Tuesday, March 18, 2025

समीक्षा  

 

    ‘सन्त चौक’ : विकृतियों का आख्यान बज़रिये व्यंग्य!

                                      प्रकाश कान्त 



  

 

        ‘सन्त चौक यूँ तो कहीं नहीं है लेकिन सब जगह है!’ उसमें जीवन की सारी कड़वी-मीठी सचाइयाँ हैं. यह वरिष्ठ व्यंग्यकार जवाहर चौधरी के व्यंग्य उपन्यास ‘सन्त चौक’ का परिचय है. इधर जो व्यंग्यकार अपने तीखे, महीन और मारक व्यंग्य के लिए विशेष रूप से जाने गये हैं, जवाहर चौधरी उन्हीं में से एक हैं. सिर्फ़ आलेखों ही नहीं बल्कि अपनी कथा रचनाओं के व्यंग्य के लिए भी! कहानियों के अलावा उनके ‘उच्च शिक्षा का अंडरवर्ल्ड’ और अभी आये ‘सन्त चौक’ जैसे उपन्यासों के व्यंग्य को देखकर इसे समझा जा सकता है.      .       उनके ताज़ा उपन्यास ‘संत चौक’ की पृष्ठभूमि में नोटबंदी है. जिसमें मुकेश अपनी पत्नी के दिये बंद हुए चालीस हजार के नोट बदलवाने अपने गाँव गोपालगंज से ‘सन्त चौक’ आया हुआ है. वहाँ उसके नोट तो नहीं बदलते, जेब ज़रूर कट जाती है. सारा क़िस्सा इसके बाद का है. वह बिना पैसे हासिल किये लौटना नहीं चाहता. इसी क्रम में उसे सन्त चौक के सारे भले-बुरे अनुभव होते हैं.

      ‘सन्त चौक’ पहले जंगल था. फ़िर वह आबाद हो गया. वहाँ के सन्त सिंहस्थ गये लेकिन लौटे नहीं! अब वहाँ सब हैं- लुटेरे, ठगोरे, बेईमान, जेबकतेरे सब! भरोसे, उस्ताद, प्रियंका, राजहँस होटल के मेनेजर जैसे कुछ अच्छे लोग भी हैं. थाना, रिपोर्ट, विधायक, बोतल, गोविंद केलेवाला, साम्प्रदायिक तनाव, तोड़फोड़, आगजनी, जागरण संगठन, धार्मिक घृणा, लव जिहाद जैसी सारी चीज़ें यहीं और इसी दरमियान हैं.काफ़ी कोशिशों के बाद भी  मुकेश को पैसे नहीं मिलते और अंततः उसे ख़ाली हाथ लौटना पड़ता है.

      उपन्यास में बीस अध्याय हैं. जो स्थानीय राजनीति, धर्म और तंत्र में मौजूद जातिवाद, धार्मिक पाखण्ड, साम्प्रदायिक विद्वेष, बेरोजगारी जैसी तमाम राष्ट्रव्यापी विकृतियों को रेखांकित करते हैं. एक ज़रूरी व्यंग्य-दृष्टि के साथ! यूँ भी ये चीज़ें इतनी सामान्य और सहज मान ली गयी हैं कि इनके भीतर की गंदगी व्यंग्य के आलावा किसी और तरह से देख-कह कर नहीं उभारी जा सकती! जिस तरह से ‘राग दरबारी’ (श्रीलाल शुक्ल)  का शिवपालगंज राष्ट्रीय सत्य है और वह हर जगह है ठीक बात सन्त चौक के साथ भी है. वह    मूलतः ‘अंधों का हाथी है’ जहाँ ‘हर एक को उसका सच मिल जाता है.’ उपन्यास इन सचों को कई तरह से ‘रेखांकित करता है जैसे बक़ौल लेखक, अच्छी शराब और दो-चार चिकन ड्रमस्टिक मिल जाने पर लेखक, कवि, पत्रकार अच्छा लिखने लगते हैं..., बस हो या देश उसे चलाते रहने के लिए न सुनना ज़रूरी है..., पूरा देश भीड़ हो गया है जो बास मार रहा है..., सांड के लिए पुलिस चौकी और दुकान एक ही चीज़ है..., दुनिया जेबकटों से भरी पड़ी है, जिसमें बोतल जैसे जेबकट हस्तकला की तरह दक्षता रखते हैं..., शर्म की उम्र छोटी होती है..., साहब को साहब ग़रीब बनाये रखते हैं.... नौकरी सरकार के पास भी नहीं है, वह जुमलों से काम चलाती है..., ख़राब काम करने के लिए जनता नेता रखती है, नौकर नहीं...., लुच्चे, लफंगे, चोर, उचक्के, हत्यारे, बेईमान सब पवित्र नदियों में नहाकर लॉन्ड्री-फ़्रेश हो जाते हैं..., धर्म सहयोगी हो तो नेताओं को भगवान का डर नहीं रहता, ईश्वर को पता है कि उसकी सत्ता तभी तक कायम है जब तक उसका मुँह बंद है, बिना पाप के राजनीति नहीं चलती, जनता पापियों में से ही चुनती है.... नफ़रत करने वालों को हार पहनाये जा रहे हैं.... कानून से पोथी बड़ी है, रीति-रिवाज़ ग़रीब को मारने के लिए होते हैं...इत्यादि!   

