Monday, May 30, 2016

जनसंख्या किसीके खेलने का सामान न हो .....

          
आलेख 
जवाहर चौधरी 


 इन दिनों जब देश  के सभी राजनीतिक दल अपने अपने घरेलू मसलों में बुरी तरह से उलझे हुए हैं और चिंतित सरकार भी जश्न  मनाते हुए अपना आत्मविश्वास  बढ़ाने की कोशिश में है तब चुपके से एक आंकड़ा हमें लाल झंड़ा दिखाता नजर आता है और 30 मई 2016 को देश  की जनसंख्या 1,325,378,156 ( एक सौ बत्तीस करोड़, त्रेपन लाख, अठहत्तर हजार, एक सौ  छप्पन ) हो जाने सूचना देता है। हांलाकि अभी भी भारत विश्व  में दूसरे सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश  है लेकिन 2025 में उसका स्थान दुनिया में नम्बर वन हो जाएगा और तब हमारी जनसंख्या 146 करोड़ होगी। इन्टरनेट पर     IndianPopulation clock  दिखाई देती है जिसमें लगभग हर सेकेण्ड के साथ बढ़ती जनसंख्या को देखना एक डरावना अनुभव देता है। ( आप Indian population clock पर क्लिक कर एक बार उस घड़ी को अवश्य देखें ) जनसंख्या घड़ी बताती है कि देश  की जनसंख्या 2050 में एक सौ सत्तर करोड़ हो जाने वाली है तो हमें अपने बच्चों का ध्यान आता है कि वे किस तरह का भयानक जीवन जीने वाले हैं।  

                        आज हमारे पास रोजगार की समस्या है, हर साल लगभग सवा करोड़ की दर से बढ़ रही जनसंख्या के कारण देश  के सामने इतने रोजगार के सृजन की असंभव चुनौती है। हांलाकि सरकार अपने संभव उपायों से संघर्ष करती दिखाई देती है लेकिन अनुकूल परिणाम नहीं मिलते हैं। मेक इन इंडिया एक बड़ी पहल है जिसमें हम विश्व  के तमाम उद्योगो को अपने यहां आमंत्रित कर रहे हैं ताकि लोगों को रोजगार मिले। यह जानते हुए कि उद्योग अपने साथ क्या ले कर आते हैं। हमारा ही अनुभव है कि बड़े उद्योगों ने हमारा पर्यावरण ( जल, वायु, ध्वनि ) कितना खराब किया है। आज हमारी सारी नदियां प्रदूषित हैं, नगर झुग्गी बस्तियों से पीड़ित हैं, धूल-धुंआ और सफाई की समस्या कहां नहीं है। किन्तु हम आज हम मजबूर हैं, और सब जानते हुए भी बड़े उद्योगों के लिए लाल कालीन बिछाना पड़ रही है। 
                            राजनीतिक दलों को बिना लाभ हानि सोचे इस वक्त जनसंख्या को लेकर एकमत होना चाहिए और अपनी पक्ष रखना चाहिए। दुःखद है कि दो बड़े दल अपने अपने कारणों से इस मुद्दे पर चुप लगाए रहते हैं। 1977 के कड़वे अनुभव के बाद कांग्रेस प्रायः जनसंख्या नियंत्रण पर मुखर नहीं होती है और इसके उलट भाजपा में ऐसे लोग हैं जो अनेक बार ज्यादा बच्चे पैदा करने का मशविरा दे चुके हैं। क्षेत्रीय दलों को तो लगता है कि ये उनकी समस्या ही नहीं है। जो बाहर हैं उनकी सारी मशक्कत सत्ता में आने की है और जहां सत्ता में हैं वहां अगली बार फिर सत्ता में बने रहने की जुगत चलती रहती है। कोई भी राज्य अपने यहां की जनसंख्या के प्रति चिंतित दिखाई नहीं देता है। अगर वोट न हों तो गरीबों की ओर वे देखें भी नहीं ( शायद )। भ्रष्टाचार हमारे यहां मुद्दा है लेकिन कुछ नहीं हुआ, वह बढ़ा ही है। मंहगाई मुद्दा होती है लेकिन बढ़ी ही है। इसी तरह बेराजगारी, अपराध, घोटाले, सांप्रदायिकता, जातिवाद, दबंगवाद, पर्यावरण, आवास वगैरह क्या नहीं है जिस पर चर्चा नहीं होती। लेकिन जनसंख्या को कोई छूता नहीं । 
                              जनसंख्या का मुद्दा अगर इसी तरह अछूत बना रहा तो देश  इस पर सोचना भूल जाएगा। माल्थस ने कहा है कि अगर मनुष्य जनसंख्या को लेकर सचेत नहीं होंगे तो प्रकृति को आपदाओं के माध्यम से यह काम करना पड़ेगा। आज हम जलसंकट, आवास, भीड़भाड़, अपराध, फसाद, आदि तमाम दिक्कतों से गुजर रहे हैं। कुछ औंधी सोच के लोग यह कहते भी सुने जाते हैं कि आगे किसी युद्ध के लिए उन्हें जनसंख्या की जरूरत पड़ेगी। मानो जनसंख्या उनके खेलने का सामान हो। अगर ऐसा नहीं होना चाहिए तो एक सौ बत्तीस करोड़ लोगों को जनसंख्या पर सोचना चाहिए। यह अनिवार्य है।
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Thursday, May 26, 2016

यदि मैं प्रस्तुतकर्ता नहीं होता तो कोई और होता ......


