Tuesday, March 18, 2025

 

पुस्तक समीक्षा

                           *सामाजिक संवेदना व्यक्त करती अनूठी व्यंग्य कृति* 

                                                -सूर्यकांत नागर


जवाहर चौधरी व्यंग्य-क्षेत्र का महत्वपूर्ण नाम है। वे आधी सदी से अधिक समय से इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। उनकी रचनात्मकता उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता की प्रतीक है। उनके कृतित्व में समकालीन साहित्य के लगभग सभी कथ्य मौजूद हैं। दरअसल उनके व्यंग्य विरोधाभाषी स्थितियों के प्रति एक संवेदनशील व्यक्ति की प्रतिक्रियाएं हैं जिन्हें वे एक बड़े वर्ग के साथ बांटना चाहते हैं। जब भी व्यवस्था में विसंगति, विषमता, अन्याय, भ्रष्टाचार, मिथ्याचार देखते हैं, वाजिब गुस्से से भर आते हैं। जब यह गुस्सा कार्यरूप में परिणत नहीं हो पता तो व्यंग्य का रूप ले लेता है। पीड़ित आक्रोश को व्यक्त करने की असहायता का वैकल्पिक रूप ही व्यंग्य है। जवाहर का आक्रोश अराजक नहीं है। वह सात्विक और ईमानदार है। वहाँ शोर नहीं है। उद्देश्य सुप्त विवेक और लोकमांगलिक चेतना जाग्रत करना है। चौधरी के लिए व्यंग्य लेखन एक इलहाम है। नैसर्गिक गुण, देवीय वरदान। उनका साहित्य प्रतिरोध का साहित्य है। प्रतिरोध का कथा-शिल्प देखना हो तो हमें जवाहर के सृजन के गुजरना होगा। वैसे भी प्रतिबद्धता के लिए किसी विचारधारा विशेष से बंधा होना जरूरी नहीं है। प्रतिबद्धता तो इस बात से तय होती है कि जीवन संघर्ष में लेखक किसके पक्ष में खड़ा है। 

जवाहर का नया उपन्यास संत चौकउनकी व्यंग्य यात्रा का अगला सौपन है। समकालीन संवेदना से जुड़ा शायद ही कोई मुद्दा हो जो उनकी कलम की नोक पर न उतरा हो। इसमें समाज है, राजनीति है, नेता है, पुलिस है, अफ़सर और बाबू हैं और पत्रकार भी। पाखंड की चौड़ी होती खाई है और गरीब की बेवक्त होती मौत भी। प्रथम अध्याय में संत चौक की स्थानीयता का विस्तृत विवरण है जो चौक की संस्कृतिसे परिचित करता है। पूरा किस्सा गोपालगंज से संत चौक की यात्रा और वहाँ से वापसी का है। यह महज बस-यात्रा नहीं है। यह अपने में बड़ी दुनिया समेटे है। निजी बस वालों की दादागिरी के तहत यात्रियों को बस में भेड़-बकरियों की तरह ठूँसा जाता है। उनके साथ पशुवत व्यवहार किया जाता है। ठसाठस भरी बस के संदर्भ में व्यंग्यकार की यह उक्ति देखिए - लोग बीड़ी के बंडल की तरह टाइट दम साधे खड़े हैं।

            उपन्यास मुकेश खन्ना की व्यथा कथा है जो नोटबंदी के बाद रद्दी हो गए पचास हजार के नोट के बदले कुछ जायज नोट पाने की जुगाड़ में संत चौक आता है, जहां बोतल भैया हैं जो जेबकतरों के सरगना और नोट बदलने की कला में माहिर हैं। दुर्भाग्यवश बस से उतरते ही मुकेश की जेब कट जाती है और वह दोहरी विपत्ति का शिकार हो जाता है। नोटबंदी काले धन को पकड़ने के लिए की गई थी, पर प्रक्रिया की वजह से आम आदमी के समक्ष भी अनेक समस्याएं पैदा हुईं। 

यह भी बताया कि नासमझ महिला पार्षद हो या सरपंच, उसके तमाम काम-काज की डोर पति के हाथों में होती है जिसका वे भरपूर लाभ उठाते हैं। पार्षद-पति, मोती भैया, जो बोतल भैया के खास आदमी हैं, का कच्चां चिट्ठा भी शिद्दत से खोला गया है। (चोर-चोर मौसेरे भाई)। नेता लोगों की बहानेबाजी और वाक-पटुता को भी पेश किया है। 

            संत चौक आने के बाद सब कुछ गंवा चुके मुकेश खन्ना  को जीवन-निर्वाह के लिए कई प्रकार के काम करना पड़ते हैं। उसने सड़क पर झाड़ू लगाई, होटल में वेटर का काम किया, लोगों के उलाहने सुने। इस बहाने लेखक ने तथाकथित शानदार होटलों की कार्यशैली और वहाँ किचन में फैली असह्य गंदगी को उजागर करने के अवसर भी तलाश लिए। बाहर सजी टेबल पर चमचमाती प्लेटों में परोसी गई सब्जियों में जूठन तक हो सकती है, शायद ही इसका अनुमान उपभोक्ताे को हो। स्वार्थ और लालच व्य वसायी को किस हद तक गिरा सकता है, यह इसका उदाहरण है। स्वार्थ के आगे संवेदना समाप्त हो जाती है।

