यों देखा जाये तो आज के जीवन में बैंक से हमारा जुड़ाव पहले से कहीं अधिक है। बावजूद इसके कि बैंक के अधिकांश काम अब ऑनलाइन हो गए हैं। बैंक में जाने की जरूरत अब पहले से कम हो चली है। बच्चे बूढ़े, कामवाली बाईयाँ, फेरी वाले, शिक्षित और अशिक्षित सबके पास स्मार्टफोन है। और ज्यादातर लोग ऑनलाइन पेमेंट कर रहे हैं। लेकिन 40 50 साल पहले ऐसा नहीं था। बैंक में प्रवेश करने की हिम्मत सब में नहीं थी। आम आदमी बैंक के दरवाजे पर खड़ा होकर उसके तिलस्म को महसूस करता था। बैंक के अंदर जो चल रहा होता था वह सब को समझ में नहीं आता था। बड़े-बड़े लेजर रजिस्टर, जिन्हें सामान्य तौर पर आम आदमी देख भी नहीं पाता था, उनको उलटते पलटते कर्मचारी अपने आप लोगों की नजर में विशेष हो जाते थे। इस जादुई वातावरण को जानने समझने की जिज्ञासा प्रायः हर एक में होती थी। प्रभाशंकर उपाध्याय जी का उपन्यास 'बहेलिया ' हमारी इन तमाम जिज्ञासाओं को शांत करता है।
प्रभाशंकर जी वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं और उनके अनेक व्यंग्य संग्रह, लघु कथा संग्रह, व्यंग कथाएँ और हास्य कथाएँ आदि प्रकाशित है। अपने सार्थक लेखन के लिए वे राजस्थान की अनेक संस्थाओं से पुरस्कृत व सम्मानित हैं । वे बैंक सेवा में रहे हैं और विभिन्न पदों पर रहते हुए उत्तरदायित्व का निर्वाह किया है । बैंकिंग क्षेत्र में उनका सक्रिय अनुभव उपन्यास 'बहेलिया' को समृद्ध करता है। उनके पास कथा कहने का कौशल और एक सरल भाषा है। उपन्यास पढ़ते हुए घटनाएं फिल्म की तरह आँखों के सामने चलती हैं। लगता है आप खुद बैंक की शाखा में बैठे हैं या कर्मचारी हैं या फिर चश्मदीद गावह। पूरे उपन्यास में पाठक अपने आप को बैंक में उपस्थित महसूस करता है। उपन्यास दैनिक डायरी की तरह बैंक की कार्य पद्धति को नोट करता चलता है। अन्य संस्थाओं की तरह यहाँ भी सब तरह के लोग हैं, राजनीति हैं , चालाकियाँ हैं, टाँग खींचने की प्रवृत्तियाँ भी हैं । इन्हीं के बीच यूनियन के नेता हैं जो शह और मात का खेल खेलते रहते हैं। घटनाएँ रोचक और मजेदार हैं। और जैसा कि प्रभाशंकर जी ने लिखा है, ये घटनाएँ सच्ची भी हैं । भाषा सीधी सरल और संप्रेषण योग्य है। बैंकिंग परिवेश से जो जरा भी परिचित है, उसे उपन्यास शुरू से ही पकड़ लेता है।
लेखक ने जो अनुभव जीवन भर नौकरी करते हुए अर्जित किये वह हमें मात्र डेढ़ सौ पेज से प्राप्त हो जाते हैं । लेजर और रजिस्टरों से शुरू हुई बैंकिंग व्यवस्था को प्रभाशंकर जी ने कंप्यूटर युग पर लाकर विराम दिया है। इससे बैंकिंग व्यवस्था के विकास का क्रम भी हमको देखने को मिलता है।
उम्मीद है पुस्तक पढ़ी जाएगी और पाठकों द्वारा पसंद भी की जाएगी।
उपन्यास - बहेलिया
लेखक - प्रभाशंकर उपाध्याय
प्रकाशक - इंक पब्लिकेशन
संस्करण - 2023
मूल्य - ₹250/-
अपने गिरेबां में
ग़ालिब-ए-खस्ता के बगैर, कौन से काम बंद हैं ... रोइए ज़ार ज़ार क्या, कीजिये हाय हाय क्यों .
गोइंका व्यंग्यभूषण सम्मान
Tuesday, July 30, 2024
बैंकिंग परिवेश का जीवंत उपन्यास
Monday, April 1, 2024
लघुकथाओं का चैतन्य-लोक
लघुकथाओं
का चैतन्य-लोक
जवाहर
चौधरी
“मैडम, धार
करने की दुकान का कोई शो-रूम नहीं होता । धार का शोरूम से क्या लेना देना ! ... एक
ईंट का टुकड़ा, कुछ पुराने कबेलू , एक-दो टेके के पत्थर और एक चक्का । बस इतने में
घर का सारा कोहराम निपट जाता है ।“ चैतन्य त्रिवेदी की ये पंक्तियां साहित्य के
शो-रूम और बाज़ार में लघुकथा के मुकाम को रेखांकित करती है । उनकी धारदार लघुकथाओं
का तीसरा संग्रह ‘ईश्वर के लिए’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है । इसके पहले उनके दो
लघुकथा संग्रह ‘उल्लास’ और ‘कथा की अफवाह’ खासे चर्चित रहे हैं । उल्लास को सन दो
हजार में किताबघर प्रकाशन का प्रतिष्ठित ‘आर्य स्मृति सम्मान’ मिला है । उल्लास ने
हिंदी लघुकथाओं को एक न्य ट्रेंड दिया है ऐसा माना जाता है । वरिष्ठ रचनाकारों व
आलोचकों के इस मत की पुष्टि बाद के दोनों संग्रहों में होती दीखती है ।
ताजा संग्रह
‘ईश्वर के लिए’ में 127 लघुकथाएँ प्रेषित हैं । संख्या की दृष्टि से यह एक बड़ा
संग्रह है । वैसे भी चैतन्य त्रिवेदी की रचनायें फटाफट पढ़ते जाने वाली नहीं होती
हैं । आकर से वे भले ही लघु हों लेकिन विचार में विस्तार समेटे होती हैं । लघुकथा
के सरलीकृत स्वरुप के आदी पाठकों को चैतन्य त्रिवेदी की कथाएं विस्मित करती हैं । कई बार इन पर क्लिष्टता के आरोप भी लगते हैं
लेकिन जब वे लघुकथा के आशय तक पहुँच जाते हैं तो रचना के सौन्दर्य से प्रभावित हुआ
बिना नहीं रहते हैं । एक जगह वे लिखते हैं - “शब्द को चिरजीवी बनाना चाहते हो तो पाठक को
खोजने दो । तुम दर्शन का दृष्टिकोण लिए कोई काम करोगे तो पाठक अपने आप पढ़ कर इस
मार्ग पर स्वयं काम करने लगेगा” । (किताब का रास्ता ) । चैतन्य त्रिवेदी की
लघुकथाएं कविता की तरह प्रतीकों में बात करती हैं । जैसे “नाव और नदी के बीच
कुछ तय हुआ है, ऐसा पता चला है । ... क्या तय हुआ है ? .... सुनने में तो यही आया
है कि किनारा तय हुआ है । ... फिर नदी किनारा छोड़ कर चली गयी और समुद्र में जा
मिली, और नाव जिस किनारे लगी वह घड़ियाली आंसुओं का मुहाना निकला ।“ एक और रचना की पंक्तियाँ हैं –“वास्तुकार
हँसा- जिंदगी में ज्यादा कुछ नहीं चाहिए होता है, बस लौट पड़ने को एक रास्ता और गिर
पड़ने को घर के भीतर खुलता कोई दरवाजा “ । यह एक पंक्ति जीवन संघर्ष के विस्तार
को व्यक्त कर देती है । सच्चा साथ की एक पंक्ति है – “पत्थरों के साथ ईमानदारी
के साथ रहो तो वे धड़कनों के भी सच्चे साथी बन जाते हैं “। शीर्षक
कथा ‘ईश्वर के लिए’ करुणाजनक है । इश्तहार चिपकाने वाले का बच्चा गुम हो गया है ।
वह बच्चा ढूँढ रहा था और काम देने वाले उसे बार बार जल्दी आने को कह रहे थे । मदद
हेतु एक ने उसके बच्चे का फोटो माँगा और गुमशुदा की तलाश का विज्ञापन बना दिया ।
अब वह दूसरे इश्तहारों के साथ इसे भी चिपकाने लगा । इस दौरान सूचना मिली कि बच्चे
की लावारिस लाश देखि गयी है । यह उसके बच्चे की ही लाश थी । वह बिलख उठा, उसने पास
के बड़े से पत्थर पर गुमशुदा बच्चे वाला इश्तहार चिपका दिया । लोगों ने कहा इसका क्या
मतलब अब ! बच्चा तो मर चुका है । वह बोला –यह ईश्वर के लिए है ।“यहाँ चैतन्य पाठक
को उस भरोसे की ओर ले जाते हैं जिसके सहारे आदमी का संघर्ष और अस्तित्व बचा हुआ है
।
एक लघुकथा (विमर्श
का तथ्य) बौद्धिक चिंतन और विमर्श को निशाने
पर लेती है । प्रबुद्धजन और चिन्तक खाते पीते हुए लोकतंत्र, संस्कृति, मूल्य और
नैतिकता की बहस पर लगे हुआ हैं और पास एक भूखा कुछ पा जाने की प्रतीक्षा में खड़ा
है । विद्जनों ने उसे कुछ खाना देने का आश्वासन दिया है । लेकिन उसे कुछ मिल नहीं
पाता है । चर्चा से उकताया वह कहता है – “सर, मैं तो सिर्फ इतना कहने आया हूँ
कि मेरी भूख मर गयी है” । चैतन्य की
लघुकथाओं में व्यंग्य भरपूर है जिसे उन्होंने सलीके से वापरा है । उनके व्यंग्य की
धार लघुकथाओं की पहुँच सुगम बना देती है ।
मानवीय संवेदनायें और संबंधों की बारीक बुनावट और समझ उनकी कई लघुकथाओं में दिखाई देती है । “घर के लोग मायूस खड़े थे । आदमी किस्मत के चलते दवाइयों पर जिन्दा रहने की कोशिश में ..... उस शाम डाक्टर जब राउंड पर आए तो मरीज ने कहा – अब घर चले जाना चाहता हूँ । यहाँ पड़े रहने से क्या फायदा ! क्या महिना भर क्या हफ्ता, जाना ही तो है अब । वह अपने घर में, और अपने में रहने का यह आखरी मौका गंवाना नहीं चाहता ।“ डाक्टर का कहना था कि जिंदगी के ये शेष रहे दिन अस्पताल के दम पर हो निकालेंगे । यहाँ हम लोग हैं , कैसी भी ऊंच नीच में दौड़े चले आएंगे । मरीज कहता है – अरे सिर्फ एक-डेढ़ महीने के लिए आप इतनी जहमत क्यों उठाते हो ! सत्तर बहत्तर का हो गया हूँ । जितना जिया अब तक अपने दम पर जिया । फिर कुछ दिनों के वास्ते अपने दम पर जिए आदमी के लिए यह अस्पताल क्या दम मार लेगा ! ” ( अस्पताल क्या दम मार लेंगे ! ) यहाँ लेखक ने जीवन के अंतिम समय की उलझन को बहुत आसानी से सुलझाने का प्रयास किया है । अस्पताल में महीने पंद्रह दिनों के लिए अपनी मट्टीपलीत कराते और बावजूद इसके भगवान से मौत मांगते मरीजों को किसने नहीं देखा होगा । चैतन्य त्रिवेदी अपने समकाल को निर्भीकता से व्यक्त करते हैं । लेखक में ईमानदारी और साहस आज समय और साहित्य की जरूरत है । यदि रचनाकार क्रूरता व विसंगतियों का सामना नहीं करेंगे तो और कौन करेगा । नमूने की ये पंक्तियाँ - “कुछ लोग शहर में ईश्वर का काम करते हैं । वे सब अपनी अपनी तरह से अपने ईश्वर को दूसरों के ईश्वर से अलग बनाये रखने की कोशिश में लगे मिलते हैं । उन्हें या तो अपने लोगों पर संदेह है कि कहीं ये लोग दूसरों के ईश्वर की तरफ न चले जाएँ । या फिर उस ईश्वर पर संदेह है कि कहीं वो एक न हो जाएँ । कई बार तो यह लगने लगता है कि वे जो जानते हैं , इतना तो ईश्वर भी अपने बारे में नहीं जनता होगा । उन्होंने ईश्वर को आदत बना लिया, समझ की तरह ।” (प्रतीक्षारत )
लघुकथा
इनदिनों साहित्य की लोकप्रिय विधा हो गयी है । बहुत लिखा जा रहा है । किन्तु
चैतन्य त्रिवेदी की लाघुकथाओं से गुजरना, गुजरना नहीं ठहरना होता है । उनकी रचनाएँ
घटना प्रधान नहीं होती हैं । वे अपनी रचनाओं में चाबी देते हैं, ताला आपको खोलना
होता है । इसमें कोई संदेह नहीं कि लघुकथा साहित्य में यह किताब दिशादर्शन का
महत्त्व रखेगी ।
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पुस्तक – ईश्वर के लिए /
लेखक – चैतन्य त्रिवेदी
प्रथम संस्करण – 2023 /
प्रकाशक –प्रलेक प्रकाशन, मुंबई /
मूल्य – रु. 249 -
Monday, December 4, 2023
चिल्लाओ मत, सब जाग चुके हैं !
