Tuesday, April 14, 2020

क्वारंटाइन ! ... नहीं तो !



आलेख 
जवाहर चौधरी 

वैसे तो अक्सर इस खिड़की के पास बैठता हूँ, लेकिन इन दिनों यही एक जगह है जहाँ मुझे बैठने का मौका मिल रहा है । यह खिड़की खास तौर पर मुझे पसंद है, क्योंकि ये आँगन में खुलती है और सड़क से होते हुए दूर खड़े आसमान छूते टीवी टावर और उसके बाद अनंत तक दृष्टि को विस्तार दे देती है । नीला साफ आकाश, कुछ टुकड़े बादल, मंडराती चीलें इस वक्त दीख रही हैं । अभी लॉकडाउन के चलते प्लेन बंद हैं, वरना रोजाना सुबह सात बीस पर मुंबई की पहली उड़ान इसी खिड़की से हो कर जाती है । बांग्ला फिल्मों में जब नायक या नायिका कोई महत्वपूर्ण संवाद बोल कर खिड़की से बाहर देखते हैं तो दृश्य में दूर एक ट्रेन धुंवा उड़ाती गुजरती है । लगता है ढेर सारा अवसाद ट्रेन के साथ छुक छुक करता चला गया । दर्शक एक राहत सी महसूस करते होंगे । ऐसा ही कुछ प्लेन को देख कर भी लगता है । कई बार जब मन उदास होता है इस खिड़की से जरूरी ऊर्जा ले कर उठता हूँ । आज जब क्वारंटाइन में हूँ तो ऑक्सीज़न भी यहीं से मिल रही है, ताजी हवा । खिड़कियाँ हवाओं से कितना याराना रखती हैं । चालीस दिनों के क्वारंटाइन में जीवन मानों इस खिड़की पर सिमट आया है ।
उम्र के बढ़ते जाने के साथ व्यक्ति का संसार सिकुड़ता जाता है । पिताजी की याद आती है । आपाधापी इतनी कि भोर में निकलते तो शाम से पहले कभी घर लौटना उनके लिए संभव नहीं था । लेकिन उम्र के साथ वे अनिच्छा पूर्वक सिमटते चले गए । शहर से मोहल्ला, गली,  उसके बाद घर आँगन और अंत में बिस्तर । संसार इसी तरह किश्तों में छूटता है शायद । उस पुराने घर में ऐसी खिड़की नहीं थी जैसी अभी मेरे सामने है । सही दिशा में खुलने वाली खिड़की हो तो लगता है जीवन है और गति बनी हुई है, चाहे बंद क्यों न हो । आप कहेंगे यह भ्रम है । तो बना रहे भ्रम । भ्रम ही आदमी को सन्यास आश्रम तक खींच लाता है । और सच ! राम नाम के साथ मिल कर सत्य हो जाता है । पच्चीस दिन हो गए बंद हुए लेकिन इस खिड़की की वजह से लगता नहीं कि कहीं कुछ छूट रहा है ।  बल्कि रोज ही ऐसा कुछ नया जुड़ रहा है जो पहले संज्ञान में नहीं था । मानो बंद पहले था, अब तो खुल रहा है ।  
सामने अशोक का पेड़ है । पैंतीस छत्तीस वर्ष हुए इसे बच्चे की तरह लाया था एक नर्सरी से । आज देखता हूँ कि कितना बड़ा हो गया है ! आम दिनों में इसकी ओर ध्यान ही नहीं गया कभी । हालांकि मई जून में जब खूब तपन होती है, अपना स्कूटर इसी की छाया में रखता आया हूँ, और बारिश में भी । कभी कभी जब खुले में बैठने का मन होता है इसके नीचे कुर्सी डाल कर बैठता हूँ, किन्तु घ्यान नहीं दिया । लग रहा है स्वार्थी हूँ, मतलबी कहीं का । लेकिन आज इस खिड़की से अपने इस अशोक को देखते हुए जाने क्यों लग रहा है जैसे बरसों बाद अपने युवा बेटे से मिल रहा हूँ ! जैसे आँगन में खड़ा वह मुस्करा रहा है, अभी भी । उसकी खुशी हिलते पत्तों और झूलती डालों से व्यक्त हो रही है । यंत्रवत मेरा हाथ उठता है और अशोक की ओर देखते हुए हिला देता हूँ, कुछ ऐसे जैसे उसे पहचान गया हूँ । वह भी झूम उठता है । अशोक ने भी देखा होगा आज मुझे शायद पहली बार गौर से, वरना घंटियाँ सी क्यों बज रही हैं कानों में । सुना है अशोक खूब सारी ऑक्सीज़न देता है । देना ही चाहिए, बच्चे ही तो काम आते हैं जीवन के उत्तरार्ध में ।
अशोक के नीचे छाया में एक पटिया लगाया हुआ है । बहुत पहले जब लकड़ी का काम चल रहा था घर में, तब पत्नी ने कार्पेंटर से खास तौर पर बनवाया था । इस पर मिट्टी के दो सकोरे रखे हैं । एक पानी का और दूसरे में चूरी हुई रोटी होती है । देख रहा हूँ कि यहाँ  गिलहरियों का एक कुनबा दिन भर उछलकूद करता रहता है । बहुत सी चिड़ियाएँ हैं, गौरैया, ललमुनिया, मैना का जोड़ा और कबूतर भी । बहुत छोटी, गहरे काले रंग की दो चिड़िया भी आती है लंबी चोंच वाली । ये रोटी नहीं खाती हैं , गुड़हल का पौधा है, उसके फूलों से कुछ चुनती सोखती रहती हैं । इतना मीठा बोलती हैं कि लगता है जैसे अपने होने का कर्ज उतार रही हैं । आप बैठे सुनते रहिए जब तक मौका मिले । अमरूद के पेड़ से एक कच्चा फल गिरता है, कुतरा हुआ । ये गिलहरी का काम है, बहुत शैतान हैं । कितने सारे फल रोज गिरा देती है । सोचता हूँ ये आँगन, ये फल वाले पेड़, किलकारियों और उछलकूद के नाम ही तो थे । लगता है अकेला नहीं हूँ, भरापूरा घर है । सबने मिल कर इसे अपना घर बनाया है । जोइंट फेमिली है हमारी, और हुकुम है क्वारंटाइन में रहो !!
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Monday, July 22, 2019





