सुभाष चन्द्र कुशवाह के इस कथा संग्रह उत्तर भारत के गांवों
कि झलक मिलती है. कहन शैली कुछ कहानियों में दादी-नानी के किस्सों कि याद दिलाती
है, जो रोचक भी है. कौवाहंकनी में सुभाष किस्सों को विस्तार दे कर आधुनिक
छल-प्रपंच तक ले जाते हैं. वहीँ ‘भटकुइयाँ इनार का खजाना’ और ‘लाला हरपाल के जूते’ में
लेखक की व्यंग्य दृष्टि मुखर होती है. नई हवा में जहां गाँव में पेप्सी-कोला पहुँच
रहे हैं वहीँ जहरीली शराब ‘चुस्की’ के
पाउच भी. लोग बीमार हो रहे है, मर रहे हैं लेकिन सरकारी मदद को ले कर खेंच-पकड़ भी
है. जात-बिरादरी, मुखैती, सरपंची के बीच गाँव की प्रधानी पर इस बार दलित महिला का
आरक्षण है जो व्यवस्था की अनेक परतें
खोलता है. भौतिक संसार से अलग होने के द्वंद्व में डॉ.अशोक की माई का चित्रण है तो
अन्य कहानी में लंगड जोगी हैं जिनकी सारंगी घर वालों ने रखवा ली है, पाबन्दी का कारण मंदिर-मस्जिद के झगड़े हैं.
सुभाष चन्द्र कुशवाह की ये कहानियाँ परपरागत गांवों में बदलाव और संक्रमण को बहुत
अच्छे से दिखाने वाला साहित्य का समाजशास्त्र कही जा सकती हैं. मुहावरेदार भाषा,
रोचक ग्रामीण परिवेश के नए शब्द भी पाठकों के हिस्से में आते है.
बेहतर समीक्षा के लिए आभार
ReplyDeleteबेहतर समीक्षा के लिए आभार
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