Thursday, August 3, 2023

संस्मरणों के सहारे पड़ताल : हिंदी व्यंग्य की प्रवृत्तियां और परिवेश


 

आलेख

जवाहर चौधरी

जिस तरह से हिंदी व्यंग्य पल्लवित हुआ है वह चौंकाने वाला है । लेकिन यह भी चिंता की बात है कि इस फसल का कोई रखवाला नहीं है । कोई मेढ़ (फेंसिंग) नहीं है, जमीन खुली पड़ी है । कहीं कहीं बिजूके हैं भी तो नहीं होने जैसे । कहाँ फसल है और कहाँ खरपतवार कुछ समझ में नहीं आता है । व्यंग्य की इस जमीन को समझने समझाने की कोशिश में समय समय पर कुछ किताबें आई हैं । श्यामसुन्दर घोष की ‘व्यंग्य क्या, व्यंग्य क्यों,’ शेरजंग गर्ग की ‘व्यंग्य के मूलभूत प्रश्न’, सुरेश कान्त की ‘व्यंग्य: एक नयी दृष्टी’ , राहुल देव की विमर्श पुस्तक ‘आधुनिक व्यंग्य का यथार्थ’, गौतम सान्याल की ‘कथालोचन के नए प्रतिमान’ जिसमें कथा के साथ व्यंग्य पर भी सार्थक टिप्पणियां हैं । एक अरसे तक ‘व्यंग्य विविधा’ पत्रिका के माध्यम से मधुसूदन पाटिल और पिछले बीस वर्षों से ‘व्यंग्य यात्रा’ के साथ प्रेम जन्मेजय व्यंग्य की जमीन में खाद पानी दे रहे हैं । इसी क्रम में कैलाश मंडलेकर अपने ताजा काम के साथ व्यंग्य परिवेश की पड़ताल के उदेश्य से प्रवेश कर रहे हैं । उनकी पुस्तक ‘हिंदी व्यंग्य की प्रवत्तियां और परिवेश’ हाल ही में शिवना प्रकाशन से प्रकाशित हुई है ।

अपनी बात रखते हुए कैलाश कहते हैं – “समकालीन व्यंग्य पर चर्चा करते हुए एक दफे परसाई जी ने कहा था “सही व्यंग्य व्यापक जीवन परिवेश को समझने से आता है ...उक्त वक्तव्य के परिप्रेक्ष्य में यदि हम आज के व्यंग्य लेखन को रख कर देखना चाहें तो हम पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पाते हैं कि हम अपने समय की समग्र व्याख्या कर पा रहे हैं ! हमसे क्या छूटते जा रहा है इसकी पड़ताल करते जाना भी आज के व्यंग्यकार का दायित्व है ।“ ... हमसे क्या छूट रहा है ! आज के व्यंग्य उद्योग को यही जानने और समझने की जरुरत है । बहुत शालीनता के साथ कैलाश इस बात को कहते हैं – “हिंदी के समकालीन व्यंग्य पर आत्मसंतुष्टि, दोहराव और आत्ममुग्धता के गहरे आरोप लगाये जाते हैं । मैं जानता हूँ कि ये आरोप फैशन के तौर पर नहीं लगाये गए हैं । इनमें सच्चाई भी है ।“ ...  व्यंग्यकार में जवाबदेही का बोध शिद्दत से होना चाहिए । व्यंग्य की कलम समाज के व्यापक हित में जिम्मेदारी और जोखिम लेती है । व्यंग्य लेखन चिड़ियाघर घूमना नहीं है । पुस्तक इस बात की चिंता भी करती है कि व्यंग्य के नाम पर जो सतहीपन, चुटकुलेबाजी वगैरह चल रही है वह न व्यंग्य के हित में है और न ही लेखक के हित में । कहा जा सकता है कि नए व्यंग्य लेखक के पास कोई व्यवस्थित दिशा निर्देश नहीं है । सलीका आएगा कहाँ से ! इसका मतलब यह हुआ कि हम अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों को ठीक से नहीं देख पाए हैं । उनकी व्यंग्य दृष्टि, भाषा, शैली, विषय की पड़ताल, कहने का साहस, जोखिम, कला आदि सब कम-अधिक छूट रहा है । व्यंग्य में डूबे बगैर, उसका व्याकरण समझे बगैर कोई व्यंग्य के कॉकपिट में कैसे बैठ सकता है ! किताब इसी बात को समझाने का प्रयास करती है कि व्यंग्य लेखन एक साधना है । व्यंग्य दृष्टि कुदरती तौर पर सबको नहीं मिल जाती है । फिर व्यंग्य में भाषा भी महत्वपूर्ण है । पुस्तक में  कैलाश अपनी तमाम व्याख्याओं में भाषा की और इशारा करते चलते हैं ।