   
 
आलेख 
जवाहर चौधरी 


वरिष्ठ कवि कृष्णकांत निलोसे का चौथा कविता संग्रह ‘‘समय, शब्द और मैं !’’ शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। पूर्वकथन में उन्होंने अपने को जिस तरह से व्यक्त किया, कविता और समय पर जो कहा  है वह मनन करने योग्य है। साहित्य प्रेमियों के लिए यहां प्रस्तुत है --

काल के विस्तार में समय का दृष्य
                              यदि कहा जाए कि ये कविताएं अभिव्यक्त होने के पूर्व भीअपने अस्तित्व में थीं, तो इसका तात्पर्य यही है कि कविता सर्वत्र तथा सर्वकालिक भाव में अपने में अंतर्निहित है। कवि तो मात्र  माध्यम है। समय के आगत और अनागत के बीच जो पुल बनता है, वह है शब्द। वह व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। इसी पुल पर चलता काव्य-पुरूष अपनी आवाजाही करता है। मैं तो मात्र इन कविताओं का प्रस्तुतकर्ता हूं। यदि मैं प्रस्तुतकर्ता नहीं होता तो कोई और होता। लेकिन ये कविताएं अवतरित होतीं जरूर, क्योंकि ये कविताएं समय-शब्द और चेतना /काव्य-पुरूष /की कार्य-कारण अभिव्यक्ति है। वैसे तो इसे संयोग ही माना जाना चाहिए कि मैं इन कविताओं का कवि हूं। परंतु कोई भी संयोग निप्रयोजित या अनायास नहीं होता। काल के अखंड वृहत-विस्तार में समय एक दृष्य है और काव्य-पुरूष एक दृष्टा, जो भाषा या शब्द के माध्यम से अपनी चेतना को अभिव्यक्ति देता है। 
                          जहां एक ओर कविता में अलगाव नहीं होता, तो वहीं सम्पूर्ण लगाव भी नहीं। कविता भला किसको किससे जोड़ेगी ? काव्य-पुरूष को घटना से या अन्य मनुष्य से ? मनुष्य को प्रतिबिंब से, परछाई से ? समय को शब्द से, उच्चारण से ? किन्तु समस्त घटना संसार तो काव्य-पुरूष की आत्मा में ही होता है।
                       कविता, काव्य चेतना है जो केवल जोड़ती नहीं, वह अपने भीतर अभिषिक्त  करती हैं। अभिमान रहित, स्नेह से बुला लाती हैं, लिवा लाती हैं। जन्म-मृत्यु, हास्य-रुदन, आंसू-लहू को, हृदय के शतदल कमल पर आहूत कराती है। सदा आंदोलित, नित्स संघटित घटना को, अविच्छिन्न समय को, अनबोली व्यथा को, अव्यक्त अभिमान को, अबूझ दुःख को, असंपूर्ण उच्चारण को और अनुपलब्ध यंत्रणा को, अपनी सार्वभौम चेतना से अभिषिक्त करती है। 
                                            एक ओर काव्य-पुरुष की अंतरात्मा बिल्कुल निष्कम्प, निर्विकल्प है, वहीं दूसरी ओर, समय अग्नि-शिखा तथा धुंएं का केन्द्र बिन्दु है - अधीर, अस्थिर और आन्दोलित। वहीं जन्म लेती है कविता। बाहर के सारे दृष्य भीतर के अंधेरे में प्रखर ताप से तप्त होते रहते हैं। वहीं राह तलाशता रहता है, ढूंढता रहता है काव्य-पुरुष। इस संकलन की कविताएं निमंत्रण देती हैं: आओ ! एक बार देख लो समय का चेहरा शब्द के दर्पण में।
-- कृष्णकांत निलोसे

Wednesday, May 25, 2016

पाप हैं कि धुलते ही नहीं !!