परेशान
चित्रगुप्त कर्मचारियों पर झल्ला रहे थे । जीव-गोदाम से अनेक जीव गायब पाए गए हैं
। उनमें सबसे महत्वपूर्ण परसाई का जीव भी दिखाई नहीं दे रहा है । कुछ दिन स्टॉक
चेक नहीं करो तो ऐसी गड़बड़ी होती है । मृत्युलोक कहने भर को ही देवभूमि है । वहां
आते जाते सारे यमदूत भ्रष्ट हो गए हैं वरना इतनी बड़ी गलती कैसे हो सकती है ! रजिस्टर
में साफ साफ इंट्री है परसाई का जीव १० अगस्त १९९५ को यहाँ लाया गया था । जाँच के
बाद पाया गया कि इस जीव को दोबारा धरती पर भेजना उचित नहीं है इसलिए ‘नॉट फॉर
रीसायकल’ केटेगरी में, ताले में बंद करके रखा गया था । लेकिन अब कहाँ हैं किसी को
नहीं मालूम । यमदूतों की लापरवाही दिनोंदिन बढ़ती जा रही है । एक बार भोलाराम के
जीव को भी ये लोग समय पर नहीं ला पाए थे । कितनी बदनामी हुई थी डिपार्टमेंट की ।
अभी तक धरती वाले इसे मुद्दा बना कर नाटक खेलते हैं । उस समय तो मिडिया-मंडी नहीं
थी । राजा हो या मंत्री कोई इस तरह बिकता नहीं था । पैसे वाले गधे-घोड़े ही खरीदते
थे । अख़बारों की खबरें भी खबरें ही हुआ करती थीं । आज अगर स्वर्ग नरक का डाटा लीक
हो जाये तो नीचे ब्रेकिंग न्यूज़ से टीआरपी बढ़ा लेंगे लोग ।
“ए मिस्टर
इधर आओ, तुम कैसे एमबीए हो !! वेयर हॉउस का साधारण सा काम भी ठीक से नहीं होता है
तुमसे ! मुझे लगा था कि प्रथम श्रेणी की डिग्री है तो उसके लायक भी होगे । लेकिन
तुम्हारे जैसा लापरवाह, नाकारा गोदाम चौकीदार पूरी धरती पर भी नहीं मिलेगा । मुझसे
गलती हुई जो मैंने तुम्हारी डिग्री पर भरोसा किया । लगता है तुमने भी नकली डिग्री
बनवा रखी है ! दूत हो, कम से कम तुम्हें तो शरम आना चाहिए ।“ चित्रगुप्त क्रोधित
हुए ।
“सर आप बड़े
हैं, शिक्षा व्यवस्था को कुछ भी कह सकते हैं । राग दरबारी वाले व्यंग्यकार के जीव
ने आपको बता दिया होगा कि शिक्षा व्यवस्था सड़क किनारे पड़ी कुतिया है और बड़ा छोटा कोई
भी उसे लात मार कर चल देता है । गलती किसकी है, चूक कहाँ हुई इसकी जाँच किये बिना
आपने मेरी डिग्री पर संदेह किया । मेरे लिए तो इतने में ही डूब मरने की बात है ।“ यमदूत दुखी हुआ ।
“शिक्षा
व्यवस्था में जो चल रहा है वो भी डूब मरने की बात है । लेकिन कोई मरा आजतक ?! मैं
तुम्हारी जिम्मेदारी की बात कर रहा हूँ । आखिर गायब कैसे हुआ व्यंग्यकार का जीव ? जानते हो अगर वह कहीं पैदा हो गया तो उसका
भी ‘हे राम’ हो जायेगा ।” चित्रगुप्त चिंतित भी हुए ।
“क्षमा
करें श्रीमान, लाखों जीवों का आवगमन होता है यहाँ से । बत्तीस करोड़ का देश पचहत्तर
वर्ष में एक सौ चालीस करोड़ का हो गया । आप जरा वर्क लोड देखिये । कम्पूटर नहीं है,
स्टाफ भी उतना का उतना ही है । हर तीन सेकेण्ड में दो जीव भारत के लिए ही डिस्पेच
करना पड़ते हैं । अगर कीड़े मकोड़ों के जीव न हों तो हमें आपूर्ति करने में पुरखे याद
आ जाएँ । इधर भभ्भड़ मचा रहता है और उधर लोग जश्न मना रहे हैं कि दुनिया में नंबर
वन हो गए !! सुना है ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए उकसाया भी जा रहा है ! पैदाइश-युद्ध
पर उतर आये हैं लोग !” दूत ने अपनी बात रखी ।
“उनकी
मूर्खताओं को बता कर तुम अपनी गलती नहीं छुपा सकते दूत । व्यंग्यकार का जीव कोई
मामूली जीव नहीं है, फ़ौरन ढूंढो उसे ।“
“चाँद पर
देखता हूँ । इन्स्पेक्टर मातादीन वहीं पड़ा होगा । हो सकता है व्यंग्यकार का जीव
उससे मिलने पहुंचा हो ।“
“ हमारे
पास केवल देवभूमि का ठेका है । जाओ वहीं किसी वैष्णव की होटल में देखो । सारे जीव
उधर ही फिसलते हैं ।”
यमदूत धरती
पर पहुंचा । किसीने कहा कि राजधानी की ओर जाओ । व्यंग्यकारों की कलम इनदिनों सरकार
के नाक-कान छेदन में लगी है । हो सकता है वहाँ मिल जाये ।
कुछ देर
में ही यमदूत की नजर एक भीड़ पर पड़ी । व्यंग्यकार का जीव मालिक-भक्तों से घिरा हुआ
था । बिना ठोस शरीर की आकृति को लोग भौंचक से देख रहे थे । एक आवाज आई, -- अरे
इनको तो पहचानता हूँ मैं ! ... क्यों तुम वही हो ना ?”
“हाँ मैं
वही हूँ, और देख रहा हूँ तुम भी वही हो ।“ जीव ने बिना मुस्कराए कहा ।
“तुम तो हर समय टांग खींचते थे ! अब देखो, देखो
कितना विकास हो गया है ! कितने सारे हवाई अड्डे, कितनी सारी उड़ानें, रेलें
सुपरफ़ास्ट, सड़कें देखो एक सौ पचास की स्पीड में दौड़तीं कारें, बड़ी बड़ी मूर्तियाँ,
बड़े बड़े देव, बड़े बड़े अवतारी, बड़ी पूजाएँ, बड़े पुजारी, बड़ा बजट । टीवी देखो, अख़बार
देखो सरकार ही सरकार देखो । मालिक का विमान साढ़े आठ हजार करोड़ देखो और विपक्ष के
पेट में लाइलाज मरोड़ देखो । ... कैसा लग
रहा है ? ... खुश नहीं हुए ना !?”
“अच्छा तो सब
अमीरों के लिए है ! विकास कम हवस ज्यादा है !! अमीर कितना उड़ेंगे, कितनी कार
दौड़ाएँगे, कितना पूजेंगे भगवान को ! अमीर मालिक हो गए देश के ! उन्होंने सिस्टम को
टम टम बना लिया है अपना ! “ जीव बोला ।
“दोस्ती
में कोई मालिक नहीं कोई टम टम नहीं । सारे प्रगतिशील हैं ।“
“ओह !
प्रगतिशील हैं !! दाढ़ी रखने से प्रगतिशील हो जाते हैं क्या ! बुद्धिजीवी कौन होते हैं समझते हो ?“
“हाँ हाँ,
पता है । ... समस्या होते हैं ।“
“औंधी
खोपड़ी हो अभी तक ! समाधान को समस्या कहते हो !?”
“हम जिसे
समस्या मानते हैं वो समस्या है । और विकास पथ में बुद्धि या बुद्धिजीवियों का कोई काम
नहीं है ! ताली-थाली बजवा कर चेक कर लिया है मालिक ने । बुद्धिजीवी व्यवस्था के शत्रु
होते है । दीर्धकालिक योजना से इन्हें नष्ट किया जाना है । बुद्धिजीवी मुक्त भारत
! कितना सुन्दर होगा ! मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास, हम करेंगे इनका समूल
नाश ।“
“लोकतंत्र की
छड़ी जनता के पास होती है । और उसकी मार में आवाज नहीं होती है ।“ जीव ने याद
दिलाया ।
“लोकतंत्र
का पाठ कोर्स से हटा दिया गया है ? जब नयी पीढ़ी पढेगी नहीं तो जानेगी कैसे ! जब प्रजा
को एक ही पार्टी, एक ही मालिक को चुनना है तो चुनाव और लोकतंत्र की जरुरत क्या है
!” मालिक-भक्त बोला ।
“लोग मूर्ख
हैं ! दूसरी पार्टी और नेता के बारे में नहीं सोचेंगे ।“ जीव ने कहा ।
“जो सोचेगा
देशद्रोही माना जायेगा । जरुरत पड़ी तो नए कानून और नयी जेलें बनायीं जाएँगी ।“
“तो गरीब के
ही वोट नहीं लोगे ! ... गरीब के लिए कुछ किया है ?”
