Tuesday, December 21, 2010

स्थानीय बनाम बाहरी लोग



                        

आलेख 
जवाहर चौधरी 
      राज्यों में बाहरी लोगों का मुद्दा बार बार उठता रहा है । महाराष्ट्र् में शिवसेना  ने तो कई बार इस प्रसंग पर अप्रिय स्थितियां पैदा की हैं । दिल्ली में एक बार मुख्यमंत्री शीला  दीक्षित ने गंदगी फैलाने और अव्यवस्थ के लिए बाहरी लागों को कारण बता कर विवाद मोल लिया था । पंजाब में भी बाहरी के मुद्दे पर गरमाहट रही । हाल ही में गृहमंत्री चिदंबरम ने भी दिल्ली में बढ़ रहे अपराधों के लिए बाहरी लोगों की गरदन पकड़ी है । ऐसा प्रतीत होता है कि देश  के तमाम नेता अपने को राज्यों तक संकुचित कर बाहरी लोगों का विरोध कर रहे हैं । लेकिन जरा स्थिर हो कर देखें तो पता लगेगा कि यह सच है । जिस राज्य में किन्हीं भी कारणों से बाहरी लोगों का आना-जाना अधिक होगा वहां अवांछित गतिविधियां भी ज्यादा होंगी, विशेषकर  महानगरों में । स्थानीय व्यक्ति की जड़ें वहां होती हैं ।              


                        मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो उसका लगाव अपने क्षेत्र से होता है जो उसे जिम्मेदारी के भाव से भी भरता है । ये बातें उसके आचरण को नियंत्रित करती हैं । लेकिन बाहरी आदमी इस तरह के सभी दबावों से पूर्णतः मुक्त होता है । वह पहचानहीनता के कवच में अच्छा-बुरा कुछ भी कर सकता है । दूसरे शहर  में वह सड़क पर घूम कर शनि-महाराज के नाम पर भीख मांग सकता है , जूता पालिश  कर सकता है या फेरी लगा कर गुब्बारे बेच सकता है , उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा । लेकिन यही सब वह अपने क्षेत्र में नहीं करेगा क्योंकि पहचाने जाने का दबाव उसे रोकेगा । कालगर्ल अक्सर पकड़ी जाती हैं , पता चलता है कि वे स्थानीय नहीं दूसरे शहर  की हैं । विदेशों में हमारे बहुत से सम्माननीय बेबी-सिटिंग का काम ख़ुशी ख़ुशी  कर लेते हैं । कोई सफाई का काम बेहिचक करता है तो कोई ऐसे काम बड़े आराम से कर लेता है जो दूसरे नहीं करते । बाहरी आदमी एक प्रकार से मुक्त आदमी होता है । घर में हर आदमी हाथ पोछने  के लिए टावेल और जूता पोंछने के लिए रद्दी कपड़े का उपयोग करता है । लेकिन वही जब होटल में होता है तो इन्हीं कामों के लिए खिड़की के परदों और बिस्तर पर लगी कीमती चादर को बेहिचक इस्तेमाल कर लेता है । न ये सामान उसका है , न उसे इनसे लगाव है और सबसे बड़ी बात, होटल में वह एक बाहरी आदमी है ।

                            इसका मतलब यह कतई नहीं कि बाहरी आदमी हमेशा अपराधी ही होते हैं । किसी भी राज्य के विकास में बाहरी लोगों की भूमिका स्थानीय लोगों से कम नहीं होती । देश  में देखें तो महाराष्ट्र्, पंजाब, बंगाल आदि है , विदेशों में अमेरिका, दुबई इसके उदाहरण हैं जहां बाहरी लोगों ने अमूल्य योगदान दिया है । प्रायः हर जगह मजदूरी जैसे कठिन और जोखिम भरे काम बाहरी लोगों द्वारा ही किए जाते हैं । महानगरों में संभावनाएं होती हैं इसलिए परिश्रमी और महत्वाकांक्षी लोग वहां अधिक पहुंचते हैं । लेकिन कुछ लोगों के गलत कामों के कारण उनके योगदान पर पानी फिर जाता है ।
स्थानीय स्तर पर जब कोई अपराध करता है तो बचने-झुपने के लिए वह भीड़ वाले स्थानों की ओर ही जाता है । नगरों की भीड़ छुपने की सबसे सुरक्षित जगह होती है । प्रायः अपराधी छोटी जगहों से नगर और फिर महानगरों की ओर गति करते हैं । अपराध की पूंजी ले कर आने वाले मुक्त व्यक्ति कब क्या करेंगे कुछ कहा नहीं जा सकता है, अच्छा तो शायद  नहीं ही करेंगे । इसलिए जब यह कहा जाता है कि बाहरी लोगों के कारण अपराध हो रहे हैं तो उसे सिरे से नकारा नहीं जाना चाहिए ।
                        यदि सुरक्षा हो तो  हमारा आचरण उसे चुनौती देने का नहीं होना चाहिए । सुरक्षा के कारण ही महानगरों में खुलापन अधिक होता है । एक लड़की दिल्ली में जिस तरह के परिधान इस्तेमाल करती है वैसे छोटी जगह पर नहीं करती है । क्योंकि वहां के लोगों की मानसिकता सुरक्षा में कमी के कारण वैसी निश्चिन्त  नहीं है । जहां संवैधानिक सुरक्षा का इंतजाम पुख्ता नहीं होता वहां परंपराएं प्रबल होती हैं और उनसे सुरक्षा प्राप्त की जाती है । डकैत शादी -ब्याह में होने वाले तामझाम से अपना शिकार  तय करते हैं इसलिए छोटी जगहों पर सामान्य लोग सुरक्षा के लिए दिखावा करने से बचते हैं । महानगरों में दिखावे की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है । मौकों पर घन का प्रदर्शन  हो या अंग का, कोई पीछे नहीं रहना चाहता है । कहना नहीं होगा कि इसका प्रभाव अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोगों पर पड़ता है । स्थानीय लोगों के बीच सिक्का जमता है, वहीं बाहरी आदमी को एक शिकार  नजर आ जाता है । यदि तन या धन का फूहड़ प्रदर्शन  होगा तो सुरक्षा बढ़ा लेने के बावजूद जोखिम कम नहीं होंगे ।
                            

No comments:

Post a Comment