आलेख
जवाहर चौधरी
हाल ही में एक अखबार ने इस बात के लिए जश्न मनाया कि उसकी प्रसार संख्या में काफी इजाफा हुआ है । पाठक संख्या , जैसा कि उनका अनुमान है , दुगनी हो गई है । अखबार के अनेक संस्करण निकाले जा रहे हैं । पृष्ठों की संख्या भी पहले से अधिक है । बरसों पुराने , बूढ़े हो चुके पाठकों के अलावा नए और युवा पाठक भी बड़ी संख्या में जुड़ चुके हैं । ऐसे लेखक जिनकी पहचान राष्ट्रिय स्तर पर है , अब इस अखबार के लिए लिख रहे हैं । यही नहीं अखबार का दावा है कि वह नए लेखकों और स्थानीय भाषा के विकास के मामले में उदार है । पाठकों को अच्छी और पठनीय सामग्री मिले इसके प्रति गंभीरता का उसका दावा हमेशा नारे की तरह होता है ।
सफलता का यह जश्न एक बड़े होटल में अयोजित था । दूसरे दिन बड़े बड़े फोटो तीन पेज में लगा कर पाठकों को इसकी जानकारी दी गई । अतिथियों में सारे लोग विज्ञापनदाता थे । यही नहीं हरएक फोटो के नीचे लिखा हुआ था कि ये साहब फलां कंपनी के हमारे विज्ञापनदाता हैं । कई विज्ञापन एजेन्सियों के विकास पुरुष महामहिम की सी मुद्रा में दिखाए गए थे । अखबार का सारा कुछ विज्ञापन के आसपास का था और उनके बीच अखबार के प्रतिनिधि पुलकित और बिछे जा रहे दिख पड़ रहे थे ।
सवाल यह है कि जब एक अखबार अपनी सफलता का जश्न मनाता है तो पाठकों को क्या यह सन्देश देना भी जरूरी है कि उनके लिए केवल विज्ञापनदाता ही सबकुछ हैं ! अखबार में विज्ञापन ही होते हैं क्या ! क्या वे जानते हैं कि ज्यादातर लोग पूरे पृष्ठ पर छपे विज्ञापन को देख कर कुपित होते हैं और प्रायः बिना पढ़े उसे पलट देते हैं । जैसे कि टीवी पर विज्ञापन आते ही नब्बे प्रतिशत लोग म्यूट कर देते हैं । माना कि अखबार चलाने वालों के लिए विज्ञापनदाता मांईं-बाप होते हैं लेकिन अन्य महत्वपूर्ण घटकों की उपेक्षा करना क्या सन्देश देता है । अखबार के वे लेखक क्यों नहीं थे जश्न में जिन्हें पढ़ने के लिए पाठक अखबार खरीदता है । वे संपादक, पत्रकार और कालमिस्ट भी नजर में नहीं आए जिनसे अखबार इतना लोकप्रिय हो सका ! प्रायः हर अखबार में लिखने वाले स्थायी होते हैं भले ही वे उसमें नौकरी नहीं करते हों । वे पाठकों की पसंद होते हैं और अखबार की प्रतिष्ठा भी बढ़ाते हैं । लेकिन जब जश्न मनाना हो , सफलता प्रदर्षित करना हो तो इन्हें अनदेखा करने की प्रवृत्ति आम है । पाठकों से मालिक क्या अपनी यह कृपणता अधिक दिनों तक छुपा पाएंगे ?
सफलता का यह जश्न एक बड़े होटल में अयोजित था । दूसरे दिन बड़े बड़े फोटो तीन पेज में लगा कर पाठकों को इसकी जानकारी दी गई । अतिथियों में सारे लोग विज्ञापनदाता थे । यही नहीं हरएक फोटो के नीचे लिखा हुआ था कि ये साहब फलां कंपनी के हमारे विज्ञापनदाता हैं । कई विज्ञापन एजेन्सियों के विकास पुरुष महामहिम की सी मुद्रा में दिखाए गए थे । अखबार का सारा कुछ विज्ञापन के आसपास का था और उनके बीच अखबार के प्रतिनिधि पुलकित और बिछे जा रहे दिख पड़ रहे थे ।
सवाल यह है कि जब एक अखबार अपनी सफलता का जश्न मनाता है तो पाठकों को क्या यह सन्देश देना भी जरूरी है कि उनके लिए केवल विज्ञापनदाता ही सबकुछ हैं ! अखबार में विज्ञापन ही होते हैं क्या ! क्या वे जानते हैं कि ज्यादातर लोग पूरे पृष्ठ पर छपे विज्ञापन को देख कर कुपित होते हैं और प्रायः बिना पढ़े उसे पलट देते हैं । जैसे कि टीवी पर विज्ञापन आते ही नब्बे प्रतिशत लोग म्यूट कर देते हैं । माना कि अखबार चलाने वालों के लिए विज्ञापनदाता मांईं-बाप होते हैं लेकिन अन्य महत्वपूर्ण घटकों की उपेक्षा करना क्या सन्देश देता है । अखबार के वे लेखक क्यों नहीं थे जश्न में जिन्हें पढ़ने के लिए पाठक अखबार खरीदता है । वे संपादक, पत्रकार और कालमिस्ट भी नजर में नहीं आए जिनसे अखबार इतना लोकप्रिय हो सका ! प्रायः हर अखबार में लिखने वाले स्थायी होते हैं भले ही वे उसमें नौकरी नहीं करते हों । वे पाठकों की पसंद होते हैं और अखबार की प्रतिष्ठा भी बढ़ाते हैं । लेकिन जब जश्न मनाना हो , सफलता प्रदर्षित करना हो तो इन्हें अनदेखा करने की प्रवृत्ति आम है । पाठकों से मालिक क्या अपनी यह कृपणता अधिक दिनों तक छुपा पाएंगे ?
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