“गरीबी हटा
दी गयी है । मीडिया में एक भी शब्द गरीब के बारे में नहीं मिलेगा ।... मालिक ने गरीब
को दूसरा सम्मानजनक नाम ‘भूमिपुत्र’ दिया है । अब गरीब भूमिपुत्र है ।“
“इससे उनके हालात तो बदलेंगे नहीं ! क्या गरीबों को मालूम है कि उन्हें भूमिपुत्र कहा
जा रहा है ?”
“हाँ उन्हें
मालूम है और वे बहुत खुश हैं । भड़काने वाले न हों तो गरीब जरा से में राजी रहते
हैं । उन्हें पहली बार सम्मान मिला है । सम्मान
मिल जाये तो वे आधी मजदूरी से खुश हो जाते हैं, मजे में भूखे भी रह लेते हैं । जुमले हमेशा फर्टीलाइजर का काम करते हैं । मालिक
जब कहते हैं कि ‘मित्रो मैं भी भूमिपुत्र था’ तो फसल दूनी उगने लगती है वोटों की ।
लोकतंत्र की रक्षा का मतलब वोटों की रक्षा ही तो है । देशभक्त सुनहरे कल की ओर बढ़
रहे हैं । “
“बड़े
होशोयर हो ! महंगाई का ‘म’ भी नहीं बोल रहे हो !! रुपया लुढ़क रहा है !” जीव को
गुस्सा आने लगा ।
“रुपया वहीं
है डालर उछल रहा है । डालर हमारी समस्या नहीं है । और महंगाई कहाँ है !? अगर महसूस
नहीं करो तो महंगाई है ही नहीं । महंगाई तो एक भ्रम है जो राष्ट्रद्रोहियों ने
फैला रखा है । जो प्याज नहीं खाता उसके लिए प्याज महँगी नहीं है । जो भी महंगा लगे
वो मत खाओ । जिसे तुम महंगाई समझ रहे हो दरअसल वो विकास है । विकास गर्व की बात है । रही भूमिपुत्रों की बात
तो उन्हें इतना अनाज मुफ्त दिया जा रहा है जितने में वो हर चुनाव तक जिन्दा रह लें ।“
“रोजगार का
क्या ? चुनाव के बाद उन्हें भूख नहीं लगेगी ?”
“बता दिया
है उन्हें । हानि-लाभ, जीवन-मरण, जस-अपजस विधि हाथ । यह ईश्वरीय नियम है, इससे ऊपर
कोई जा सकता है ?“
“भ्रष्टाचार
करने वाले तो साधु हो गए ?! चौतरफा ईमानदारी फल फूल रही है !”
“अरे, ...
भूल गए ! ... ‘सदाचार का ताबीज’ । तुमने ही तो बताया था कभी । पूरे एक सौ चालीस
करोड़ भाइयों और बहनों के लिए बनवाये जा रहे हैं । दोस्तों को ठेका दे दिया गया है
। मुफ्त मिलेंगे सबको । विपक्ष बहुत बोलता
है उसको एक बूस्टर तावीज भी बांधा जायेगा ।“
“झूठ की
रेत में सिर घुसा लोगे तो क्या दिखोगे नहीं किसीको !?” जीव ने फटकारा ।
तभी एक और
भड़कती आवाज आई, बोला – कौन हो जी तुम !? क्या उलजलूल सवाल पूछे जा रहे हो ! लगता
है लाल वाले हो । तुम ऐसे नहीं सुधरोगे । ... ये जागरण का समय है रे, जागो-जागो । नगर
नगर जागो, डगर डगर जागो । कस्बे, गाँव और टोले जागो । उठो जागो कि समय आ गया है उत्तर
देने का ।“
“चिल्लाओ
मत, सब जाग चुके हैं । और उन्हें पता है कि समय आ गया है उत्तर देने का ।“ जीव ने
भी चिल्ला कर जवाब दिया ।
भीड़ में
गुस्सा बढ़ने लगा । जीव के साथ शरीर होता तो पक्के में इस बार मॉब-लीचिंग होती या
इंकाउंटर जैसा कुछ । मौका देख कर दूत जीव को दबोचा और यमलोक की ओर उड़ गया ।
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Thursday, August 3, 2023
परसाई को याद करते हुए देशकाल
आलेख
जवाहर चौधरी
परसाई को अकेले याद नहीं किया जा सकता है । परसाई के साथ समय नत्थी रहता है, चाहे उनका हो या आज का । आजादी के समय, 1947 में परसाई लगभग 23 वर्ष के थे और देश में सत्ता परिवर्तन और राजनीतिक प्राथमिकताओं को समझ रहे थे । यही वह आयु भी होती है जब व्यक्ति अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को भी महसूस करता है । परसाई की पारिवारिक पृष्ठभूमि आर्थिक रूप से सुविधाजनक नहीं थी । कम उम्र में ही उन्होंने अपनी माँ को खो दिया था । अपनी आत्मकथा ‘गर्दिश के दिन’ में उन्होंने लिखा है, “साल 1936 या 37 होगा। मैं शायद आठवीं का छात्र था । कस्बे में प्लेग फैला था … रात को मरणासन्न माँ के सामने हम लोग आरती गाते थे । कभी-कभी, गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते, माँ बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेती और हम भी रोने लगते । फिर ऐसे ही भयकारी त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर माँ की मृत्यु हो गई । पांच भाई-बहनों में मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था ।” कुछ समय बाद पिता भी चल बसे । चार छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारी परसाई जी कन्धों पर आ गयी । नौजवान हरिशंकर अपनी, परिवार की, समाज की और देश की चिंताओं को एक साथ लेकर बड़ा हुआ ।
विभाजन की पीड़ा के साथ धार्मिक
पहचान ने नफ़रत के दरवाजे खोले । बहुसंख्यक समाज धार्मिक, सामाजिक निर्योग्यताओं और
पाखंड से बाहर नहीं था । गुलामी में जी रहे समाज के लिए शुरुवात में इतना ही काफी
था कि वह आजाद है । लेकिन राहत के दिन ज्यादा नहीं टिके । सपनों से आबद्ध देश का बेरोजगार
युवा हताश और क्रुद्ध होने लगे । कुछ जरुरी काम निबटा कर सत्ता जिम्मेदारी से सुख
की और मुड़ने लगी । कुछ चलाकियां भी राजनीतिक जीवन में पैठने लगीं । झूठ,
भ्रष्टाचार, बेईमानी कोई नयी चीज नहीं थी, लेकिन अब आज़ादी के साथ थी । ये चीजें आज
भी हैं लेकिन आज के भारत ने इसे सहज और सामान्य मान लिया है । उस समय इसका विरोध
होता था । आज विरोध नहीं होता है लेकिन दिखावे का विरोध होता है । परसाई लिखते हैं
“हर आदमी बेईमानी की तलाश में है , और हर आदमी चिल्लाता है कि बड़ी बेईमानी है “ । मूल्य
बदले और ‘नमक का दरोगा’ प्रेमचंद के साथ चला गया । आज उपरी कमाई योग्यता की श्रेणी
में है । पहले भ्रष्ट आदमी कानून से डरता था अब कानून को जेब में रखता है । जिन पर
कानून के सम्मान का भार है वही उसकी आबरू तार तार करने की विद्या में पारंगत हैं ।
सोचिये आज अगर परसाई यह सब देखते तो कितना सह पाते ! बड़ी उम्मीदों के साथ उन्होंने
कहा था कि “मैं शाश्वत साहित्य नहीं लिखता । मैं चाहता हूँ कि मैं आज जो लिख रहा
हूँ वह कल मिट जाये ।“ हम देख रहें हैं कुछ मिटा नहीं, बल्कि बढ़ गया । लगता है
अंग्रेज गए लेकिन गुलामी नहीं गयी । देश ने अपने स्वदेशी अंग्रेज और गुलाम चुन लिए
। ग्राम स्वराज की कल्पना यह थी कि छोटे गांवों में रहने वाले, गरीब कुछ उद्यम
करेंगे, अपने पैरों पर खड़े हो सकेंगे और स्वाभिमान से जी सकेंगे, एक नया भारत
बनेगा । लेकिन आज मुफ्त की सरकारी सुविधाओं
से वोट देने वाली मशीन बनते जा रहे हैं गरीब । चालाकियों का वैधानिकीकरण हो चला
है, जो घूँस पहले पारसाई के ज़माने में छुप छुपा कर दी जाती थी अब कल्याण योजनाओं
के आवरण में खुलेआम विज्ञापन दे दे कर दी जाती है ! जनमत को पतुरिया की तरह देखा
जा रहा है ! नाच मेरी बुलबुल तुझे पैसा मिलेगा । परसाई का लेखन राजनीति धुर्तताओं,
धार्मिक पाखंड, सामाजिक दुराभाव आदि पर मात्र फटकार नहीं थी, उनका लेखन जनशिक्षा
और जनचेतना के लिए था । वे चाहते थे कि जनता के दिमाग की खिड़कियाँ खुलें और वे
सोचें । पारसाई आज भी अपने लिखे से दिशा देते दिखाई देते हैं । जनता की आँखों पर
पट्टी पड़ी रहे इसकी तमाम कोशिशों (धर्म, मंदिर-मस्जिद, साम्प्रदायिकता आदि) के
बावजूद परसाई से गुजरते हुए व्यक्ति वह नहीं रहता जो पहले था । इस घोर
षड्यंत्रकारी समय में परसाई पहले से कई गुना ज्यादा प्रासंगिक हैं । वर्तमान
राजनीतिक सन्दर्भ में देखें तो उनकी यह बात कितनी अर्थपूर्ण है – “आत्मविश्वास धन
का होता है, विद्या का भी और बल का भी, पर सबसे बड़ा आत्मविश्वास नासमझी का होता है
।“
लेकिन एक सवाल मन में आता है कि
अपने कालमों से फटकार लगाने वाले परसाई आज अगर होते तो उन्हें छापता कौन ! माहौल लालच
और भय का है । पहले अख़बार छपने के बाद बिकता था अब इसका उल्टा है । संपादक गायब हो
गए हैं, धंधा मालिक कर रहे हैं । परसाई की फटकार जनता और सरकार तक कैसे पहुँचती ! कोई सांप ले कर पहुंचे तो सत्ता
उसे दूध पिला कर टोकरी में बंद कर लेती है । मिडिया चाहे अनचाहे शहनाई वादन कर रहा
है, परसाई इस स्थिति पर कैसी प्रतिक्रिया देते ! आज प्रतिरोध की सबसे अधिक
आवश्यकता है । यदि परसाई की रचनायें जनता के सामने रखीं जाएँ तो वे प्रभावी और
प्रासंगिक होंगी ही । लेकिन व्यंग्य के नाम पर वही छापा जा रहा है जो व्यंग्य नहीं
है । फूल-पत्ती पर लिखो, साड़ियों और श्रंगार पर लिखो लेकिन भूख और गरीबी पर मत
