Sunday, May 15, 2022

धापू पनाला में मंडलेकर : व्यंग्य चुपके चुपके जैसे कि प्रेम

 



समीक्षा 

जवाहर चौधरी



कैलाश मंडलेकर हिंदी व्यंग्य का एक महत्वपूर्ण नाम है . वे केवल लगातार नहीं लगातार अच्छा लिख रहे हैं . सद्य प्रकाशित ‘धापू पनाला’ उनका छठा व्यंग्य संग्रह है . धापू पनाला का अर्थ जानने की चेष्टा करेंगे तो निराश हो सकते हैं, दरअसल ये रचना में उल्लेखित एक गाँव का नाम है . पुस्तक में कुल बयालीस रचनाएँ हैं . जिनमे से अधिकांश व्यवस्था, जिसे सिस्टम कहने पर लोग जल्दी समझते हैं, और आम मानवीय चरित्र को ले कर रची गयी हैं . कैलाश जी की शैली इस तरह की है कब वे व्यंग्य करते, गुदगुदाते आगे निकल जाते हैं पता नहीं चलता . जैसे कोई नर्स बच्चे को चिड़िया दिखाते हुए इंजेक्शन लगा देती है और बच्चा समझ ही नहीं पता है कि रोऊँ या हँसू . सरलता से जटिल को कह जाना या जटिल को सरलता से कहना बहुत कठिन है जो यहाँ देखा जा सकता है . 

किताब को समझने के लिए किताब से ही कुछ लेना होगा . यों हर रचना में पंच हैं लेकिन कुछ उदाहरण बात को समझने के लिए . ‘चिंटू भैया के मध्य से व्यवस्था पर तंज देखें . – “चिंटू भैया होर्डिंग में हँसते हुए दिखाई दे रहे हैं. उनकी हँसी यह साबित कर रही है कि वे किसी भी बात पर या बिना किसी बात के भी हँस सकते हैं .सारा देश उनके लिये लाफ्टर क्लब जैसा है . इस देश में रह कर यदि कोई हँस नहीं रहा है तो या तो वह मूर्ख है या फिर डिप्रेशन का मरीज .” डेढ़ जीबी डाटा खा कर खाली बैठा बेरोजगार व्यंग्यकार के थाने  में अपनी एफआईआर लिखवाता नजर आता है, -“ अजीब विडम्बना है . कालेज के सामने खड़े हो तो पुलिस पकड़ती है . रेलवे प्लेटफार्म पर जाएँ तो जीआरपी तंग करती है . रात में बस स्टेंड पर वाचमेन धमकता है . बाज़ार में खड़े हो तो दुकानदार को शक होता है, छत पर जाएँ तो माँ बाप सवाल पूछते हैं . .... होस्टलों के दरवाजे उनके लिए बंद हैं वे कहाँ जा कर खड़े हों ? रात में खुद के घर में भी चोरों की तरह घुसते हैं .... माई बाप आप हमें बताओ हम किन दरवाजों पर दस्तक दें ?!” आज युवाओं की यही हालत है . उन्हें दिशा नहीं मिल रही है . वह पूरी तैयारी से लगेज ले कर खड़ा है जिस भी गाड़ी में जगह मिल जाएगी चढ़ जायेगा . फुरसतिया प्रेम के जोखिम भी खूब हैं, ‘जिस गली में तेरा घर न हो बलमा’ में वे बताते हैं – “यदि कोई देख नहीं रहा हो तो जूते खाने में किसी को ग्लानी नहीं होती है . पराये शहर में आदमी ख़ुशी खुशी पिट लेता है ... वह जब अपने शहर में आता है तो उसके चेहरे के हाव भाव से पता नहीं चलता कि अगला देहरादून में जूते खा कर आ रहा है .”    दूसरी रचना ‘चल चल रे नौजवान’ में कैलाश युवाओं की पीड़ा को विस्तार देते हैं , - “भाई साब बहुत कन्फ्यूजन है नौजवानों को . आगे आने के चक्कर में आइआइटी से एम टेक तक कर डाला बेचारों ने . बाद में एमबीए भी कर लिया . फिर जो जो कर सकते थे सब कर डाला . पढाई के पीछे जमीन बेच डाली, ऊपर से लोन भी ले फंसे बैंक से . अब हालत ये है कि सौ की वेकेंसी निकलती है तो लाखों पहुँच जाते हैं इंटरव्यू देने .” ये आज की त्रासद स्थिति है जिससे हर घर को गुजरना पड़ रहा है . 

