Wednesday, January 6, 2010

* हुन्डी और मुंडी के बीच कानून



आलेख 
जवाहर चौधरी 


कानून को देश की जीवनरेखा कहना शायद अतिष्योक्ति सा लगे किन्तु भारत जैसे देश में जहां कई धर्म, जातियां और समुदाय हैं तथा सामाजिक नियंत्रण बनाने और बनाए रखने के लिये उनकी निजी व्यवस्थाएं हैं तथा विशेष मौकों पर लोग कानून की अपेक्षा अपने रीति-रिवाज और परंपराओं को ही अधिक महत्व देते हैं, बावजूद इसके सबसे उपर हमारा संविधान ही है । कानून लोकतांत्रिक सरकार बनाती है, जाहिर है प्रायः हर कानून के पीछे परोक्ष रूप से जनता की सहमति होती है । कानून का पालन कर नागरिक देश, संविधान और सामूहिकता के प्रति अपनी निष्ठा भी व्यक्त करता है। लेकिन मूल मुद्दा यह है कि कानून की खुद उसके घर में क्या हालत है ! जिन्होंने देखा है वे जानते हैं कि प्रायः न्याय परिसरों में कानून के नाम की सुपारिया किस तादात में ली-दी जाती हैं ! यह भी लगता है कि कानून उस राजा की तरह है जिसे उसके महल में , उसके अपने लोगों ने कैद कर लिया हो और अक्सर जायज-नाजायज आदेशों पर वे राजा के जबरिया हस्ताक्षर ले लेते हों । आज कानून को लाचार सा बना देने वाले खुद कानूनकर्मी ही हैं । जिन पर संविधान की रक्षा का दायित्व है, जिन्हें कानून की आत्मा को अक्षत बनाए रखना है वे ही बगल में बैठ कर गिद्ध की तरह कानून को नोंच रहे हैं ! कानून का चीरहरण उनकी रोजी है ! न्यायलय परिसर में एक अलग ही दुनिया दिखाई देती है जहां ‘एक हाथ में मुंडी और दूसरे हाथ में हुंडी ’ को सफलता की इबारत समझा जाता है ! आज प्रायः हर कानूनकर्मी जानता है कि उसका मवक्किल किस तरह का और कितना अपराधी है । लेकिन ज्यादातर मामलों में उसे ‘बाइज्जत’ बरी कराने का प्रयास होता है, संविधान में गलियां ढूंढी जाती हैं । नहीं हों तो तर्कों-कुतर्को से नई गलियों के निर्माण की कोषिष होती है और संविधान को भविष्य के लिये भी विकलांगता दे दी जाती है । इस तरह जिनके हाथ में हुंडी होती है उन्हीं के दूसरे हाथ में कानून की मुंडी होती है ! ऐसे कानूनकर्मी बड़े और सफल माने जाते हैं जो सिद्ध अपराधी को निरपराधी सिद्ध कर दे । उसकी शिक्षा, उसका ज्ञान, अनुभव, कला , कौशल सब उसके इसी गलत काम से सम्मानित होते जाते हैं । यही कारण है कि ज्यादातर कानूनकर्मियों में संविधान के प्रति आदर का भाव नहीं होता और न ही ‘अपराधी भाइयों’ में उसके प्रति डर । बल्कि अनेक कारणों से अपराधीगण अब कानून और जेल के साए में अपने को अधिक सुरक्षित और सुविधाजनक समझते हैं । पिछले दिनों एक अंतर्राष्ट्र्ीय ‘भाई’ ने भारतीय कानून/पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण की पेशकश की थी । खबर के साथ यह भी लिखा था कि भाई ऐसा करके सुविधाजनक स्थिति में आ जाना चाहते हैं । क्योंकि पैसा फैंक कर वे अपने पक्ष में बड़े-बड़े कानून कर्मी खड़े कर सकते हैं । अनेक बड़े कानूनकर्मी एक साथ चिल्लाएंगे तो संविधान के कपड़े गीले होने में कितनी देर लगेगी ! रहा जेलों का सवाल तो ‘भाई’ और ‘भैया’ लोगों के लिये इनकी औकात किसी फार्म हाउस से ज्यादा नहीं है । कहा जाता है कि छोटे अपराधी पुलिस के आगे दुम हिलाते हैं और बड़े अपराधीगणों के सामने पुलिस । कानून का अंधा होना शायद लाजमी हो लेकिन उसका संवेदनहीन बने रहना उचित नहीं है । कानून पत्थर के भालेवाले द्वारपाल की तरह प्रतीत होते हैं जिन्हें दूर से देखने वाले बच्चों को डर लगता है लेकिन मूंछवाले उस पर तम्बाकू की पीक थूकते निकल जाते हैं । कानूनकर्मी संविधान की संतान हैं । क्या इन बेटों को चंद सिक्कों के लिये अपनी मां से सामंतों के सामने मुजरा करवाना चाहिये !?

