Sunday, May 15, 2022

समय की नब्ज़ पकड़कर चलता एक व्यंग्य संग्रह


 समीक्षा आलेख : 

व्यंग्य संग्रह : गाँधीजी की लाठी में कोपलें 
लेखक : जवाहर चौधरी 
प्रकाशक : अद्विक पब्लिकेशन प्रा॰ लि॰ दिल्ली 
मूल्य : 160/- 
समीक्षक : शैलेन्द्र शरण 

"समय की नब्ज़ पकड़कर चलता 
एक व्यंग्य संग्रह"


प्रेमचंदजी साहित्य के  उद्देश्य के संबंध में कहते हैं कि - “निस्संदेह काव्य और  साहित्य का उद्देश्य  हमारी अनुभूतियों की तीव्रता बढ़ाना है, पर मनुष्य का जीवन केवल स्त्री-पुरुष प्रेम का जीवन नहीं है । साहित्य उसी रचना को कहेंगे,  जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और सुंदर हो तथा जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो।
साहित्य की विधा कोई भी हो वह साहित्य तभी होगी जब वह हमारी अनुभूतियों की तीव्रता को बढ़ाती हो, दिल और दिमाग पर असर डालती हो । जवाहर चौधरी जी का व्यंग्य संग्रह "गांधीजी की लाठी में कोंपलें" पढ़ते हुये प्रेमचंद जी के यही शब्द याद आ गए । जवाहर चौधरी जी के व्यंग्य इस कसौटी पर खरे उतरते हैं । उनके व्यंग्य उद्वेलित करते हैं, अनुभूतियों को कुरेदते हैं तथा मन और मस्तिष्क में हलचल सी पैदा करते हैं । 
उनकी एक रेखांकित करने वाली योग्यता यह है कि उनके व्यंग्य बमुश्किल देड़ से दो पृष्ठों से बड़े नहीं होते किन्तु इतने मजबूत होते हैं कि इससे अधिक कहने की उन्हें आवश्यकता ही महसूस नहीं होती और न पाठक को यह अवसर मिल पाता है कि वह कह सके कि इस विषय का अमुक पक्ष छूट गया । विषय चयन के बाद आरंभ करने के लिए उन्हें बस एक पंक्ति के सहारे की जरूरत होती है उसके बाद पंक्ति-दर-पंक्ति जो वे कहते हैं वह किसी चमत्कार की तरह हमें विस्मित करती चलती है । पूरे व्यंग्य को छोटी-छोटी की पंक्तियों में लिखते हुये वे सच इस तरह कहते चले जाते हैं जैसे बात-चीत कर रहे हों । प्रत्येक दूसरी पंक्ति में निहित, ऐसे कटाक्ष बमुश्किल ही अन्य कहीं देखने को मिलते हैं । ये पंक्तियाँ सूत्र वाक्य की तरह होती हैं । याद रह जाती हैं जैसे :
"निर्णय लिया कि नहीं खाएँगे दलित के घर, लेकिन पता नहीं कैसे-कैसे गाँधीछाप विचार आते रहे । "
"राजनीति में भरोसा गले में बंधा ताबीज़ होता है "
"आप आज़ाद हैं, इस बात का अनुभव करने का सबसे अच्छा तरीका ये हैं की मुँह बंद रखिए । बोलिए मत । बोले की अनुभव खत्म । "
"करते करते बैल भी सीख जाता हैं ।"
"समय के साथ शक्ल इतनी बदल जाती है कि आदमी खुद अपने आप से परायापन महसूस करने लगता है । " 
"तू चेनलवालों से जायदा अक्कलवाली हो गई है क्या ।"
"धार्मिक विद्वानों ने कहा है कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है और लोगों ने इस झूठ को श्रद्धापूर्वक पचा लिया । इसी को राष्ट्रप्रेम कहते हैं । " 
"राजनीति कुर्सी के पाये से बंधी कुतिया है । जिसे बैठना हो उसे कुतिया की पीठ सहलाना ही पड़ती है । " 
ऐसे उदाहरण जवाहर चौधरी जी के प्रत्येक व्यंग्य में बहुतायत से पढ़ने को मिलते हैं । 
लेखक मनोभावों को भी व्यंग्य में बड़ी कुशलता से व्यक्त करते हैं । "रॉयल्टी !  ये क्या होता हैं ?" शीर्षक व्यंग्य में इसका सटीक उदाहरण देखने को मिलता है । 
"रॉयल्टी! ये क्या होता है ?" प्रकाशक ने पाण्डुलिपि पर रखे पेपरवेट को उठाकर किनारे किया। "
उनके व्यंग्य के कंटैंट हमेरे मन-मस्तिष्क को आलोकित करते चलते हैं और मुखमंडल को प्रफुल्लित, जैसे हमें जो बात कहनी थी वह बात लेखन ने सटीक उसी तरह कह दी हो । उनके व्यंग्य के विषय विविध हैं । लगभग सभी विषयों पर उनकी कलम चली है और खूब चली है । 
इस संग्रह के पहले ही व्यंग्य "नए अंधों का हाथी" की आरंभिक पंक्तियाँ बेहद सशक्त और निर्भीक हैं वे लिखते हैं " अंधे वे भी होते हैं जिनकी आँखें होती हैं । जैसे खोपड़ी होने का यह मतलब नहीं कि आदमी में दिमाग भी होगा । कहते हैं अनुभव से आदमी सीखता है । अंधे स्पर्श से अनुभव करते हैं ।... अब हाथी देखने को नहीं मिलते हैं । सुना है राजनीति में आ गए हैं । राजनीति में सारे हाथी नहीं होते हैं ; घोड़े, गधे, लोमड़, सियार ही नहीं मेंढक भी होते हैं । राजनीति अगर ठीक से खेली जाये तो मेंढक ही आगे चलकर हाथी हो जाता है ।"  उनकी दृष्टि में राजनीति खेल की तरह है जिसमें मेंढक भी वक़्त पड़ने पर कमाल दिखा सकता है । यह व्यंग्य वर्तमान राजनीति की पड़ताल भी करता है और राजनीतिक विदुपताओं पर उंगली उठाने से नहीं चूकता, न ही किसी तरह का संकोच करता है । जबकि ऐसी निडरता से अधिकतर लेखक बचते नज़र आते हैं । ऐसी निर्भीक अभिव्यक्ति में जोखिम होता है किन्तु जवाहर जी उठाते हैं और सच कहने से गुरेज नहीं करते । वे इस जोखिम से वाकिफ भी हैं इसलिए किताब की छोटी सी भूमिका में कह देते हैं कि " अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर पहरे बहुत हैं लेकिन व्यंग्य प्रायः पकड़ से बाहर रहता है, जब तक कि कोई हाथ धोकर ही पीछे न पड़ा हो । जवाहर चौधरी जी विनम्र भी हैं वरिष्ठ, अनुभवी और स्थापित व्यंग्यकार होकर भी बड़ी विनम्रता से कहते हैं । " हिन्दी में बड़े-बड़े व्यंग्य लेखक सक्रिय हैं ; मध्यप्रदेश तो व्यंग्य का गढ़ ही है । इनके बीच 'जवाहर चौधरी' नाम तो बहुत छोटा है । " फलदार पेड़ की तरह है उनकी यह विनम्रता । 
उनका यह संग्रह कोविड काल की उपज है । यह एक ऐसा समय था जब दुनिया भय और अनिश्चितता से भरी हुई थी । घर के सदस्य कोविड नियमों का पालन करते हुये 'घर में ही एक दूसरे से दूरी बनाए हुये थे । जवाहर भाई इस विषय में लिखते हैं कि पिछले कुछ वर्षों से बहुत उथल-पुथल सी मची रही मन में । सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक वातावरण विचलित करने वाला बना रहा । कुछ ऐसा घट रहा था जो मंजूर नहीं था लेकिन हो रहा था ।... कितने ही संबंधी, मित्र, परिचित कोविड की भेंट चढ़ गए । जो साथ उठते-बैठते रहे, उनके अंतिम दर्शन तक संभव नहीं हुये । अखबारों और सोशल मीडिया में असंख्य जलती चिताओं को देखकर दिल डूबने लगता है । हर पल संशय, पता नहीं कौन, कब चला जाये । एक छींक से घर का कोना-कोना सहम जाये । जिंदगी जैसे खिड़की पर बैठी गौरैया है, जरा॥ आहट से फुर्र हो जाएगी । लोग इतना डर गए कि हवाओं से भी उन्हें खतरा महसूस होने लगा । यह संवेदना, यह करुणा जवाहर जी के व्यंग्यों में भी यत्र-तत्र उभरकर अलग से दिखाई पड़ती है । सिर्फ कविता ही करुणा से नहीं उपजी, लेखन की प्रत्येक विधा का आवश्यक तत्व है करुणा । 
उनके व्यंग्य की अंतिम पंक्ति किसी व्यङ्गोक्ति की तरह होती है जो हमें विचारों में जकड़ लेती है । इस स्थान पर वे अधिकतम श्रम करते प्रतीत होते हैं क्योंकि यह विशेषता उनके प्रत्येक व्यंग्य में परिलक्षित होती है । शीर्षक व्यंग्य 'गांधीजी की लाठी में कोपलें' के अंत का उदाहरण देखें :
"इधर देर से चुप बैठी चौधरानी बोल पड़ी, "पीपल जब मुंडेर पर उग सकता है तो गांधीजी की लाठी पे क्यूँ नहीं ! चौधरी ने घुड़क दिया, ओए चुप कर... । तू चेनलवालों से ज्यादा अक्कलवाली हो गई है क्या !  
गांधीजी की लाठी पर निकल आई कोपलों को लेकर मीडिया के घमासान को जवाहर जी इस व्यंग्य में बड़े प्रेम से घेरते हैं और जनसामान्य के भीतर जो बातें चल रही होती हैं, वह सब कह देते हैं ।
जवाहर चौधरी जी ने व्यंग्य का जो शिल्प गढ़ा है उसमें वे अलग से पहचाने जा सकते हैं । उनकी भाषा भी उनके नाम की ओर संकेत कर देती है । कम लिखकर अधिक कह जाने की यह कला सबके पास नहीं होती । कोई भी लेखक विषय पर आने के बाद उसे तराशता है, इस तराशने और अपनी बात के समर्थन में दो चार वाक्य अधिक लिख ही देता है । जबकि जवाहर जी के साथ ऐसा नहीं है । वे छोटे-छोटे वाक्यों से लेख को बांधते हैं और विषय से कतई नहीं दूर नहीं होते । समालोच्य किताब में ऐसा कोई भी व्यंग्य ऐसा नहीं है जो महत्वपूर्ण न हो । जिसे पढ़ा जाने से टाला जा सके । भाषा पर उनकी मजबूत पकड़ है, इसी भाषा से वे समाज की विषमताओं की नब्ज़ पकड़ते चलते हैं यहाँ तक कि वे पाठक की नब्ज़ पर भी बराबरी से पकड़ बनाए रखते हैं । समान्य और असामान्य विषयों पर छोटे-छोटे यह व्यंग्य अत्यधिक  कसावट लिए हुये तो हैं ही, साथ ही इनकी मारक क्षमता इन्हें पढ़कर ही महसूस की जाना चाहिए ।  
                   