लिखो, भ्रष्टाचार और बेईमानियों पर मत लिखो, सरकार पर मत लिखो । मिडिया ने व्यंग्य
को मनोरंजन मान लिया गया है जो परसाई को कतई बर्दाश्त नहीं है । अन्धविश्वास और
अवैज्ञानिकता को रोकने की कोशिश में दशकों लगे लेकिन पाखंड की प्राणप्रतिष्ठा में
देर नहीं लगी । वे लिखते हैं – “ अश्लील पुस्तकें कभी नहीं जलाई गईं । वो अब अधिक
व्यवस्थित ढंग से पढ़ी जा रही हैं“ । यहाँ किन पुस्तकों की बात की जा रही है वह
स्पष्ट है । जो इस दावे के साथ आये थे कि हमारी चाल, चरित्र और चेहरा अलग है वे
कुर्सी पकड़ते ही बदल गए । विचारधारा के कंबल से उनकी मोटी चमड़ी ज्यादा सुरक्षित हो
गयी । शुरुवात छड़ी से की थी लेकिन आज क्या सुलूक होता यदि परसाई होते ! दाभोलकर,
गौरी लंकेश, कल्बुर्जी, गोविन्द पानसरे वगैरह भी स्वस्थ समाज के लिए आवाज उठा रहे
थे ।
भारत परम्पराओं और त्योहारों का देश
है । त्योहार मौके होते हैं जब छोटे-बड़े,
अमीर-गरीब, अपने-पराये सब गिले-शिकवे दूर कर एक हो जाते हैं । साँझा संस्कृति है
हमारी । शासन की जिम्मेदारी है कि ऐसे अवसरों का सदुपयोग समाज को संगठित करने के
लिए करे । लेकिन राजनीति साधने के लिए धर्म और जाति के नाम पर समाज बंट रहा है ।
एक तरह की अयाचित कट्टरता पैठती जा रही है । त्योहारों पर उल्लास का माहौल होना
चाहिए लेकिन डर का क्यों है ! अपने आलेख ‘मुहर्रम और दशहरा की बधाई’ में परसाई
लिखते हैं -“साधो, मुहर्रम और दशहरा एक ही दिन हो और शहर सांप्रदायिक मामले में
नाजुक हो तो पंद्रह दिन पहले से पुलिस और प्रसाशन घबड़ाने लगता है । साधारण नागरिक
भी चिंतित हो जाता है । जिला प्रशासन ऊपर भयंकर रिपोर्ट भेजता है कि शहर में भारी
तनाव है ।“ आज तनाव समस्या नहीं है अवसर
है । अवसरों का सृजन होता है । ‘देशभक्ति का विभाजन’ में परसाई कहते हैं –“ साधो,
अब यह स्पष्ट हो गया है कि दक्षिणपंथी राजनीतिक दल यह मानते हैं कि जो ‘भारत देश’
नाम की जायदाद है उस पर इंदिरा गाँधी ने कब्ज़ा कर रखा है । ... यह कब्ज़ा नाजायज है
और इस जागीर पर असली हक़ उनका है ।“
आज ‘जागीर’ पर इस कब्जे को देख कर परसाई के सामने
बड़ी चुनौती होती । सम्पत सरल जैसे कुछ व्यंग्यकार पूरी ताकत और हिम्मत से अपना विरोध
दर्ज करते हैं लेकिन सत्ता की खाल पर कोई असर नहीं होता है ।
जनता थोड़े से फ्री राशन पर आँखें मूँद लेती है । चोर चाँद दिखा कर ऊँट चुरा
रहा है और लोग समझ नहीं पा रहे हैं । परसाई (चर्बी, गंगाजल और एकात्मकता यज्ञ ) में
लिखते हैं - “ इस देश का मूढ़ आदमी न अर्थनीति समझता है, न योजना, न विज्ञान, न
तकनीक, न विदेशनीति । वह समझता है – गौ माता, गौ हत्या , चर्बी, गंगाजल, यज्ञ । वह
मध्ययुग में जीता है और आधुनिक लोकतंत्र में वोट देता है । इस असंख्य मूढ़
मध्ययुगीन जन पर राज करना हो तो इसे आधुनिक मत होने दो । इसे गौ माता, गंगा जल ,
यज्ञ और रथ में उलझाये रखो । “ क्या आपको नहीं लगता है वे व्यंग्य नहीं लिख रहे थे,
देश का भविष्य बांच रहे थे ! यहाँ सवाल यह भी है कि विपक्ष क्या कर रहा है !? इस
समय देश से वामपंथी तो जैसे गायब ही हो गए हैं !! दो चार कहीं हैं भी तो बिजुका की
तरह । पारसाई के शब्दों में – “आज देश की
हवा में जहर है । यह आकस्मिक और कुछ समय आवेश-उन्माद नहीं है । यह ठन्डे दिमाग से
बनायीं गयी योजना है, जिसका उदेश्य सांप्रदायिक नफ़रत, टकराव और विभाजन के द्वारा
देश की सत्ता पर कब्ज़ा करना है । ... मैं सत्य कहता हूँ कि तीस तीस सालों के मेरे
मित्रों से, जिनसे मैं खुल कर बातें करता था, अब हिचक से सावधानी से बात करता हूँ
। इस राजनीति ने काफी हद तक समाज को बाँट दिया है” । (भारतीय गणतंत्र : आशंकाएं और
आशाएं ).
जो लोग लम्बे समय तक सत्ता में रहने
के आदी हो चुकते हैं उन्हें विरोध करना आता ही नहीं है । जो आज सत्ता में हैं वे
पहले भी विरोध करते थे आज भी अतीत का विरोध और निंदा करते हुए शासन कर रहे हैं ।
यहाँ भी परसाई भविष्य दृष्टा हैं - (बारूद पर
बैठ कर माला पहनना ) “ साधो, गाँव गाँव में प्रचार हो रहा है कि यह
कांग्रेस की सरकार हिन्दुओं को वनस्पति में गाय की चर्बी और मुसलमानों को सूअर की
चर्बी खिला रही है । इसके साथ ही सम्प्रदायिकता का जहर फैला रही है । तनाव पैदा कर
रही है । जेट युग में रथ दिखा रही है । सरकारी जाँच कहती है कि वनस्पति में चर्बी
नहीं मिलायी जा सकती है । इसके बावजूद
चर्बी का प्रचार चल रहा है । गरीब और माध्यम वर्ग की मुसीबत हो रही है । यह
सब क्यों हो रहा है ? यह दंगे करने के लिए हो रहा है । देश का विघटन करने के लिए
हो रहा है । यह कांग्रेस और उसकी सरकार की
मिटटी पलीद करने के लिए हो रहा है । मगर कांग्रेसी इस प्रचार की काट नहीं करते ।
शहरों, कस्बों में दांत निपोरते हुए शोभा यात्रा निकाल रहे हैं । उन्हें खबर नहीं है की उनकी शोभा पर डामर पोता
जा रहा है । “ देश के बैंकों से हजारों करोड़ का ऋण ले कर कई लोग भाग गए । कईयों ने अपने ऋण माफ़ करवा लिए
। सरकार ने भारी कर्ज ले लिया, संपत्तियां बिक गयीं । अनेक तरह के निर्माण पर खर्च
हो रहा है । शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे मदों को उपेक्षित रखा जा रहा है । आज
देश को एक नहीं कई कई हरिशंकर परसाई की जरुरत है । कभी नेहरू ने कहा था कि धर्म का
जन्म डर और अज्ञान से हुआ है । आज धर्म की पुनर्स्थापना के प्रयास शीर्ष पर हैं । सो कई कई
नेहरू भी चाहिए देश को । चीजें बहुत तेजी से बदली हैं । मध्यकालीन व्यवस्था
का प्रतीक राजदंड सेंगोल स्थापित किया जा चुका है अब । एक जगह परसाई लिखते हैं
(चर्बी का हल्ला ) “ साधो, धंधे और मुनाफे की नैतिकता अलग होती है । धर्म आचरण अलग
होता है । कानून किताबों की चीज है, धंधे में आचरण की नहीं । अगर ये सिद्ध हो जाये
कि आदमी की चर्बी ज्यादा अच्छी क्वालिटी की और
सस्ती होती है तो गुप्त रूप से स्वस्थ आदमियों के बूचड़खाने खुल जायेंगे और
आदमी की चर्बी निकलने लगेगी । सरकार के मंत्रियों के, पुलिस अफसरों के, शासन के
अधिकारियों के सहयोग से ही ये बूचडखाने चलेंगे । वैसे धार्मिक उन्माद के कारण धीरे
धीरे सारा देश आदमी का बूचड़ खाना हुआ जा रहा है ।“
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संस्मरणों के सहारे पड़ताल : हिंदी व्यंग्य की प्रवृत्तियां और परिवेश
आलेख
जवाहर चौधरी
जिस तरह से
हिंदी व्यंग्य पल्लवित हुआ है वह चौंकाने वाला है । लेकिन यह भी चिंता की बात है
कि इस फसल का कोई रखवाला नहीं है । कोई मेढ़ (फेंसिंग) नहीं है, जमीन खुली पड़ी है ।
कहीं कहीं बिजूके हैं भी तो नहीं होने जैसे । कहाँ फसल है और कहाँ खरपतवार कुछ समझ
में नहीं आता है । व्यंग्य की इस जमीन को समझने समझाने की कोशिश में समय समय पर कुछ
किताबें आई हैं । श्यामसुन्दर घोष की ‘व्यंग्य क्या, व्यंग्य क्यों,’ शेरजंग गर्ग
की ‘व्यंग्य के मूलभूत प्रश्न’, सुरेश कान्त की ‘व्यंग्य: एक नयी दृष्टी’ , राहुल
देव की विमर्श पुस्तक ‘आधुनिक व्यंग्य का यथार्थ’, गौतम सान्याल की ‘कथालोचन के नए
प्रतिमान’ जिसमें कथा के साथ व्यंग्य पर भी सार्थक टिप्पणियां हैं । एक अरसे तक
‘व्यंग्य विविधा’ पत्रिका के माध्यम से मधुसूदन पाटिल और पिछले बीस वर्षों से
‘व्यंग्य यात्रा’ के साथ प्रेम जन्मेजय व्यंग्य की जमीन में खाद पानी दे रहे हैं ।
इसी क्रम में कैलाश मंडलेकर अपने ताजा काम के साथ व्यंग्य परिवेश की पड़ताल के उदेश्य
से प्रवेश कर रहे हैं । उनकी पुस्तक ‘हिंदी व्यंग्य की प्रवत्तियां और परिवेश’ हाल
ही में शिवना प्रकाशन से प्रकाशित हुई है ।
अपनी बात
रखते हुए कैलाश कहते हैं – “समकालीन व्यंग्य पर चर्चा करते हुए एक दफे परसाई जी ने
कहा था “सही व्यंग्य व्यापक जीवन परिवेश को समझने से आता है ...उक्त वक्तव्य के
परिप्रेक्ष्य में यदि हम आज के व्यंग्य लेखन को रख कर देखना चाहें तो हम पूरी तरह
आश्वस्त नहीं हो पाते हैं कि हम अपने समय की समग्र व्याख्या कर पा रहे हैं ! हमसे
क्या छूटते जा रहा है इसकी पड़ताल करते जाना भी आज के व्यंग्यकार का दायित्व है ।“ ...
