समीक्षा आलेख :
"समय की नब्ज़ पकड़कर चलताएक व्यंग्य संग्रह"
ग़ालिब-ए-खस्ता के बगैर, कौन से काम बंद हैं ... रोइए ज़ार ज़ार क्या, कीजिये हाय हाय क्यों .
"समय की नब्ज़ पकड़कर चलताएक व्यंग्य संग्रह"
बुंदेलखंड का समृद्ध कला-फलक
# जवाहर चौधरी
मध्यप्रदेश भारत का हृदय है . तीन लाख वर्ग
किलोमीटर क्षेत्र वाला मध्यप्रदेश देश का राजस्थान
के बाद दूसरा बड़ा राज्य है . भारत के केंद्र में होने के कारण समय की हर हलचल के
निशान यहाँ की भूमि पर मौजूद हैं . मौर्यकाल से लगा कर मराठा शासकों तक और उसके
बाद ब्रिटिश शासन सहित मध्यप्रदेश की माटी विभिन्न सत्ताओं की साक्षी रही है . लगभग
साढ़े चार सौ वर्ष यहाँ मुगल शासन भी रहा . मुगलों के पतन के बाद इसके अधिकांश भाग
पर मराठा शासन स्थापित हुआ . आजादी मिलने के बाद 1950 में नए सीमांकन के साथ
मध्यप्रदेश का निर्माण हुआ . सन 2000 में छत्तीसगढ़ एक अलग राज्य बनाया गया और
वर्त्तमान मध्यप्रदेश स्वरुप में आया .
मध्यप्रदेश की वैभवशाली भूमि पहाड़ों, जंगलों,
नदियों, समृद्ध ऐतिहासिक विरासत और सामाजिक-सांस्कृतिक
विविधता व लोक कलाओं से दीप्त है . यही वजह है कि समय समय पर जिज्ञासु विद्वजन शोधकार्य के लिए मध्यप्रदेश को प्राथमिकता देते
रहे हैं . भारतीय कला-अध्येताओं को यहाँ एक विशाल फलक पर अनेक कालखंडों में समृद्ध
वास्तुशिल्प, भित्तिचित्र, लोक-कलाएँ, साहित्य आदि को देखने समझने का मौका मिलता
है . हाल ही में डॉ नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् के
आदिवासी लोक कला एवं विकास अकेदमी के लिए बुंदेलखंड के भित्तिचित्रों को लेकर महत्वपूर्ण
शोधकार्य किया है . उनका शोध ग्रन्थ “बुंदेलखंड के भित्तिचित्र” शीर्षक से अकेदमी
ने प्रकाशित किया है . भारतीय कला के क्षेत्र में डॉ उपाध्याय का लेखन व शोध देश
में बहुत गंभीरता से देखा जाता है . भारतीय चित्रांकन परंपरा, जैन चित्रांकन
परंपरा, मालवा के भित्तिचित्र, राजस्थान की चित्रशैलियाँ, भृतहरिकृत श्रंगार शतक,
भारतीय कला दृष्टि : हिमालय से हरिद्वार, भारतीय कला के अंतर्संबंध, मिनिएचर
पेंटिंग को लेकर ‘द कंसेप्ट ऑफ़ पोर्ट्रेट’,
कान्हेरी गीत गोविन्द : पेंटिंग इन कान्हेरी स्टाइल, द कलर्स फ्रेगरेंस, पेंटिंग
इन बुंदेलखंड, आदि चित्रकला पर उनके अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हैं . इसके आलावा
साहित्य व कला के विभिन्न अनुशासनों के अंतर्संबंधों, सौंदर्यशास्त्र व हिंदी
साहित्य की निबंध विधा पर केन्द्रित अनेक पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं . डॉ नर्मदा
प्रसाद उपाध्याय ने हिंदी-अंग्रेजी की अनेक पुस्तकों का संपादन भी किया है तथा उनके
ललित निबंध के अनेक संग्रह प्रकाशित हैं . डॉ उपाध्याय राज्य और राष्ट्रिय स्तर के
अनेक सम्मानों यथा, राष्ट्रीय शरद जोशी
सम्मान, कलाभूषण सम्मान, नरेश मेहता वांग्मय सम्मान, आदि से सम्मानित हैं . आपको
चार्ल्स इण्डिया वालेस ट्रस्ट लंदन, शिमेंगर लेदर जर्मनी और धर्मपाल शोधपीठ से
फेलोशिप भी प्राप्त हुई है . आज उनका मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् से हाल ही में
प्रकाशित शोध ग्रन्थ “बुंदेलखंड के भित्तिचित्र” पाठकों के सम्मुख है .