पहले अध्याय में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के व्यंग्य परिवेश की परिचयात्मक चर्चा है । कहते हैं ज्यादातर हिंदी व्यंग्य इन्ही दो प्रदेशों से आया है । इसलिए लेखक का इन प्रदेशों पर नजर रखना उचित है । परसाई और जोशी की कर्म भूमि ने अनेक उल्लेखनीय व्यंग्यकार दिए हैं हिंदी को । कैलाश जी ने शिद्दत से तमाम व्यंग्यकारों को अपने चिंतन में शामिल किया है । ‘परसाई की व्यंग्य चेतना‘ और ‘परसाई और जाने पहचाने लोग’ संस्मरणात्मक लेख हैं । परसाई जी को निकट से देखने समझने का मौका मिला है कैलाश मंडलेकर को । वे बता रहे हैं कि परसाई ने संस्मरण लिखे लेकिन आत्मकथा के लिए कहा कि ‘नहीं लिखूंगा’ । उनका मनना था कि “आत्मकथा में सब छुपा लिया जाता है और वही लिखा जाता है जो व्यक्तित्व को गरिमा प्रदान करे ।“ यहाँ झूठ से सज्जित आत्मप्रशंसा की ओर संकेत है । हालाँकि परसाई आत्मकथा लिखते तो निसंदेह अपने समय और समाज को ही अनावृत करते । यही काम वे अपनी रचनाओं में करते रहे थे । अपने सच को लिखना साहस और जोखिम का काम है । हालाँकि उनके संघर्षपूर्ण जीवन पर एक अधिकृत पुस्तक हो जाती तो अच्छा होता । शरद जोशी के लेखन की खूबियों की चर्चा ‘शरद जोशी – परिक्रमा से प्रतिदिन तक !’ आलेख में हुई है । कैलाश लिखते हैं – “शब्द कैसे तराशे जाते हैं और भाषा को हथियार कैसे बनाया जा सकता है इसे शरद जोशी के मार्फ़त ही समझा जा सकता है ।“ व्यंग्य में जहाँ परसाई सीधे सीधे लाठी चलाते दिखाई देते हैं वहीं शरद जोशी हरी लचीली बेंत से काम चलाते हैं । बावजूद इसके उनकी मार का असर कम नहीं होता है । वैचारिक रूप से व्यंग्यकार प्रतिबद्ध प्रायः नहीं होता है । उसकी प्रतिबद्धता व्यवस्था के शिकार अंतिमजनों से होती है । शरद जी के व्यंग्य इसलिए भी लोकप्रिय हुए हैं कि “वे पीड़ित के गूंगे गम को सहलाते हैं और बहुत अपनत्व के साथ उसके बाजू में खड़े होते हैं” । इसी तरह श्रीलाल शुक्ल को याद करते हुए ‘रागदरबारी’ पर सारवान आलेख है । रागदरबारी हिंदी व्यंग्य का महत्वपूर्ण और लोकप्रिय उपन्यास है जिसमें ग्रामीण भारत के विसंगत जीवन का चित्रण रोचक व मारक है । इसी क्रम में महत्वपूर्ण व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी लिखते हुए मंडलेकर पत्रिका ‘अक्षर पर्व’ में लिखे स्व. ललित सुरजन के सम्पादकीय का जिक्र करते हैं – “रविंद्रनाथ त्यागी का पिछले दिनों कभी निधन हो गया । कब, किस तारीख को, कहाँ ? मालूम नहीं । रायपुर क्या भारत के किसी समाचार पत्र में यह खबर पढ़ने को नहीं मिली । टीवी के किसी चेनल ने इसे प्रसारित नहीं किया । ... अंग्रेजी की बात छोडिये, हिंदी के किसी के पत्रों को भी यह खबर नहीं मिल सकी ।“ ये पंक्तियाँ चौंकती ही नहीं टीसती हैं मन में ।  विस्तार में जाने से यहाँ किसी गलतफहमी की बात भी प्रतीत होती है । पता चलता है कि श्रीलाल जी का निधन 28 अक्तूबर 2011 को लखनऊ में हुआ । अंतिम संस्कार गोमती के किनारे भैंसा कुण्ड श्मशान घाट पर था । जिसने भी उनके निधन का समाचार मिलता जा रहा था वह भैंसा कुण्ड पहुँच रहा था । ( समाचार की तफसील बीबीसी के पोर्टल पर दर्ज है ।)  लेकिन ललित सुरजन जी के लिखे को कैसे नकारा जाए । इस घटना पर काम होना चाहिए और सच्चाई का पता लगाना चाहिए ।