हमसे क्या छूट रहा है ! आज के व्यंग्य उद्योग को यही जानने और समझने की जरुरत है ।
बहुत शालीनता के साथ कैलाश इस बात को कहते हैं – “हिंदी के समकालीन व्यंग्य पर
आत्मसंतुष्टि, दोहराव और आत्ममुग्धता के गहरे आरोप लगाये जाते हैं । मैं जानता हूँ
कि ये आरोप फैशन के तौर पर नहीं लगाये गए हैं । इनमें सच्चाई भी है ।“ ... व्यंग्यकार में जवाबदेही का बोध शिद्दत से होना
चाहिए । व्यंग्य की कलम समाज के व्यापक हित में जिम्मेदारी और जोखिम लेती है ।
व्यंग्य लेखन चिड़ियाघर घूमना नहीं है । पुस्तक इस बात की चिंता भी करती है कि
व्यंग्य के नाम पर जो सतहीपन, चुटकुलेबाजी वगैरह चल रही है वह न व्यंग्य के हित
में है और न ही लेखक के हित में । कहा जा सकता है कि नए व्यंग्य लेखक के पास कोई
व्यवस्थित दिशा निर्देश नहीं है । सलीका आएगा कहाँ से ! इसका मतलब यह हुआ कि हम
अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों को ठीक से नहीं देख पाए हैं । उनकी व्यंग्य दृष्टि,
भाषा, शैली, विषय की पड़ताल, कहने का साहस, जोखिम, कला आदि सब कम-अधिक छूट रहा है ।
व्यंग्य में डूबे बगैर, उसका व्याकरण समझे बगैर कोई व्यंग्य के कॉकपिट में कैसे
बैठ सकता है ! किताब इसी बात को समझाने का प्रयास करती है कि व्यंग्य लेखन एक
साधना है । व्यंग्य दृष्टि कुदरती तौर पर सबको नहीं मिल जाती है । फिर व्यंग्य में
भाषा भी महत्वपूर्ण है । पुस्तक में कैलाश
अपनी तमाम व्याख्याओं में भाषा की और इशारा करते चलते हैं ।
पहले
अध्याय में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के व्यंग्य परिवेश की परिचयात्मक चर्चा है । कहते
हैं ज्यादातर हिंदी व्यंग्य इन्ही दो प्रदेशों से आया है । इसलिए लेखक का इन
प्रदेशों पर नजर रखना उचित है । परसाई और जोशी की कर्म भूमि ने अनेक उल्लेखनीय
व्यंग्यकार दिए हैं हिंदी को । कैलाश जी ने शिद्दत से तमाम व्यंग्यकारों को अपने
चिंतन में शामिल किया है । ‘परसाई की व्यंग्य चेतना‘ और ‘परसाई और जाने पहचाने
लोग’ संस्मरणात्मक लेख हैं । परसाई जी को निकट से देखने समझने का मौका मिला है कैलाश
मंडलेकर को । वे बता रहे हैं कि परसाई ने संस्मरण लिखे लेकिन आत्मकथा के लिए कहा
कि ‘नहीं लिखूंगा’ । उनका मनना था कि “आत्मकथा में सब छुपा लिया जाता है और वही
लिखा जाता है जो व्यक्तित्व को गरिमा प्रदान करे ।“ यहाँ झूठ से सज्जित आत्मप्रशंसा
की ओर संकेत है । हालाँकि परसाई आत्मकथा लिखते तो निसंदेह अपने समय और समाज को ही अनावृत
करते । यही काम वे अपनी रचनाओं में करते रहे थे । अपने सच को लिखना साहस और जोखिम
का काम है । हालाँकि उनके संघर्षपूर्ण जीवन पर एक अधिकृत पुस्तक हो जाती तो अच्छा
होता । शरद जोशी के लेखन की खूबियों की चर्चा ‘शरद जोशी – परिक्रमा से प्रतिदिन तक
!’ आलेख में हुई है । कैलाश लिखते हैं – “शब्द कैसे तराशे जाते हैं और भाषा को
हथियार कैसे बनाया जा सकता है इसे शरद जोशी के मार्फ़त ही समझा जा सकता है ।“
व्यंग्य में जहाँ परसाई सीधे सीधे लाठी चलाते दिखाई देते हैं वहीं शरद जोशी हरी
लचीली बेंत से काम चलाते हैं । बावजूद इसके उनकी मार का असर कम नहीं होता है ।
वैचारिक रूप से व्यंग्यकार प्रतिबद्ध प्रायः नहीं होता है । उसकी प्रतिबद्धता व्यवस्था
के शिकार अंतिमजनों से होती है । शरद जी के व्यंग्य इसलिए भी लोकप्रिय हुए हैं कि
“वे पीड़ित के गूंगे गम को सहलाते हैं और बहुत अपनत्व के साथ उसके बाजू में खड़े
होते हैं” । इसी तरह श्रीलाल शुक्ल को याद करते हुए ‘रागदरबारी’ पर सारवान आलेख है
। रागदरबारी हिंदी व्यंग्य का महत्वपूर्ण और लोकप्रिय उपन्यास है जिसमें ग्रामीण
भारत के विसंगत जीवन का चित्रण रोचक व मारक है । इसी क्रम में महत्वपूर्ण
व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी लिखते हुए मंडलेकर पत्रिका ‘अक्षर पर्व’ में लिखे
स्व. ललित सुरजन के सम्पादकीय का जिक्र करते हैं – “रविंद्रनाथ त्यागी का पिछले
दिनों कभी निधन हो गया । कब, किस तारीख को, कहाँ ? मालूम नहीं । रायपुर क्या भारत
के किसी समाचार पत्र में यह खबर पढ़ने को नहीं मिली । टीवी के किसी चेनल ने इसे
प्रसारित नहीं किया । ... अंग्रेजी की बात छोडिये, हिंदी के किसी के पत्रों को भी
यह खबर नहीं मिल सकी ।“ ये पंक्तियाँ चौंकती ही नहीं टीसती हैं मन में । विस्तार में जाने से यहाँ किसी गलतफहमी की बात
भी प्रतीत होती है । पता चलता है कि श्रीलाल जी का निधन 28
अक्तूबर 2011
को लखनऊ में हुआ । अंतिम संस्कार गोमती के किनारे भैंसा कुण्ड श्मशान घाट पर था ।
जिसने भी उनके निधन का समाचार मिलता जा रहा था वह भैंसा कुण्ड पहुँच रहा था । ( समाचार
की तफसील बीबीसी के पोर्टल पर दर्ज है ।) लेकिन
ललित सुरजन जी के लिखे को कैसे नकारा जाए । इस घटना पर काम होना चाहिए और सच्चाई
का पता लगाना चाहिए ।
वरिष्ठ व्यंग्यकार
अजातशत्रु राष्ट्रीय फलक पर बहुत समय से अनुपस्थित चल रहे हैं । व्यंग्य पर उनके दो संग्रह हैं, ‘आधी वैतरणी’
और ‘शर्म कीजिये श्रीमान’ । अब उनका लेखन ज्यादातर संगीत और फिल्मों पर केन्द्रित
है । व्यंग्य एकदम बंद नहीं है, स्थानीय अख़बार में लिखते हैं । पुस्तक में उनसे एक
लम्बा साक्षात्कार हैं जिसमें महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर सार्थक चर्चा है । महत्वपूर्ण
व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी के दो चर्चित उपन्यासों ‘हम न मरब’ और ‘स्वांग’ से
उनके रचनात्मक कौशल और व्यंग्य-दर्शन को समझने का प्रयास है । व्यंग्य परिवेश में
‘भेन्चो’ जैसी गाली पर पहले काफी विवाद हुआ है, इस पर भी कैलाश सुविधाजनक विस्तार
लेते दिखाई देते हैं । पत्रिका ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक प्रेम जन्मेजय व्यंग्य
जगत में सबसे अधिक सक्रीय व्यक्ति हैं । न केवल पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं से
बल्कि साहित्यिक आयोजनों में भी उनकी उपस्थिति व भूमिका महत्वपूर्ण होती है । प्रेम
जी की किताब ‘हिंदी व्यंग्य की धार्मिक
पुस्तक: हरिशंकर परसाई’ को चर्चा में लेकर उनके संपादन-कौशल और व्यंग्य-बोध पर
विमर्श करता आलेख है । हिंदी की महत्वपूर्ण लेखिका सूर्यबाला कई विधाओं में लिखती हैं
और चर्चित हैं । व्यंग्य पर भी इनकी कलम शिद्दत से चली है । उनके संग्रह ‘भगवान ने
कहा था’ के बहाने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर बात की गयी है । इसी तरह
व्यंग्यकार जवाहर चौधरी के व्यक्तित्व कृतित्व पर चार लेख हैं । व्यंग्य संग्रह
‘बाजार में नंगे’ और उपन्यास ‘उच्चशिक्षा का अंडरवर्ल्ड’ को चर्चा में लिया गया है
। ‘सुशिल सिद्धार्थ का व्यंग्य बोध’ के
अंतर्गत उनकी विशिष्ट व्यंग्य दृष्टि, साहित्यिक दृष्टि और लेखन शैली का पता चलता है । यशवंत व्यास वरिष्ठ
व्यंग्यकार हैं और अपनी अलग शैली के लिए पहचाने जाते हैं । उनका व्यंग्य संग्रह
‘कवि की मनोहर कहानियां’ पिछले दिनों चर्चा में रहा है । इसी को सामने रखते हुए
उनकी विशिष्ट व्यंग्य शैली को समझने की कोशिश की गयी है । शांतिलाल जैन बहुत सधा
हुआ लिखते हैं । उनके नये व्यंग्य संग्रह ‘आप शुतुरमुर्ग बने रहें’ से अनेक रचनाओं
पर बात की गयी है । मध्यप्रदेश के कुछ युवा रचनाकारों को कैलाश मंडलेकर विमर्श में
रखते हैं । व्यंग्य का भविष्य जिनके हाथों में है उनके लेखन की विशेषताओं को
रेखांकित करना इसका उदेश्य है । विनोद साव का उपन्यास ‘भोंगपुर 30 कि.मी.’, पियूष पाण्डे का संग्रह ‘डिबेट में कबीर’, वीजी
श्रीवास्तव का ‘इत्ती सी बात’ कमलेश पांडे का ‘आत्मालाप’ पर समीक्षात्मक आलेख हैं
। मुकेश राठौर, विवेकरंजन श्रीवास्तव, सुधीरकुमार
चौधरी के आलावा ‘हिंदी व्यंग्य में स्त्री स्वर-एक शिनाख्त’ और भाषा खण्ड में
‘निमाड़ी भाषा के लोक वैभव’ पर अच्छे आलेख हैं जो व्यंग्य परिवेश में स्त्री लेखन
और बोली भाषा की भूमिका पर प्रकाश डालती है ।
आलोचना
खण्ड में डॉ विजयबहादुर सिंह से हिंदी साहित्य परिदृश्य पर विस्तार से बात हुई है
। उनके वैचारिक संवाद पर आकलन परक आलेख पुस्तक को समृद्ध करता है । अंतिम खण्ड
‘यादों के गलियारे में श्री सूर्यकान्त नागर पर एक अच्छा फीचर है जो उनके संघर्षों
और रचनात्मकता के तमाम पड़ावों की अधिकृत जानकारी देता है । कैलाश मंडलेकर अपने
गुरु डॉ सुरेश मिश्र को बहुत आदर के साथ याद करते हैं जिन्होंने उन्हें इतिहास
पढाया था । स्व. प्रभु जोशी पर भी प्रभावी संस्मरणात्मक आलेख हैं ।
निष्कर्ष
रूप में कहा जा सकता है कि आलोचना की परंपरागत शैली से हट कर कैलाश मंडलेकर ने एक
नए ढंग से व्यंग्य परिवेश को जानने और अभिव्यक्त करने की कोशिश की है । पाठक
संस्मरणात्मक लेखन के माध्यम से व्यंग्य प्रवृत्तियों और बारीकियों से परिचित होता
चलता है । पुस्तक अकादमिक गुणवत्ता के साथ रचनात्मक कृति का आनंद भी देती है ।
हालांकि बहुत से महत्वपूर्ण व्यंग्यकार इस पुस्तक में छूट गए हैं । जब व्यंग्य की प्रवृत्ति और परिवेश पर
केन्द्रित पुस्तक है तो उनकी कमी अखरती है । बहरहाल कुछ चावलों से हांड़ी का जायजा
मिल जाता है । उम्मीद की जा सकती है कि व्यंग्य के पाठकों और शोधकर्ताओं को इस
पुस्तक से कुछ जरुरी सहायता अवश्य मिलेगी ।
........