आत्मस्वीकृतियाँ 



इस दौर का सबसे ज्यादा पुरस्कृत प्रेम-पत्र
लिखने वाला मैं बहुत बुरा प्रेमी रहा
मैं उन पत्रों से ही प्रेम कर बैठा


जो कभी अपने संताप के विरुद्ध

समय-कुसमय लिखता रहा था



फिर मैंने ही
घृणा की पराकाष्ठा भी लिखी
लेकिन युद्ध करना हमेशा टालता रहा


सुविख्यात कवि
श्री योगेंद्र कृष्णा ( पटना )
 की वाल से      

मजदूरों किसानों वंचितों
के संघर्ष पर
रचनाएं लिख खूब

प्रशंषित-पुरस्कृत होता रहा

लेकिन उनके कभी काम नहीं आया


पेड़ों पहाड़ों नदियों जंगलों
पर खूब कविताएं लिखीं
और उनका कटना सूखना और जलना

केवल निहारता रहा

शून्य में अदृश्य का सुख तलाशता

दृश्य को अनदेखा किया


मेरी जीत को उत्सव में
बदल देने वाले अनगिन अनाम लोग

जीवन की जंग हार चुके थे

और हम दूर से दर्ज करते रहे 

खौफनाक उन दृश्यों को

जबकि बच सकती थी कुछ जानें

हाथ में एक पत्थर भी जो उठाया होता


दुख को इतना मांजता रहा
कि भीतर सुख की चिंदियां
उड़ने लगीं लेकिन वो दुख

केवल मेरा रहा और सुख की

चिंदियां भी मेरी


नहीं बोलने की जगह
मुसलसल बोलता रहा
जहां बोलना ज़रूरी था

चुप्पियां चुन लीं

जिन्हें सुनना ज़रूरी नहीं था

उन्हें ही सुनता रहा

और इस तरह दोस्त तो क्या

कोई सच्चा दुश्मन भी नहीं बना पाया

अंधेरों के खिलाफ 
जो भी शब्द बुने
उजालों ने चुन लिए



मुद्दतों बाद
जब घर के आईने में देखा
तो बेहिस अपना चेहरा 

भयावह हासिलों का

अश्लील विज्ञापन-सा दिखा

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Thursday, May 16, 2019

कवि की भाषा


तादयुस्ज रोज़विच (पोलिश Tadeusz Różewicz - जन्म 9 अक्टूबर 1921) यूरोप के महान कवियों मे से हैं।  कविता और नाटक दोनो विधाओं मे उन्होने पोलिश साहित्य मे ऐतिहासिक फेरबदल किया है।  सत्ताकेंद्रित राजनीति मे मौजूद किसी भी तरह की हिंसा को उन्होने कभी भी स्वीकृति नहीं दी। दूसरे विश्वयुद्ध के परिणामों को वे कभी सह नहीं पाए। नाज़ीवाद ने जब आश्वित्ज़ मे बर्बर जन-संहार किया तब सारी दुनिया मे यह प्रश्न पूछा जाने लगा था कि क्या अब भी कविता लिखी जा सकती हैं? पोलिश कविता के नए रूप के आविष्कार के साथ रोज़विच ने कविता को संभव बनाया।  उनके पास अद्भुत काव्यात्मक ईमानदारी है। रोज़विच की कविताओं की साधारणता और विलक्षण सरलता देखने लायक है।




कवि एक ही भाषा में
 बात करता है
बच्चे से
 घुसपैठिए से
धर्मगुरु से
राजनीतिक से
पुलिस वाले से


बच्चा मुस्कुराता है
 घुसपैठिए को लगता है
 उसका मखौल बन रहा है
राजनीतिक अपमानित अनुभव करता है
 धर्मगुरु को खतरा महसूस होता है

पुलिसवाला
कमर कसने लगता है

शर्मिंदा कवि
 क्षमा मांगता है
और अपनी गलती
दोहराता है

*पोलिश कवि - तदेऊष रुज़ेविच

Sunday, April 21, 2019

मौसम बदल रहे हैं...


श्री नरेंद्र शर्मा एक बहुआयामी व्यक्तित्व हैं । उनका
जीवन अनुभव विविधताओं से परिपूर्ण है । अवलोकन
की सूक्ष्म दृष्टि और संवेदना का विस्तृत फ़लक उन्हें
एक गंभीर रचनाकार के रूप में प्रस्तुत करता है । हिन्दी
के साथ वे उर्दू में भी रचते हैं । कविता और गज़लों के
माध्यम से जीवन दर्शन उनकी विशेषता है ।
यहाँ उनकी ताजा रचनाएँ ।
अवलोकनार्थ प्रस्तुत है ----




ज़िन्दगी ... वरक़ वरक़ ...
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जीवन की इस पुस्तक ने तो बना दिया घनचक्कर,
किसी पेज़ पर पहेलियाँ हैं और किसी पर उत्तर !


सुख और दुःख के एक सरीखे चित्र दिए और पूछा,
लालबुझक्कड़ इन दोनों में बतलाओ दस अंतर !


एक सफ़े पर विज्ञापन था, "किस्मत नई करालो",
"शर्तें लागू" लिखा हुआ था, बेहद  छोटे अक्षर !


अनुक्रम के अनुसार कोई भी लेख नहीं खुलता है,
छापने वाले ने डाले हैं उलटे सीधे नंबर !


शीर्षक है "रिश्ते" किताब का, बाइंडिंग कमज़ोर,
वरक़ वरक़ हो जाती है ये चंद रोज़  के अन्दर !


 - नरेन्द्र शर्मा



मौसम बदल रहे हैं...