टेबल बुक साइज़ में छः सौ से अधिक
पृष्ठों की इस पुस्तक में छः परिशिष्ट और नौ अध्याय में शोध सामग्री का विस्तार है
. मध्यप्रदेश के अंतर्गत आने वाले बुंदेलखंड के सर्वेक्षण और दस्तावेजीकरण
क्षेत्रों में ग्वालियर, पिछोर, दतिया,
निवाड़ी, ओरछा, लिघोरा, मोहनगढ़, जतारा, टीकमगढ़, पपौराजी, बल्देवगढ़, धुबेला,अलीपुरा,
छतरपुर, खजुराहो, धुवारा, शाहगढ़, खुरई, पिठौरियाजी, गढ़पहरा, राहतगढ़, सागर, रहली,
गढ़ाकोटा, दमोह, बरी कनौरा, हटा, अजयगढ़, पन्ना, सतना और चित्रकूट हैं . इन जगहों पर
ऐतिहासिक महत्त्व के महल, मंदिर और बाड़े, लोक कलाओं के संरक्षित केंद्र, इमारतें, गुफाओं
आदि को अध्ययन के दायरे में लिया गया है . पुस्तक में वास्तुकला की भव्यता के
दर्शन कराते सैकड़ों सुन्दर चित्र हैं जो पाठक के मन में पर्यटन की जिज्ञासा पैदा
करते हैं . साथ ही यह भी ध्यान आता है कि हमारी शालेय शिक्षा व्यवस्था में ऐसे प्रयास
नहीं हुए कि नयी पीढ़ी को इस मूल्यवान धरोहर का परिचय मिलता .
पुस्तक का पहला अध्याय दतिया पर है .
इतिहास विशेषज्ञ श्री केशवचंद्र मिश्र के हवाले से बताया गया है कि बुंदेलखंड शब्द
सर्वप्रथम 1335-40 ईसवी के बीच अस्तित्व में आया जब चंदेलों के बाद बुंदेले इस
क्षेत्र में प्रविष्ट हुए . ऐतिहासिक विवरण के आलावा इस क्षेत्र को लेकर कुछ
महत्वपूर्ण पौराणिक सन्दर्भ भी हैं जिनका जिक्र पुस्तक करती है . दतिया दुर्ग के
विषय में सारवान विवरण और सुन्दर चित्र संयोजित हैं . राजा भवानी सिंह के कक्ष में
बने भित्तिचित्र के फोटोग्राफ और उनका सूक्ष्म विवरण हैं . राजा पारीच्छत की समाधि
के व्यक्ति चित्र और रागरागिनियों से प्रेरित चित्रों को एक अलग परिशिष्ट में
बताया गया है . महाराजा विजय बहादुर की छतरी, महाराजा भवानी सिंह की छतरी,
गोसाइयों की छतरी, अवधबिहारी जी का मंदिर,
वीरसिंह महल आदि के विषय में विस्तृत चर्चा है . इस अध्याय में चार सौ से अधिक
फोटोग्राफ दिए गए हैं जो दतिया की ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासत और जनजीवन को समझने
में मदद करते हैं . इसी तरह निवाड़ी अध्याय भी बुन्देली राज्य ओरछा को चित्रित किया
है . यहाँ लम्बे समय तक चंदेल राजाओं का शासन रहा जो कलाप्रेमी थे . खजुराहो के
विश्वप्रसिद्ध मंदिर इसके साक्ष्य हैं . भगवान राम की मूर्तियों को लेकर विस्तृत
जानकारी दी गई है . वीरसिंह जूदेव का शासन काल और उसके बाद तेईस वर्षीय हरदौल जू