  






79, रेल्वे कॉलोनी, इन्दिरा पार्क के पास 
आनंद नगर : खंडवा 450001 (म॰प्र॰)
8989423676 & 9098433544

Tuesday, October 5, 2021

बुंदेलखंड का समृद्ध कला-फलक

 




बुंदेलखंड का समृद्ध कला-फलक

 # जवाहर चौधरी

मध्यप्रदेश भारत का हृदय है . तीन लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र वाला मध्यप्रदेश  देश का राजस्थान के बाद दूसरा बड़ा राज्य है . भारत के केंद्र में होने के कारण समय की हर हलचल के निशान यहाँ की भूमि पर मौजूद हैं . मौर्यकाल से लगा कर मराठा शासकों तक और उसके बाद ब्रिटिश शासन सहित मध्यप्रदेश की माटी विभिन्न सत्ताओं की साक्षी रही है . लगभग साढ़े चार सौ वर्ष यहाँ मुगल शासन भी रहा . मुगलों के पतन के बाद इसके अधिकांश भाग पर मराठा शासन स्थापित हुआ . आजादी मिलने के बाद 1950 में नए सीमांकन के साथ मध्यप्रदेश का निर्माण हुआ . सन 2000 में छत्तीसगढ़ एक अलग राज्य बनाया गया और वर्त्तमान मध्यप्रदेश स्वरुप में आया .

           मध्यप्रदेश की वैभवशाली भूमि पहाड़ों, जंगलों, नदियों, समृद्ध ऐतिहासिक विरासत और सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता व लोक कलाओं से दीप्त है . यही वजह है कि समय समय पर जिज्ञासु विद्वजन  शोधकार्य के लिए मध्यप्रदेश को प्राथमिकता देते रहे हैं . भारतीय कला-अध्येताओं को यहाँ एक विशाल फलक पर अनेक कालखंडों में समृद्ध वास्तुशिल्प, भित्तिचित्र, लोक-कलाएँ, साहित्य आदि को देखने समझने का मौका मिलता है . हाल ही में डॉ नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् के आदिवासी लोक कला एवं विकास अकेदमी के लिए बुंदेलखंड के भित्तिचित्रों को लेकर महत्वपूर्ण शोधकार्य किया है . उनका शोध ग्रन्थ “बुंदेलखंड के भित्तिचित्र” शीर्षक से अकेदमी ने प्रकाशित किया है . भारतीय कला के क्षेत्र में डॉ उपाध्याय का लेखन व शोध देश में बहुत गंभीरता से देखा जाता है . भारतीय चित्रांकन परंपरा, जैन चित्रांकन परंपरा, मालवा के भित्तिचित्र, राजस्थान की चित्रशैलियाँ, भृतहरिकृत श्रंगार शतक, भारतीय कला दृष्टि : हिमालय से हरिद्वार, भारतीय कला के अंतर्संबंध, मिनिएचर पेंटिंग को लेकर ‘द कंसेप्ट ऑफ़ पोर्ट्रेट’,  कान्हेरी गीत गोविन्द : पेंटिंग इन कान्हेरी स्टाइल, द कलर्स फ्रेगरेंस, पेंटिंग इन बुंदेलखंड, आदि चित्रकला पर उनके अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हैं . इसके आलावा साहित्य व कला के विभिन्न अनुशासनों के अंतर्संबंधों, सौंदर्यशास्त्र व हिंदी साहित्य की निबंध विधा पर केन्द्रित अनेक पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं . डॉ नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने हिंदी-अंग्रेजी की अनेक पुस्तकों का संपादन भी किया है तथा उनके ललित निबंध के अनेक संग्रह प्रकाशित हैं . डॉ उपाध्याय राज्य और राष्ट्रिय स्तर के अनेक सम्मानों यथा,  राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान, कलाभूषण सम्मान, नरेश मेहता वांग्मय सम्मान, आदि से सम्मानित हैं . आपको चार्ल्स इण्डिया वालेस ट्रस्ट लंदन, शिमेंगर लेदर जर्मनी और धर्मपाल शोधपीठ से फेलोशिप भी प्राप्त हुई है . आज उनका मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् से हाल ही में प्रकाशित शोध ग्रन्थ “बुंदेलखंड के भित्तिचित्र” पाठकों के सम्मुख है .