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तनहाइयों से इतना घबराने लगा हूँ मैं
अपने ही अक्स से बतियाने लगा हूँ मैं


बेरोज़गार दिल को कुछ काम तो मिलेगा
सुलझे हुए मसलों को उलझाने लगा हूँ मैं


महफ़िल में दोस्तों का  जी ऊबने लगा है
ढलते ही शाम वापस घर आने लगा हूँ मैं


मौसम बदल रहे हैं, बदलेंगे दिन कभी तो
ख़ुद को इसी बहाने बहलाने लगा हूँ मैं


ख़ानाखुराक मेरा बिलकुल बदल गया है
पीता हूँ अश्क़ अब ग़म खाने लगा हूँ मैं


- नरेन्द्र शर्मा

Monday, April 1, 2019

भैरप्पा का ऐतिहासिक उपन्यास "आवरण "

                 
आलेख 
जवाहर चौधरी               


    हाल में  ऐतिहासिक उपन्यास "आवरण" पढ़ने का मौका मिला । यह मूलरूप से  कन्नड़ में लिखा भैरप्पा का उपन्यास है और हिंदी में प्रधान गुरुदत्त द्वारा अनूदित है । कन्नड़ में इसके 23  से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । आरंभ में तो यह इतना लोकप्रिय हुआ कि हर सप्ताह संस्करण छापने पड़े । हिंदी में  सन 2010 में किताबघर से प्रकाशित हो कर आया । भैरप्पा के और भी उपन्यास हिंदी में अनूदित हुए और खूब लोकप्रिय हुए हैं ।
              पाठकों ने जहां उपन्यास "आवरण" को हाथों हाथ लिया और लोकप्रिय बनाया वहीं इसकी आलोचना भी कम नहीं हुई । अब तक इस उपन्यास की आलोचना/समीक्षा में पाँच कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं और पत्र-पत्रिकाओं में ढेरों लेख लिखे जा चुके हैं । वामपंथी विचारधारा के समर्थक भैरप्पा के इस काम पर अपनी नापसंदगी व्यक्त करते रहे हैं । इस कृति में लेखक ने मुस्लिम समाज की वर्तमान प्रवृत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर कथा का ताना-बाना बुना है जो रोचक तो है ही चौंकाने वाला भी है । इतिहास के तमाम वे तथ्य जो या तो इतिहासकारों ने छोड़ दिए  या उनसे छूट गए, उनमें से कुछ  पुस्तक सामने रखती है।
                 लेखक उपन्यास के संदर्भ में लिखते हैं की "इस उपन्यास की ऐतिहासिकता के विषय में मेरा अपना कुछ भी नहीं है प्रत्येक अंश के लिए जो ऐतिहासिक आधार है उनको साहित्य की कलात्मकता जहां तक संभाल पाती है वहां तक मैंने उसे उपन्यास के अंदर ही शामिल कर लिया है।"
             एक पाठक के तौर पर मुझे लगता है की भैरप्पा के इस उपन्यास को पढ़ा जाना चाहिए । यह बहुत सारे सच को सामने रखता है और  ऐसे प्रश्नों का उत्तर देता है जो पीढ़ियों से अनुत्तरित चले आ रहे हैं । हो सकता है कि इसमें कुछ बातें विवादास्पद सी प्रतीत हों,  लेकिन जीवन में कितना कुछ विवादास्पद घटित हो रहा है , उसके आगे यह कुछ भी नहीं है । खासकर  तब  जब वह  हमारी  आंखें खोलता है  और  देखने की , सोचने की  दृष्टि भी  निर्मित करता है । बहुत समय बाद मैं ऐसी कृति पढ़ पाया हूं जिसने आरंभ से अंत तक मन मस्तिष्क को कहीं भी विचलित नहीं होने दिया ।
                इन दिनों साहित्य की कृतियां प्रकाशित तो बहुत हो रही है लेकिन छोटे बड़े शहरों में उनके विक्रय केंद्र लगातार खत्म होते जा रहे हैं । शुक्र यह है की अमेज़न और फ्लिपकार्ट जैसी ऑनलाइन कंपनियों से छूट के साथ साहित्यिक पुस्तकें उपलब्ध हो जाती हैं ।  किताबघर दिल्ली से प्रकाशित इस उपन्यास का मूल्य 245 रुपए है और खासी छूट के साथ ऑनलाइन उपलब्ध है । 

                                                                                   -------

Thursday, March 21, 2019

चैतन्य त्रिवेदी की कविता --- मैं इसे क़त्ल का ही नाम दूंगा !



