Monday, June 6, 2016

‘मेक इन इंडिया’ का समाजशास्त्र !!

आलेख 
जवाहर चौधरी 

इन दिनों मेक इन इंडिया की ओर सबका ध्यान है. देश की जनसंख्या  एक सौ बत्तीस करोड़ से अधिक हो गई है. हर साल लगभग एक करोड़ नए हाथ काम मांगने के लिए तैयार हो रहे हैं, जबकि पिछले वर्षों के रह गए बेरोजगारों की बड़ी तादात भी मौजूद होती है. उस पर देश भर में हर कोई चाहता है कि उसे सरकारी नौकरी ही मिले. हर साल एक करोड़ रोजगारों का सृजन करना किसी भी सरकार के लिए असंभव ही कहा  सकता है.
गाँधी जी का मत था कि आजाद भारत में ग्रामीण और कुटीर उद्योगों को सरकार प्राथमिकता दे, ताकि लोग छोटे उद्योगों में पीढ़ी दर पीढ़ी खपें और धन का विकेन्द्रीकरण भी हो. लेकिन नेहरु वैश्विक प्रवृतियों को देख रहे थे. दुनिया के साथ चलने और बढने के लिए बड़े उद्योग का चुनाव उन्होंने किया. यह नीति कितनी सफल रही है इस पर लंबी बहस हो सकती है, होती रही है. कलकत्ता, कानपुर, दिल्ली, मुंबई, देवास, इंदौर जैसे तमाम औद्योगिक नगरों को याद किया जा सकता है जहां प्रदूषण, भीड़, झुग्गी बस्तियां, अपराध, गन्दगी, बीमारी जैसी दिक्कतें विकराल रूप में मौजूद हैं. नदियाँ, और दूसरे जल स्त्रोत बर्बाद हैं, आज तक हम गंगा और यमुना को भी साफ नहीं कर पाए हैं, जबकि उनसे  धार्मिक भावना भी जुडी हुई है आमजन की. नगरों से पेड़ गायब हैं और हवा हानिकारक हो गई है, झुग्गियों में जीवन नारकीय है.
इतनी बातें  इसलिए याद आ रहीं हैं कि सरकार मेक इन इण्डिया के तहत दुनियाभर के उद्योगों को भारत में आमंत्रित कर रही है. निश्चित ही वे अपने साथ बड़े बड़े उद्योग ले कर आयेंगें, हमारी जमीनों का उपयोग करेंगे (यहाँ ध्यान रखना होगा कि भारत में जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है और अनुमानों के अनुसार २०३० में देश की जनसंख्या एक सौ बावन करोड़ से अधिक होने जा रही है.) ये उद्योग बिजली और पानी का भी उपयोग करेंगे ( देश में जलसंकट और बिजलीसंकट की स्थिति है.) माना कि बिजली बना लेंगे लेकिन जल का क्या होगा ? पर्यावरण को लेकर अलग से कुछ कहने की जरुरत नहीं है.

फिर यह चिंता भी है कि हमें मिलेगा क्या !? शायद कुछ रोजगार, कुछ टेक्स, उत्पादों पर भारत का नाम, वैश्विक प्रतिस्पर्धा में हम, दूसरे देशों के साथ आर्थिक संबंधों में कुछ लाभ. आज आधुनिक तकनीक में मैन-पावर बहुत काम लगता है. (हमारी कपडा मीलों के अधुनिकीकरण से हजारों लोग बेकार हुए हैं.) आटोमेशन की अत्याधुनिक तकनीक के साथ आने वाले ये उद्योग कितना रोजगार मुहैया करा पाएंगे पता नहीं. टेक्स भी कब मिलेगा ? पहले तो इन्हें ही तमाम छूट देना होंगी तब ये आयेंगे. मुनाफा तो वे अपने देश ही ले जायेंगे. पर्यावरण का क्या होगा, जल, बिजली और यातायात के सम्बन्ध हानि का कोई अनुमान लगाना कठिन हैं. ये कुछ प्रश्न हैं जिन पर निसंदेह विशेषज्ञों ने चिंतन किया होगा. फ़िलहाल इस योजना के लिए ९३० करोड़ का प्रावधान किया गया है लेकिन पूरी योजना पर बीस हजार करोड़ खर्च हो सकता है. सामान्यजन की चिंता मेक इन इंडिया के समाजशास्त्र को समझने की है.
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