      ‘सन्त चौक’ का पूरा यथार्थ इसी तरह के व्यंग्य के ज़रिये कहा गया है. बल्कि, कहा जाना चाहिए कि चौक का जो विद्रूप है वह व्यंग्य के नज़रिये से ही उभरा है. वह इतना घिनौना है कि किसी और नज़रिये से समूचा सामने आ ही नहीं सकता! शिवपालगंज हों या सन्त चौक उन्हें और किसी तरह से ठीक-ठीक सामने नहीं लाया जा सकता. हालाँकि, शिवपालगंज साठ-सित्तर के दशक का था और सन्त चौक इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक का है ! पचास-साठ साल का फ़ासला है. इस बीच घिनौनेपन ने काफ़ी तरक़्क़ी कर ली है. बेशर्मी ने भी!! बेशर्मी जीवन मूल्य है.

      सन्त चौक की पूरी बेशर्मी के सामने लाठी लिये गाँधी की प्रतिमा खड़ी है. जिसके आसरे और भरोसे एक पगली बुढ़िया पड़ी है. प्रतिमा और बुढ़िया पूरे चौक पर एक गम्भीर टिप्पणी है! आजादी के बाद सब बना लेकिन एक गाँधी नहीं बन पाया! - यह इस टिप्पणी का सारांश है. और पूरे सिस्टम की हक़ीक़त का बयान भी!

      वैसे, उपन्यास कई जगह स्थितियों को व्यंग्येतर ढंग से भी देखने-समझने की   कोशिश करता है. रोज़गार के मुद्दे पर जो व्यंग्य है उसमें एक ख़ास तरह का अवसाद और पीड़ा भी हैं. चाहे जूते गाठने का मुद्दा हो या फ़िर एम.ए. उत्तीर्ण का केले बेचने का! जिस ‘सरकार के पास भी नौकरियाँ नहीं है वह जुमलों से काम चलाती है’  यह कहना स्थिति के पीछे की भयावहता को रेखांकित करता है. सांप्रदायिकता के प्रश्न पर भी जो दृष्टि है वह सिर्फ़ व्यंग्य की नहीं है. वहाँ उन स्वरों की प्रधानता और मुखरता है जो व्यंग्य से अलग हैं . दरअसल, सतही उपहास और मज़ाक की बात रहने दें तो वास्तविक व्यंग्य के पीछे कहीं एक तरह की करुणा होती है. जो जितनी गहरी होती है, व्यंग्य वहाँ उतना ही गहरा और मारक होता है. वैसे में, हास्य कहीं बहुत पीछे छूट जाता है. तब रचना अलग धरातल पर दिखाई देती है.

       ‘सन्त चौक’ के सच के कई शेड हैं. होटल की जूठन से लेकर साम्प्रदायिक मानसिकता की क्रूरता तक! राजनीति का घिनौनापन, पाखण्डों का प्रदर्शन वग़ैरह तो है ही! जिस सब का शिकार अंततः एक साधारण आदमी होता है. उपन्यास में सन्त चौक की अलग से कोई कथा नहीं है. बल्कि सन्त चौक में मौजूद अलग-अलग कथाओं के ज़रिये सन्त चौक की कथा आकार लेती है. जिनके ज़रिये सन्त चौक अंततः पाठक को अपना सन्त चौक अनुभव होने लग जाता है. ख़ुद के उसका एक हिस्सा हो जाने की हद तक! ‘उच्च शिक्षा का अंडर वर्ल्ड’ में उच्च शिक्षा से जुड़े सम्मानित समाज की सारी विकृतियाँ थीं, ‘सन्त चौक’ में आम और ख़ास हर तरह के आदमी से जुड़े सन्त चौक की विकृतियाँ हैं. जवाहर चौधरी दोनों को अपने समर्थ और स्वाभाविक व्यंग्य के माध्यम से सामने लाने में सफल रहे हैं, कथा की गति एक जैसी बनाये रखते हुए! उपन्यास अपने कसे हुए ढाँचें के भीतर एक सार्थक व्यंग्य कथा की चुभन और तिलमिलाहट पैदा करता है.

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