    इंदौर के वरिष्ठ कवि 
   और ख्यात लघुकथाकार
    श्री चैतन्य त्रिवेदी 




मैं इसे क़त्ल का ही नाम दूंगा !
      
       भले ही लोग पूछें 
     परिचित या रिश्तेदार  
     आसपड़ौस चर्चारत रहें  
     क्या हो गया था 
     कल तक तो ठीक थे  
    बीमार थे क्या 
    क्या हो गया था 
    लेकिन मैं इस दुनिया की
    आम रीत का शब्द -
   मृत्यु , नहीं मानूँगा  
   यह ईश्वर द्वारा प्रायोजित 
    मेरा कत्ल है 
    मुझे पहले पहल के
उस वाक्य पर भी
नहीं विश्वास --
     मृत्योर्मा अमृतं गमय
     क्योंकि आँख जब 
     समझ में शुरू हुई
    सपनों और कल्पनाओं से 
     भरी हुई थी 
     सपनों से भरी आँखें 
    किसी मृत्यु से किसी अमरता से 
   ज्यादा बड़ी और चमकदार भी 
   जैसे जैसे जान रहा हूँ --
   यह उम्र नहीं है 
   शिकार की तरफ धकेलने की साजिश कोई 
 जिसे तारीख की तरह 
  पहचानते, डरे हुए लोग
  मैं अभी भी तैयार नहीं 
  जिस तरह दुनिया धुंधला गई है 
  वैसी ही नजर से
आसमान के बारे में बताऊँ,
जबकि मैं 
  तितलियों के रंग साफ साफ
  अभी भी पहचान सकता हूँ 
  भौंरो की आवाज में 
    गुनगुना भी सकता हूँ 
   लेकिन ईश्वर अपने धार्मिक 
   कारिंदो के साथ 
   पीछा कर रहा है मेरा 
   कई कथाएँ लिए 
  जब कि वह जानता है 
 आत्मा में जितना पसंद है वह मुझे 
 कथा किस्सो में नहीं 
उन तारीखों और दिनों में भी 
   कोई दिलचस्पी नहीं जहाँ ईश्वर ने 
  चमत्कार खास लोगों के लिए किए 
    शरीफ और सीधे साधों को 
 बेरहमी से मरने के लिए छोड़ दिया 
  अगर वह अपने फैलाए गए किस्सो से,
स्वयं को अलग कर ले
  तो मैं भी उसे मृत्यु के नाम पर 
   मेरे कत्ल के इल्जाम से 
    मुक्त कर दूँगा 
    पर ऐसा होगा नहीं 
धार्मिक कारिंदे
जो कथाओं में ढो रहे
अपना अपना ईश्वर 
  वे सब अपने अपने ईश्वर की तरफ से 
 मेरी हत्या कर सकते हैं 
  आखिर क्यों हजारों सालों से 
 इन कथाओं की उम्मीद पर 
 ईश्वर जानने देखने या महसूस करने की
चाह जगाए हुए हैं 
जबकि ईश्वर
उन सब जगहों से जा चुका है,
जहाँ जहाँ वह हो चुका है 
  और हम सब भी गवाँ चुके हैं 
 किसी नए ईश्वर के यकीन 
 सिर्फ ढो रहे पुराने किस्से कहानियाँ
अलग अलग ईश्वर के कारिन्दे
 भयभीत हैं
सबसे पहले वे मारे जा सकते हैं 
अगर कहीं नए ईश्वर का
कोई यकीन
जगह बना ले तो !!


