आलेख
जवाहर चौधरी
कल मैं बहुत देर तक गेट पर इंतजार में खड़ा रहा कि कोई निकले तो उसे चिठ्ठियां दे दूं कहीं लाल डिब्बे में डालने के लिए । निकले कई नौजवान पर बाइक पर सवार , लगभग उड़ते हुए । कोई पैदल या सायकल पर नहीं निकला । लगा जैसे नौजवानों ने पैदल चलना ही छोड़ दिया है । सायकल तो खैर अब शान के खिलाफ है । फटी जीन्स फैशन हो सकती है लेकिन सायकल नहीं ।
मुझे याद आया पचास वर्ष पहले का समय , तब जनसंख्या कम थी साधन सुविधा भी न्यून थे । लेकिन किसी वरिष्ठ नागरिक को किसी काम के लिए ज्यादा देर तक बाट जोहने की जरूरत नहीं पड़ती थी । घरों में बच्चे खूब थे , किसी को भी पुकारो और काम कह दो , हो जाता था । हम लोग ही दौड़ कर काम कर आते थे । इसमें कुछ भी विशेष नहीं था । अब घरों में एक-दो बच्चे हैं , जाहिर है बड़े कीमती हैं । इतने कि दूसरे इनसे ‘हेल्लो’ कर सकते हें कोई काम नहीं कह सकते । खुद मां-बाप भी उनसे काम नहीं लेते हैं , करियर का ध्यान है । अब बच्चे पैदा होते ही कुछ बनाए जाने का ‘कच्चा सामान’ हो जाते हैं । उनका वक्त मां-बाप के वक्त से ज्यादा कीमती है ।शाम को मित्र आए , चर्चा में उन्हें दुखड़ा रोया । वे बोले - चिठ्ठी तो ठीक है अब दवा ला देने वाला भी नहीं मिलता है यार ।
‘ फिर तुम क्या करते हो ? ’ मैंने पूछा ।
‘‘ इंतजार करता हूं । तुम भी इंतजार किया करो । इंतजार करने का मजा कुछ और होता है । समझे ?
और गालिब के इन शेरों पर गौर कीजिए जरा --
गालिब , न कर हुजूर में तू बार बार अर्ज
जाहिर है तेरा हाल सब उन पर , कहे बगैर
काम उससे आ पड़ा है, कि जिसका जहान में
लेवे ना कोई नाम, सितमगर कहे बगैर
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