Tuesday, December 3, 2024

एक किताब- जिन्ना: सफलताएँ, विफलताएँ और इतिहास में भूमिका


 


947 का विभाजन भारतीय इतिहास के वे दुखद पन्ने हैं जिन्हें बार-बार पढ़ा जाता है खासकर यह जानने के लिए कि चूक कहाँ हो गई, गलती किससे हुई, विभाजन का खलनायक कौन है । अखंड भारत का सपना हर आँख में पल रहा था। लेकिन जब देश आजाद होने लगा तो अंग्रेजों के शासन में जितना भारत था उसमें से भी दो बड़े हिस्से कट जाएँगे यह किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं था। विभाजन की यह घटना आज भी भारतीयों को टीसती है । इसकी पड़ताल के लिए सामान्य जिज्ञासु भी बार बार मध्यकालीन इतिहास तक पहुँचता है।

1857 की क्रांति के समय अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर तख्त पर थे। जब क्रांतिकारी सैनिक लड़ते हुए दिल्ली पहुँचे तो उन्होंने बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में आगे की लड़ाई लड़ी। लड़ाके सैनिकों में हिंदू मुसलमान दोनों थे। औरंगजेब और दूसरे बादशाहों के अच्छे बुरे कामों को भूलकर सारे लोग एक हो गए थे । लेकिन क्रांति को कुचल दिया गया। हजारों  सैनिकों को मौत की सजा दी गई। इस समय सांप्रदायिक सौहार्द अच्छा था। अंग्रेजों से लड़ने के लिए हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर काम कर रहे थे। आजादी की लड़ाई का संघर्ष भी दोनों ने मिलकर शुरू किया। सवाल यही है की दूसरी लड़ाई के बीच ऐसा क्या हुआ कि हिंदू मुस्लिम ही नहीं बँटे बल्कि देश भी बँट गया।
             समय के इन कमजोर लेकिन कठिन दिनों का परीक्षण अनेक विद्वानों और इतिहासकारों ने किया है। प्रोफेसर इश्तियाक अहमद की ताजा किताब 'जिन्ना : हिज सक्सेस, फैलियर्स एंड रोल इन हिस्ट्री' का हिंदी अनुवाद 'जिन्ना : उनकी सफलताएँ, विफलताएँ और इतिहास में भूमिका' एक शोधपूर्ण अध्ययन है। जिन्ना के माध्यम से प्रोफेसर इश्तियाक अहमद ने आजादी के संघर्ष के पूरे कालखंड को देखने का प्रयास किया है। भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण के संबंध में ऐतिहासिक घटनाएँ तो इतिहास के तमाम पन्नों में बिखरी पड़ी है किंतु इस किताब के जरिए पाठक जान पाता है कि वह कौन सी बातें थी जो राष्ट्रवादी कांग्रेसी जिन्ना को विभाजनकारी जिन्ना में बदल देती है।

            जिन्ना 1906 में कांग्रेस के सदस्य बन गए थे और आजादी के संघर्ष में सक्रिय भी थे। गाँधी जी 1915 में अफ्रीका से लौटे और 1919 से कांग्रेस ने उनके नेतृत्व में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देना शुरू किया । किताब बताती है कि जिन्ना को लगता था की गाँधी ने आकर उन्हें किनारे कर दिया है। वे सीनियर थे और अपने को देश का लीडर मान रहे थे। इधर जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, बालगंगाघर तिलक आदि भी गाँधी  के साथ जुड़ गए। गाँधी  अपने साथ अफ्रीका में आंदोलन की सफलता लेकर आए थे। गाँधी का कद अचानक बढ़ने लगा और जिन्ना अपने को उपेक्षित समझने लगे। किताब में लिखा है " जाहिर है जिन्ना और गाँधी  के कद के नेता अपने को दूसरे से नंबर दो नहीं मान सकते थे। और दोनों एक ही आंदोलन के प्रमुख नेता नहीं हो सकते थे।.... इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन्ना गाँधी  की छाया में दूसरी पंक्ति का दर्जा स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।" धीरे-धीरे जिन्ना में उपेक्षा की भावना गहराती गई। वे मुसलमानों के नेता होते गए और वे गाँधी को हिंदू नेता की तरह देखने लगे। लगता है कि मुस्लिम राष्ट्रवाद के वैचारिक आधार और अलग मुस्लिम राज्यों की माँग में इस मनोवैज्ञानिक स्थिति की भूमिका थी।
           लगभग 700 पृष्ठों में दर्ज जिन्ना को यह पुस्तक खोलती जाती है। इश्तियाक अहमद स्कॉटहोम यूनिवर्सिटी स्वीडन में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं और अनेक शोधपूर्ण किताबों के लेखक हैं । उनका लेखन न केवल पाकिस्तान बल्कि एशिया के अनेक देशों में विद्वानों का ध्यान खींचती रही है । ऐसा लग सकता है कि उन्होंने जिन्ना के पक्ष में लिखा हो। यह कहना होगा कि वे जिन्ना के माध्यम से आजादी के संघर्ष का तटस्थ मनोवैज्ञानिक अध्ययन करते हैं।                

कई जानकारियाँ ऐसी है इस पुस्तक में जो हमें चौंकती हैं। जैसे जिन्ना भारत में संघर्ष के समय द्वि-राष्ट्र की अवधारणा देते हैं। वे अपने भाषणों में कहते हैं कि हिंदू और मुस्लिम दोनों कौमें एक साथ नहीं रह सकती हैं । दोनों की भाषा, तौर-तरीके, संस्कृति, सभ्यता आदि सब अलग-अलग हैं । इस तरह वे दो कौमें नहीं दो राष्ट्र है । और दो राष्ट्रों के लिए एक सामान्य भू भाग नहीं हो सकता। इसलिए विभाजन जरूरी है। लेकिन यही जिन्ना जब पाकिस्तान बन जाता है तो अपने उद्बोधन में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की बात कहते हैं। जाहिर है जनता को यह बात रास नहीं आती। जो लोग धर्म के आधार पर अलग हुए वे धर्मनिरपेक्षता को कैसे स्वीकार कर सकते हैं। यहाँ मुसलमानों में जिन्ना की लोकप्रियता घटती है । कहा तो यह भी जाता है कि उन्हें पाकिस्तान बनवाने पर पछतावा भी था । जिन्ना का एक और कथित बयान जिसे जावेद उद्धरत करती है वह है -" मैं पाकिस्तान बनाकर सबसे बड़ी गलती की है और मैं दिल्ली जाकर नेहरू से कहना चाहूँगा कि अतीत की मूर्खताओं को भूल जाओ और फिर से दोस्त बन जाओ। " एक और प्रसंग में वह कहते हैं -" आप नहीं जानते कि मैं मुंबई से कितना प्यार करता हूँ । मैं अभी वहाँ वापस जाने के लिए उत्सुक हूँ । "
            यदि आपकी भी जिज्ञासा अपने इतिहास को जानने और कई जटिल प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने में है तो सेतु प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक पढ़ने योग्य है। पेपर बैग संस्करण की कीमत
700 है। अंग्रेजी से पुस्तक का बहुत सुंदर अनुवाद आलोक वाजपेई और अलका वाजपेई ने किया है।


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