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Tuesday, March 27, 2018

मीडिया मांगे मोर

आलेख 
जवाहर चौधरी 

टीवी चैनलों पर सफलतापूर्वक गरमागरम खबरों का स्टाल लगा चुकने के बाद नयी खबर की तलाश में पाँच मीडिया मेन जंगल से गुजर रहे थे. वे जानते हैं कि जंगल सिर्फ गुजरने के लिए होता है. दिल्ली में रहने के लिए रुकना हो तो जंगल से गुजरना पड़ता है. जंगल दिल्ली के भरोसे है. मीडिया जंगल को दिल्ली से और दिल्ली को जंगल से डराता है. दिल्ली में मीडिया जंगल का टायगर है और जंगल में दिल्ली वाला शौकीन शिकारी. यही कारण है कि दिल्ली और जंगल दोनों मीडिया से डरते हैं. मीडिया जंगल से मुद्दों की शहद लेता है और दिल्ली से सबसिडी वाली दारू. दिन की शरुआत के लिए शहद और समापन के लिए दारू जरूरी है.
हाँ, तो किस्सा ये है कि पाँच मीडिया मेन जंगल से गुजर रहे थे. पाँच में से चार अलग अलग फन में माहिर हैं. चारों के पास एक से बढ़कर एक हुनर हैं. एक तिल को ताड़ बना देने में सिद्धहस्त है, दूसरा लोटे में हाथी घुसा देने में उस्ताद. तीसरा बातों-बातों में पानी में आगआग लगा सकता है तो चौथा मुर्दे से बयान लिखवा लेता है. पाँचवा जूनियर है सीख रहा है. फिलहाल खबरों को चीख-चीख कर बेचने का अभ्यास कर रहा है. नाम है साहित्य कुमार .
आप लोग चौंकिए  मत. पापी पेट के लिए और दिल्ली में बने रहने के लिए कुछ न कुछ यानी सबकुछ सभी को करना पड़ता है. दिन चढ़ा, जंगल थमने सा लगा, पंछी पेड़ों  पर बैठ गये, जानवर झाड़ियों में फैल गये. जैसा कि पहले से ही तय था ये पाँचों भी विश्राम करने लगे. विश्राम करने का मतलब कहीं बैठ जाना या लेट जाना भर नहीं है. यहाँ विश्राम का मतलब बियर की बोतलें गटकना है.
”यहाँ जंगल में पीने के पानी की कमी है.“ पहले ने बीयर की दूसरी बोतल खोलते हुए कहा.
”हाँ, मैं इस पर एक स्टोरी कर रहा हूँ ‘जल बिन जंगल“. दूसरे ने जवाब दिया. ”पेड़ों पर फल नहीं दिख रहे हैं... जरूर यहाँ बंदर हैं.“ तीसरा बोला. 
”तुम इस पर कुछ मत करना, मैंने रिपोर्ट तैयार कर ली हैµ‘लंगूर खा गए अंगूर.“ चौथे  ने चेतावनी दी.
”कोई बंदर फल खाते दिखा आपको.“ साहित्य कुमार  यानी जूनियर ने पूछा.
”बस... बंदर ही नहीं दिखा...“
”जब बंदर ही नहीं दिखा तो कैसे कहोगे कि फल उसने खाये हैं.“ 
”तुम अभी जूनियर हो यार, थोड़ा सीखो, समझो. देखे तो हमने साँप हैं लेकिन फल साँप ने तो खाये नहीं होंगे.
”ठीक है, लेकिन बंदरों ने खाये हैं  ये कैसे कहा जा सकता है.“ जूनियर को समझ में नहीं आया.
”क्या तुम जानते हो कि बंदर फल खाते हैं.“
”हाँ खाते हैं.“
”दुनिया भी यही जानती है?“
”हाँ.“
”पेड़ों पर फल नहीं हैं, बंदर फल खाते हैं,...,. चलो इसके आगे का वाक्य बनाओ.“