पुस्तक
– हिंदी व्यंग्य की प्रवृत्तियां और परिवेश
लेखक
– कैलाश मंडलेकर
प्रकाशक
– शिवना प्रकाशन, सीहोर – मप्र
संस्करण
– 2023
मूल्य
– रु. 350/ --
Friday, December 23, 2022
लुगदी लेखन से संक्रमित व्यंग्य विधा
आलेख
व्यंग्य साहित्य की महत्वपूर्ण विधा
है और इन दिनों व्यंग्य लेखन खूब हो रहा है । लेकिन हालात ऐसे हैं कि इस पर पूरी
तरह खुश नहीं हुआ जा सकता है । केवल व्यंग्य ही नहीं कविताओं और लाघुकथाओं का ‘उत्पादन’
भी खूब है । परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि छप खूब रहे हैं लेकिन पढ़ने वाले घटते जा
रहे हैं । दैनिक दनादन, ख़बर ब्लास्ट, धरम धमाका, ज्वाला ज्योति टाईप सैकड़ों
अख़बारनुमा प्रकाशन हो रहे हैं । लघुपत्रिकाएं भी खूब निकल रही हैं । अब तो
इ-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हो रहा है । चाहे रस्मीतौर पर ही सही इन्हें व्यंग्य,
लघुकथा, कविता वगैरह की जरुरत रहती है । साहित्य कभी अख़बार में सम्मान के साथ छपता था, लेकिन
अब फिलर की तरह इस्तेमाल हो रहा है । बड़े अख़बारों में साहित्य जरा सा ‘परोसा’ जाता
है जैसे राजस्थानी थाली में दो हरी मिर्च । तीन-चार सौ शब्दों में लिखे की मांग ज्यादा है चाहे उसमें कोई बात
न हो, सिर्फ शाब्दिक जुगाली हो । मालिकों की दिलचस्पी विज्ञापनदाताओं में है,
उन्हें लेखक ज्यादा मिल जाते हैं । इससे सुविधा यह होती है कि विज्ञापन से बच रही
जगह इन छोटी रचनाओं से भरी जा सकती है । मोटे तौर पर यह स्थिति है पत्र-पत्रिकाओं
की ।
कुछ लोग रोज दो-तीन ‘व्यंग्य’ लिख
डालते हैं । मुर्गी रोज अंडा दे तो खुश हुआ जा सकता है लेकिन यही काम व्यंग्यकार
करे तो पाठक निराश होता है । हालाँकि शरद जोशी प्रतिदिन लिखते थे लेकिन वे शरद
जोशी थे । उनका विषय चयन, दृष्टि, भाषा और समझ साधना से विकसित हुई थी । वे
पारिश्रमिक ले कर लिखते थे । अब तो लेखक को पारिश्रमिक देने का चलन प्रायः खत्म हो
गया है । लेकिन कोई दिक्कत नहीं, आत्ममुग्ध
लेखक कतरन या इ-कतरन पा कर खुश है । इधर लेखकों में एक नई लोटम-लोट होड़ दिखाई देने
लगी है । आप लिख रहे हैं, आपके लिखे का उपयोग पत्र-पत्रिकाएं मुफ्त में करती हैं ।
लेकिन परम-आभारी लेखक हो रहा है !! फेसबुक और वाट्सएप पर व्यंग्यकार के शब्द संपादकों
के लिए साष्टांग हुए जा रहे हैं । छपने पर इतना लज्जित होना पड़े तो अगली पीढ़ी सोच
में पड़ जाएगी । इस पर विचार करने की जरुरत है । लेखक को अपने सम्मान की रक्षा
स्वयं करना होगी । अगर ये काम हम खुद नहीं कर पा रहे हैं तो दूसरा कैसे करेगा !! किसी
समय ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ जैसे विषय पर गंभीर विमर्श हुआ करता था । आज मान लिया
गया है कि ‘मैं छपता हूँ इसलिए लिखता हूँ’ । लेखक के दिमाग से समाज, व्यवस्था,
मूल्य और बदलाव जैसे लक्ष्य धूमिल होते जा रहे हैं । दूसरी तरफ पुस्तक प्रकाशन का
क्षेत्र मंडी हो गया है । संपादक न अख़बारों में हैं न पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र
में । लिखी सामग्री लेकर आइये, किताब लेकर जाइये, यही नहीं अब तो लगता है किताब
लेकर आइये और पुरस्कार लेकर जाइये । साहित्य लूडो हो गया है, पासा फैकों और खेल शुरू
। तपस्या और साधना का साथ छोड़ कर ज्ञान वाट्सएप के अंधे घोड़े पर सवार है । लिखने वालों में भी पढ़ने की आदत समाप्त हो
रही है । समय बहुत तेजी से बदल रहा है । दो तीन महीने में फटाफट फर्राटेदार व्यंग्यकार बना जा रहा है ।
विचारणीय यह भी है कि क्या हम अन्दर
से भी व्यंग्यकार हैं ! भीतर कुछ उबलता है, कुछ खदबदाता है या सारे तेवर प्लास्टिक
हैं ? कबीर ने कहा है “मन न रंगाये जोगी कपड़ा रंगाये; मन न फिराये जोगी मनका
फिराये” । व्यंग्य आक्रोश का लेखन है, व्यंग्य हस्तक्षेप है, व्यंग्य असहमति का
लेखन हैं । व्यंग्य चिरौरी या चाटुकारिता नहीं हैं, न ही व्यंग्य केवल मनोरंजन या
गुदगुदी है । सपाट, थुलथुले और पिलपिले व्यंग्य पत्र-पत्रिकाओं में कमर्शियल ब्रेक
की तरह होते हैं । जबकि व्यंग्य एक गंभीर और उद्देश्यपूर्ण लेखन है, जिसका प्रकाशन
भी गंभीरता से होना चाहिए । आजकल लेखक राजनीति पर व्यंग्य लिखने से बचते हैं या लिखते
भी हैं तो प्रशस्ति-वाचन की तरह, वंदना करते हुए । या फिर लेखक बहुत से
सेफ-सब्जेक्ट उठाता है, जैसे फूल-तितली, पत्नी-साली, मेकअप-मोटापा, दाढ़ी-मूंछ,
कवि-कविता आदि । अब तो पुरस्कार वगैरह पर भी खूब कलम घिसाई हो
रही है । मानो हमने तय कर लिया है कि सत्ता और व्यवस्था को छूना नहीं है । किसी को
नाराज नहीं करना है, लोग कहीं काटने वाला लेखक न मान लें, कहीं कोई देशद्रोही न कह
दे, सरकार दुश्मन न हो जाये । सब लोग अच्छा कहें, वाह वाह करें, लाइक-कमेन्ट मिल
जाएँ तो व्यंग्यकार-जी का दिन शुभ हुआ । यदि हमारे मन में कोई सवाल नहीं है, कोई
आशंका नहीं है, सब अच्छा लग रहा है, चाहे बुरा ही क्यों न हो । हमें किसी से कोई
मतलब नहीं है, न आम आदमी से, न समाज से, न ही देश से । हम छप कर सुखी हैं और हमारा
लेखन भी स्वान्तः सुखाय है ! हमें किसी से
कुछ लेने देना नहीं है, न हमारी कोई जिम्मेदारी है । यदि यही अभीष्ट है लेखन का तो
हमें जरा ठहर कर अपने लेखक होने को जाँचना चाहिए । अगर हम व्यंग्यकार हैं तो मान
कर चलिए कि छोटे-बड़े जोखिम के दायरे में भी हैं । व्यंग्य लेखन हमारा चुनाव है तो
जोखिम उठाने की हिम्मत रखना भी जरुरी है । सिस्टम को देख कर अन्दर जो आक्रोश पैदा
हो जाता है उसे बेबकी और खरेपन के साथ, लेकिन सलीके से बाहर आने दीजिये, रोकिये मत
। आक्रोश को कीर्तन में बदल कर पेश किया तो हम किसी के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे,
स्वयं अपने साथ भी नहीं । अगर साहित्य से किसी का हित नहीं हो रहा, परिष्कार,
संस्कार नहीं हो रहा, वैचारिक स्तर पर कोई सुधार नहीं हो रहा, और तो और ऐसी लुगदी व्यंग्य
रचनाओं से खुद लेखक को भी कोई मुकाम हासिल नहीं हो रहा है, तो क्यों लिखी जाना
चाहिए !! सिर्फ इसलिए कि छप जाता है ? परसाई, शरद जोशी की परंपरा का वाहक बाज़ार के
सामने बैरा हो गया लगता है । आर्डर मिलता
है कि कुछ भी ले आओ खट्टा-मीठा मजेदार, लेकिन ‘स्पाइसी’ नहीं होना चाहिए । हम देख
रहे हैं कि व्यंग्य को चुटकुलों का फैमिली मेंबर बनाया जाने लगा है ! सौ डेढ़ सौ
शब्दों की रचनाएँ मांगी जा रही हैं ! कल कहेंगे पचास शब्द का व्यंग्य भेजिए । और
अगर हम ही इनकी मांग पूरी करते रहे तो विधा की विकृति के लिए जिम्मेदार कौन होगा ?