दूसरी तरफ  जमीन के जादूगर हैं जो बिना कुछ अच्छा किये करोड़ों बना रहे हैं . ‘खेती को लाभ का घंधा बनाने वाले’ में इनका भी खुलासा है – “ सेठ जी मुस्कराते हुए खेत से बाहर  निकल गए . वे सोच रहे थे खेती को लाभ का धंधा बनाने के लिए जरुरी नहीं कि खेत में फसल ही उगाई जाये, खेत में कालोनी काट कर बंगले भी बनाये जा सकते हैं और करोड़ों कमाए जा सकते हैं .” बाज़ार की यह दुष्टता आज हर खेत भुगत रहा है . राजनीति समाज के हर कोने तक पहुँच गयी है, उसका असर सब पर होता है चाहे वह कितना ही गैर राजनितिक क्यों न हो . यही वजह है कि आज ज्यादातर व्यंग्य राजनीति पर होते हैं . व्यंग्य ‘बंगले के पीछे तेरी बेरी के नीचे’ एक सुन्दर रचना है . “बहुत झंझट है साहब मुख्यमंत्री बनाने में . ढाई-तीन साल तो बंगले के रेनोवेशन में ही लग जाते हैं . एक दफे आदमी विपक्ष से तालमेल बैठा सकता है पर ये वास्तु वालों और इंटीरियर वालों से निपटना मुश्किल है . पंडितजी ने कहा कि ग्रे कलर की टाइल्स आपकी राशी से मेल नहीं खाती है और स्विमिंग पूल भी इशान कोण पर हुआ तो सरे किये धरे पर पानी फिर जायेगा. जबकि इंटीरियर वाला स्विमिंग पूल को इंच भर भी खिसकने को राजी नहीं है ... गलत गठजोड़ होने पर न बंगला बचता है न कुर्सी .”  इसी तरह “गिरिजा बाबू की अंतिम यात्रा’ में उनके चेले की अमानवीयता उजागर होती है . नेता अपने उस्ताद के कारण ही बना है लकिन अब दूसरी पार्टी में होने से चाह कर भी उनके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होता है .   “गिरिजा बाबू उनके पिता तुल्य थे . राजनीति में रिश्तों का आकलन आसानी से नहीं किया जा सकता . यहाँ जो पिता तुल्य होता है वह कई बार पिता से भी बड़ा होता है . ... गिरिजा बाबू समझ गए कि उनका चेला पक्का लीडर बन चुका है . जो देश को भले ही डुबा दे पर खुद तैर कर निकल जायेगा .” कुछ संकेत समकालीन भी हैं –“इधर सब तरफ राष्ट्रीय भावना का बोलबाला है . आदमी पडौसी से भले ही जूतम पैजार कर ले पर राष्ट्र से झक मर कर प्रेम करता है . ... कचरा इकठ्ठा करने वाली गाड़ियों तक से राष्ट्र प्रेम के नगमें सुनाई देते हैं .”  देशभक्ति की परिभाषाएं बदल रही हैं . –“बार्डर पर लड़ते हुए गोली खाना ही देश भक्ति नहीं है . बैंक का घपला करके भी देश भक्त हुआ जा सकता है . शर्त बस इतनी है कि आप देश छोड़ कर मत जाइये . देश भक्ति का यह दुर्लभ नमूना है .” (चुप रहे तो दिल के दाग जलते हैं ) व्यंग्यकार का गुस्सा यहाँ समझा जा सकता है . 

