Thursday, June 16, 2016

एक बादशाह और दो गज जमीन की मुराद

आलेख 
जवाहर चौधरी 

बादशाह बहादुरशाह जफ़र को भारत में मुग़ल शासन के आखरी चराग की तोहमत के साथ याद  किया जाना, सच्चाई के बावजूद  इतिहास की क्रूरता है. वे एक प्रतिभाशाली शायर, कुशल लेखक, उदारवादी शासक और सूफी मिजाज थे. ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा उनकी राजनितिक ताकत लगातार कम की गई बावजूद इसके वे परम्परागत शाही दरबार और शान-ओ-शौकत को कायम रहे रहे. उन्हें अपनी बदकिस्मती का आभास नहीं था ऐसा नहीं है , वे अपनी बेबसी को भी देख रहे थे.
विलियम डेलरिंपल की किताब लास्ट मुग़ल पिछले दिनों से चर्चा में है. जकिया जाहिर ने इसका हिंदी अनुवाद किया है . यह किताब उनके लिए भी बहुत दिलचस्प है जो इतिहास में रस नहीं ले पाते हैं. हिंदुस्तान से मुग़ल साम्राज्य के अंत के वे निर्णायक दिनों को जानना बेहद रोमांचक है.
मई १८५७ की एक सुबह मेरठ से कारतूस में चर्बी होने के सन्दर्भ के साथ तमाम विद्रोही और सैनिक दिल्ली में आ गए और ईसाइयों, अंग्रेजों को जहाँ भी मिले मरते गए. ऐसा ही वे छोटी छोटी जगहों से भी करते और विजयी होते आये थे. जल्द ही दिल्ली उनके कब्जे में थी. चूँकि बादशाह जफ़र देश के एक सर्वमान्य व्यक्ति थे, विद्रोहियों ने उनसे  नेतृत्व, धन, हथियार और अन्य व्यवस्थाओं की आशा की. इधर जफ़र का खजाना खाली था, वे खुद तंगहाल थे. विद्रोहियों को वेतन और खाना तक उपलब्ध नहीं करा सके. नतीजतन विद्रोहियों ने शहर में लूटपाट करना शुरू कर दिया. वे अब जफ़र की इज्जत नहीं करते थे, उन्होंने महल का दुरूपयोग भी शुरू कर दिया था. हताशा और अनिश्चय के इस दौर में अंग्रेज अपनी ताकत इकठ्ठा कर वापस लौटे और हजारों जवाबी हत्याओ के बाद बादशाह भी बगावत के जुर्म में गिरफ्तार कर लिए गए. समय ने करवाट ली और अपना सब कुछ लुटा कर, सोलह में से चौदह बेटों और तमाम बेगमों, रिश्तेदारों, सेवकों, दासियों और शाही रुतबे को आँखों के सामने तबाह देखते हुए ८३ वर्षीय बादशाह आखिर सात अक्टूबर की एक अँधेरी सुबह जब अंग्रेज घड़ियों में तीन बज रहा था, एक बैलगाड़ी में अपनी प्यारी दिल्ली से हमेशा के लिए रुखसत हुए. बाद में उनके साथ तमाम बेअदबी होती रही, मखुल तक उदय जाता रहा. अंत में लंबे मुकदमे के बाद उन्हें दिसंबर १८५७ में रंगून भेज दिया गया. यहाँ बादशाह और उनके खानदान वगैरह  के जिनकी संख्या इकत्तीस थी, खानेपीने का खर्च ग्यारह रूपये प्रतिदिन तय किया गया. सात अक्टूबर १८६२ को सुबह पांच बजे उन्होंने प्राण त्यागे. उनके जनाजे में बमुश्किल सौ-दो सौ लोग जमा हुए जिनमे से ज्यादातर दूसरे कामों से निकले शहरी थे.
लेखक कहते है,--  .... उनकी जिंदगी को नाकामयाबी के अध्ययन की तरह देखा जा सकता है  : आखिर हिंदुस्तान कि गंगा जमुनी तहजीब का अंत उनके दौर में हुआ और १८५७ के गदर में उनका योगदान कतई बहादुरी भरा नहीं था. कुछ इतिहासकार उन पर इल्जाम लगते हैं कि बगावत के दौरान उन्होंने अंग्रेजों से खतो किताबत जारी रखी, कुछ कहते हैं कि उन्होंने बागियों का नेतृत्व करके विजय हासिल करने में रूचि नहीं ली. लेकिन यह समझ पाना मुश्किल नहीं है कि ८२ साल की उम्र में जफर और क्या कर सकते थे. शारीरिक रूप से वह  कमजोर थे, दिमाग थोड़ा असंतुलित हो गया था और उनके पास इतना पैसा नहीं था कि वह सिपाहियों को तनख्वाह तक दे पाते, जो उनके झंडे के नीचे जमा हुए थे. अस्सी साला बुजुर्ग घुडसवार फ़ौज का नेतृत्व नहीं कर सकते थे. उन्होंने बहुत कोशिश की लेकिन बागी फौजों को दिल्ली की लूटमार करने से नहीं रोक पाए.  
ब्लूम्सबरी पब्लिशिंग से प्रकाशित ५८० पेज पूरी किताब १८५७ के उन आठ महीनों के लगभग हर दिन का एक प्रामाणिक ब्यौरा प्रस्तुत करती है. लेखक ने सैकड़ों दस्तावेजों, पत्रों और दूसरे सबूतों से अपने काम उल्लेखनीय बनाया है . खुशवंत सिंग लिखते हैं कि (द लास्ट मुगल) रास्ता दिखाती है कि इतिहास किस तरह लिखा जाना चाहिये .....


