
कानून को देश की जीवनरेखा कहना शायद अतिष्योक्ति सा लगे किन्तु भारत जैसे देश में जहां कई धर्म, जातियां और समुदाय हैं तथा सामाजिक नियंत्रण बनाने और बनाए रखने के लिये उनकी निजी व्यवस्थाएं हैं तथा विशेष मौकों पर लोग कानून की अपेक्षा अपने रीति-रिवाज और परंपराओं को ही अधिक महत्व देते हैं, बावजूद इसके सबसे उपर हमारा संविधान ही है । कानून लोकतांत्रिक सरकार बनाती है, जाहिर है प्रायः हर कानून के पीछे परोक्ष रूप से जनता की सहमति होती है । कानून का पालन कर नागरिक देश, संविधान और सामूहिकता के प्रति अपनी निष्ठा भी व्यक्त करता है। लेकिन मूल मुद्दा यह है कि कानून की खुद उसके घर में क्या हालत है ! जिन्होंने देखा है वे जानते हैं कि प्रायः न्याय परिसरों में कानून के नाम की सुपारिया किस तादात में ली-दी जाती हैं ! यह भी लगता है कि कानून उस राजा की तरह है जिसे उसके महल में , उसके अपने लोगों ने कैद कर लिया हो और अक्सर जायज-नाजायज आदेशों पर वे राजा के जबरिया हस्ताक्षर ले लेते हों । आज कानून को लाचार सा बना देने वाले खुद कानूनकर्मी ही हैं । जिन पर संविधान की रक्षा का दायित्व है, जिन्हें कानून की आत्मा को अक्षत बनाए रखना है वे ही बगल में बैठ कर गिद्ध की तरह कानून को नोंच रहे हैं ! कानून का चीरहरण उनकी रोजी है ! न्यायलय परिसर में एक अलग ही दुनिया दिखाई देती है जहां ‘एक हाथ में मुंडी और दूसरे हाथ में हुंडी ’ को सफलता की इबारत समझा जाता है ! आज प्रायः हर कानूनकर्मी जानता है कि उसका मवक्किल किस तरह का और कितना अपराधी है । लेकिन ज्यादातर मामलों में उसे ‘बाइज्जत’ बरी कराने का प्रयास होता है, संविधान में गलियां ढूंढी जाती हैं । नहीं हों तो तर्कों-कुतर्को से नई गलियों के निर्माण की कोषिष होती है और संविधान को भविष्य के लिये भी विकलांगता दे दी जाती है । इस तरह जिनके हाथ में हुंडी होती है उन्हीं के दूसरे हाथ में कानून की मुंडी होती है ! ऐसे कानूनकर्मी बड़े और सफल माने जाते हैं जो सिद्ध अपराधी को निरपराधी सिद्ध कर दे । उसकी शिक्षा, उसका ज्ञान, अनुभव, कला , कौशल सब उसके इसी गलत काम से सम्मानित होते जाते हैं । यही कारण है कि ज्यादातर कानूनकर्मियों में संविधान के प्रति आदर का भाव नहीं होता और न ही ‘अपराधी भाइयों’ में उसके प्रति डर । बल्कि अनेक कारणों से अपराधीगण अब कानून और जेल के साए में अपने को अधिक सुरक्षित और सुविधाजनक समझते हैं । पिछले दिनों एक अंतर्राष्ट्र्ीय ‘भाई’ ने भारतीय कानून/पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण की पेशकश की थी । खबर के साथ यह भी लिखा था कि भाई ऐसा करके सुविधाजनक स्थिति में आ जाना चाहते हैं । क्योंकि पैसा फैंक कर वे अपने पक्ष में बड़े-बड़े कानून कर्मी खड़े कर सकते हैं । अनेक बड़े कानूनकर्मी एक साथ चिल्लाएंगे तो संविधान के कपड़े गीले होने में कितनी देर लगेगी ! रहा जेलों का सवाल तो ‘भाई’ और ‘भैया’ लोगों के लिये इनकी औकात किसी फार्म हाउस से ज्यादा नहीं है । कहा जाता है कि छोटे अपराधी पुलिस के आगे दुम हिलाते हैं और बड़े अपराधीगणों के सामने पुलिस । कानून का अंधा होना शायद लाजमी हो लेकिन उसका संवेदनहीन बने रहना उचित नहीं है । कानून पत्थर के भालेवाले द्वारपाल की तरह प्रतीत होते हैं जिन्हें दूर से देखने वाले बच्चों को डर लगता है लेकिन मूंछवाले उस पर तम्बाकू की पीक थूकते निकल जाते हैं । कानूनकर्मी संविधान की संतान हैं । क्या इन बेटों को चंद सिक्कों के लिये अपनी मां से सामंतों के सामने मुजरा करवाना चाहिये !?
आदरणीय,
ReplyDeleteब्लॉग जगत में स्वागत है।
आलेख में कुछ अशुद्धियाँ दिखाई दे रहीं हैं जो लगता है यूनीकोड कन्वर्टर की है , कृपया ठीक करे लें तो अच्छा रहेगा।
प्रमोद ताम्बट
भोपाल
www.vyangya.blog.co.in
narayan narayan
ReplyDeleteहिंदी ब्लाग लेखन के लिये स्वागत और बधाई । अन्य ब्लागों को भी पढ़ें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देने का कष्ट करें
ReplyDeleteQanoon karmi aap kise kahte hain? Nyayalay se jude logon ko ya police ko?
ReplyDeleteSashakt lekhan hai!
ReplyDeleteप्रमोदजी ,नारदमुनी जी ,अजय जी,
ReplyDeleteशमाजी , क्षमाजी , आप सबका धन्यवाद ।
शमाजी कानूनकर्मी से मेरा आशय वकीलों से हे ।