सवाल यह कि रास्ता क्या है ? जो
फिसलन चल रही है उसे जारी रहने दें ? पोल्ट्री फार्म की मुर्गी बनें या लेखक के
तौर पर अपने सम्मान की रक्षा के लिए जागरूक हों । परसाई ने लिखा है कि “डरो मत किसी
से, डरे कि मरे, सीने को ऊपर से कड़ा कर लो, भीतर तुम जो भी हो, जिम्मेदारी को
गैर-जिम्मेदारी से निबाहो” । यहाँ गैर-जिम्मेदारी से मतलब यथाशक्ति हस्तक्षेप से
है । लेखक के लिए भी देश और समाज पहले है । गरीब, बेहाल आमजन पहले हैं । इसके लिए
सत्ता, व्यवस्था से भिड़ना पड़े तो यह कर्तव्य है हमारा ।
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Monday, August 15, 2022
समय से सक्षात्कार कराता व आलोचनात्मक विवेक से तंज करता संग्रह
गांधी जी की लाठी मे कोंपले ख्यात व्यंग्यकार जवाहर चौधरी का अद्विक पब्लिकेशन प्रा. लि., दिल्ली से हाल ही मे प्रकाशित ग्यारन्हवा व्यंग्य संग्रह है. साहित्य की विभिन्न विधाओ मे सक्रिय श्री चौधरी के ग्यारह व्यंग्य संग्रह, दो उपन्यास, दो कहानी संग्रह, एक लघुकथा संग्रह व एक नाटक पूर्व मे प्रकाशित है.
व्यंग्य को साहित्य की विधा के रूप मे स्थापित होने मे लम्बी जद्दोजहद से गुजरना पडा है. उसके पक्ष – विपक्ष के अपने वाजिब तर्क है. यदि आज भी कहीं संशय की स्थिति है तो इस संग्रह को अवश्य पढा जाना चाहिए,यह एक मुक्कम्मल व्यंग्य संग्रह है. सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई ने व्यंग्य को जीवन से साक्षात्कार और जीवन की आलोचना कहा है. इस कसौटी पर भी यह व्यंग्य संग्रह खरा उतरता है.
धर्म, अर्थ, समाज, राजनीति, मीडिया व पारिस्थिति की जनजीवन को गहराई से प्रभावित करते है. इस संग्रह मे इन सभी क्षेत्र मे व्याप्त विसंगतियों , विडम्बनाओं व विद्रुपताओं को उकेरा गया है. राजनीति, लोकतांत्रिक मूल्यो व संस्थाओं के क्षरण की चिंताए इसमें दृष्टिगोचर होती है. भूमंडलीकरण, निजीकरण व उदारीकरण की आर्थिक नीतियों से उपजी गरीबी, महंगाई , बेरोजगारी, मंदी, भुखमरी , आत्महत्याओ की चिंता के साथ शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र मे लूट व उपभोक्तावाद के प्रभावो को भी रेखांकित किया गया है. मौद्रीकरण के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र की बिक्री पर तीखा व्यंग्य किया गया है.
आधुनिक दृष्टि, प्रगति के दावों व अनेक कानूनों के बावजूद सामाजिक विषमता व भेदभाव की जो स्थितिया हैं , उसका समाजशास्त्री व मनोविज्ञानी की तरह विश्लेषण जवाहर चौधरी जी ने किया है. इस अंतर्द्वंद को ‘कठिन डगर दलित के घर की’ मे गहराई से उभारा गया है. स्थानीय से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक की घटनाओ और परिदृष्य का एक बडा केनवास इसमे है. ‘आदमी है या कोई वायरस’ और ‘चिडिया से खतरा’ मे मजहबी कट्टरपंथ व आतंकियो के दमन मे स्त्रियों की विकराल होती तकलिफों पर तंज है.
संग्रह की कई रचनाए कोरोना काल की है. इस दौर के सबसे विभत्स वाक्य ’आपदा मे अवसर ‘ का उल्लेख भले इसमे न हो – इसकी विभत्सता का प्रभावी चित्रण किया गया है. ‘ बेमारी बाजार मे राम-देसी-वीर ‘ मे इस कालखंड की लूट, कालाबाजारी, अमानुषता के साथ पारिवारिक दायित्व व अंधविश्वास को भी रेखांकित किया गया है. ‘ गांधी जी की लाठी मे कोंपले ‘ फिल्म पीपली लाइव व गणेश जी के दूध पीने के समय की याद ताजा कर देती है – जिसे अवैज्ञानिक व अंधविश्वास आधारित अफवाह के प्रसार के लिए लिटमस टेस्ट की तरह देखा गया था.
भावनाओं के आहत होते, झूठ को सच के तौर पर परोसते, राष्ट्रप्रेमी होने के दावे करते, राष्ट्रद्रोही के प्रमाणपत्र बांटे जाते, विकास की माला जपते तथा भयावह कारुणिक स्थिति में आदमी की खुशहाली के दावे करते समय पर प्रभावी व्यंग्य को – ‘ नए अंधो का हाथी, लांग लिव सुल्तान, अनुभव कीजिए आजादी, खुशी एक हवा, अश्वत्थामा हतौ, भावना आहत करे – सत्ता मे आए, सब चंगा है जी ‘ शीर्षक व्यंग्य मे देखा जा सकता है। बानगी स्वरूप कुछ उद्धरण – “ जिसका झूठ भी सच लगे वही सच्चा लीडर होता है। जब वह कहता है कि सब अच्छा है तो सबको मान लेना चाहिए कि सब अच्छा है. जो शंका करके शगुन बिगाडेगा वह देशद्रोही माना जाएगा (नए अंधो का हाथी)”, “जब सुल्तान देशप्रेम की बात करते है तो इसका मतलब रियाया यह माने कि वे मोहब्बत कर रहे है. ऐसे मे रियाया को चाहिए कि मोहब्बत मे सच – झूठ, सही – गलत, वादा – सौदा वगैरा कुछ नही देखे – सुल्तान प्रेम ही देशप्रेम है ( लांग लिव सुल्तान)”, “कोई कितने भी मन्हगाई को लेकर उकसाए, पेट्रोल के भाव बताए, कोरोना वाले मौत के आंकडे गिनवाए,आप विचलित नही होंगे, शांति से बैठेंगे. जिस समय आजादी का आनंद लेने की प्रक्रिया चल रही है, उस समय किसी भी प्रकार का विचलन देशद्रोह माना जाएगा (अनुभव कीजिए आझादी)”, “धराधीश के लिए खुश होना सच्ची देशभक्ति है ----- हर समय रूदन का दासकेपिटल लिए फलफूल रही खुशी मे खलल डालना देशद्रोह है ( खुशी – एक हवा)”, “जो झूठ को झूठ मानते है वे गलत तरीके से शिक्षित है और कम्यूनिस्ट भी है, इनसे सख्ती से निपटने की जरूरत है. हाथो मे लाल रूमाल लेकर, सच के नाम पर आदर्श सामाजिक व्यवस्था को बिगाडने की इजाजत इन्हे नही दी जा सकती है (अस्वत्थामा हत:)”, “चुनाव आते ही भावना आहत कर दे या भावना आहत हो चुकी हो तो तुरंत चुनाव करवा ले -------- भावनाए पोल्ट्री फार्म की मुर्गियो की तरह होती है, जिन्हे मार देने के लिए ही पाला जाता है. लोकतंत्र मे आहत भावना सत्ता के लिए रेड कारपेट होती है (भावना आहत करे –सत्ता मे आए)”, “मजदूरो के पैर धोने से अर्थव्यवस्था और बैंको की कर्जनीति पर कोई असर नही पडेगा. जो लोग दशको से गरीबी हटाओ का नारा लगाते रहे है, उन पर पांच मजदूरो के पैरो की धुलाई भारी पडेगी ( धराधीश के कर-कमलो से)”
जनता की चुप्पी व जनपक्षधर राजनीति की कमजोर स्थिति का चित्रण भी इसमे है तो बेमेल राजनीतिक गठजोड पर ‘शेर के नाखून पर नेल पालिश’ तथा पीठ खुजाइए सरकार’ मे प्रभावी तंज है. हिंदी भाषा और साहित्य के बारे मे समझ को लेकर तीखा तंज ‘ प्रेमचंद मुंशी थे जो बाद मे सम्राट हो गए थे ‘ (सम्राट मुंशी है जन्हा) किया गया है. विश्वविख्यात जर्मन नाटककार ब्रेख्त ने कहा था –‘ जब जनता अपने नेताओ का विश्वास खो देती है तो उन नेताओ को अपने लिए दूसरी जनता चुन लेनी चाहिए’, जवाहर चौधरी एक अलग अंदाज मे कहते है ‘ लोग देखना चाहते है लेकिन नही देख रहे है. लोग सोचना चाहते है लेकिन नही सोच रहे है. लोग बोलना चाहते है लेकिन नही बोल रहे है. शासन करने के लिए इससे बेहतर जनता और कन्हा मिलेगी (सब चंगा है जी)’.
संग्रह की धारदार भाषा के साथ स्थानीय बोली व टोन व्यंग्य की प्रभावशीलता को कई गुना बढा देते है. प्रुफ की कुछ त्रुटिया अनदेखी रही है तथा ‘ नए अंधो का हाथी ‘ के बाद शिक्षा गैर जरूरी लगती है. यह सूचना क्रांति का युग है, जिसमे 24 घंटे सातो दिवस सैंकडो चैनल, रेडियो, प्रिंट मीडिया व सोशल मीडिया सक्रिय है. ऐसे मे वेक्सिन (प्रीवेंटिव) व रेमडेसिविर (क्यूरेटिव) को एक दिखलाना विस्मित करता है. आवरण चित्र मे लाठी पर बेल दिखाई दे रही है, दो-चार कोंपले फूटती दिखाई देती तो यह ज्यादा संगत दिखाई देता. बहरहाल, इस प्रभावी व्यंग्य संग्रह का स्वागत है. यह पाठको को आकृष्ठ करेगा, सोचने व विचार करने के लिए नए आयाम देगा व नए व्यंग्य लेखको को दिशा देगा, ऐसा विश्वास है.