टेबल बुक साइज़ में छः सौ से अधिक पृष्ठों की इस पुस्तक में छः परिशिष्ट और नौ अध्याय में शोध सामग्री का विस्तार है . मध्यप्रदेश के अंतर्गत आने वाले बुंदेलखंड के सर्वेक्षण और दस्तावेजीकरण क्षेत्रों में  ग्वालियर, पिछोर, दतिया, निवाड़ी, ओरछा, लिघोरा, मोहनगढ़, जतारा, टीकमगढ़, पपौराजी, बल्देवगढ़, धुबेला,अलीपुरा, छतरपुर, खजुराहो, धुवारा, शाहगढ़, खुरई, पिठौरियाजी, गढ़पहरा, राहतगढ़, सागर, रहली, गढ़ाकोटा, दमोह, बरी कनौरा, हटा, अजयगढ़, पन्ना, सतना और चित्रकूट हैं . इन जगहों पर ऐतिहासिक महत्त्व के महल, मंदिर और बाड़े, लोक कलाओं के संरक्षित केंद्र, इमारतें, गुफाओं आदि को अध्ययन के दायरे में लिया गया है . पुस्तक में वास्तुकला की भव्यता के दर्शन कराते सैकड़ों सुन्दर चित्र हैं जो पाठक के मन में पर्यटन की जिज्ञासा पैदा करते हैं . साथ ही यह भी ध्यान आता है कि हमारी शालेय शिक्षा व्यवस्था में ऐसे प्रयास नहीं हुए कि नयी पीढ़ी को इस मूल्यवान धरोहर का परिचय मिलता .

पुस्तक का पहला अध्याय दतिया पर है . इतिहास विशेषज्ञ श्री केशवचंद्र मिश्र के हवाले से बताया गया है कि बुंदेलखंड शब्द सर्वप्रथम 1335-40 ईसवी के बीच अस्तित्व में आया जब चंदेलों के बाद बुंदेले इस क्षेत्र में प्रविष्ट हुए . ऐतिहासिक विवरण के आलावा इस क्षेत्र को लेकर कुछ महत्वपूर्ण पौराणिक सन्दर्भ भी हैं जिनका जिक्र पुस्तक करती है . दतिया दुर्ग के विषय में सारवान विवरण और सुन्दर चित्र संयोजित हैं . राजा भवानी सिंह के कक्ष में बने भित्तिचित्र के फोटोग्राफ और उनका सूक्ष्म विवरण हैं . राजा पारीच्छत की समाधि के व्यक्ति चित्र और रागरागिनियों से प्रेरित चित्रों को एक अलग परिशिष्ट में बताया गया है . महाराजा विजय बहादुर की छतरी, महाराजा भवानी सिंह की छतरी, गोसाइयों  की छतरी, अवधबिहारी जी का मंदिर, वीरसिंह महल आदि के विषय में विस्तृत चर्चा है . इस अध्याय में चार सौ से अधिक फोटोग्राफ दिए गए हैं जो दतिया की ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासत और जनजीवन को समझने में मदद करते हैं . इसी तरह निवाड़ी अध्याय भी बुन्देली राज्य ओरछा को चित्रित किया है . यहाँ लम्बे समय तक चंदेल राजाओं का शासन रहा जो कलाप्रेमी थे . खजुराहो के विश्वप्रसिद्ध मंदिर इसके साक्ष्य हैं . भगवान राम की मूर्तियों को लेकर विस्तृत जानकारी दी गई है . वीरसिंह जूदेव का शासन काल और उसके बाद तेईस वर्षीय हरदौल जू का प्रसंग जिसमें राजनितिक षड्यंत्र के तहत उनके चरित्र पर लांछन लगाने की कोशिश की गयी . भाभी के सम्मान की रक्षा करते हुए उन्होंने जानते हुए जहर मिला भोजन ग्रहण किया . उनके देहांत पर नौ सौ बुंदेला वीरों ने अपनी जान दे दी थी . हरदौल जू आज भी आसपास के अंचलों में भगवान की तरह पूजे जाते हैं . ओरछा के महलों अट्टालिकाओं में बहुत सुन्दर चित्रण आज कला की धरोहर है जिसके सैकड़ों फोटोग्राफ यहाँ दिए हुए हैं  . डॉ नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने हर फोटो को कला की बारिकी के साथ समझाया है . यहाँ ज्यादातर चित्रांकन साफ हैं और कहीं से भी क्षतिग्रस्त नहीं हैं . वीरसिंह जूदेव जहाँगीर के अच्छे मित्र थे . उन्होंने मित्र के सम्मान में जहाँगीर महल बनवाया था जो ओरछा की बहुत सुन्दर इमारत है . यहाँ जहाँगीर एक दिन रुका था . इसी तरह राय प्रवीण महल, राम राजा मंदिर, चतुर्भुज मंदिर, लक्ष्मी मंदिर, शिव मंदिर, और बेतवा के किनारे महाराजा यशवंत सिंह की छतरी और उनके अन्दर के भित्तिचित्रों को सैकड़ों फोटोग्राफ के माध्यम से बताने का सफल प्रयास किया गया है . टीकमगढ़ से 42 किलोमीटर दूर लिघौरा बसा हुआ है . यहाँ तीन मंदिरों के भित्तिचित्रों को महत्वपूर्ण माने गए हैं  . ये हैं श्री लक्ष्मण जू मंदिर, बड़ा मंदिर और तीसरा भगतराम मंदिर है जो अब नष्ट हो गया है . ओरछा की अष्टगढ़ियाँ चिरगांव, बिजना, तोड़ी फतेह्पुर, घुरवई, बंकापहारी, कारी, पसारी और टहरौली हैं जो राजा रायसिंह के आठ पुत्रों में बंटी जागीरें हैं . सागर जिले में टीकमगढ़ भी एक ऐतिहासिक महत्त्व का स्थान है . आल्हा, उदल और मलखान चंदेलों के वीर सरदार थे जिनके नाम से अनेक कथाएं आज भी प्रचलित हैं . यहाँ के रामनिवास मंदिर और जुगल निवास परिसर में भित्तिचित्र देखने को मिलते हैं . पुस्तक में दिये सुन्दर फोटोग्राफ देख कर इन्हें समझा जा सकता है . टीकमगढ़ से 35 किलोमीटर दूर मोहनगढ़ है . इसके किले की भित्तियों में रामलीला का अंकन है . पास ही जतारा नाम का प्राचीन नगर है . शेरशाह सूरी के पुत्र ने जतारा पर अधिकार कर इसका नाम इस्लामाबाद रख दिया था . बाद में ओरछा नरेश भारतीचन्द  ने अफगानों को खदेड़ कर इसका नाम पुनः जतारा रखा . यहाँ शासकों ने जलाशय, मंदिरों और घाटों का निर्माण कराया . टीकमगढ़ से 26 किलोमीटर दूर बल्देवगढ़ है इसका दुर्ग अब खंडहर हो चुका है . पपौराजी जैन संप्रदाय का एक प्रमुख तीर्थ है . यहाँ 108 मंदिर हैं जो इसकी विशेषता माने जाते हैं . ग्वालियर और झाँसी से लगे छतरपुर की सीमा उत्तरप्रदेश से भी जुड़ी हुई हैं . बुंदेला राजा छत्रसाल इसके संस्थापक माने जाते हैं . निकट ही खजुराहो स्थित है जो मंदिरों और शिल्प के लिए  विश्वप्रसिद्ध है . पुस्तक में खजुराहो पर अलग से परिशिष्ट दिया गया है . छतरपुर के राजमहल, किला और जैन मंदिर महत्वपूर्ण भारतीय वास्तुकला की सुन्दर रचनाएँ हैं .  सागर जिले में शाहगढ़, पिठौरिया जी, खुरई, गढ़पहरा, राहतगढ़, गढ़कोटा पटनागंज और रहली आते हैं . मंदिरों, भवनों, इमारतों में भित्तिचित्रों की सुन्दर श्रंखला यहाँ देखने को मिलती है . दमोह प्राचीन नगर है जहाँ गोंड राजाओं का शासन था . बरी कनोरा दमोह जिले का एक गाँव है जो अब उजाड़ है . यहाँ चंदेलों का एक मंदिर और शाही कोठी हुआ करती थी . इसी तरह पन्ना भी एक प्राचीन नगर है . इसका उल्लेख विष्णुपुराण और पद्मपुराण में भी मिलता है . पन्ना मंदिरों के लिए भी विशेष महत्त्व रखता है . चालीस किलोमीटर दूर अजयगढ़ है जो महल के लिए जाना जाता है . चित्रकूट एक ऐतिहासिक-धार्मिक महत्त्व का स्थान है . इसका आधा भाग उत्तरप्रदेश में है . यहाँ अनेक मंदिर हैं जिनमें बहुत सुन्दर भित्तिचित्र हैं . ग्वालियर जिले के पिछोर में एक गाढ़ी है जिसमें कुछ भित्तिचित्र दिखाई देते हैं . पुस्तक में इन पर भी चर्चा है . छः परिशिष्ट के अंतर्गत शैलचित्र व भित्तिचित्र परंपरा, खजुराहों के मंदिर, ओरछा के शासक, रायप्रवीण, महाकवि केशव और मरण की जीवंत स्मृति यानी छतरी पर विशिष्ट आलेख हैं .