का प्रसंग जिसमें राजनितिक षड्यंत्र के तहत उनके चरित्र पर लांछन लगाने की कोशिश
की गयी . भाभी के सम्मान की रक्षा करते हुए उन्होंने जानते हुए जहर मिला भोजन
ग्रहण किया . उनके देहांत पर नौ सौ बुंदेला वीरों ने अपनी जान दे दी थी . हरदौल जू
आज भी आसपास के अंचलों में भगवान की तरह पूजे जाते हैं . ओरछा के महलों
अट्टालिकाओं में बहुत सुन्दर चित्रण आज कला की धरोहर है जिसके सैकड़ों फोटोग्राफ
यहाँ दिए हुए हैं . डॉ नर्मदा प्रसाद
उपाध्याय ने हर फोटो को कला की बारिकी के साथ समझाया है . यहाँ ज्यादातर चित्रांकन
साफ हैं और कहीं से भी क्षतिग्रस्त नहीं हैं . वीरसिंह जूदेव जहाँगीर के अच्छे
मित्र थे . उन्होंने मित्र के सम्मान में जहाँगीर महल बनवाया था जो ओरछा की बहुत सुन्दर
इमारत है . यहाँ जहाँगीर एक दिन रुका था . इसी तरह राय प्रवीण महल, राम राजा
मंदिर, चतुर्भुज मंदिर, लक्ष्मी मंदिर, शिव मंदिर, और बेतवा के किनारे महाराजा
यशवंत सिंह की छतरी और उनके अन्दर के भित्तिचित्रों को सैकड़ों फोटोग्राफ के माध्यम
से बताने का सफल प्रयास किया गया है . टीकमगढ़ से 42 किलोमीटर दूर लिघौरा बसा हुआ
है . यहाँ तीन मंदिरों के भित्तिचित्रों को महत्वपूर्ण माने गए हैं . ये हैं श्री लक्ष्मण जू मंदिर, बड़ा मंदिर और
तीसरा भगतराम मंदिर है जो अब नष्ट हो गया है . ओरछा की अष्टगढ़ियाँ चिरगांव, बिजना,
तोड़ी फतेह्पुर, घुरवई, बंकापहारी, कारी, पसारी और टहरौली हैं जो राजा रायसिंह के
आठ पुत्रों में बंटी जागीरें हैं . सागर जिले में टीकमगढ़ भी एक ऐतिहासिक महत्त्व
का स्थान है . आल्हा, उदल और मलखान चंदेलों के वीर सरदार थे जिनके नाम से अनेक
कथाएं आज भी प्रचलित हैं . यहाँ के रामनिवास मंदिर और जुगल निवास परिसर में
भित्तिचित्र देखने को मिलते हैं . पुस्तक में दिये सुन्दर फोटोग्राफ देख कर इन्हें
समझा जा सकता है . टीकमगढ़ से 35 किलोमीटर दूर मोहनगढ़ है . इसके किले की भित्तियों
में रामलीला का अंकन है . पास ही जतारा नाम का प्राचीन नगर है . शेरशाह सूरी के
पुत्र ने जतारा पर अधिकार कर इसका नाम इस्लामाबाद रख दिया था . बाद में ओरछा नरेश
भारतीचन्द ने अफगानों को खदेड़ कर इसका नाम
पुनः जतारा रखा . यहाँ शासकों ने जलाशय, मंदिरों और घाटों का निर्माण कराया . टीकमगढ़
से 26 किलोमीटर दूर बल्देवगढ़ है इसका दुर्ग अब खंडहर हो चुका है . पपौराजी जैन
संप्रदाय का एक प्रमुख तीर्थ है . यहाँ 108 मंदिर हैं जो इसकी विशेषता माने जाते
