आलेख
जवाहर चौधरी
केन्द्र सरकार की चिंता यदि यह है कि राष्ट्र्भाषा हिन्दी को क्लिष्ट और लगभग अव्यवहारिक अनुवादों से बाहर निकाल कर सरल व सुबोध बनाया जाए, तो हाल ही में राजभाषा विभाग द्वारा प्रशासनिक विभागों को जारी किए गए उसके परिपत्र का स्वागत किया जाना चाहिए । कोई भी भाषा जनस्वीकृति और लोकव्यवहार से विकसित और समृद्ध होती है । किसी जमाने में संस्कृतियां स्थानीय होती थीं । भारत में तो कहा ही जाता था कि ‘चार कोस में बदले पानी और आठ कोस में बानी’ । यातायात और संचार साधनों के विकास से संस्कृतिक आदान-प्रदान सुगम होता है, और शब्दों का लेन-देन निर्बाध । जिन देशों में विदेशी ताकतों का शासन रहा हो वहां सत्ता पक्ष का की भाषा के शब्द तेजी से फैल कर स्थानीय भाषाओं में और लोकव्यवहार में अपनी जगह बना लेते हैं । यह स्वाभाविक प्रक्रिया है । यही कारण है कि हिन्दी में अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी के शब्द स्वीकृत हैं । शासकीय कामकाज के स्तर पर अनुवादक जिस हिन्दी का प्रयोग करते हैं वो प्रायः जटिल और हास्यास्पद हो जाती है । हिन्दी सरल इसलिए भी है कि इसमें भारत की अनेक भाषाओं, बोलियों के शब्द सम्मिलित हैं । इसलिए मराठी, पंजाबी, बंगला , उर्दू तमिल, तेलुगू आदि बोलने वालों को भी बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के हिन्दी में अपनेपन के अंश मिल जाते हैं । भाषा का यही गुण उसे समृद्ध और दीर्घजीवी बनाता है ।
कुछ शुद्धतावादी भाषा-चिंताकारों को लगता है कि अंग्रेजी के शब्द को शामिल करने की सरकारी इजाजत से भाषा मर जाएगी या हिन्दी कुछ दिनों में हिंग्लिश हो जाएगी । वे मानते हैं कि किसी यह अन्तराष्ट्रीय षड़यंत्र के तहत हो रहा है । माना कि ऐसा हो रहा है तो क्या हम किसी समुदाय को उसके भाषा प्रचार या विकास से रोक लेंगे ? किसी भाषा के विस्तार में कई चीजें काम करती हैं, जिसमें भाषा का अपना आभामंडल बहुत प्रभावी होता है । सरकार ने कहीं आदेश नहीं निकाला है कि हम अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाएं । बल्कि विशेषज्ञों की राय तो यही है कि प्रथमिक शिक्षा मातृभाषा में दी जाना चाहिए । लेकिन हो क्या रहा है ? हिन्दी स्कूल सरकारी हैं और लगभग खाली पड़े हैं । निजी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम है और जगह नहीं है । हमारे अंग्रेजी आतंक के कारण गली गली में अंग्रेजी माध्यम की दुकानें चल रही हैं ! पिछले छः दशकों से लगातार अंग्रेजी के शब्द लोकव्यवहार में आ रहे हैं । यह एक कड़वा सच है कि देश अपनी अगली पीढ़ी इंग्लिश मीडियम स्कूलों में गढ़ रहा है । खुद भाषा के चिंताकारों में आत्मविश्वास नहीं है कि इनमें से अधिकांश अपने बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़वा रहे हैं । माना कि शिक्षा और करियर की विवशता के चलते उन्हें ऐसा करना पड़ रहा है लेकिन दैनिक व्यवहार में अंग्रेजी के आग्रह की प्रवृत्ति किस मंशा से पाले हुए हैं वे !? इंग्लिश मीडियम स्कूल के एक अध्यापक ने बताया कि स्कूल परिसर में हिन्दी बोलने पर प्रतिबंध और दंड के प्रावधान से डर था कि पालक इसका विरोध करेंगे । किन्तु आश्चर्य कि इसी वजह से उनका स्कूल प्राथमिकता में आ गया ! जब कोई कौम अपनी भाषा को लकर खुद सचेत नहीं है और उसमें पल रहे भाषा-चिंताकार भी नकली हों तो अन्य चीजों की भांति भाषा भी भगवान भरोसे ही रहेगी । भाषा के जरिए विशेष हो जाने की मंशा को अधिक दिनों तक छुपाना संभव नहीं दिखता है ।
केवल स्कूलों की बात ही नहीं है, पत्र-पत्रिकाओं और किताबों की ओर देखें । 60 करोड़ हिन्दी जानने वालों के देष में हिन्दी की किताबों के संस्करण एक हजार प्रतियों से कम के हो रहे हैं । कहने को षिक्षा का प्रतिषत बढ़ा है लेकिन हिन्दी के पाठक कहां हैं ? मात्र दो प्रतिशत अंग्रेजी जानने वालों के बीच अंग्रेजी की किताबें लाखों की संख्या में बिक जाती हैं !
क्यों नहीं समस्या की जड़ की ओर ध्यान दिया जाता है । स्कूलों से संवाद हो और हिन्दी के प्रति उनके नजरिए को बदलने का प्रयास किया जाए । भले ही पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी हो लेकिन हिन्दी को असफलता से जोड़ कर देखने-दिखाने की प्रवृत्ति पर रोक लगे । स्कूल की तमाम दूसरी गतिविधियां हिन्दी में संचालित हों और बच्चों को अपनी राष्ट्र्भाषा के निकट आने में मदद की जाए । देश हर एक को अपनी बात कहने का अधिकार देता है लेकिन राष्ट्र्भाषा को अपमानित करने की इजाजत तो किसी को नहीं होना चाहिए । प्रथमिक स्तर की शिक्षा के लिए पचास हजार से एक लाख रुपए तक की फीस वसूलने वाले स्कूलों को सरकारी अनुदान की जरूरत भले ही न हो पर उन्हें शासकीय आदेश तो मानने ही होंगे ।
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आपकी पीडा वाजिब है। व्यवहारिक सुझाव युक्त उपयोगी आलेख के लिये आभार।
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