”इसके आगे... भूखे बंदर चले गये जंगल छोड़कर.“ जूनियर ने वाक्य पूरा किया. 
”एई!! तेरे को बंदर तनख्वाह देता है क्या .“
”नहीं.“
”तो?, तनख्वाह दिल्ली से और तरफदारी जंगल की. ये कैसे हो सकता है?“
”फल नहीं है. पानी नहीं है... छोड़ो यार इन बकवासों को.“ पहले ने हस्तक्षेप किया.
”एक बात नोट की? यहाँ कितनी शांति है.“ जूनियर ने भी बात बदली.
”शांति खबर नहीं होती. शांति मीडिया के लिए जहर है.“ दूसरा सीनियर बोला. 
”लेकिन शांति जंगल की सच्चाई है.“
”तो ये भी सच्चाई है कि इस देश में शांति के प्रायोजक नहीं मिलते हैं,... और हम दिल्ली और जंगल से ज्यादा प्रायोजकों के प्रति जिम्मेदार हैं.“
”हाँ, प्रायोजकों को खबर चाहिए. खबर नहीं हो तो खबर पैदा करना हमारा पहला काम है. खबरें हमारी रोजी-रोटी हैं.“ दूसरे सीनियर ने समर्थन करते हुए आँख मारी.
”नहीं यार, प्रायोजकों को बिकाउ खबरें चाहिए. हमारा महत्वपूर्ण काम है खबरों को बिकाऊ बनाना.“ तीसरे ने कहा.
”अहा. कितनी शांति है जंगल में... यहाँ कोई खबर नहीं है.“ जूनियर आँख बंद करते हुए कहा.
”क्या कहा. तुम व्यंग्य कस रहे हो हम पर? अपने प्रोफेशन पर?...तुम साहित्य  मेन हो. मीडिया मेन बनने कैसे चले आये. मिस फिट कहीं के.“ साथी नाराज हुए. 
”व्यंग्य नहीं है. सचमुच... कितना आनंद है. कितना सुखद है! अहा!“
”बी .... अ   प्रोफशनल. शांति का आनंद लेने से कुछ नहीं मिलेगा, हमें खबर चाहिए.“
”मुझे नहीं लगता कि इस शांति में हमें कोई खबर मिल सकेगी.“ जूनियर अपने आनंद से बाहर आने के लिए तैयार नहीं हुआ.
”अगर इस जंगल में हमें एक लाश मिल जाये तो बढ़िया कलेक्शन देने वाली बिकाऊ खबर मिल सकती है.“ सीनियर ने संभावना के साथ अपने साथियों को देखा. साथियों ने संभावना तवज्जोह दी.
टीवी पर पहला  दिन/दिनभर
‘जूनियर की गई जान’
”जी सीनियर, आप हमारे दर्शकों को बताएं कि उस रात क्या हुआ था जंगल में. वह ब्योरा दें जिसमें हमारे साथी साहित्य को जान से हाथ धोना पड़ा.“
”उस दिन हम जंगल से गुजर रहे थे, भटकते हुए रात हो गयी... अंधेरा हो गया... तब... फिर... चूंकि... किन्तु... अचानक... चीख... संघर्ष... सन्नाटा... मौत... भय... और... और सब खत्म हो गया... साहित्य नहीं रहा.“
टीवी पर दूसरा दिन/दिनभर
‘मातम का माहौल’
”मैं आपके टीवी पर पाप-प्रतीक कसाई, जूनियर के घर से बोल रहा हूँ. आप देख रहे हैं जूनियर के घर पर मातम का माहौल है. जूनियर की माँ का रो-रोकर बुरा हाल है, पता चला है कि उन्होंने जब से सुना है कुछ भी खाया-पीया नहीं है. आइये उनसे बात करते हैंµ माता जी... माता जी, हमारे दर्शकों को ये बताइये कि जब आपको जूनियर की मौत का समाचार मिला तो आपको कैसा लगा?... अच्छा रोइये मत... आप यह बताइये कि इस समय आपको कैसा लग रहा... आप टीवी पर हैं... माताजी.“