कालोनी में अनेक दन्त  चिकित्सक अपना क्लिनिक खोले हैं . तमाम दांतों को गिनने के बाद बड़े भोले अंदाज में लेखक लिखता है “मैंने देखा है कि दांत दर्द के मामले में परिवार वाले ज्यादा मददगार साबित नहीं होते हैं . आप सौजन्तावश ऊपर की दाढ बताना चाहते हैं जहाँ दर्द हो रहा है, पर वे आपके मुंह में झांकने के बजाये बाहर सड़क पर मेंगनी कर रही बकरियों को देखना पसंद करते हैं”. कहने को ये सादे बोल हैं लेकिन घर में हप्ते भर का अबोला करने के लिए काफी हैं . इसी बात को अगली रचना ‘बिगड़ा हुआ कूलर और एक अदद ठेले वाले की तलाश’ में कुछ सफाई की तरह कहा है – “(कूलर का ) पंखा अपनी धुन में चलता रहता है और पम्प अपने तरीके से . दोनों में कोई गहरी अंतरंगता और तालमेल नहीं होता है . जैसे पति-पत्नी में नहीं होता है फिर भी गृहस्थी की गाड़ी चलती रहती है.”  स्कूल चाहे शहर के हों या गाँव के शिक्षकों की मानसिकता एक ही है . “बारिश के दिन ....” से बानगी है, –“ स्कूल में पढाई के आलावा सब कुछ होता था . शिक्षकगण संगीत के आयोजन के लिए प्रोत्साहित करते थे ताकि कुछ दिनों के लिए स्कूल की छुट्टी हो सके . संगीत का आयोजन जब चरमोत्कर्ष पर पहुँचता तब शिक्षक लोग ताड़ी पीने चले जाते थे . स्कूल का नाम दरअसल बहुउद्देशीय प्राथमिकशाला था . इस कारण उसका उपयोग अनेक उद्देश्यों के लिए किया जाता था .” बाज़ार व्यंग्यकार की नजर से अछूता नहीं है . “बाज़ार और व्यावसायिकता ने सारी पारंपरिक धरोहरों को सौदा सुलफ की वास्तु बना दिया है . यह नाली पर फर्शी रख कर इत्र की दुकान खोलने का दौर है . दुर्गन्ध से ऊर्जा पैदा करने की तकनीक खोजी जा रही है . सड़ांध का ऐसा महिमा मंडन पहले कभी नहीं हुआ .” (राष्ट्रिय त्योहारों का मौसम और दीनबंधु जी की उदासी ) 

संग्रह में अनेक रम्य रचनाएँ हैं जो पढ़ने का सुख ही नहीं देती हैं हमें अपना आसपास भी दिखाती हैं . शीर्षक रचना ‘धापू पनाला में बसंत की आगवानी’ पचपन वर्षीय मास्टर दयाराम में तमाम दुश्वारियों के बीच प्रेम के अंकुरित होने की कोमल कथा है . जीवन में अगर प्रेम हो तो आदमी के लिए कठिनाइयाँ कैसी भी हों कोई मायने नहीं रखती हैं . इसी तरह के जीवनोंपयोगी सन्देश और अनेक तुलसी के छंद भी पुस्तक को ऊंचाई प्रदान करते हैं . विश्वास है कि कैलाश मंडलेकर के पूर्व प्रकाशित व्यंग्य संग्रहों की तरह पाठक इसको भी पसंद करेंगे. हाल ही में मंडलेकर जी को मध्यप्रदेश का प्रतिष्ठापूर्ण ‘शरद जोशी सम्मान’ मिला है, उनकी व्यंग्य रचनाएँ इस सम्मान पर उनका हक़ साबित करती हैं . 


पुस्तक – धापू पनाला 

लेखक – कैलाश मंडलेकर 

प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सीहोर – मप्र 

प्रथम सांस्करण – २०२२ 

मूल्य – रु . २००/--


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