Sunday, May 15, 2022

समय की नब्ज़ पकड़कर चलता एक व्यंग्य संग्रह


 समीक्षा आलेख : 

व्यंग्य संग्रह : गाँधीजी की लाठी में कोपलें 
लेखक : जवाहर चौधरी 
प्रकाशक : अद्विक पब्लिकेशन प्रा॰ लि॰ दिल्ली 
मूल्य : 160/- 
समीक्षक : शैलेन्द्र शरण 

"समय की नब्ज़ पकड़कर चलता 
एक व्यंग्य संग्रह"


प्रेमचंदजी साहित्य के  उद्देश्य के संबंध में कहते हैं कि - “निस्संदेह काव्य और  साहित्य का उद्देश्य  हमारी अनुभूतियों की तीव्रता बढ़ाना है, पर मनुष्य का जीवन केवल स्त्री-पुरुष प्रेम का जीवन नहीं है । साहित्य उसी रचना को कहेंगे,  जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और सुंदर हो तथा जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो।
साहित्य की विधा कोई भी हो वह साहित्य तभी होगी जब वह हमारी अनुभूतियों की तीव्रता को बढ़ाती हो, दिल और दिमाग पर असर डालती हो । जवाहर चौधरी जी का व्यंग्य संग्रह "गांधीजी की लाठी में कोंपलें" पढ़ते हुये प्रेमचंद जी के यही शब्द याद आ गए । जवाहर चौधरी जी के व्यंग्य इस कसौटी पर खरे उतरते हैं । उनके व्यंग्य उद्वेलित करते हैं, अनुभूतियों को कुरेदते हैं तथा मन और मस्तिष्क में हलचल सी पैदा करते हैं । 
उनकी एक रेखांकित करने वाली योग्यता यह है कि उनके व्यंग्य बमुश्किल देड़ से दो पृष्ठों से बड़े नहीं होते किन्तु इतने मजबूत होते हैं कि इससे अधिक कहने की उन्हें आवश्यकता ही महसूस नहीं होती और न पाठक को यह अवसर मिल पाता है कि वह कह सके कि इस विषय का अमुक पक्ष छूट गया । विषय चयन के बाद आरंभ करने के लिए उन्हें बस एक पंक्ति के सहारे की जरूरत होती है उसके बाद पंक्ति-दर-पंक्ति जो वे कहते हैं वह किसी चमत्कार की तरह हमें विस्मित करती चलती है । पूरे व्यंग्य को छोटी-छोटी की पंक्तियों में लिखते हुये वे सच इस तरह कहते चले जाते हैं जैसे बात-चीत कर रहे हों । प्रत्येक दूसरी पंक्ति में निहित, ऐसे कटाक्ष बमुश्किल ही अन्य कहीं देखने को मिलते हैं । ये पंक्तियाँ सूत्र वाक्य की तरह होती हैं । याद रह जाती हैं जैसे :
"निर्णय लिया कि नहीं खाएँगे दलित के घर, लेकिन पता नहीं कैसे-कैसे गाँधीछाप विचार आते रहे । "
"राजनीति में भरोसा गले में बंधा ताबीज़ होता है "
"आप आज़ाद हैं, इस बात का अनुभव करने का सबसे अच्छा तरीका ये हैं की मुँह बंद रखिए । बोलिए मत । बोले की अनुभव खत्म । "
"करते करते बैल भी सीख जाता हैं ।"
"समय के साथ शक्ल इतनी बदल जाती है कि आदमी खुद अपने आप से परायापन महसूस करने लगता है । " 
"तू चेनलवालों से जायदा अक्कलवाली हो गई है क्या ।"
"धार्मिक विद्वानों ने कहा है कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है और लोगों ने इस झूठ को श्रद्धापूर्वक पचा लिया । इसी को राष्ट्रप्रेम कहते हैं । " 
"राजनीति कुर्सी के पाये से बंधी कुतिया है । जिसे बैठना हो उसे कुतिया की पीठ सहलाना ही पड़ती है । " 
ऐसे उदाहरण जवाहर चौधरी जी के प्रत्येक व्यंग्य में बहुतायत से पढ़ने को मिलते हैं । 
लेखक मनोभावों को भी व्यंग्य में बड़ी कुशलता से व्यक्त करते हैं । "रॉयल्टी !  ये क्या होता हैं ?" शीर्षक व्यंग्य में इसका सटीक उदाहरण देखने को मिलता है । 
"रॉयल्टी! ये क्या होता है ?" प्रकाशक ने पाण्डुलिपि पर रखे पेपरवेट को उठाकर किनारे किया। "
उनके व्यंग्य के कंटैंट हमेरे मन-मस्तिष्क को आलोकित करते चलते हैं और मुखमंडल को प्रफुल्लित, जैसे हमें जो बात कहनी थी वह बात लेखन ने सटीक उसी तरह कह दी हो । उनके व्यंग्य के विषय विविध हैं । लगभग सभी विषयों पर उनकी कलम चली है और खूब चली है । 
इस संग्रह के पहले ही व्यंग्य "नए अंधों का हाथी" की आरंभिक पंक्तियाँ बेहद सशक्त और निर्भीक हैं वे लिखते हैं " अंधे वे भी होते हैं जिनकी आँखें होती हैं । जैसे खोपड़ी होने का यह मतलब नहीं कि आदमी में दिमाग भी होगा । कहते हैं अनुभव से आदमी सीखता है । अंधे स्पर्श से अनुभव करते हैं ।... अब हाथी देखने को नहीं मिलते हैं । सुना है राजनीति में आ गए हैं । राजनीति में सारे हाथी नहीं होते हैं ; घोड़े, गधे, लोमड़, सियार ही नहीं मेंढक भी होते हैं । राजनीति अगर ठीक से खेली जाये तो मेंढक ही आगे चलकर हाथी हो जाता है ।"  