वरिष्ठ व्यंग्यकार अजातशत्रु राष्ट्रीय फलक पर बहुत समय से अनुपस्थित चल रहे हैं  । व्यंग्य पर उनके दो संग्रह हैं, ‘आधी वैतरणी’ और ‘शर्म कीजिये श्रीमान’ । अब उनका लेखन ज्यादातर संगीत और फिल्मों पर केन्द्रित है । व्यंग्य एकदम बंद नहीं है, स्थानीय अख़बार में लिखते हैं । पुस्तक में उनसे एक लम्बा साक्षात्कार हैं जिसमें महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर सार्थक चर्चा है । महत्वपूर्ण व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी के दो चर्चित उपन्यासों ‘हम न मरब’ और ‘स्वांग’ से उनके रचनात्मक कौशल और व्यंग्य-दर्शन को समझने का प्रयास है । व्यंग्य परिवेश में ‘भेन्चो’ जैसी गाली पर पहले काफी विवाद हुआ है, इस पर भी कैलाश सुविधाजनक विस्तार लेते दिखाई देते हैं । पत्रिका ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक प्रेम जन्मेजय व्यंग्य जगत में सबसे अधिक सक्रीय व्यक्ति हैं । न केवल पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाओं से बल्कि साहित्यिक आयोजनों में भी उनकी उपस्थिति व भूमिका महत्वपूर्ण होती है । प्रेम जी की किताब  ‘हिंदी व्यंग्य की धार्मिक पुस्तक: हरिशंकर परसाई’ को चर्चा में लेकर उनके संपादन-कौशल और व्यंग्य-बोध पर विमर्श करता आलेख है । हिंदी की महत्वपूर्ण लेखिका सूर्यबाला कई विधाओं में लिखती हैं और चर्चित हैं । व्यंग्य पर भी इनकी कलम शिद्दत से चली है । उनके संग्रह ‘भगवान ने कहा था’ के बहाने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर बात की गयी है । इसी तरह व्यंग्यकार जवाहर चौधरी के व्यक्तित्व कृतित्व पर चार लेख हैं । व्यंग्य संग्रह ‘बाजार में नंगे’ और उपन्यास ‘उच्चशिक्षा का अंडरवर्ल्ड’ को चर्चा में लिया गया है ।  ‘सुशिल सिद्धार्थ का व्यंग्य बोध’ के अंतर्गत उनकी विशिष्ट व्यंग्य दृष्टि, साहित्यिक दृष्टि और लेखन  शैली का पता चलता है । यशवंत व्यास वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं और अपनी अलग शैली के लिए पहचाने जाते हैं । उनका व्यंग्य संग्रह ‘कवि की मनोहर कहानियां’ पिछले दिनों चर्चा में रहा है । इसी को सामने रखते हुए उनकी विशिष्ट व्यंग्य शैली को समझने की कोशिश की गयी है । शांतिलाल जैन बहुत सधा हुआ लिखते हैं । उनके नये व्यंग्य संग्रह ‘आप शुतुरमुर्ग बने रहें’ से अनेक रचनाओं पर बात की गयी है । मध्यप्रदेश के कुछ युवा रचनाकारों को कैलाश मंडलेकर विमर्श में रखते हैं । व्यंग्य का भविष्य जिनके हाथों में है उनके लेखन की विशेषताओं को रेखांकित करना इसका उदेश्य है । विनोद साव का उपन्यास ‘भोंगपुर 30 कि.मी.’,  पियूष पाण्डे का संग्रह ‘डिबेट में कबीर’, वीजी श्रीवास्तव का ‘इत्ती सी बात’ कमलेश पांडे का ‘आत्मालाप’ पर समीक्षात्मक आलेख हैं ।   मुकेश राठौर, विवेकरंजन श्रीवास्तव, सुधीरकुमार चौधरी के आलावा ‘हिंदी व्यंग्य में स्त्री स्वर-एक शिनाख्त’ और भाषा खण्ड में ‘निमाड़ी भाषा के लोक वैभव’ पर अच्छे आलेख हैं जो व्यंग्य परिवेश में स्त्री लेखन और बोली भाषा की भूमिका पर प्रकाश डालती है ।