इस शोध ग्रन्थ से गुजरते हुए मध्यप्रदेश के प्रायः उपेक्षित कला फलक को खुलते देखने का सुख मिलता है . डॉ नर्मदाप्रसाद उपाध्याय की भाषा साहित्यिक है किन्तु सरल है . विषय को जितनी सहजता और तरलता से वे पाठक के मानस तक पहुंचा देते हैं ये उनकी साहित्यिक साधना का सुफल है . पुस्तक बहुत परिश्रम और समय ले कर लिखी गयी है . उतने ही मनोयोग और उदारता से मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् ने इसे छपा भी है . ऐसी महत्वपूर्ण कृतियाँ पाठकों के निजी पुस्तकालय में होना चाहिए, संभवतः इस बात का ध्यान रखते हुए अकेदमी ने इसका मूल्य मात्र बारह सौ रुपये रखा है . पूरी पुस्तक ग्लेसी पेपर पर छपी है . प्रिंटिंग दोषरहित है . उम्मीद है मध्यप्रदेश के जागरूक व कला के प्रति संवेदनशील नागरिक इस काम को देख कर संतुष्ट होंगे .

 

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पुस्तक विवरण –

शीर्षक – बुंदेलखंड के भित्तिचित्र

प्रकाशन वर्ष – 2021 , मूल्य – 1200/-- (बारह सौ मात्र )

लेखक- डॉ नर्मदाप्रसाद उपाध्याय

प्रधान संपादक- धर्मेन्द्र पारे


संपादक – अशोक मिश्र

प्रकाशक – आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी (म.प्र. संस्कृति परिषद् ) भोपाल .

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Sunday, May 23, 2021

कहानी संग्रह "कोमा ..." पर प्रकाश कान्त जी की टिपण्णी .



 मार्च -अप्रेल २०२१ में मेरा नया कहानी संग्रह 

"कोमा एवं अन्य कहानियाँ " बोधि प्रकाशन 

से छप कर आया . इसमें पंद्रह कहानियां हैं . 

वरिष्ठ कथाकार आदरणीय प्रकाश कान्त जी 

ने कहानियों पर अपनी प्रतिक्रिया और राय 

दी है, जो भोपाल के अख़बार सुबह सवेरे में 

आज (२३ मई २१ ) को प्रकाशित हुई  है .  

मित्रों प्रकाश जी देवास के हैं और कई 

कहानी संग्रहों और उपन्यासों के रचयिता 


हैं . वे देश भर की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं  में 

बहुत आदर से छपते आ रहे हैं . उनकी राय

 किसी भी लेखक के लिए महत्वपूर्ण है . 

Saturday, April 3, 2021

अनिल करमेले- ( कविता ) बाकी बचे कुछ लोग





श्री अनिल करमेले  - जन्म २ मार्च १९६५ छिंदवाडा, मप्र   . 
चर्चित कवि , कुछ कविता संग्रह प्रकाशित , साहित्य अकादेमी के प्रतिष्ठित दुष्यंत कुमार पुरस्कार से 
सम्मानित . भोपाल में निवास . फोन नं -९४२५६-७५६२२ 







 

Friday, January 22, 2021

बोसकीयाना की खिड़की से ज़िन्दगी के झोंके

                                 

समीक्षा 
जवाहर चौधरी 


फ़िल्में हमारे जीवन में इतनी रच बस गई हैं कि लगता है लोकमानस को दिशा देने का काम करती हैं . यदि फ़िल्मकार गुलज़ार हों तो यह प्रभाव बहुत सलीके से गहरे तक उतरता है . जब १९७१ में फिल्म ‘मेरे अपने’ प्रदर्शित हुई तो हिंदी सिनेमा का मानो एक नया अध्याय खुला. हर उम्र के दर्शक को लगा कि ये उनकी कहानी है, जो घट रहा है वो ठीक उसके आसपास का है. समय की आग, एक आक्रोश को कविता की तरह हर दर्शक ने महसूस किया.  अपनी पहली फिल्म से ही गुलज़ार भारतीय जनमानस में संजीदा फ़िल्मकार के रूप में दर्ज हुए. बाद में परिचय, कोशिश, खुशबू, आंधी, मौसम, किनारा, मीरा, अंगूर, टीवी सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब वगैरह तमाम फ़िल्में किसको याद नहीं हैं ! गीतकार की हैसियत से हिंदी और उर्दू के लिए गुलज़ार वैसे भी एक बड़ा और महत्वपूर्ण नाम है . इसीलिए गुलज़ार को गहराई से जानने की इच्छा प्रायः हर आदमी में रही है. उनको ले कर तमाम लेख, इंटरव्यू, रिपोर्ट वगैरह चाव से पढ़े सुने जाते रहे हैं लेकिन प्यास है की बुझती नहीं. इस बात को शायद जाने-पहचाने प्रयोगशील लेखक, पत्रकार, संपादक डॉ. यशवंत व्यास ने शिद्दत से महसूस किया. वे गुलज़ार के संपर्क में दशकों से हैं. अनेक इंटरव्यू- बातचीत उन्होंने कविता और फिल्मों को लेकर समय समय पर की हैं . ‘बोसकीयाना’ यशवंत व्यास की ताजा पेशकश है जिसमें वे गुलज़ार को पाठकों के लिए यथासंभव खंगालते दिखाई देते हैं . सवा दो सौ पृष्ठों में जितने गुलज़ार हैं उतने ही यशवंत भी उपस्थित दिखाई देते हैं. बोसकीयाना सिर्फ गुलज़ार को जानने की किताब नहीं है, इसमे आप यशवंत व्यास से भी उतना ही मिलते चलते हैं. किताब राधाकृष्ण प्रकाशन ने छापी है लेकिन प्रस्तुति यानी साज-सज्जा, प्रश्नोत्तरी में भाषा-भाव और सौन्दर्य, कलात्मक शोध की बुनावट और कसी हुई सामग्री पेशकार के खाते में दर्ज होती है. वे लिखते हैं- “गुलज़ार से जब भी मिलो, बस मिल जाओ. उनके सामने किसी और के बारे में भी जरा-सा हल्का नहीं बोल सकते. वकार, जुबान और जेब की जाँच हो जाएगी. ये मेरी नहीं हर मिलाने वाले की राय है ”. उर्दू गुलज़ार के लिए ग़ज़ल की, गीत की भाषा है तो संवाद की भी है. यशवंत लिखते हैं कि “मुझे उर्दू नहीं आती, खासतौर से नुक्ते के मामले में मैंने कई बार कहा, सिर्फ ‘ज़िन्दगी’ में नुक्ता ठीक लगना चाहिए, बाकी तो बाकी देख ही लेंगे. उनका कहना था कि लगा दो तो बेहतर ही होगा. मायने बदलने से रह जाएँगे.”