अंत में जफ़र कि मशहूर गजल -----

लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलमे नापयादर में

उम्रे-दराज मांग कर लाए थे चार दिन
दो आरजू में कट गए दी इंतजार में

बुलबुल को पासबां से न सैयाद से गिला
किस्मत में कैद लिखी थी फसले बहार में

कह दो हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ दिले दागदार में

एक शाखे-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा  दिए हैं दिले लालाजार में

दिन जिंदगी के खत्म हुए  शाम हो गई
फैला के पांव सोयेंगे कंजे-मजार में

कितना है बदनसीब जफर  दफ्न के लिए
दोग्ज जमीन भी ना मिली कू-ए-यार में


Monday, June 6, 2016

‘मेक इन इंडिया’ का समाजशास्त्र !!

आलेख 
जवाहर चौधरी 

इन दिनों मेक इन इंडिया की ओर सबका ध्यान है. देश की जनसंख्या  एक सौ बत्तीस करोड़ से अधिक हो गई है. हर साल लगभग एक करोड़ नए हाथ काम मांगने के लिए तैयार हो रहे हैं, जबकि पिछले वर्षों के रह गए बेरोजगारों की बड़ी तादात भी मौजूद होती है. उस पर देश भर में हर कोई चाहता है कि उसे सरकारी नौकरी ही मिले. हर साल एक करोड़ रोजगारों का सृजन करना किसी भी सरकार के लिए असंभव ही कहा  सकता है.
गाँधी जी का मत था कि आजाद भारत में ग्रामीण और कुटीर उद्योगों को सरकार प्राथमिकता दे, ताकि लोग छोटे उद्योगों में पीढ़ी दर पीढ़ी खपें और धन का विकेन्द्रीकरण भी हो. लेकिन नेहरु वैश्विक प्रवृतियों को देख रहे थे. दुनिया के साथ चलने और बढने के लिए बड़े उद्योग का चुनाव उन्होंने किया. यह नीति कितनी सफल रही है इस पर लंबी बहस हो सकती है, होती रही है. कलकत्ता, कानपुर, दिल्ली, मुंबई, देवास, इंदौर जैसे तमाम औद्योगिक नगरों को याद किया जा सकता है जहां प्रदूषण, भीड़, झुग्गी बस्तियां, अपराध, गन्दगी, बीमारी जैसी दिक्कतें विकराल रूप में मौजूद हैं. नदियाँ, और दूसरे जल स्त्रोत बर्बाद हैं, आज तक हम गंगा और यमुना को भी साफ नहीं कर पाए हैं, जबकि उनसे  धार्मिक भावना भी जुडी हुई है आमजन की. नगरों से पेड़ गायब हैं और हवा हानिकारक हो गई है, झुग्गियों में जीवन नारकीय है.
इतनी बातें  इसलिए याद आ रहीं हैं कि सरकार मेक इन इण्डिया के तहत दुनियाभर के उद्योगों को भारत में आमंत्रित कर रही है. निश्चित ही वे अपने साथ बड़े बड़े उद्योग ले कर आयेंगें, हमारी जमीनों का उपयोग करेंगे (यहाँ ध्यान रखना होगा कि भारत में जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है और अनुमानों के अनुसार २०३० में देश की जनसंख्या एक सौ बावन करोड़ से अधिक होने जा रही है.) ये उद्योग बिजली और पानी का भी उपयोग करेंगे ( देश में जलसंकट और बिजलीसंकट की स्थिति है.) माना कि बिजली बना लेंगे लेकिन जल का क्या होगा ? पर्यावरण को लेकर अलग से कुछ कहने की जरुरत नहीं है.

फिर यह चिंता भी है कि हमें मिलेगा क्या !? शायद कुछ रोजगार, कुछ टेक्स, उत्पादों पर भारत का नाम, वैश्विक प्रतिस्पर्धा में हम, दूसरे देशों के साथ आर्थिक संबंधों में कुछ लाभ. आज आधुनिक तकनीक में मैन-पावर बहुत काम लगता है. (हमारी कपडा मीलों के अधुनिकीकरण से हजारों लोग बेकार हुए हैं.) आटोमेशन की अत्याधुनिक तकनीक के साथ आने वाले ये उद्योग कितना रोजगार मुहैया करा पाएंगे पता नहीं. टेक्स भी कब मिलेगा ? पहले तो इन्हें ही तमाम छूट देना होंगी तब ये आयेंगे. मुनाफा तो वे अपने देश ही ले जायेंगे. पर्यावरण का क्या होगा, जल, बिजली और यातायात के सम्बन्ध हानि का कोई अनुमान लगाना कठिन हैं. ये कुछ प्रश्न हैं जिन पर निसंदेह विशेषज्ञों ने चिंतन किया होगा. फ़िलहाल इस योजना के लिए ९३० करोड़ का प्रावधान किया गया है लेकिन पूरी योजना पर बीस हजार करोड़ खर्च हो सकता है. सामान्यजन की चिंता मेक इन इंडिया के समाजशास्त्र को समझने की है.
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Friday, June 3, 2016