94245 94808
Sunday, May 15, 2022
धापू पनाला में मंडलेकर : व्यंग्य चुपके चुपके जैसे कि प्रेम
समीक्षा
जवाहर चौधरी
कैलाश मंडलेकर हिंदी व्यंग्य का एक महत्वपूर्ण नाम है . वे केवल लगातार नहीं लगातार अच्छा लिख रहे हैं . सद्य प्रकाशित ‘धापू पनाला’ उनका छठा व्यंग्य संग्रह है . धापू पनाला का अर्थ जानने की चेष्टा करेंगे तो निराश हो सकते हैं, दरअसल ये रचना में उल्लेखित एक गाँव का नाम है . पुस्तक में कुल बयालीस रचनाएँ हैं . जिनमे से अधिकांश व्यवस्था, जिसे सिस्टम कहने पर लोग जल्दी समझते हैं, और आम मानवीय चरित्र को ले कर रची गयी हैं . कैलाश जी की शैली इस तरह की है कब वे व्यंग्य करते, गुदगुदाते आगे निकल जाते हैं पता नहीं चलता . जैसे कोई नर्स बच्चे को चिड़िया दिखाते हुए इंजेक्शन लगा देती है और बच्चा समझ ही नहीं पता है कि रोऊँ या हँसू . सरलता से जटिल को कह जाना या जटिल को सरलता से कहना बहुत कठिन है जो यहाँ देखा जा सकता है .
किताब को समझने के लिए किताब से ही कुछ लेना होगा . यों हर रचना में पंच हैं लेकिन कुछ उदाहरण बात को समझने के लिए . ‘चिंटू भैया के मध्य से व्यवस्था पर तंज देखें . – “चिंटू भैया होर्डिंग में हँसते हुए दिखाई दे रहे हैं. उनकी हँसी यह साबित कर रही है कि वे किसी भी बात पर या बिना किसी बात के भी हँस सकते हैं .सारा देश उनके लिये लाफ्टर क्लब जैसा है . इस देश में रह कर यदि कोई हँस नहीं रहा है तो या तो वह मूर्ख है या फिर डिप्रेशन का मरीज .” डेढ़ जीबी डाटा खा कर खाली बैठा बेरोजगार व्यंग्यकार के थाने में अपनी एफआईआर लिखवाता नजर आता है, -“ अजीब विडम्बना है . कालेज के सामने खड़े हो तो पुलिस पकड़ती है . रेलवे प्लेटफार्म पर जाएँ तो जीआरपी तंग करती है . रात में बस स्टेंड पर वाचमेन धमकता है . बाज़ार में खड़े हो तो दुकानदार को शक होता है, छत पर जाएँ तो माँ बाप सवाल पूछते हैं . .... होस्टलों के दरवाजे उनके लिए बंद हैं वे कहाँ जा कर खड़े हों ? रात में खुद के घर में भी चोरों की तरह घुसते हैं .... माई बाप आप हमें बताओ हम किन दरवाजों पर दस्तक दें ?!” आज युवाओं की यही हालत है . उन्हें दिशा नहीं मिल रही है . वह पूरी तैयारी से लगेज ले कर खड़ा है जिस भी गाड़ी में जगह मिल जाएगी चढ़ जायेगा . फुरसतिया प्रेम के जोखिम भी खूब हैं, ‘जिस गली में तेरा घर न हो बलमा’ में वे बताते हैं – “यदि कोई देख नहीं रहा हो तो जूते खाने में किसी को ग्लानी नहीं होती है . पराये शहर में आदमी ख़ुशी खुशी पिट लेता है ... वह जब अपने शहर में आता है तो उसके चेहरे के हाव भाव से पता नहीं चलता कि अगला देहरादून में जूते खा कर आ रहा है .” दूसरी रचना ‘चल चल रे नौजवान’ में कैलाश युवाओं की पीड़ा को विस्तार देते हैं , - “भाई साब बहुत कन्फ्यूजन है नौजवानों को . आगे आने के चक्कर में आइआइटी से एम टेक तक कर डाला बेचारों ने . बाद में एमबीए भी कर लिया . फिर जो जो कर सकते थे सब कर डाला . पढाई के पीछे जमीन बेच डाली, ऊपर से लोन भी ले फंसे बैंक से . अब हालत ये है कि सौ की वेकेंसी निकलती है तो लाखों पहुँच जाते हैं इंटरव्यू देने .” ये आज की त्रासद स्थिति है जिससे हर घर को गुजरना पड़ रहा है .
दूसरी तरफ जमीन के जादूगर हैं जो बिना कुछ अच्छा किये करोड़ों बना रहे हैं . ‘खेती को लाभ का घंधा बनाने वाले’ में इनका भी खुलासा है – “ सेठ जी मुस्कराते हुए खेत से बाहर निकल गए . वे सोच रहे थे खेती को लाभ का धंधा बनाने के लिए जरुरी नहीं कि खेत में फसल ही उगाई जाये, खेत में कालोनी काट कर बंगले भी बनाये जा सकते हैं और करोड़ों कमाए जा सकते हैं .” बाज़ार की यह दुष्टता आज हर खेत भुगत रहा है . राजनीति समाज के हर कोने तक पहुँच गयी है, उसका असर सब पर होता है चाहे वह कितना ही गैर राजनितिक क्यों न हो . यही वजह है कि आज ज्यादातर व्यंग्य राजनीति पर होते हैं . व्यंग्य ‘बंगले के पीछे तेरी बेरी के नीचे’ एक सुन्दर रचना है . “बहुत झंझट है साहब मुख्यमंत्री बनाने में . ढाई-तीन साल तो बंगले के रेनोवेशन में ही लग जाते हैं . एक दफे आदमी विपक्ष से तालमेल बैठा सकता है पर ये वास्तु वालों और इंटीरियर वालों से निपटना मुश्किल है . पंडितजी ने कहा कि ग्रे कलर की टाइल्स आपकी राशी से मेल नहीं खाती है और स्विमिंग पूल भी इशान कोण पर हुआ तो सरे किये धरे पर पानी फिर जायेगा. जबकि इंटीरियर वाला स्विमिंग पूल को इंच भर भी खिसकने को राजी नहीं है ... गलत गठजोड़ होने पर न बंगला बचता है न कुर्सी .” इसी तरह “गिरिजा बाबू की अंतिम यात्रा’ में उनके चेले की अमानवीयता उजागर होती है . नेता अपने उस्ताद के कारण ही बना है लकिन अब दूसरी पार्टी में होने से चाह कर भी उनके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होता है . “गिरिजा बाबू उनके पिता तुल्य थे . राजनीति में रिश्तों का आकलन आसानी से नहीं किया जा सकता . यहाँ जो पिता तुल्य होता है वह कई बार पिता से भी बड़ा होता है . ... गिरिजा बाबू समझ गए कि उनका चेला पक्का लीडर बन चुका है . जो देश को भले ही डुबा दे पर खुद तैर कर निकल जायेगा .” कुछ संकेत समकालीन भी हैं –“इधर सब तरफ राष्ट्रीय भावना का बोलबाला है . आदमी पडौसी से भले ही जूतम पैजार कर ले पर राष्ट्र से झक मर कर प्रेम करता है . ... कचरा इकठ्ठा करने वाली गाड़ियों तक से राष्ट्र प्रेम के नगमें सुनाई देते हैं .” देशभक्ति की परिभाषाएं बदल रही हैं . –“बार्डर पर लड़ते हुए गोली खाना ही देश भक्ति नहीं है . बैंक का घपला करके भी देश भक्त हुआ जा सकता है . शर्त बस इतनी है कि आप देश छोड़ कर मत जाइये . देश भक्ति का यह दुर्लभ नमूना है .” (चुप रहे तो दिल के दाग जलते हैं ) व्यंग्यकार का गुस्सा यहाँ समझा जा सकता है .
कालोनी में अनेक दन्त चिकित्सक अपना क्लिनिक खोले हैं . तमाम दांतों को गिनने के बाद बड़े भोले अंदाज में लेखक लिखता है “मैंने देखा है कि दांत दर्द के मामले में परिवार वाले ज्यादा मददगार साबित नहीं होते हैं . आप सौजन्तावश ऊपर की दाढ बताना चाहते हैं जहाँ दर्द हो रहा है, पर वे आपके मुंह में झांकने के बजाये बाहर सड़क पर मेंगनी कर रही बकरियों को देखना पसंद करते हैं”. कहने को ये सादे बोल हैं लेकिन घर में हप्ते भर का अबोला करने के लिए काफी हैं . इसी बात को अगली रचना ‘बिगड़ा हुआ कूलर और एक अदद ठेले वाले की तलाश’ में कुछ सफाई की तरह कहा है – “(कूलर का ) पंखा अपनी धुन में चलता रहता है और पम्प अपने तरीके से . दोनों में कोई गहरी अंतरंगता और तालमेल नहीं होता है . जैसे पति-पत्नी में नहीं होता है फिर भी गृहस्थी की गाड़ी चलती रहती है.” स्कूल चाहे शहर के हों या गाँव के शिक्षकों की मानसिकता एक ही है . “बारिश के दिन ....” से बानगी है, –“ स्कूल में पढाई के आलावा सब कुछ होता था . शिक्षकगण संगीत के आयोजन के लिए प्रोत्साहित करते थे ताकि कुछ दिनों के लिए स्कूल की छुट्टी हो सके . संगीत का आयोजन जब चरमोत्कर्ष पर पहुँचता तब शिक्षक लोग ताड़ी पीने चले जाते थे . स्कूल का नाम दरअसल बहुउद्देशीय प्राथमिकशाला था . इस कारण उसका उपयोग अनेक उद्देश्यों के लिए किया जाता था .” बाज़ार व्यंग्यकार की नजर से अछूता नहीं है . “बाज़ार और व्यावसायिकता ने सारी पारंपरिक धरोहरों को सौदा सुलफ की वास्तु बना दिया है . यह नाली पर फर्शी रख कर इत्र की दुकान खोलने का दौर है . दुर्गन्ध से ऊर्जा पैदा करने की तकनीक खोजी जा रही है . सड़ांध का ऐसा महिमा मंडन पहले कभी नहीं हुआ .” (राष्ट्रिय त्योहारों का मौसम और दीनबंधु जी की उदासी )
संग्रह में अनेक रम्य रचनाएँ हैं जो पढ़ने का सुख ही नहीं देती हैं हमें अपना आसपास भी दिखाती हैं . शीर्षक रचना ‘धापू पनाला में बसंत की आगवानी’ पचपन वर्षीय मास्टर दयाराम में तमाम दुश्वारियों के बीच प्रेम के अंकुरित होने की कोमल कथा है . जीवन में अगर प्रेम हो तो आदमी के लिए कठिनाइयाँ कैसी भी हों कोई मायने नहीं रखती हैं . इसी तरह के जीवनोंपयोगी सन्देश और अनेक तुलसी के छंद भी पुस्तक को ऊंचाई प्रदान करते हैं . विश्वास है कि कैलाश मंडलेकर के पूर्व प्रकाशित व्यंग्य संग्रहों की तरह पाठक इसको भी पसंद करेंगे. हाल ही में मंडलेकर जी को मध्यप्रदेश का प्रतिष्ठापूर्ण ‘शरद जोशी सम्मान’ मिला है, उनकी व्यंग्य रचनाएँ इस सम्मान पर उनका हक़ साबित करती हैं .
पुस्तक – धापू पनाला
लेखक – कैलाश मंडलेकर
प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सीहोर – मप्र
प्रथम सांस्करण – २०२२
मूल्य – रु . २००/--