हैं . ग्वालियर और झाँसी से लगे छतरपुर की सीमा उत्तरप्रदेश से भी जुड़ी हुई हैं . बुंदेला
राजा छत्रसाल इसके संस्थापक माने जाते हैं . निकट ही खजुराहो स्थित है जो मंदिरों
और शिल्प के लिए विश्वप्रसिद्ध है . पुस्तक
में खजुराहो पर अलग से परिशिष्ट दिया गया है . छतरपुर के राजमहल, किला और जैन मंदिर
महत्वपूर्ण भारतीय वास्तुकला की सुन्दर रचनाएँ हैं . सागर जिले में शाहगढ़, पिठौरिया जी, खुरई, गढ़पहरा,
राहतगढ़, गढ़कोटा पटनागंज और रहली आते हैं . मंदिरों, भवनों, इमारतों में भित्तिचित्रों
की सुन्दर श्रंखला यहाँ देखने को मिलती है . दमोह प्राचीन नगर है जहाँ गोंड राजाओं
का शासन था . बरी कनोरा दमोह जिले का एक गाँव है जो अब उजाड़ है . यहाँ चंदेलों का
एक मंदिर और शाही कोठी हुआ करती थी . इसी तरह पन्ना भी एक प्राचीन नगर है . इसका
उल्लेख विष्णुपुराण और पद्मपुराण में भी मिलता है . पन्ना मंदिरों के लिए भी विशेष
महत्त्व रखता है . चालीस किलोमीटर दूर अजयगढ़ है जो महल के लिए जाना जाता है .
चित्रकूट एक ऐतिहासिक-धार्मिक महत्त्व का स्थान है . इसका आधा भाग उत्तरप्रदेश में
है . यहाँ अनेक मंदिर हैं जिनमें बहुत सुन्दर भित्तिचित्र हैं . ग्वालियर जिले के पिछोर
में एक गाढ़ी है जिसमें कुछ भित्तिचित्र दिखाई देते हैं . पुस्तक में इन पर भी चर्चा
है . छः परिशिष्ट के अंतर्गत शैलचित्र व भित्तिचित्र परंपरा, खजुराहों के मंदिर,
ओरछा के शासक, रायप्रवीण, महाकवि केशव और मरण की जीवंत स्मृति यानी छतरी पर विशिष्ट
आलेख हैं .
इस शोध ग्रन्थ से गुजरते हुए
मध्यप्रदेश के प्रायः उपेक्षित कला फलक को खुलते देखने का सुख मिलता है . डॉ
नर्मदाप्रसाद उपाध्याय की भाषा साहित्यिक है किन्तु सरल है . विषय को जितनी सहजता
और तरलता से वे पाठक के मानस तक पहुंचा देते हैं ये उनकी साहित्यिक साधना का सुफल
है . पुस्तक बहुत परिश्रम और समय ले कर लिखी गयी है . उतने ही मनोयोग और उदारता से
मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् ने इसे छपा भी है . ऐसी महत्वपूर्ण कृतियाँ पाठकों के
निजी पुस्तकालय में होना चाहिए, संभवतः इस बात का ध्यान रखते हुए अकेदमी ने इसका
मूल्य मात्र बारह सौ रुपये रखा है . पूरी पुस्तक ग्लेसी पेपर पर छपी है . प्रिंटिंग
दोषरहित है . उम्मीद है मध्यप्रदेश के जागरूक व कला के प्रति संवेदनशील नागरिक इस काम
को देख कर संतुष्ट होंगे .