टीवी पर तीसरा दिन/दिनभर
‘परेशान हुई पुलिस’
पुलिस को जूनियर के हत्यारों का पता नहीं पड़ा. पैरों के निशान नहीं मिले हत्यारे कितनी संख्या में थे, कैसे आये थे,... पता नहीं चल रहा है.
आई जी पुलिस हमारे साथ हैं, उनका कहना है... ”हम कोशिश कर रहे हैं. सबूत इकट्ठा करने के प्रयास किये जा रहे हैं. जंगल में शायद डाकुओं का नया दल सक्रिय हो गया है. हम पता कर रहे हैं. मीडिया हमारी  पूरी मदद कर रहा है. जनता को भी यदि कोई जानकारी हो तो उसे भी पुलिस की मदद करना चाहिए.“
टीवी पर चौथा दिन/दिनभर
‘ग्रामीणों की गवाही’
”गाँव वालाजी, आप क्या जानते हैं जूनियर की हत्या के बारे में“
मुस्कराते हुएµ ”क्या है साब कि हमको तो पता नईं हे कुछ भी. हम तो जंगल में जाते-ई-नी हें, ना हमारे बच्चे लोग जाते हैं, ना औरतें जाती हैं.आजकल तो घर में-ई  कन्ना पड़ती हे. गोरमेंट का कानून हे कि कोई बाहेर नई करेगा. “
”क्यों नहीं जाते आप लोग जंगल में.“
”ये भूतहा जंगल है. भूत-प्रेत रेते हें इसमें. हत्यारा जंगल बोलते हें इसको.“
”कभी भूत देखे हैं आपने“
”हाँ, कई बार देखे हैं.“
”कैसे होते है भूत.“
”आपके-हमारे जेसे होते हें साब. कभी पास से नईं देखा.“
टीवी पर पाँचवाँ दिन/दिनभर
‘पकड़े जाएंगे प्रेत’
”आज हमारे सामने है पूर्वी भारत के सबसे प्रसिद्ध तांत्रिक काले बादशाह बाबा बंगाली. दर्शकों को बता दें कि काले बादशाह बाबा बंगाली को हम सबसे पहले आपके सामने ला रहे हैं. ...बाबा लोगों को लगता है कि जूनियर की हत्या प्रेतों ने की है... क्या ये सही हो सकता है.“ 
”हाँ, यह सही है... हम जल्दी ही उन प्रेतों का बोतल में बंद कर देंगे?“
”आप कब तक यह काम कर देंगे.“
”पाँच दिन पहले अमावस्या की काली रात थी तब प्रेतों ने जूनियर को मारा. अब वे अगली अमावस्या को फिर बाहर आएंगे... तब हम उन्हें पकड़ने में सफल होंगे.“
”क्या आपने पहले भी ऐसे प्रेतों को पकड़ा है.“
”कई बार... विदेशों में भी... पाताल से...“

