईश्वर
उन सब जगहों से जा चुका है,
जहाँ जहाँ वह हो चुका है 
  और हम सब भी गवाँ चुके हैं 
 किसी नए ईश्वर के यकीन 
 सिर्फ ढो रहे पुराने किस्से कहानियाँ
अलग अलग ईश्वर के कारिन्दे
 भयभीत हैं
सबसे पहले वे मारे जा सकते हैं 
अगर कहीं नए ईश्वर का
कोई यकीन
जगह बना ले तो !!


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