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पुस्तक
विवरण –
शीर्षक
– बुंदेलखंड के भित्तिचित्र
प्रकाशन
वर्ष – 2021 , मूल्य – 1200/-- (बारह सौ मात्र )
लेखक-
डॉ नर्मदाप्रसाद उपाध्याय
प्रधान संपादक- धर्मेन्द्र पारे
प्रकाशक
– आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी (म.प्र. संस्कृति परिषद् ) भोपाल .
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"कोमा एवं अन्य कहानियाँ " बोधि प्रकाशन
से छप कर आया . इसमें पंद्रह कहानियां हैं .
वरिष्ठ कथाकार आदरणीय प्रकाश कान्त जी
ने कहानियों पर अपनी प्रतिक्रिया और राय
दी है, जो भोपाल के अख़बार सुबह सवेरे में
आज (२३ मई २१ ) को प्रकाशित हुई है .
मित्रों प्रकाश जी देवास के हैं और कई
कहानी संग्रहों और उपन्यासों के रचयिता
हैं . वे देश भर की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में
बहुत आदर से छपते आ रहे हैं . उनकी राय
किसी भी लेखक के लिए महत्वपूर्ण है .
समीक्षा
गुलज़ार बहुत
कम,
बोलते / खुलते हैं. वे अपनी बनाई लक्ष्मण रेखा में रहना पसंद करते
हैं. जाहिर है ऐसे में उनसे उनका बहुत कुछ जानने के लिए यशवंत व्यास ने बहुत कोशिश
की होगी. किताबें उनका पहला शौक है, यही आज भी है. फ़िल्में
उन्होंने की लेकिन मौका मिलते ही किताबों की और लौटे. वे कहते हैं “फ़िल्में
आर्ट का बेहद ताकतवर फार्म है. पर यह भी सही है कि इल्म फिल्मों से नहीं किताबों
से हासिल होता है.” फिल्मों ने उन्हें शोहरत दी, लेकिन
फ़िल्में ही सब कुछ नहीं हैं. “मैं दो-एक वजहों से फिल्मों में गीत लिखता हूँ.
पहला मुझे शायरी से प्यार है और गीत उसका मौका देते हैं. दूसरा मेरी तमाम क्वालिफिकेशन मिलाकर .... इंटर
फेल है, कोई मुझे पंद्रह सौ की नौकरी भी नहीं देगा.
ये गीत मेरे घर कमाई लाते हैं. इससे मेरा किचन चलता है.”
लेकिन उनके गीत केवल ‘व्यावसायिक’ नहीं हैं, उनका साहित्यिक,
इंसानी मूल्य अधिक है. वे कहते हैं “जब तक आप यह न जानें कि
ज़िन्दगी आम आदमी के साथ कैसे पेश आती है, आपकी
संवेदनशीलता का दायरा बड़ा अधूरा रह जाता है, एकदम संकरा रहता
है.” “कुछ अफसाने यों हुए कि फोड़ों की तरह निकले. वह हालात, माहौल
और सोसाइटी के दिए हुए थे. कभी नज्म कहके खून थूक लिया और कभी अफसाना लिख कर जख्म
पर पट्टी बांध ली”.
“शायरी मेरे
लिए एक रिले रेस की तरह है . आप कुछ भाव चुनते हैं,
कुछ नया जोड़ देते हैं. यह हमेशा आपको जगाए हुए रखती है. मैं उस क्षण
की चमक को जीने की कोशिश करता हूँ और यही मुझे आगे बढ़ने के लिए चार्ज कर देती
है.” “बड़े लोगों का लिखा पढ़ते हुए महसूस
करता हूँ जितना जाना है उससे कितना ही गुना जानना बाकि है”.
