Saturday, June 2, 2012

एक छोटा सा स्क्रेच और सब खत्म !


आलेख 
जवाहर चौधरी 

इनदिनों आत्महत्या की घटनाओं में एक उछाल सा आया है । स्वयं को समाप्त कर देने वालों में युवाओं की संख्या चौकाने वाली है । पिछले एक माह में हुई आत्महत्याओं में केन्सर जैसी बीमारी से पीड़ित युवाओं के अलावा परीक्षा में असफल, कर्ज से परेशां , प्रेम में विफल, पारिवारिक तनाव जैसे कारण ज्यादा सामने आए हैं । यह चिंता का विषय है कि नौजवानों में जीवन के प्रति उतना आकर्षण नहीं है जितना पैकेज के लिए है । जबकि ये समय उत्साह, उमंग, आशा से भरा होना चाहिए । सोचता हूं कि एक युवा आत्महत्या के वक्त किस मानसिक स्थिति में होता है ! निसंदेह निराशा के चरम पर । किन्तु इस स्थिति का कारण क्या है ? गरीबी, पारिवारिक तनाव और तमाम तरह की असफलताएं हर काल में रहीं हैं , लेकिन आत्महत्याएं अब अधिक क्यों ? कहीं ऐसा तो हमने जीवन में हर चीज, हर वस्तु या रिश्ते की उपयोगिता एवं महत्व को समझने में चूक कर दी है । हर चीज को ‘यूज एण्ड थ्रो’ की तरह देखे जाने की आदत हमारी सोच में पसर गई है । मैंने बचपन में देखा है कि प्रायः हर घर में स्त्रियां फटी-पुरानी साड़ियों को तहा कर गोदड़ी बना लेतीं थीं जो बीस बीस साल तक काम आती थीं । पुरुषों के पुराने पतलून से बैग और थैलियां बना ली जातीं थी । हम अपनी पिछली कक्षा की कापियां के खाली पन्ने निकाल कर जिल्द से नई कापियां बनाते थे । कोई भी चीज इतनी बेकार नहीं होती थी कि उसे नई शक्ल नहीं दी जा सके । पशुओं के गोबर से उपले बनाए जाते थे, भोजन पकाने के बाद उसकी राख को हाथ धोने, बर्तन साफ करने और खेत में कीट नाशक के रूप में काम में लिया जाता था । हर कोई जानता था कि हर चीज हर हाल में कुछ उपयोगिता रखती है । समाज व्यवस्था ऐसी थी कि खुद आदमी हर अवस्था में उपयोगी था . तो फिर आज जीवन इतना निरुपयोगी क्यों !? यह देख कर आश्चर्य होता है कि शापिंग आज एक शौक है ! टाइमपास या तनाव कम करने का एक साधन ! कोई सामान इसलिए खरीदा जा रहा है कि खरीदने की खप्त है ! इसलिए नहीं कि उसकी जरूरत है या उसमें हमारी कोई आवश्यकता की पूर्ति हो रही है । खरीद कर लाए और पटक दिया । एक दिन सफाई के दौरान घर से बाहर । कपड़े , गाड़ियां इसलिए बेकार हुए कि फैशन बदल गया । मन नहीं है , या भर गया है तो जूते, चश्मा , ‘रिलेशन ’ को ठोकर मार दी । एक छोटा सा ‘स्क्रेच’ किसी भी चीज को मूल्यहीन कर देता है ! जब हम बहुत सी चीजों को इसी नजरिए से देखने लगते हैं तो जीवन के लिए दृष्टि कहां से लाएंगे ? हमारे समय में बच्चे जानते थे कि चौरासी लाख योनियों के बाद मनुष्य जीवन नसीब हुआ है सो बहुत कीमती है । जीवन कर्म करने के लिए है, फल के बारे में चिंतित होने के लिए नहीं । यदि कहीं कोई दुःख या अभाव है तो वह भाग्य है , कर्मफल या ईश्वर द्वारा ली जा रही परीक्षा है । आत्महत्या घोर पाप है । लेकिन आज इस तरह के विश्वास कहीं खो गए हैं । रिश्ते -नाते सिर्फ औपचारिकता हैं या फिर विवशता । तकलीफ में पड़ा व्यक्ति अपने भाई से दूर और अकेला क्यों है ? ! रिश्ते रेडियो सिलोन की तरह हैं , जिसके सिगनल बार बार गायब हो जाते हैं ! नौजवानों तुम्हारे पीछे एक परिवार है जिसने दशकों तक सिर्फ तुम्हारा सपना देखा है । तुम्हारे जाने के बाद मां-बाप की सांसे चलतीं हैं लेकिन क्या वे जिंदा भी रहते हैं ? तुम्हारा जीवन सिर्फ तुम्हारा नहीं है बच्चों ।

3 comments:

  1. बहुत प्रभावी आलेख। अच्छा हो युवाओं की संवेदनाओं को कुरेदने मे सफल हो। बशर्ते वे कुछ समझना चाहें। बहरहाल हम आप तो केवल इतनाभर कर ही सकते हैं।

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  2. नाते-रिश्तेदार विरासत में मिलते हैं।

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  3. विरासत तो और भी बड़ी होती है जगदीश्वर जी ।
    बच्चे जब चले जाते हैं तो माता- पिता सिर्फ जिन्दा लाश होते हैं ।

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