गुलज़ार बहुत कम, बोलते / खुलते हैं. वे अपनी बनाई लक्ष्मण रेखा में रहना पसंद करते हैं. जाहिर है ऐसे में उनसे उनका बहुत कुछ जानने के लिए यशवंत व्यास ने बहुत कोशिश की होगी. किताबें उनका पहला शौक है, यही आज भी है. फ़िल्में उन्होंने की लेकिन मौका मिलते ही किताबों की और लौटे. वे कहते हैं “फ़िल्में आर्ट का बेहद ताकतवर फार्म है. पर यह भी सही है कि इल्म फिल्मों से नहीं किताबों से हासिल होता है.” फिल्मों ने उन्हें शोहरत दी, लेकिन फ़िल्में ही सब कुछ नहीं हैं. “मैं दो-एक वजहों से फिल्मों में गीत लिखता हूँ. पहला मुझे शायरी से प्यार है और गीत उसका मौका देते हैं.  दूसरा मेरी तमाम क्वालिफिकेशन मिलाकर .... इंटर फेल है, कोई मुझे पंद्रह सौ की नौकरी भी नहीं देगा. ये गीत मेरे घर कमाई लाते हैं. इससे मेरा किचन चलता है.” लेकिन उनके गीत केवल ‘व्यावसायिक’ नहीं हैं, उनका साहित्यिक, इंसानी मूल्य अधिक है. वे कहते हैं “जब तक आप यह न जानें कि ज़िन्दगी आम आदमी के साथ कैसे पेश आती है, आपकी संवेदनशीलता का दायरा बड़ा अधूरा रह जाता है, एकदम संकरा रहता है.” “कुछ अफसाने यों हुए कि फोड़ों की तरह निकले. वह हालात, माहौल और सोसाइटी के दिए हुए थे. कभी नज्म कहके खून थूक लिया और कभी अफसाना लिख कर जख्म पर पट्टी बांध ली”.

“शायरी मेरे लिए एक रिले रेस की तरह है . आप कुछ भाव चुनते हैं, कुछ नया जोड़ देते हैं. यह हमेशा आपको जगाए हुए रखती है. मैं उस क्षण की चमक को जीने की कोशिश करता हूँ और यही मुझे आगे बढ़ने के लिए चार्ज कर देती है.”  “बड़े लोगों का लिखा पढ़ते हुए महसूस करता हूँ जितना जाना है उससे कितना ही गुना जानना बाकि है”.

यशवंत व्यास बहुत उलझे हुए सवाल भी पूछते हैं और गुलज़ार से. मसलन “रचना किसी आदमी को किस हद तक निर्मल करती है ? क्योंकि कहा जाता है कि कला आदमी को उद्दात्त बनाती है. मगर हम देखते हैं कि कभी कभी एक अच्छे कलाकार का दूसरा पक्ष बड़ा डार्क होता है. कविताएँ गज़ब की लिखते हैं मगर अफसरी पर बैठते हैं तो घूसखोरी आयर चरित्रहीनता में सानी नहीं गज़ब के हिंसक मगर कविताओं का मफलर डाले साहित्य के जंगल में शान से टहल रहे हैं !” गुलज़ार का उत्तर संक्षिप्त लेकिन बहुत सधा हुआ है. 

किताब के पन्ने पलटते हुए महसूस होता है कि गुलज़ार के कितने करीब से गुजर रहे हैं आप. सादगी इतनी कि लगता है दो घर छोड़ कर रहने वाला पड़ौसी हैं कोई. और बातें उनकी हैं या आपके दिल की कहना कठिन. जब वे कहते हैं कि ”मशीनों को हेंडल करना सीख सकते हैं लेकिन इंसानी रिश्तों को हेंडल करना सीखना मुश्किल है”. तब बरबस मुँह से निकलता है ‘यही तो’. बार बार हम चौंकते हैं कि हर बार उनसे सहमत हैं !!  कम शब्दों में, बहुत नपातुला और सारवान ! हर वक्तव्य शोधा सा. वे कहते हैं  जब आप ज्यादा बोलने लगते हैं तो जनता आपको सुनना बंद कर देती है. ज्यादा बार कही किसी बात का असर घट जाता है और वह निरर्थक हो जाती है. थोड़े शब्द ज्यादा ताकतवर, ज्यादा असरदार होते हैं”. यहाँ सिर्फ अपनी बात नहीं है, इंडस्ट्री के चलन और चाल पर भी दिलचस्प चर्चा है. फिल्म बनाने का आसान दिखने वाला काम कितना कठिन है, पता चलता है. चर्चा में गुलज़ार की तमाम फिल्मों के लिखने-बनने की तफसील है जो न केवल जानकारी से भरी है अपितु गज़ब की रोचक भी है. कई पृष्ठों में फैली फिल्म निर्माण की अंदरूनी अनुभवजनित बातचीत किताब को अलग तरह से मूल्यवान बनाती है. बेटी बोस्की के बहाने पिता गुलज़ार को जानना भी अलग तरह का अनुभव है. गुलज़ार और बोस्की की कहानी पर काफी पृष्ठ है और हमारी जिज्ञासा को शांत करते हैं. वे कहते हैं –“बोसकी के ताल पाताल’ तेरहवें जन्मदिन की किताब थी. यह साल कुछ खास था. एक मैसेज देना था,जो पहले से अलग था.” इसके बाद संगीत और शब्द की गहराई पर क्लासिक संवाद पाठक को समृद्ध करता है. यशवंत यहाँ उनसे शनदार जुगलबंदी करते नजर आते हैं. संजीव की भीगी सी याद और उनकी बरसी पर लिखी कविता पाठक को भी नम कर देती है. आखरी में आभार और काम की फेहरिस्त के साथ अध्ययन कक्ष के बीच यशवंत व्यास और गुलज़ार की कहती-सुनती तस्वीर आपकी नज़रों में ठहर जाती है.