टीवी पर छठा दिन/दिनभर
‘कमाल के कजरारे-कजरारे’
फिल्म फेस्टिवल की जोरदार तैयारियां...सितारे उतरेंगे जमीं पर... रात होगी रंगीन... ऐश्वर्या और अभिषेक पेश करेंगे कजरारे-कजरारे... पुलिस ने किये पुख्ता इंतजाम... मेटल डिटेक्टर से होकर गुजरना होगा वीआइपियों को भी... इंतजाम में सेना को भी लगाये जाने की संभावना... आप कहीं मत जाइये... देखते रहिये सिर पीटने तक.

Tuesday, March 6, 2018

कुमार अम्बुज की कविता

   जिसे ढहाया न जा सका











#जिसे##ढहाया##नहीं##जा##सका#

तुम मूर्ति ढहाते हो और इस तरह याद करते हो
                                        कि वह जीवित है

जिसे तुमने सचमुच मार ही दिया था
वह अब भी मुस्कराता है तुम्हारे सामने की दीवार पर
तुम्हारे छापेखाने उसीकी तस्वीर छापते हैं
तुम दूसरे द्वीप में भी जाते हो तो लोग तुमसे पहले
उसकी कुशलता के बारे में पूछते हैं
                                     तब तुम्हें भी लगता है
कि दरअसल तुम मर चुके हो और वह जिंदा है
बुदबुदाते हुए हो सकता है तुम मन में गाली देते हो
लेकिन हाथ जोड़कर फूल चढ़ाते हो
                                  और फोटू खिंचाते हो
तुम शपथ लेते हो वह सामने हाथ उठाये मुसकराता  है
तुम झूठ बोलते हो वह तुम्हारे आड़े आ जाता है
घोषणापत्र में तुम विवश उसीकी बातें दोहराते हो

मूर्ति ढहाने से सिर्फ मूर्ति ढहती है
और बचे रहते हैं सारे शब्द, स्मृति, आवाज,
            उन्हीं चौराहों पर तने खड़े रहते हैं विचार

फिर सारे सवाल मूर्ति के बारे में होने लगते हैं
बार-बार तस्वीरें दिखाई जाती हैं उसी मूर्ति की
उस जगह पर इकट्ठा होने लगते हैं तमाम पर्यटक
जिन्हें बताया जाता है कि यहाँ, यहीं, हाँ, इसी जगह,
वह मूर्ति थी।
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