* उपेक्षित न रहें लेखक


आलेख 
जवाहर चौधरी 


प्रख्यात साहित्यकारों की बीमारी और आर्थिक तंगी का समाचार लेखक समाज के लिये प्रायः चिंता का विषय बनते रहे हैं । पिछले दिनों श्री विष्णु प्रभाकर के अकेलेपन और अन्य कठिनाइयों का समाचार था । श्री अमरकांत , श्री त्रिलोचन भी ऐसी स्थितियों से गुजरे । हिन्दी के अनेक साहित्यकार इनदिनों आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं जिनकी खबर सामने नहीं आ पाई है । यह सब उस समय है जबकि हिन्दी का प्रकाशन व्यवसाय फलफूल रहा है । पुस्तक मेलों के आयोजन हो रहे हैं और उनमें लोगों की भीड़ उमड़ रही है , पुस्तकें बिक रही हैं , पत्र-पत्रिकाएं चल रहीं हैं , पढ़ने वाले बढ़े हैं लेकिन हिन्दी लेखकों की हालत खराब है । प्रकाशकों, पुस्तक विक्रेताओं के संगठन हैं , पत्र-पत्रिकाओं के भी संगठन हैं जो अपन हितों के लिये संवाद या संघर्ष करते हैं । उनकी आवाज है जो कहीं न कहीं उनके पक्ष में माहौल बनाती है लेकिन लेखकों का ऐसा कोई संगठन नहीं है । जलेस, प्रलेस जैसे कुछ संगठन हैं भी तो वे अपने मत/मक्सद के आगे बीन बजाने में व्यस्त रहते हैं । लेखक अक्सर इनमें इस्तेमाल हो कर गुम हो जाता हैं । स्थानीय स्तर पर कुछ ‘ वाह-वाह ’ नुमा संगठन होते हैं जो प्रायः रचनापाठ वाले आयोजनों के बाद अपनी थकान उतार कर दूसरे आयोजन की तैयारी में लग जाते हैं । स्वयं लेखकों में भी यह चिंता नहीं होती कि अपने अंतिम संघर्ष पूर्ण दिनों के लिये वे कुछ करें । जब तक सब ठीक चलता है वे चलाते रहते हैं । हालांकि यह भी सही है कि लेखक से दुनियादार होने की उम्मीद करना भी उचित नहीं है । यों भी श।यर , सिंह और सपूत लीक छोड़ कर चलने वाले होते हैं । लेखन हमारे यहां एक केरियर की तरह नहीं है । वैसे तो शो- बिजनेस में आर्डर पर गीत, कहानियां या संवाद लिखने वाले हैं किन्तु गंभीर और स्तरीय लेखन से बाजार अपनी पीठ फेर लेता है । प्रेमचंद , अमृतलाल नागर , हरिकृष्ण प्रेमी, रेणू आदि अनेक नाम याद आ सकते हैं जिन्हें फिल्मी दुनिया ने तब लौटा दिया जब वहां बहुत कुछ स्तरीय घटित हो रहा था । लेकिन अब लेखन ‘ पार्ट टाइम जाब ’ मान लिया गया है । हमारा समाज लेखन को काम मानता ही नहीं है । लेखक की कोई जरुरत हो सकती है , या वह भी इंसान है , उसे भी हवा-दवा कुछ चाहिये , यह सोच में नहीं आता है । कोई छाप कर कुछ दे दे उसका भला , नहीं दे तो उसका भी भला ! सोचने वाली बात यह है कि लेखकों ने इस स्थिति को कभी जोरदार तरीके से मुद्दा नहीं बनाया । चर्चाए अवश्य होती रही हैं । प्रकाशन से जुड़े लोग कागज , स्याही ,बिजली , ए-सी, आफिस , विक्रेताओं के कमीशन आदि सब का भुगतान करते हैं लेकिन लेखक को दिया जाने वाले पारिश्रमिक को सम्मानजनक नहीं बना पाते हैं ! लेखक और किसान की स्थिति आज लगभग एक समान है । फर्क केवल इतना है कि लेखकांे की संख्या लोकतंत्र में हस्तक्षेप करने लायक नहीं है । संख्याबल पर आधारित आज हमारे लोकतंत्र का जो स्वरूप है उसमें यह उम्मीद करना ज्यादती होगी कि लेखक अपनी रचनाओं से उसे प्रभावित कर लेंगे । लेखकों के सर्वाधिक हितैषी वामपंथी दल अनेक मुद्दों पर सरकार की नाक में काड़ी करते रहते हैं लेकिन साहित्यकारों के मामले में चुप्पी लगाए रखते हैं । कांग्रेस से उम्मीद रखी जाती है किन्तु वे एक ‘ घर ’ से बाहर निकलें तो उन्हें कुछ सूझे ! अन्य दल तो खुद ही राम भरोसे हैं !!जाहिर है हिन्दी लेखकों को स्वयं् ही मिल कर कुछ करना होगा । पहल करने पर एक प्रभावी संगठन का निर्माण किया जा सकता है जो लेखकों के अर्थिक मुद्दों पर केन्द्रित हो । यदि लेखक का योगदान साहित्य में है, उसकी आयु साठ वर्ष , या जो भी तय की जाए, से अधिक है और यदि वो नियमित मानदेय वाले पद या पीठ पर आसीन नहीं है तो उसे मासिक पेंशन उपलब्घ कराई जाना चाहिये । इसके लिये हमें यह बताना होगा कि साहित्य समाज और संस्कृति के लिये महत्वपूर्ण कर्म है । जब सांसदों, विधायकों, अधिकारियों आदि को पेंशन दी जा रही है तो लेखकों को क्यों नहीं !? केन्द्र या राज्य के बजट में इसका प्रावधान किया जाना चाहिये । यदि राज्य प्रतिवर्ष कुछ करोड़ रूपयों का एक कोष निर्मित करें तो यह कार्य आसानी से किया जा सकता है ।