आलेख
जवाहर चौधरी
बादशाह बहादुरशाह जफ़र को भारत में मुग़ल शासन के आखरी चराग
की तोहमत के साथ याद किया जाना, सच्चाई के
बावजूद इतिहास की क्रूरता है. वे एक
प्रतिभाशाली शायर, कुशल लेखक, उदारवादी शासक और सूफी मिजाज थे. ईस्ट इंडिया कम्पनी
द्वारा उनकी राजनितिक ताकत लगातार कम की गई बावजूद इसके वे परम्परागत शाही दरबार
और शान-ओ-शौकत को कायम रहे रहे. उन्हें अपनी बदकिस्मती का आभास नहीं था ऐसा नहीं
है , वे अपनी बेबसी को भी देख रहे थे.
विलियम डेलरिंपल की किताब “लास्ट मुग़ल” पिछले
दिनों से चर्चा में है. जकिया जाहिर ने इसका हिंदी अनुवाद किया है . यह किताब उनके
लिए भी बहुत दिलचस्प है जो इतिहास में रस नहीं ले पाते हैं. हिंदुस्तान से मुग़ल
साम्राज्य के अंत के वे निर्णायक दिनों को जानना बेहद रोमांचक है.
मई १८५७ की एक सुबह मेरठ से कारतूस में चर्बी होने के
सन्दर्भ के साथ तमाम विद्रोही और सैनिक दिल्ली में आ गए और ईसाइयों, अंग्रेजों को
जहाँ भी मिले मरते गए. ऐसा ही वे छोटी छोटी जगहों से भी करते और विजयी होते आये
थे. जल्द ही दिल्ली उनके कब्जे में थी. चूँकि बादशाह जफ़र देश के एक सर्वमान्य
व्यक्ति थे, विद्रोहियों ने उनसे नेतृत्व,
धन, हथियार और अन्य व्यवस्थाओं की आशा की. इधर जफ़र का खजाना खाली था, वे खुद
तंगहाल थे. विद्रोहियों को वेतन और खाना तक उपलब्ध नहीं करा सके. नतीजतन
विद्रोहियों ने शहर में लूटपाट करना शुरू कर दिया. वे अब जफ़र की इज्जत नहीं करते
थे, उन्होंने महल का दुरूपयोग भी शुरू कर दिया था. हताशा और अनिश्चय के इस दौर में
अंग्रेज अपनी ताकत इकठ्ठा कर वापस लौटे और हजारों जवाबी हत्याओ के बाद बादशाह भी
बगावत के जुर्म में गिरफ्तार कर लिए गए. समय ने करवाट ली और अपना सब कुछ लुटा कर,
सोलह में से चौदह बेटों और तमाम बेगमों, रिश्तेदारों, सेवकों, दासियों और शाही
रुतबे को आँखों के सामने तबाह देखते हुए ८३ वर्षीय बादशाह आखिर सात अक्टूबर की एक
अँधेरी सुबह जब अंग्रेज घड़ियों में तीन बज रहा था, एक बैलगाड़ी में अपनी प्यारी
दिल्ली से हमेशा के लिए रुखसत हुए. बाद में उनके साथ तमाम बेअदबी होती रही, मखुल
तक उदय जाता रहा. अंत में लंबे मुकदमे के बाद उन्हें दिसंबर १८५७ में रंगून भेज
दिया गया. यहाँ बादशाह और उनके खानदान वगैरह
के जिनकी संख्या इकत्तीस थी, खानेपीने का खर्च ग्यारह रूपये प्रतिदिन तय
किया गया. सात अक्टूबर १८६२ को सुबह पांच बजे उन्होंने प्राण त्यागे. उनके जनाजे
में बमुश्किल सौ-दो सौ लोग जमा हुए जिनमे से ज्यादातर दूसरे कामों से निकले शहरी
थे.
लेखक कहते है,--
.... उनकी जिंदगी को नाकामयाबी के अध्ययन की तरह देखा जा सकता है : आखिर हिंदुस्तान कि गंगा जमुनी तहजीब का अंत
उनके दौर में हुआ और १८५७ के गदर में उनका योगदान कतई बहादुरी भरा नहीं था. कुछ
इतिहासकार उन पर इल्जाम लगते हैं कि बगावत के दौरान उन्होंने अंग्रेजों से खतो
किताबत जारी रखी, कुछ कहते हैं कि उन्होंने बागियों का नेतृत्व करके विजय हासिल
करने में रूचि नहीं ली. लेकिन यह समझ पाना मुश्किल नहीं है कि ८२ साल की उम्र में
जफर और क्या कर सकते थे. शारीरिक रूप से वह
कमजोर थे, दिमाग थोड़ा असंतुलित हो गया था और उनके पास इतना पैसा नहीं था कि
वह सिपाहियों को तनख्वाह तक दे पाते, जो उनके झंडे के नीचे जमा हुए थे. अस्सी साला
बुजुर्ग घुडसवार फ़ौज का नेतृत्व नहीं कर सकते थे. उन्होंने बहुत कोशिश की लेकिन
बागी फौजों को दिल्ली की लूटमार करने से नहीं रोक पाए.
ब्लूम्सबरी पब्लिशिंग से प्रकाशित ५८० पेज पूरी किताब १८५७
के उन आठ महीनों के लगभग हर दिन का एक प्रामाणिक ब्यौरा प्रस्तुत करती है. लेखक ने
सैकड़ों दस्तावेजों, पत्रों और दूसरे सबूतों से अपने काम उल्लेखनीय बनाया है .
खुशवंत सिंग लिखते हैं कि – (द लास्ट मुगल) रास्ता दिखाती है कि इतिहास
किस तरह लिखा जाना चाहिये .....
अंत में जफ़र
कि मशहूर गजल -----
लगता नहीं
है दिल मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी
है आलमे नापयादर में
उम्रे-दराज
मांग कर लाए थे चार दिन
दो आरजू में
कट गए दी इंतजार में
बुलबुल को
पासबां से न सैयाद से गिला
किस्मत में
कैद लिखी थी फसले बहार में
कह दो
हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह
कहाँ दिले दागदार में
एक शाखे-गुल
पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे
बिछा दिए हैं दिले लालाजार में
दिन जिंदगी
के खत्म हुए शाम हो गई
फैला के
पांव सोयेंगे कंजे-मजार में
कितना है
बदनसीब जफर दफ्न के लिए
दोग्ज जमीन
भी ना मिली कू-ए-यार में