यशवंत व्यास
बहुत उलझे हुए सवाल भी पूछते हैं और गुलज़ार से. मसलन “रचना किसी आदमी को किस हद
तक निर्मल करती है ? क्योंकि कहा जाता है कि कला आदमी को उद्दात्त बनाती है. मगर
हम देखते हैं कि कभी कभी एक अच्छे कलाकार का दूसरा पक्ष बड़ा डार्क होता है. कविताएँ
गज़ब की लिखते हैं मगर अफसरी पर बैठते हैं तो घूसखोरी आयर चरित्रहीनता में सानी
नहीं गज़ब के हिंसक मगर कविताओं का मफलर डाले साहित्य के जंगल में शान से टहल रहे
हैं !” गुलज़ार का उत्तर संक्षिप्त लेकिन बहुत सधा हुआ है.
किताब के
पन्ने पलटते हुए महसूस होता है कि गुलज़ार के कितने करीब से गुजर रहे हैं आप. सादगी
इतनी कि लगता है दो घर छोड़ कर रहने वाला पड़ौसी हैं कोई. और बातें उनकी हैं या आपके
दिल की कहना कठिन. जब वे कहते हैं कि ”मशीनों को हेंडल करना सीख सकते हैं लेकिन
इंसानी रिश्तों को हेंडल करना सीखना मुश्किल है”. तब बरबस मुँह से निकलता है ‘यही
तो’. बार बार हम चौंकते हैं कि हर बार उनसे सहमत हैं !! कम शब्दों में, बहुत नपातुला और सारवान ! हर
वक्तव्य शोधा सा. वे कहते हैं “जब आप
ज्यादा बोलने लगते हैं तो जनता आपको सुनना बंद कर देती है. ज्यादा बार कही किसी
बात का असर घट जाता है और वह निरर्थक हो जाती है. थोड़े शब्द ज्यादा ताकतवर,
ज्यादा असरदार होते हैं”.
यहाँ सिर्फ अपनी बात नहीं है, इंडस्ट्री के चलन और चाल पर भी दिलचस्प चर्चा है. फिल्म
बनाने का आसान दिखने वाला काम कितना कठिन है, पता चलता है. चर्चा में गुलज़ार की
तमाम फिल्मों के लिखने-बनने की तफसील है जो न केवल जानकारी से भरी है अपितु गज़ब की
रोचक भी है. कई पृष्ठों में फैली फिल्म निर्माण की अंदरूनी अनुभवजनित बातचीत किताब
को अलग तरह से मूल्यवान बनाती है. बेटी बोस्की के बहाने पिता गुलज़ार को जानना भी
अलग तरह का अनुभव है. गुलज़ार और बोस्की की कहानी पर काफी पृष्ठ है और हमारी
जिज्ञासा को शांत करते हैं. वे कहते हैं –“बोसकी के ताल पाताल’ तेरहवें जन्मदिन
की किताब थी. यह साल कुछ खास था. एक मैसेज देना था,जो पहले से अलग था.” इसके
बाद संगीत और शब्द की गहराई पर क्लासिक संवाद पाठक को समृद्ध करता है. यशवंत यहाँ
उनसे शनदार जुगलबंदी करते नजर आते हैं. संजीव की भीगी सी याद और उनकी बरसी पर लिखी
कविता पाठक को भी नम कर देती है. आखरी में आभार और काम की फेहरिस्त के साथ अध्ययन
कक्ष के बीच यशवंत व्यास और गुलज़ार की कहती-सुनती तस्वीर आपकी नज़रों में ठहर जाती
है.
पन्नों से
उतर कर एक गुलज़ार की एक कविता जैसे आपको बिदा करने आती है --
मैं
अपनी फिल्मों में सब जगह हूँ
सजावटें
और बनावटें सारी मुझसे उतारी हैं, मैंने दी हैं
वो
ढलते सूरज की शान-ओ-शौकत, गुरुर मैं हूँ
वो
दिन भी मेरी ही सल्तनत था जो लुट गया
वो
सुबह जो पत्तियों के पीछे नाहा कर तैयार हो रही है
उसे
भी मैंने ही उस जगह पर खड़ा किया है
कहानियों
के बहुत से किरदार हैं जो मैं हूँ
सभी
में से कोई न कोई हिस्सा है मेरी अपनी जिंदगी का
किसी
अपाहिज के दस्त-ओ-बाजू उतारके मैंने रख लिए हैं
कहीं पर मैं
अपनी जात पर रहम खा रहा हूँ
कहीं पे अपनी
जात से इन्तेकाम लेकर, हरीफ पर चोट कर रहा हूँ
वो शौक मेरे.
