आलेख
जवाहर चौधरी
पश्चिम को अपना आदर्ष मानने और अनुकरण करने वाले हम गरीब देश प्रायः उन बातों को अनदेखा कर देते हैं जो धीमे जहर की तरह हमारे लिये घातक बन रही है । गत वर्ष की एक घटना है । अमेरिका में जार्ज नाम का व्यक्ति एक कंपनी में पिछले तीस वर्षों से काम कर रहा था । इस दफ्तर में अन्य कई लोग भी काम करते हैं , कार्य सतत् शिफ्टों में चलता है । जार्ज के पास भी उसके कार्य का दायित्व था जिसकी साप्ताहिक रिपोर्ट देना होती थी । एक सोमवार दफ्तर में उसे हार्ट अटैक हुआ और वह अपनी टेबल पर सर रखे अचेत हो गया तथा बाद में मर गया । लेकिन टारगेट हांसिल करने के चक्कर में कागजों में डूबे रहने वाले कर्मचारियों में से किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं गया । सब अपना काम करते आते और जाते रहे । सप्ताहंत में जब सफाई कर्मचारी काम कर रहा था तो उसने देखा कि जार्ज मर चुका है । पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पाया गया कि उसकी मृत्यु पांच दिन पूर्व हो चुकी है ।
यह खबर चैंकाने वाली है किन्तु पश्चिम समाज में आज के समय में यह संभव है । समझ में यह नहीं आता कि घन के पीछे सब कुछ भूल कर रात दिन भागते रहने का कारण क्या है ! आखिर संपन्नता का लक्ष्य क्या है ? दफ्तर के साथी काम के इतने दबाव में क्यों हैं कि उन्होंने पांच दिनों से मरे पड़े अपने साथी की सुध नहीं ली ! परिवार वाले कहां व्यस्त थे ! माना कि वहां परिवार के सदस्य अलग अलग समय में आ कर विश्राम कर वापस काम पर लौट जाते हैं और प्रायः सप्ताहांत में ही मिलते हैं । लेकिन क्या पांच दिनों तक उन्हें फोन पर संवाद करने का भी समय नहीं मिला ! जरूरत नहीं होने पर भी संवाद करना क्या वहां परिवार की आवश्यकता नहीं है ?! किसी अनजानी सफलता या लक्ष्य को पा लेने में अपने को काम में झोंके रखना एक नशा या लत तो नहीं है ! जिनकी आवश्यकता हजारों की है उन्हें लाखों क्यों चाहिये ! जो लाखों पा रहे हैं वे करोडों के लिये क्यों दौड़े जा रहे हें ! उन्हें क्यों पता नहीं पड़ता कि इस दौड़ के चलते वे कब मनुष्य से मशीन बन गए हैं । उनके पास अपने परिवार के लिये समय नहीं हैं , न मित्रों के लिये है और न ही स्वयं अपने लिये । ज्यादा समय वे थके और चिड़चिड़े से रहते हैं । उन्हें ठीक से नींद भी नहीं आती है । प्रायः वे सिर दर्द , बदन दर्द और पेनकिलर्स को अपना जीवन साथी बना चुकते हैं । उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियां कब प्रेयसी की तरह दिल में जगह बना लेतीं हैं पता नहीं चलता ! अक्सर युवावस्था में ही हमारी मानव मशीनें डाक्टर और दवा के सहारे हो जाती हैं । हासिल होने के बाद भी दौलत काम आ जाए यह जरूरी नहीं है । विकास के नाम पर ये किस तरह के समाज की रचना कर ली है हमने !
जिस तरह पश्चिम और उसकी कार्य संस्कृति हमारे यहां फैल रही है वह चिंता जनक है । भरपूर वेतन के प्रस्ताव के साथ सात दिन-चैबीस घंटों की मांग करने वाले विज्ञापन दिखाई देने लगे हैं । क्या अधिक वेतन के लालच में हम अपने बच्चों या परिवार के किसी भी सदस्य को इस तरह के दलदल में फैंक देंगे ? परिवार की भूमिका इस मामले में अहम होनी चाहिये । स्वास्थ्य या जान की कीमत पर कुछ गैरजरूरी आवश्यकताएं तत्काल पूरी होने से रह भी जाएं तो परिवार को धैर्य रखना चाहिये ।
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