उनकी दृष्टि में राजनीति खेल की तरह है जिसमें मेंढक भी वक़्त पड़ने पर कमाल दिखा सकता है । यह व्यंग्य वर्तमान राजनीति की पड़ताल भी करता है और राजनीतिक विदुपताओं पर उंगली उठाने से नहीं चूकता, न ही किसी तरह का संकोच करता है । जबकि ऐसी निडरता से अधिकतर लेखक बचते नज़र आते हैं । ऐसी निर्भीक अभिव्यक्ति में जोखिम होता है किन्तु जवाहर जी उठाते हैं और सच कहने से गुरेज नहीं करते । वे इस जोखिम से वाकिफ भी हैं इसलिए किताब की छोटी सी भूमिका में कह देते हैं कि " अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर पहरे बहुत हैं लेकिन व्यंग्य प्रायः पकड़ से बाहर रहता है, जब तक कि कोई हाथ धोकर ही पीछे न पड़ा हो । जवाहर चौधरी जी विनम्र भी हैं वरिष्ठ, अनुभवी और स्थापित व्यंग्यकार होकर भी बड़ी विनम्रता से कहते हैं । " हिन्दी में बड़े-बड़े व्यंग्य लेखक सक्रिय हैं ; मध्यप्रदेश तो व्यंग्य का गढ़ ही है । इनके बीच 'जवाहर चौधरी' नाम तो बहुत छोटा है । " फलदार पेड़ की तरह है उनकी यह विनम्रता । 
उनका यह संग्रह कोविड काल की उपज है । यह एक ऐसा समय था जब दुनिया भय और अनिश्चितता से भरी हुई थी । घर के सदस्य कोविड नियमों का पालन करते हुये 'घर में ही एक दूसरे से दूरी बनाए हुये थे । जवाहर भाई इस विषय में लिखते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से बहुत उथल-पुथल सी मची रही मन में । सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक वातावरण विचलित करने वाला बना रहा । कुछ ऐसा घट रहा था जो मंजूर नहीं था लेकिन हो रहा था ।... कितने ही संबंधी, मित्र, परिचित कोविड की भेंट चढ़ गए । जो साथ उठते-बैठते रहे, उनके अंतिम दर्शन तक संभव नहीं हुये । अखबारों और सोशल मीडिया में असंख्य जलती चिताओं को देखकर दिल डूबने लगता है । हर पल संशय, पता नहीं कौन, कब चला जाये । एक छींक से घर का कोना-कोना सहम जाये । जिंदगी जैसे खिड़की पर बैठी गौरैया है, जरा॥ आहट से फुर्र हो जाएगी । लोग इतना डर गए कि हवाओं से भी उन्हें खतरा महसूस होने लगा । यह संवेदना, यह करुणा जवाहर जी के व्यंग्यों में भी यत्र-तत्र उभरकर अलग से दिखाई पड़ती है । सिर्फ कविता ही करुणा से नहीं उपजी, लेखन की प्रत्येक विधा का आवश्यक तत्व है करुणा । 
उनके व्यंग्य की अंतिम पंक्ति किसी व्यङ्गोक्ति की तरह होती है जो हमें विचारों में जकड़ लेती है । इस स्थान पर वे अधिकतम श्रम करते प्रतीत होते हैं क्योंकि यह विशेषता उनके प्रत्येक व्यंग्य में परिलक्षित होती है । शीर्षक व्यंग्य 'गांधीजी की लाठी में कोपलें' के अंत का उदाहरण देखें :
"इधर देर से चुप बैठी चौधरानी बोल पड़ी, "पीपल जब मुंडेर पर उग सकता है तो गांधीजी की लाठी पे क्यूँ नहीं ! चौधरी ने घुड़क दिया, ओए चुप कर... । तू चेनलवालों से ज्यादा अक्कलवाली हो गई है क्या !  
गांधीजी की लाठी पर निकल आई कोपलों को लेकर मीडिया के घमासान को जवाहर जी इस व्यंग्य में बड़े प्रेम से घेरते हैं और जनसामान्य के भीतर जो बातें चल रही होती हैं, वह सब कह देते हैं ।
जवाहर चौधरी जी ने व्यंग्य का जो शिल्प गढ़ा है उसमें वे अलग से पहचाने जा सकते हैं । उनकी भाषा भी उनके नाम की ओर संकेत कर देती है । कम लिखकर अधिक कह जाने की यह कला सबके पास नहीं होती । कोई भी लेखक विषय पर आने के बाद उसे तराशता है, इस तराशने और अपनी बात के समर्थन में दो चार वाक्य अधिक लिख ही देता है । जबकि जवाहर जी के साथ ऐसा नहीं है । वे छोटे-छोटे वाक्यों से लेख को बांधते हैं और विषय से कतई नहीं दूर नहीं होते । समालोच्य किताब में ऐसा कोई भी व्यंग्य ऐसा नहीं है जो महत्वपूर्ण न हो । जिसे पढ़ा जाने से टाला जा सके । भाषा पर उनकी मजबूत पकड़ है, इसी भाषा से वे समाज की विषमताओं की नब्ज़ पकड़ते चलते हैं यहाँ तक कि वे पाठक की नब्ज़ पर भी बराबरी से पकड़ बनाए रखते हैं । समान्य और असामान्य विषयों पर छोटे-छोटे यह व्यंग्य अत्यधिक  कसावट लिए हुये तो हैं ही, साथ ही इनकी मारक क्षमता इन्हें पढ़कर ही महसूस की जाना चाहिए ।  
                   


  






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1 comment:

  1. समीक्षा को गरिमा प्रदान करने हेतु हार्दिक आभार

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