खौफ मेरे
अधूरे पूरे, जो
मेरे अन्दर बसे हुए हैं
ग्लेशियर की
तरह खड़े हैं
मेरी
उम्मीदें भी पस-मंजर अलाप कराती सुनाई देंगी
मेरी ये
फ़िल्में हैं और मैं हूँ .
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पुस्तक – बोसकीयाना
पेशकार – यशवंत व्यास
प्रकाशक- राधकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
-११० ०५१
मूल्य – रू.१२००/---
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आलेख
जवाहर चौधरी
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म: 15 सितम्बर, 1927; मृत्यु: 23 सितम्बर, 1983) वे प्रसिद्ध कवि एवं कथाकार थे । सर्वेश्वर दयाल सक्सेना 'तीसरे सप्तक' के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं । कविता के अतिरिक्त उन्होंने कहानी, नाटक और बाल साहित्य भी रचा । वे आकाशवाणी में सहायक निर्माता; दिनमान के उपसंपादक तथा पराग के संपादक रहे । र्वेश्वर दयाल सक्सेना का साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ । ‘चरचे और चरखे’ स्तम्भ में दिनमान में छपे आपके लेख विशेष लोकप्रिय रहे । सन 1983 में कविता संग्रह ‘खूँटियों पर टंगे लोग’ के लिए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया । यहाँ उनके व्यंग्य नाटक बकरी पर एक टिप्पणी ।
सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना के इस
राजनीतिक व्यंग्य नाटक का कथा सारांश यह है कि कुछ बेकार, अपराधी, उचक्कों को एक भिश्ती दिखता है जो मसक (बकरी की खाल में पानी भर कर
छींटने-सींचने में उपयोग किया जाता है) से पानी छींटते और गाते उधर से गुजरता है ।
उसे देख उन्हें एक षड्यंत्रकारी युक्ति सूझती है । वे गाँव से एक बकरी पकड़ कर उसे
गांधीजी की बकरी घोषित कर देते हैं । गरीब बकरी वाले का विरोध अनसुना कर दिया जाता
है । वह गाँव वालों को लेकर आता है लेकिन उनकी भी नहीं चलती है । बकरी को
महिमामंडित कर उसके प्रति आस्था जगाई जाती है और पूजा-पैसा सब मिलने लगता है ।
बकरी उनके लिए राजनीति चमकाने का साधन हो जाती है । दारोगा,
पंडित, कानून और धन
सहयोगी होते हैं । बकरी सेवा संघ, बकरी सेवा प्रतिष्ठान, बकरी सेवा मण्डल आदि बनाए जाते हैं । एक युवा गाँव वालों को समझता है कि
वे लोग तुम्हें मूर्ख बना रहे हैं । आज गांधी कि बता कर बकरी ले गए, कल कृष्ण कि बता कर गाय ले लेंगे परसों बलराम के बैल कह कर उन्हें छीन ले
जाएंगे । लेकिन डरे, दबे, अशिक्षित, धर्मभीरु, असुरक्षित, निरुपाय
गरीब गाँव वाले नहीं मानते । उधर बकरी उठाने वाले चुनाव चिन्ह ‘बकरी’ पर वोट लेने
में सफल हो जाते हैं । जीत के बाद के होने वाले जश्न में उसी बकरी को पकाया जाता
है । अब सत्ता है, सरकार है तो ईनाम,
पुरस्कार, सहायता आदि का सिलसिला चलता है । चूंकि मसक वाले