पन्नों से उतर कर एक गुलज़ार की एक कविता जैसे आपको बिदा करने आती है --

मैं अपनी फिल्मों में सब जगह हूँ

सजावटें और बनावटें सारी मुझसे उतारी हैं, मैंने दी हैं

वो ढलते सूरज की शान-ओ-शौकत, गुरुर मैं हूँ

वो दिन भी मेरी ही सल्तनत था जो लुट गया

वो सुबह जो पत्तियों के पीछे नाहा कर तैयार हो रही है

उसे भी मैंने ही उस जगह पर खड़ा किया है

कहानियों के बहुत से किरदार हैं जो मैं हूँ

सभी में से कोई न कोई हिस्सा है मेरी अपनी जिंदगी का

किसी अपाहिज के दस्त-ओ-बाजू उतारके मैंने रख लिए हैं

कहीं पर मैं अपनी जात पर रहम खा रहा हूँ

कहीं पे अपनी जात से इन्तेकाम लेकर, हरीफ पर चोट कर रहा हूँ

वो शौक मेरे. खौफ मेरे

अधूरे पूरे, जो मेरे अन्दर बसे हुए हैं

ग्लेशियर की तरह खड़े हैं

मेरी उम्मीदें भी पस-मंजर अलाप कराती सुनाई देंगी

मेरी ये फ़िल्में हैं और मैं हूँ .

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पुस्तक – बोसकीयाना

पेशकार – यशवंत व्यास

प्रकाशक- राधकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली -११० ०५१

मूल्य –  रू.१२००/---

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Wednesday, July 8, 2020

नाटक ‘बकरी’ : हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का दस्तावेज़


आलेख 

                      जवाहर चौधरी  


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म: 15 सितम्बर1927; मृत्यु: 23 सितम्बर1983) वे प्रसिद्ध कवि एवं कथाकार थे । सर्वेश्वर दयाल सक्सेना 'तीसरे सप्तक' के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं ।  कविता के अतिरिक्त उन्होंने कहानीनाटक और बाल साहित्य भी रचा । वे आकाशवाणी में सहायक निर्माता; दिनमान के उपसंपादक तथा पराग के संपादक रहे । र्वेश्वर दयाल सक्सेना का साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ । चरचे और चरखेस्तम्भ में दिनमान में छपे आपके लेख विशेष लोकप्रिय रहे । सन 1983 में कविता संग्रह खूँटियों पर टंगे लोगके लिए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया । यहाँ उनके व्यंग्य नाटक बकरी पर एक टिप्पणी ।

 

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के इस राजनीतिक व्यंग्य नाटक का कथा सारांश यह है कि कुछ बेकार, अपराधी, उचक्कों को एक भिश्ती दिखता है जो मसक (बकरी की खाल में पानी भर कर छींटने-सींचने में उपयोग किया जाता है) से पानी छींटते और गाते उधर से गुजरता है । उसे देख उन्हें एक षड्यंत्रकारी युक्ति सूझती है । वे गाँव से एक बकरी पकड़ कर उसे गांधीजी की बकरी घोषित कर देते हैं । गरीब बकरी वाले का विरोध अनसुना कर दिया जाता है । वह गाँव वालों को लेकर आता है लेकिन उनकी भी नहीं चलती है । बकरी को महिमामंडित कर उसके प्रति आस्था जगाई जाती है और पूजा-पैसा सब मिलने लगता है । बकरी उनके लिए राजनीति चमकाने का साधन हो जाती है । दारोगा, पंडित, कानून  और धन सहयोगी होते हैं । बकरी सेवा संघ, बकरी सेवा प्रतिष्ठान, बकरी सेवा मण्डल आदि बनाए जाते हैं । एक युवा गाँव वालों को समझता है कि वे लोग तुम्हें मूर्ख बना रहे हैं । आज गांधी कि बता कर बकरी ले गए, कल कृष्ण कि बता कर गाय ले लेंगे परसों बलराम के बैल कह कर उन्हें छीन ले जाएंगे । लेकिन डरे, दबे, अशिक्षित, धर्मभीरु, असुरक्षित, निरुपाय गरीब गाँव वाले नहीं मानते । उधर बकरी उठाने वाले चुनाव चिन्ह ‘बकरी’ पर वोट लेने में सफल हो जाते हैं । जीत के बाद के होने वाले जश्न में उसी बकरी को पकाया जाता है । अब सत्ता है, सरकार है तो ईनाम, पुरस्कार, सहायता आदि का सिलसिला चलता है । चूंकि मसक वाले से ही उन्हें आइडिया मिला था, इसलिए उसको पुरस्कार के तौर पर बकरी की खुबसूरत ताजा खाल दी जाती है ताकि वह नयी मसक बना कर पूरे जोश के साथ अपना काम करे । नाटक का अंत भिश्ती के  बेटे और गाँव वालों के उग्र विरोध से होता है ।

1974 में लिखा गया सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का यह नाटक भारतीय लोकतन्त्र के उन छिद्रों को रेखांकित करता है जिनको आज भी दुरुस्त नहीं किया जा सका है । बल्कि यह कहा जा सकता है कि इनमें वृद्धि हुई है । पाँच दशकों में कई सरकारें बदलीं, अनेक पार्टियां सत्ता में आईं गईं लेकिन सत्ता का चरित्र नहीं बदला । विचारधाराएँ भिन्न हो सकती हैं, झंडे अलग हो सकते हैं, आदर्शों में होड हो सकती है लेकिन एक फार्मूले की तरह राजपथ के टेढ़े रास्तों में कहीं कोई बदलाव नहीं दिखाई देता है । हर सत्ता को धर्म, कानून, पुलिस, सेना और अपराधियों का संबल होता है ।  बकरी बोल नहीं सकती है सो उसका मनचाहा इस्तेमाल किया जा सकता है । यहाँ बकरी एक प्रतीक भर है । बकरी की जगह आज गाय हो सकती है, नदियां, पेड़, पौधे, पक्षी हो सकते हैं, दिवंगत महापुरुष, लीडर, संत आदि हो सकते हैं । यही क्यों बकरी कि जगह संस्कृति या इतिहास भी हो सकते हैं । आमजन रोटी से लड़ता रहे और  विचार तक नहीं पहुंचे । लोगों को उतना ही मिलना चाहिए कि वह अगले चुनाव में फिर वोट देते समय बहकने को तैयार किए जा सकें । हर दल  ने एक बकरी बांध रखी है, कोई गांधी की बता सकता है तो कोई अयोध्या की । बकरी को आगे करके वोट खींच लिए जाते हैं उसके बाद जनता जनार्दन को कुछ नहीं मिलता सिवा खाल के । बकरी हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का प्रामाणिक दस्तावेज़ है । नाटक हमारी राजनीति का कुरूप चेहरा दिखाता है जो पाठक/दर्शक स्तब्ध कर देता है । 

नाटक में जगह जगह पंच लाइन हैं जिनकी मार दूर तक जाती है । बकरी वाला बताता है कि उसकी बकरी दो हजार की है तो जवाब आता “गांधीजी की बकरी है, दो हजार की नहीं सौ करोड़ की है” (अब सवा सौ )। “गांधी जी कि बकरी शाकाहारी होती है ।“ “बकरी सादगी, प्रेम और अहिंसा का पाठ पढ़ती है ..... जब उसने आज तक तुझे कुछ कहा (पढ़ाया) नहीं तो बकरी तेरी कैसे हो गयी !” वगैरह । इस नाटक में पांच गीतों का रचनात्मक प्रयोग किया गया। प्रमुख गीत 'बकरी को क्या पता था, मशक बन कर रहेगी, पानी भरेंगे लोग और यह कुछ न कहेगी', 'धर्म-ईश्वर-भाग्य सबकी उंगलियों पर नाचता है', 'जिस धूल से शहरों में मची रंगरेलियां जिन छप्परों के बल पर खड़ी हैं हवेलियां उस आदमी को आदमी वह मानते नहीं, जब काम निकल जाता है पहचानते नहीं', 'हर ऐश करा जाएगी यह गांधी जी की बकरी' और 'दिन में दो रोटी के हो जब देश में लाले पड़े, हो सभी खामोश सबकी जबां पर ताले पड़े' से कथानक को प्रभावी बनाते हैं ।

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Monday, May 18, 2020

वो जो रस्किन बॉन्ड है !


