आलेख
जवाहर चौधरी
बहुत वर्ष हुए नानी को सिधारे । जब भी मुलाकात होती थी, खूब लाड़ करती थीं और आशीष देती थीं कि ‘जल्दी से बुड्ढा-डोकरा हो जाए ’ । तब इतनी तो समझ थी ही कि बुड्ढा-डोकरा होना कोई अच्छी बात नहीं है । खुद नानी इस हाल में आश्रित सी थीं तो फिर ये कैसा आशीर्वाद ! मैं विरोध जताता कि नानी ऐसा मत बोला करो । जवाब में वे कहतीं कि ‘अभी नहीं समझेगा तू ’ ।
आज जब साठवां गुजर रहा है तो छः दशकों की बीती नजरों के सामने दौड़ जाती है । कितना लंबा वक्त लगा यहाँ तक पहुंचने में और किस तरह ! वो भी देखना पड़ा जिसकी कल्पना नरक में भी नहीं हो सकती । लेकिन उस सब का जिक्र नहीं करूंगा । क्योंकि दुःख की दुकान नहीं होती, दुःख का बाजार नहीं सजता और न ही किसी के लिए दुःख का कोई मूल्य होता है । लेकिन भुगतना तो पड़ता ही है .जीवन संघर्ष में बिना जख्मी हुए कोई बुड्ढा-डोकरा नहीं हो सकता है . हालांकि कहा जाता है कि सुख बांटने से बढ़ता है और दुःख बांटने से घटता है । लेकिन आज के भागते युग में किसके पास समय है । रिश्ते अजब गणितों में बदल गए है । अगर आप सुखी हैं तो दुनिया दुःखी है और इसका विपरीत भी होता है । यानी दुनिया सुकून से है यदि आप दुःखी हैं । इन हालात में कौन किसका दुःख बांटने खड़ा हो पाता है, यदि मजबूरी न हो । यों देखा जाए तो कोई सुखी नहीं है । हरेक के जीवन में दुःख हैं, इसलिए किससे आशा कीजिये । इसलिए बुड्ढा-डोकरा हो जाना सुकून की बात भी है . बहुत कम लोग होते हैं जो समय की गुफा के सामने अलीबाबा होने का अवसर पा जाते हैं । नानी के आशीषों का मतलब और गालिब का यह शेर अब समझ में आ रहा है ।
कहूं किससे मैं कि क्या है, शब् -ए-गम बुरी बला है
मुझे क्या था मरना, अगर एक बार होता
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