आलेख
जवाहर चौधरी
जाति समूह में बंटे हम लोग बेहद
परंपरावादी और लगभग अहंकारी दिखाई देते रहे हैं। कहने को शिक्षा बढ़ी है, स्त्रीशिक्षा के आंकड़े भी बुलंद हुए हैं,
किन्तु जब रूढ़ियों और अर्थहीन परंपराओं
की बात आती है तो शिक्षित भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते दिखाई देते हैं। पिछले दिनों उ.प्र. और म.प्र. की इन खबरों ने
ध्यान आकर्षित किया जब दबंगों ने फरमान जारी किया कि दलितों के विवाह पर बारात
घोड़े पर दुल्हे को बैठा कर नहीं निकली जायेगी । उस समय तनाव पैदा हो गया जब बारात
निकाली गई । अप्रिय स्थिति को टालने के लिए पुलिस, प्रशासन और नेताओं को भारी प्रयास करने पड़े।
इधर शहरों में घोड़ियां दबंगों की रिश्ते
में कुछ नहीं लगती हैं किन्तु हाल बुरे हैं, और अक्सर लोग बारातों से त्रस्त होते
दिखाई देते है। अक्सर लोग मानते हैं कि विवाह में बारात अनिवार्य है, जबकि ऐसा कतई नहीं हैं। हिन्दू विवाह सोलह
संस्कारों में से एक महत्वपूर्ण संस्कार है और इसे संपन्न करने के लिए धार्मिक
विधि-विधान हैं। सप्तपदी या अग्नि के सात फेरों का ही वास्तविक महत्व है। वर-वधु
की विवाह योग्य आयु, उनका
स्वस्थ्य और सहमति जरुरी है । उनके अभिभावकों की सहमति ‘कन्यादान’ की रस्म में नीहित है । सगे-संबंधी और इष्टमित्रों की उपस्थिति के पीछे भी
सहमति-स्वीकृति और सूचना का भाव है। किन्तु विवाह में बारात का प्रावधान एक ऐच्छिक,
दंभयुक्त, संवेदनहीन-आनंदमूलक और पारंपरिक आचरण है। दूल्हे को
राजा के कार्टून जैसा बना कर गाजे-बाजे के साथ जुलूस के रूप में परदर्शित करना एक
तरह से अहं की तुष्टि इसलिए है कि इसमें इस अवसर पर हर तरह की शक्ति के प्रदर्शन का आग्रह विशेष होता है। सूट-टाईवान दूल्हे के हाथ में तलवार तो
होती ही है, बाराती भी बंदूक
दागते चलते हैं। गोयाकि वरण करने नहीं हरण करने जा रहे हों। पिछले कुछ समय से
बारात में नाचने को लेकर भी गजब का अनुराग दिखाई देने लगा है। नाचने को लेकर बारात
में हत्या की अनेक घटनाएं हुई हैं। बीच सड़क में जब दोनों ओर ट्रेफिक जाम हो रहा है,
परेशान लोग गालियां बुदबुदा रहे हैं,
हार्न का शोर बैंड के शोर से
प्रतिस्पर्धा करता कान फाड़ रहा है, पेट्रोल-डीजल
और पटाखों का धुआं नाक में दम कर रहा है और बेखबर भाई लोग प्रेत-नृत्य के साथ
मद-मस्त हैं! .... आज मेरे यार की शादी है ..... नजारों में एक तरफ जेवरों से लदी-फंदी
खुली ‘तिजोरियां’ चल रही हैं तो दूसरी ओर लाइट उठाए नंगे पैर,
फटेहाल, भूखे बच्चे भी बारात का जरूरी हिस्सा हैं।
बड़ी मुश्किल से कुछ दूर चले होंगे कि
बारात के स्वागत की ‘व्यवस्था’
है, आइस्क्रीम-नाश्ता आदि का अव्यवस्थित वितरण-भक्षण के
बाद बारात आगे रेंग जाती हैं। पीछे सड़क पर कप-प्लेट बिछी पड़ी दिखाई देती हैं। मन
तब अपराध बोध से भर उठता है जब तमाम भिखारी अधखाए कप-प्लेट उठा कर चाटने लगते हैं।
हममें से अनेक इस फूहड़ता को देखते हैं, नाराजगी भी व्यक्त करते हैं किन्तु मौका आने पर इसका हिस्सा भी बनना पड़ता
है। सड़क पर चलता वाहन खराबी के कारण जरा देर के लिए बीच सड़क पर रुकता है तो पीछे
वाहनों की लंबी कतार लग जाती है, ऐसे
में बारात हो और ‘मेरे यार की शादी
....’ की धमक चल रही हो तो ट्रेफिक
में फंसे लोग कितनी दुआ देते होगें समझा जा सकता है।
किन्तु अच्छी बात ये है कि इस स्थिति को
कुछ लोग महसूस कर रहे हैं और बारात की भीड़ का हिस्सा नहीं बन रहे हैं। आज लोगों के
पास समय कीमती है और शरीर भी। महानगरों में तो बारात निकालने की मनाही है, बाराती उपलब्ध नहीं होते हैं सो परंपरा भी
ढ़ीली हो गई है। फिर भी किसी को शेखी बघारना ही हो तो उसे बाराती किराए पर लेने
पड़ते हैं।
अब अनेक विवेकशील परिवार उक्त दिक्क्तों
के चलते बारात नहीं निकाल रहे हैं। उनके इस निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए।
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सही है
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