बिखरे बिखरे से दुनिया के इकलौते सौ करोड़

आलेख 
जवाहर चौधरी 


जब प्रधान मंत्री यह कहते हैं कि सबका साथ, सबका विकास तो उनकी बात पर विश्वास कर लेने को दिल चाहता है. सदियों से हमारे चिन्तक, समाजसुधारक और महापुरुष भी यही चाहते और कहते आये हैं. लोकतंत्र स्थापित हुआ, कानून बनें, शिक्षा बढ़ी, तकनीक का विकास हुआ इसने समाज के पारंपरिक स्वरुप को बदला. विभिन्न सेवाओं के लिए चली आ रही सदियों पुरानी पारस्परिक निर्भरता के बंधन ढीले होने लगे. इसमें कोई संदेह नहीं कि सामाजिक-आर्थिक स्तर पर भारतीय समाज अच्छी स्थिति में है. मात्र ८०-९० वर्ष पुराना प्रेमचंद के युग का समय तेजी से इतिहास में समा रहा है. लेकिन ग्लोबल समय में रहते हुए हमारी यह खुशफहमी कमजोर दिखाई देती है क्योंकि दूसरे देश दूसरे समाज इस यात्रा में हमसे तेज चल रहे हैं.
दरअसल हम अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं और परम्पराओं तथा तकनीक व सभ्यता के बीच द्वन्द की स्थिति में फंसे दिखाई देते हैं. जुगत सिर्फ इतनी कि जितना लाभ उतना समझौता. ना परम्पराएँ छूट रहीं हैं ना पकड़ी जा रही हैं. भारत में बहुसंख्यक समाज अपने को सौ करोड़ मानते हुए भी उस आत्मविश्वाश में नहीं होता है जिसमें उसे होना चाहिए. वह जानता है कि चार वर्ण और सैकड़ों जातियों में बंटा समाज जिसे चट्टान होना था वह अपनी अवैज्ञानिक सोच के कारण बलूरेत सा चूर चूर है.
विडंबना यह है कि दूसरे समाजों की मौजूदगी और प्रतिस्पर्धा के कारण खुद की एक ताकत भी होना जरुरी है. नकल में अक्सर अकल को नजरंदाज कर दिया जाता है. सामने वाले अपने समूह के प्रति उदार मान्यताओं के कारण कम संख्या में भी मजबूत दिखाई देते हैं. अपनी मान्यताओं को लेकर कट्टरता उन्हें मजबूत बनाती है. जबकि सनातन धर्मी जबाबी कट्टरता के प्रयास में बिखर जाते हैं.
हिंदू समाज के सामने अपने को सामाजिक स्तर पर संगठित करना सदियों से एक चुनौती रही है. हालाँकि समय बदला, हमारी व्यावहारिक समझ बदली, लेकिन सोच नहीं बदली. खासतौर से इनदिनों जबकि छोटी बड़ी जातियां अपने तथाकथित स्वाभिमान और पहचान के लिए रैलियां, जलसे, उत्सव और गौरव ग्रन्थ आदि निकलने में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं. ऐसा करते वक्त वे आने वाली पीढ़ी को भी उसी मानसिकता में ढालने का काम कर रहे हैं जिससे बाहर आने कि जरुरत है. कहा जाता है कि हिंदू समाज में उदारता बहुत है. हाँ, वह उदार दिखाई देता है, अनेक मामलों में (जिसके विस्तार में जाने की यहाँ गुंजाईश नहीं है) लेकिन अपने ही निम्न तबके, मसलन दलित, पिछड़े और छोटे काम करते हुए गुजरा करने वालों के प्रति वह सामान्यतः असहिष्णु रहा है, जबकि इनकी संख्या आधे से अधिक है. वे आँख की किरकिरी रहे हैं कभी परम्परावादी कारणों से तो इनदिनों आरक्षण जैसे कारणों से. यदि दुनिया की इस इकलौती सौ करोड़ जनसंख्या को एक मजबूत इकाई बनाना है तो उसे एक आतंरिक उदारता का विकास करना जरुरी है. कहने को चार चार शंकराचार्य नेतृत्व दे रहे हैं, हर तीन वर्ष में कुम्भ का समागम होता है लेकिन नहाने-धोने और विवादों के आलावा कुछ हासिल नहीं होता है. तकनीकी विकास और राजनितिक चेतना को छोड़ दिया जाये तो हिंदू समाज में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है. सौभाग्यवश लोकतंत्र है और कानून भी अनुकूल हैं. हमें परस्पर उदार होने की जरुरत है, इस नारे के मर्म को समझें- सबका साथ, सबका विकास .


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