आलेख 
जवाहर चौधरी 


रस्किन बॉन्ड का नाम मेरी उम्र के लोग भी बचपन से सुनते आ रहे हैं । बहुत से लोग उन्हें कहानी वाले बाबा भी कहते हैं । खूब कहानियाँ लिखी हैं उन्होने, खासकर बच्चों के लिए । 19 मई 1934 को भारत में ही जन्में थे रस्किन । आजादी के बाद वे भारत में ही रहे । माता-पिता गोरे, इंगलेंड से थे सो देखने में वे विदेशी लगते हैं लेकिन हैं भारतीय, और भारतीयता से भरे हुए भी । हिमाचल प्रदेश के कसौली में पैदा हुए थे सो पहाड़ी जीवन और प्रकृति उनकी रचनाओं में जीवंत हो कर आते हैं । इस समय यानी 19 मई 2020 को रस्किन 86 वर्ष के हैं और अभी भी काफी सक्रिय हैं । पिछले दिनों लिटरेरी फेस्टिवल में इंदौर आए थे वे और पूरी ऊर्जा से अपनी उपस्थिती दर्ज करवा रहे थे । रस्किन अविवाहित हैं और जाहिर है दैनिक जीवन में कुछ कठिनाइयों के साथ गुजर करते होंगे, खासकर इस उम्र में ।
रस्किन जब सत्रह साल के थे उनका पहला उपन्यास ‘रूम ऑन द रूफ’ छपा था । इसके लिए 1957 में उन्हें जॉन लिवेलीन राइस पुरस्कार मिला था । बाद में अनेक बड़े सम्मान और पुरस्कार रस्किन को मिले । जिसमें भारत का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार 1992 में, पद्मश्री-1999 और पद्मभूषण-2014 उल्लेखनीय हैं । उनके सुदिर्ध काम और योगदान को रेखांकित करने के लिए उन्हे लाइफ टाइम अचिवमेंट अवार्ड -2017 में दिया गया ।
रस्किन ने अनेक उपन्यास, कहानियाँ व निबंध लिखे हैं । कविता की उनकी चार पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं । उनकी लगभग एक सौ तीस किताबें प्रकाशित हैं अब तक । उनकी रचनाओं पर कई फिल्में भी बनी हैं । रस्किन की किताबें प्रायः पाठकों के बीच पहली पसंद होती हैं ।
एक बड़े लेखक का अध्ययन कक्ष प्रायः हमारी जिज्ञासा का सबब होता है । रस्किन कहाँ बैठ कर लिखते हैं । कब लिखते हैं । उनका कमरा कैसा है । बड़े लेखक का अध्ययन कक्ष भी भव्य होता होगा !! लेकिन यहाँ फोटो में रस्किन अपने अध्ययन कक्ष में दिखाई दे रहे हैं । इसे गौर से देखिए, एक बहुत साधारण सा कक्ष है जिसमें रखी सारी चीजें बहुत समान्य हैं । लगता है हमारा अपना ही टेबल और उस पर रखी बेतरतीब किताबें । पास में पड़ा हुआ एक साधारण सिंगल बेड बिस्तर है जिस पर औढने बिछाने की वही चादरें हैं जो हर दूसरे आम घर में दिखाई देती हैं । लकड़ी के दो सादे कस्बाई शेल्फ ठुके हुए हैं जिन पर अखबार बिछा कर समान रख हुआ है । टेल्कम पावडर, तेल की बोतल और कुछ दवाइयाँ भी दिखाई दे रही हैं । दीवार पर क्लिप से कार्य सूची टंगी हुई है । दोनों शेल्फ के बीच बहुत सी चिपकियाँ है जो यादी की का काम करती होंगी । पलंग के नीचे एक पुराना बक्सा है लोहे का । इसे देख कर बावर्ची फिल्म की याद आ रही है । जिसमें घर के मुखिया हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय अपने पलंग के नीचे लोहे बक्सा अंत तक दबाए रखते हैं । टेबल किताबों और फाइलों से इतनी भरी पड़ी है कि रस्किन को पलंग पर बैठ कर जरा सी जगह में लिखना पड़ रहा है । शायद उन्हें अपनी इस बेतरतीबी का ख्याल है इसलिए फोटो खींचने पर असहमति के तीव्र भाव उनके चेहरे पर साफ हैं । दो मनी प्लांट लगे हैं, शेल्फ पर किसी देवी की तस्वीर (पेंटिंग) रखी है दीवार पर भी दो चित्र हैं और एक कछुआ भी । पूरी तरह से एक मध्यवर्गीय समान्य भारतीय का कमरा है । कहीं से भी इसमें इंगलेंड या आधुनिकता की घुसपैठ दिखाई नहीं दे रही है । न ही ऐसी कोई सुविधाएं नजर आ रही हैं जो एक बड़े लेखक को अलग से रेखांकित करती हैं । कहते हैं एक सफल आदमी के पीछे औरत का हाथ होता है जो प्रायः उसकी पत्नी होती है । यहाँ पत्नी नहीं है और कमरा अस्तव्यस्त है तो जाहिर है उसका हाथ भी नहीं है । लेकिन रस्किन सफल है तो वो क्या है जो उन्हें रस्किन बॉन्ड बनाता है !!
शायद इसका जवाब बहुत पहले महाभारत में दिया गया है । अर्जुन को कुछ नहीं दिखता सिवा चिड़िया की आँख के । लेखक जो सुविधाओं में अपनी सफलता ढूंढते हैं वो भ्रम में हैं । बंगला लेखक शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने भी अपना पहला उपन्यास सत्रह साल की उम्र में झड़ियों के बीच बैठ कर लिखा था क्योंकि घर में विभिन्न कारणों से वे लिख नहीं सकते थे । लक्ष्य हो, लगन हो तो बाहरी सुविधा/असुविधा का खास महत्व नहीं रह जाता हैं । सुविधाएं ज़्यादातर मामलों में हमें भटकाती हैं और आलसी बनती हैं । किसी ने ठीक ही कहा है कि आराम, सुविधा और आलस्य के कारण हम वह भी नहीं कर पाते हैं जिसको करने में हम दक्ष या योग्य हैं ।

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Tuesday, April 14, 2020

क्वारंटाइन ! ... नहीं तो !