आलोचना खण्ड में डॉ विजयबहादुर सिंह से हिंदी साहित्य परिदृश्य पर विस्तार से बात हुई है । उनके वैचारिक संवाद पर आकलन परक आलेख पुस्तक को समृद्ध करता है । अंतिम खण्ड ‘यादों के गलियारे में श्री सूर्यकान्त नागर पर एक अच्छा फीचर है जो उनके संघर्षों और रचनात्मकता के तमाम पड़ावों की अधिकृत जानकारी देता है । कैलाश मंडलेकर अपने गुरु डॉ सुरेश मिश्र को बहुत आदर के साथ याद करते हैं जिन्होंने उन्हें इतिहास पढाया था । स्व. प्रभु जोशी पर भी प्रभावी संस्मरणात्मक आलेख हैं ।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आलोचना की परंपरागत शैली से हट कर कैलाश मंडलेकर ने एक नए ढंग से व्यंग्य परिवेश को जानने और अभिव्यक्त करने की कोशिश की है । पाठक संस्मरणात्मक लेखन के माध्यम से व्यंग्य प्रवृत्तियों और बारीकियों से परिचित होता चलता है । पुस्तक अकादमिक गुणवत्ता के साथ रचनात्मक कृति का आनंद भी देती है । हालांकि बहुत से महत्वपूर्ण व्यंग्यकार इस पुस्तक में छूट गए हैं ।  जब व्यंग्य की प्रवृत्ति और परिवेश पर केन्द्रित पुस्तक है तो उनकी कमी अखरती है । बहरहाल कुछ चावलों से हांड़ी का जायजा मिल जाता है । उम्मीद की जा सकती है कि व्यंग्य के पाठकों और शोधकर्ताओं को इस पुस्तक से कुछ जरुरी सहायता अवश्य मिलेगी । 

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पुस्तक – हिंदी व्यंग्य की प्रवृत्तियां और परिवेश

लेखक – कैलाश मंडलेकर

प्रकाशक – शिवना प्रकाशन, सीहोर – मप्र

संस्करण – 2023

मूल्य – रु. 350/ --

 

 

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