से ही उन्हें आइडिया मिला था, इसलिए उसको पुरस्कार के तौर पर
बकरी की खुबसूरत ताजा खाल दी जाती है ताकि वह नयी मसक बना कर पूरे जोश के साथ अपना
काम करे । नाटक का अंत भिश्ती के बेटे और
गाँव वालों के उग्र विरोध से होता है ।
1974
में लिखा गया सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का यह नाटक भारतीय लोकतन्त्र के उन छिद्रों
को रेखांकित करता है जिनको आज भी दुरुस्त नहीं किया जा सका है । बल्कि यह कहा जा
सकता है कि इनमें वृद्धि हुई है । पाँच दशकों में कई सरकारें बदलीं, अनेक पार्टियां सत्ता में आईं गईं लेकिन सत्ता
का चरित्र नहीं बदला । विचारधाराएँ भिन्न हो सकती हैं, झंडे
अलग हो सकते हैं, आदर्शों में होड हो सकती है लेकिन एक
फार्मूले की तरह राजपथ के टेढ़े रास्तों में कहीं कोई बदलाव नहीं दिखाई देता है ।
हर सत्ता को धर्म, कानून, पुलिस, सेना और अपराधियों का संबल होता है । बकरी बोल नहीं सकती है सो उसका मनचाहा इस्तेमाल
किया जा सकता है । यहाँ बकरी एक प्रतीक भर है । बकरी की जगह आज गाय हो सकती है, नदियां, पेड़, पौधे, पक्षी हो सकते हैं, दिवंगत महापुरुष, लीडर, संत आदि हो सकते हैं । यही क्यों बकरी कि जगह
संस्कृति या इतिहास भी हो सकते हैं । आमजन रोटी से लड़ता रहे और विचार तक नहीं पहुंचे । लोगों को उतना ही मिलना
चाहिए कि वह अगले चुनाव में फिर वोट देते समय बहकने को तैयार किए जा सकें । हर
दल ने एक बकरी बांध रखी है, कोई गांधी की बता सकता है तो कोई अयोध्या की । बकरी को आगे करके वोट खींच
लिए जाते हैं उसके बाद जनता जनार्दन को कुछ नहीं मिलता सिवा खाल के । बकरी हमारी
लोकतान्त्रिक व्यवस्था का प्रामाणिक दस्तावेज़ है । नाटक हमारी राजनीति का कुरूप
चेहरा दिखाता है जो पाठक/दर्शक स्तब्ध कर देता है ।
नाटक
में जगह जगह पंच लाइन हैं जिनकी मार दूर तक जाती है । बकरी वाला बताता है कि उसकी
बकरी दो हजार की है तो जवाब आता “गांधीजी की बकरी है, दो हजार की नहीं सौ करोड़ की है” (अब सवा सौ )।
“गांधी जी कि बकरी शाकाहारी होती है ।“ “बकरी सादगी, प्रेम
और अहिंसा का पाठ पढ़ती है ..... जब उसने आज तक तुझे कुछ कहा (पढ़ाया) नहीं तो बकरी
तेरी कैसे हो गयी !” वगैरह । इस नाटक में पांच गीतों का
रचनात्मक प्रयोग किया गया। प्रमुख गीत 'बकरी को क्या पता था, मशक बन कर रहेगी, पानी भरेंगे लोग और यह कुछ न कहेगी', 'धर्म-ईश्वर-भाग्य
सबकी उंगलियों पर नाचता है', 'जिस धूल से शहरों में मची
रंगरेलियां जिन छप्परों के बल पर खड़ी हैं हवेलियां उस आदमी को आदमी वह मानते नहीं,
जब काम निकल जाता है पहचानते नहीं', 'हर ऐश
करा जाएगी यह गांधी जी की बकरी' और 'दिन
में दो रोटी के हो जब देश में लाले पड़े, हो सभी खामोश सबकी
जबां पर ताले पड़े' से कथानक को प्रभावी बनाते हैं ।
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