आलेख 
जवाहर चौधरी 


हाल ही में सिंहस्थ का एक माह तक चला मेला समाप्त हुआ है. खबर कि  है करोड़ों लोगों ने उज्जैन की
पवित्र शिप्रा नदी में डुबकी लगाई और अपने अब तक किये पाप धोए. गीता में लिखा भी है कि काया वस्त्र कि तरह है जिसे आत्मा बदलती रहती है. यानी मृत्यु के बाद आत्मा नया शरीर ग्रहण कर लेती है. यह क्रम चलता रहता है जब तक कि मोक्ष न हो जाये. मोक्ष का सम्बन्ध कर्म फल से होता  है. मनुष्य जो करता है उसके हिसाब से पाप या पुण्य उसके खाते में जमा होते रहते हैं. रोजाना पूजा-पाठ, ब्रत-उपवास करते भक्त जन पाप का भार कम करते हैं और पुण्य का बढाते हैं. रहा-सहा पाप कुम्भ आदि में धो लिया जाता है. इस प्रकार आम भारतीय श्रद्धालु पूरी तरह पवित्र और अपने नित्य जीवन में सुख-शांति का अधिकारी भी है. यहाँ इस बस बात को नहीं भूलना है कि आस्थावानों में अधिक प्रतिशत गरीबों का है जो प्रायः अशिक्षित है, जिनके पास रहने-खाने कि समस्या है, जो शारीरिक रूप से इतने कमजोर और हीन हैं कि उनमें जीवन संघर्ष का उत्साह देखने को नहीं मिलता है. बीमारी की हालत में वे चिकित्सा की जगह चमत्कार की आशा करते हैं. इसीलिए बाबाओं के जाल में फंसते रहते हैं.
               अब सवाल यह है कि इतनी आस्था, इतनी भक्ति, इतनी श्रद्धा और विश्वास कि भगवान पत्थर का हो तो भी पिघल जाये तो यहाँ करोड़ों आस्थावान नारकीय जीवन क्यों जी रहे हैं ! कहते हैं कि पूर्व जन्म के पापों के कारण इस जन्म में आदमी को भुगतना पड़ता है ! तो फिर पूजा, परिक्रमा, स्नान, घ्यान आदि का क्या हुआ. अभी लेखक हरि जोशी कि एक किताब पढ़ी जिसमे उन्होंने अपने अमेरिका प्रवास के संस्मरण लिखे हैं. वहाँ का जीवन उन्मुक्त है. लोग पढ़े लिखे और परिश्रमी हैं, अच्छा खाते-पीते हैं और आमतौर पर सब सुखी हैं. हरि जोशी लिखते हैं कि आश्चर्य होता है कि यहाँ घर्मिकता उतनी नहीं है जितनी कि भारत में है, चर्च भी रोज नहीं जाते हैं, प्रार्थना में भी अधिक समय नहीं लगते हैं ! लेकिन आम अमेरिकी सुखी है, समृद्ध है, ऐसा क्यों आखिर !! इसपर सोचने कि जरुरत है.
             हर तीन वर्ष में कुम्भ का मेला होता है, हरिद्वार, नासिक, प्रयाग यानी इलाहबाद और उज्जैन में बारी बारी से. इसलिये एक स्थान का क्रम बारह वर्षों के बाद आता है. इनमें करोडो लोगों की भागीदारी होती है और सरकारें जनता के टेक्स का हजारों करोड़ रुपया इंतजाम में खर्च करतीं हैं. साल दो साल पहले से तैयारी में मानव श्रम लगाया जाता है. निसंदेह इसका लाभ भी होता है कि उस स्थान को कुछ नए निर्माण मिल जाते हैं, कुछ व्यवस्थाएं हो जाती हैं, लेकिन उनकी उम्र बहुत कम होती है और अगले कुम्भ तक वे बनी नहीं रहती हैं. इस तरह देश में प्रायः हर समय कहीं न कहीं कुम्भ मेले कि तैयारी चलती रहती है. इतना धन और मानव श्रम विकास की योजनाओं में लगे तो देश के लोग ज्यादा सुखी हो सकते हैं. सवाल सिर्फ आर्थिक नहीं है. इन मेलों से जनता को प्रेरणा किस बात की मिलती है !! भाग्यवादी और अकर्मण्य लोग अपने विश्वास को पकडे बैठे रहते हैं. साधू-संत उन्हें पाखंड के पाठ पढ़ा कर वापस सदियों पीछे धकेल देते हैं. समय के साथ कोई उन्हें बदलने की शिक्षा नहीं देता है. पिछले साठ वर्षों में बीस से अधिक कुम्भ हो चुके हैं, इस बीच दुनिया बदल चुकी है लेकिन हिंदू समाज की सामाजिक समस्याएं वहीं की वहीं हैं, बल्कि कुछ बढ़ी ही हैं. मै नहीं कहता कि कोई दिन ऐसा आएगा जब इस तरह के मेलों की प्रासंगिकता पर लोग प्रश्नचिन्ह लगाएंगे. जिन करोड़ों लोगों को सैकड़ों वर्षों से अंधविश्वासी बनाया जाता रहा हो, और अब सरकारें भी भक्त की तरह सहयोग में लगी पड़ी हो तो बदलाव की उम्मीद कम हो जाती है. लेकिन एक सवाल पर विचार करना ही चाहिए कि इस कवायद से हासिल क्या होता है. नई पीढ़ी से बहुत आशा है, इस तरह की बातों को शायद वही समझे.

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