            आज की पत्रकारिता पर भी जवाहर भाई ने तंज कसा है। आज खोजी पत्रकारिता का जमाना है। अधिकांश पत्रकार, विशेषत: छुट भैया, पत्रकार बिके हुए हैं। पत्रकारों और नेताओं के हफ्तेबंधे हैं। अख़बारों की विश्वंसनीयता समाप्त हो चुकी है। आज पत्रकारिता मिशन न होकर व्यवसाय बन गई है। शैलू और पीलू के माध्यम से अख़बारनवीजी को बेपर्दा किया है। व्यंग्यकार की नज़र आज के ज्वलंत मुद्दे लव जिहाद पर भी है। आए दिन हम लव जिहाद के किस्से अख़बार में पढ़ते हैं। लव जिहाद को लेकर दंगे-फसाद हो रहे हैं। उन पर सांप्रदायिकता का रंग चढ़ाया जा रहा है। जमकर अफवाहें फैलायी जाती हैं। पुलिस, नेता और संगठनों के अपने-अपने स्वार्थ हैं। ऐसे में अफवाहें आग में घी का काम करती हैं। केले बेचने वाला गोविंदा का प्रेम प्रसंग सामने के शोरूम के उपर रहने वाली लड़की से चल रहा है। एक दिन दोनों भाग जाते हैं। अफवाह फैलती है कि गोविंदा मुसलमान है- गुलशन और वह हिंदू लड़की को भगाकर ले गया है। चौक में आग सुलग उठती है। ऐसे में भी पुलिस, नेता और जनता की अपनी सोच है। नेताजी को आशंका है कि उसके क्षेत्र में यदि साम्प्रदायिक दंगा फैला तो हो सकता है आगामी चुनाव में उसका पार्टी-टिकट कट जाए।

उपन्यास का महत्वपूर्ण अंश वह है जहां बताया गया कि परिवेश, परिस्थिति और जरूरत अनुसार प्रवासी लोग स्थानीय तौर-तरीके अपनाकर कैसे स्वयं को स्थापित कर लेते हैं। स्थानीय ढ़ांचे में ढ़ाल लेते हैं। जात-पात और नाम-धाम की बेड़ी शिथिल हो जाती है। उपन्यास का नायक मुकेश खन्ना वास्तव में मुकेश मिश्रा है। दादा ने गांव बदला था तो नए स्था न पर बैरागी की जगह यादव हो गए। जैसा देश वैसा भेष की उक्ति को सार्थक करते हुए। संत चौक में छेनू भारतीय की पान की दुकान है। मोची का काम कर रहा भरोसे ब्राह्मण हैं, मजबूरी में जूते गांठ रहा है। एम.ए. पास गोविंदा ठेले पर केले बेच रहा है।

तलछट में रहने वाले दलितों, पीडि़तों और शोषितों को कई तरह के लालच देकर धर्म परिवर्तन कराया जाता है। उपन्यास में जातिगत भेदभाव पर कड़ा प्रहार है। दलितों को अछूत माना जाता है। उनके साथ अमानवीय व्यावहार किया जाता है। वे मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते। सार्वजनिक कुएं से पानी नहीं भर सकते। (लेकिन उस लकड़ी से भट्टी में खाना बना सकते हैं जिसके बनाने में दलित मजदूरों के हाथ लगे हैं और उस कुवें का पानी पी सकते है जिसके बनाने में दलित श्रमिकों के हाथ लगे हैं।) व्यंग्यकार उपेक्षितों की पीड़ा के शब्दांकन में सफल हुआ है। कुछ प्रसंगों में व्यंंग्य में हास्य  के छींटे हैं, पर वे मनोरंजन के लिए नहीं, विसंगति के उपहास के लिए हैं। 

लेखक की सूक्ष्म़ दृष्टि, अभिव्यक्ति कौशल और प्रतीका‍त्मकता देखना हो तो प्रयुक्त कतिपय उक्तियों एवं वाक्यांशों पर गौर करना होगा, यथा (1) आदमी पैसे के साथ दिक्कत भी कमाता है। (2) भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता। (3) कोप को आनंद से नष्ट  किया जा सकता है। (4) खूंटे से बंधे बकरे से कसाई कितना ही लाड़ जताए, पर .......। (5) सरकार का जनसंख्या से कुछ लेना देना नहीं होता तो वह समोसे की तरह लाल तिकोण क्यों बनाती? (6) प्याउ लगाने से (उन्हें) शायद अनअकाउंट पेई यानी डिजिटल पुण्य मिलता हो। (7) मूंछे ही फोटो की वज़ह है वरना शक्ल तो उनकी मरीजों जैसी है। (8) शरम जान-पहचान वालों के बीच होती है। (9) पत्रकारों की बाइक पेट्रोल से नहीं, हुनर से चलती है। (10) बापू किसी को डराने के लिए नहीं, अपने सहारे के लिए रखते थे। 

कुल मिलाकर –‘संत चौकसहमे समय से रूबरू कराती एक वैचारिक प्रायोगिक कृति है जो दूर तक सोचने पर बाध्य करती है। व्यंग्यकार में प्रातिभ कौंध में सत्य को पकड़ने की क्षमता है। इस निमित्त उसके पास कलफविहीन व्यंजनात्मक भाषा है। उनकी सीधी रेखाओं में जो वक्रता है, वही उनकी पहचान है। कृति से गुज़रना निश्चित ही अलग तरह का अनुभव है। 

 

                                                                                                      -सूर्यकांत नागर

                                                                                                                                                           81, बैराठी कॉलोनी नं-2, 

                                                                               इन्दौूर-452014 (म.प्र.)

                                                                                मो- 98938-10050

संत चौक’ (उपन्यास)

लेखक : जवाहर चौधरी

अद्विक प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली

मूल्यक : 200 रूपए

 

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