आलेख 
जवाहर चौधरी 

वैसे तो अक्सर इस खिड़की के पास बैठता हूँ, लेकिन इन दिनों यही एक जगह है जहाँ मुझे बैठने का मौका मिल रहा है । यह खिड़की खास तौर पर मुझे पसंद है, क्योंकि ये आँगन में खुलती है और सड़क से होते हुए दूर खड़े आसमान छूते टीवी टावर और उसके बाद अनंत तक दृष्टि को विस्तार दे देती है । नीला साफ आकाश, कुछ टुकड़े बादल, मंडराती चीलें इस वक्त दीख रही हैं । अभी लॉकडाउन के चलते प्लेन बंद हैं, वरना रोजाना सुबह सात बीस पर मुंबई की पहली उड़ान इसी खिड़की से हो कर जाती है । बांग्ला फिल्मों में जब नायक या नायिका कोई महत्वपूर्ण संवाद बोल कर खिड़की से बाहर देखते हैं तो दृश्य में दूर एक ट्रेन धुंवा उड़ाती गुजरती है । लगता है ढेर सारा अवसाद ट्रेन के साथ छुक छुक करता चला गया । दर्शक एक राहत सी महसूस करते होंगे । ऐसा ही कुछ प्लेन को देख कर भी लगता है । कई बार जब मन उदास होता है इस खिड़की से जरूरी ऊर्जा ले कर उठता हूँ । आज जब क्वारंटाइन में हूँ तो ऑक्सीज़न भी यहीं से मिल रही है, ताजी हवा । खिड़कियाँ हवाओं से कितना याराना रखती हैं । चालीस दिनों के क्वारंटाइन में जीवन मानों इस खिड़की पर सिमट आया है ।
उम्र के बढ़ते जाने के साथ व्यक्ति का संसार सिकुड़ता जाता है । पिताजी की याद आती है । आपाधापी इतनी कि भोर में निकलते तो शाम से पहले कभी घर लौटना उनके लिए संभव नहीं था । लेकिन उम्र के साथ वे अनिच्छा पूर्वक सिमटते चले गए । शहर से मोहल्ला, गली,  उसके बाद घर आँगन और अंत में बिस्तर । संसार इसी तरह किश्तों में छूटता है शायद । उस पुराने घर में ऐसी खिड़की नहीं थी जैसी अभी मेरे सामने है । सही दिशा में खुलने वाली खिड़की हो तो लगता है जीवन है और गति बनी हुई है, चाहे बंद क्यों न हो । आप कहेंगे यह भ्रम है । तो बना रहे भ्रम । भ्रम ही आदमी को सन्यास आश्रम तक खींच लाता है । और सच ! राम नाम के साथ मिल कर सत्य हो जाता है । पच्चीस दिन हो गए बंद हुए लेकिन इस खिड़की की वजह से लगता नहीं कि कहीं कुछ छूट रहा है ।  बल्कि रोज ही ऐसा कुछ नया जुड़ रहा है जो पहले संज्ञान में नहीं था । मानो बंद पहले था, अब तो खुल रहा है ।  
सामने अशोक का पेड़ है । पैंतीस छत्तीस वर्ष हुए इसे बच्चे की तरह लाया था एक नर्सरी से । आज देखता हूँ कि कितना बड़ा हो गया है ! आम दिनों में इसकी ओर ध्यान ही नहीं गया कभी । हालांकि मई जून में जब खूब तपन होती है, अपना स्कूटर इसी की छाया में रखता आया हूँ, और बारिश में भी । कभी कभी जब खुले में बैठने का मन होता है इसके नीचे कुर्सी डाल कर बैठता हूँ, किन्तु घ्यान नहीं दिया । लग रहा है स्वार्थी हूँ, मतलबी कहीं का । लेकिन आज इस खिड़की से अपने इस अशोक को देखते हुए जाने क्यों लग रहा है जैसे बरसों बाद अपने युवा बेटे से मिल रहा हूँ ! जैसे आँगन में खड़ा वह मुस्करा रहा है, अभी भी । उसकी खुशी हिलते पत्तों और झूलती डालों से व्यक्त हो रही है । यंत्रवत मेरा हाथ उठता है और अशोक की ओर देखते हुए हिला देता हूँ, कुछ ऐसे जैसे उसे पहचान गया हूँ । वह भी झूम उठता है । अशोक ने भी देखा होगा आज मुझे शायद पहली बार गौर से, वरना घंटियाँ सी क्यों बज रही हैं कानों में । सुना है अशोक खूब सारी ऑक्सीज़न देता है । देना ही चाहिए, बच्चे ही तो काम आते हैं जीवन के उत्तरार्ध में ।
अशोक के नीचे छाया में एक पटिया लगाया हुआ है । बहुत पहले जब लकड़ी का काम चल रहा था घर में, तब पत्नी ने कार्पेंटर से खास तौर पर बनवाया था । इस पर मिट्टी के दो सकोरे रखे हैं । एक पानी का और दूसरे में चूरी हुई रोटी होती है । देख रहा हूँ कि यहाँ  गिलहरियों का एक कुनबा दिन भर उछलकूद करता रहता है । बहुत सी चिड़ियाएँ हैं, गौरैया, ललमुनिया, मैना का जोड़ा और कबूतर भी । बहुत छोटी, गहरे काले रंग की दो चिड़िया भी आती है लंबी चोंच वाली । ये रोटी नहीं खाती हैं , गुड़हल का पौधा है, उसके फूलों से कुछ चुनती सोखती रहती हैं । इतना मीठा बोलती हैं कि लगता है जैसे अपने होने का कर्ज उतार रही हैं । आप बैठे सुनते रहिए जब तक मौका मिले । अमरूद के पेड़ से एक कच्चा फल गिरता है, कुतरा हुआ । ये गिलहरी का काम है, बहुत शैतान हैं । कितने सारे फल रोज गिरा देती है । सोचता हूँ ये आँगन, ये फल वाले पेड़, किलकारियों और उछलकूद के नाम ही तो थे । लगता है अकेला नहीं हूँ, भरापूरा घर है । सबने मिल कर इसे अपना घर बनाया है । जोइंट फेमिली है हमारी, और हुकुम है क्वारंटाइन में रहो !!
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Monday, July 22, 2019





आत्मस्वीकृतियाँ 



इस दौर का सबसे ज्यादा पुरस्कृत प्रेम-पत्र
लिखने वाला मैं बहुत बुरा प्रेमी रहा
मैं उन पत्रों से ही प्रेम कर बैठा


जो कभी अपने संताप के विरुद्ध

समय-कुसमय लिखता रहा था



फिर मैंने ही
घृणा की पराकाष्ठा भी लिखी
लेकिन युद्ध करना हमेशा टालता रहा


सुविख्यात कवि
श्री योगेंद्र कृष्णा ( पटना )
 की वाल से      

मजदूरों किसानों वंचितों
के संघर्ष पर
रचनाएं लिख खूब

प्रशंषित-पुरस्कृत होता रहा

लेकिन उनके कभी काम नहीं आया


पेड़ों पहाड़ों नदियों जंगलों
पर खूब कविताएं लिखीं
और उनका कटना सूखना और जलना

केवल निहारता रहा

शून्य में अदृश्य का सुख तलाशता

दृश्य को अनदेखा किया


मेरी जीत को उत्सव में
बदल देने वाले अनगिन अनाम लोग

जीवन की जंग हार चुके थे

और हम दूर से दर्ज करते रहे 

खौफनाक उन दृश्यों को

जबकि बच सकती थी कुछ जानें

हाथ में एक पत्थर भी जो उठाया होता


दुख को इतना मांजता रहा
कि भीतर सुख की चिंदियां
उड़ने लगीं लेकिन वो दुख

केवल मेरा रहा और सुख की

चिंदियां भी मेरी


नहीं बोलने की जगह
मुसलसल बोलता रहा
जहां बोलना ज़रूरी था

चुप्पियां चुन लीं

जिन्हें सुनना ज़रूरी नहीं था

उन्हें ही सुनता रहा

और इस तरह दोस्त तो क्या

कोई सच्चा दुश्मन भी नहीं बना पाया

अंधेरों के खिलाफ 
जो भी शब्द बुने
उजालों ने चुन लिए



मुद्दतों बाद
जब घर के आईने में देखा
तो बेहिस अपना चेहरा 

भयावह हासिलों का

अश्लील विज्ञापन-सा दिखा

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