Saturday, January 30, 2010

* क्या गांधी केवल एक मूर्ति का नाम है ?

आलेख 
जवाहर चौधरी 



उत्तर प्रदेश की विधान सभा में 29 जनवरी को मुख्यमंत्री मायावती ने विपक्षी दलों पर दलित महापुरुषों की मूर्तियों के मुद्दे पर ‘‘करारे हमले’’ किये । करना भी चाहिये , एक तो वे मुख्यमंत्री हैं इसलिये उनका अधिकार बनता है कि वे जो भी सही-गलत करें उसका मजबूती से बचाव करें । दूसरा इसलिये भी कि महापुरुषों की आड़ में उन्होंने खुद मूर्ति बन कर महानता हड़प लेने का भ्रम पाल लिया है । जब दुनिया महापुरुष को देखेगी तो मजबूरन उन्हें निरखना ही पड़ेगा । तीसरा ये कि जब दूसरों ने , यानी अ-दलितों ने अपने महापुरुषों की मूर्तियों से देश की जमीन आंट दी है तो मौका मिलते ही पांच-दस सालों में सैकड़ों सालों का हिसाब बराबर भी किया जाना है वरना बाद में लोग कहने से नहीं चूकेंगे कि इतना भी नहीं कर पाईं । यू.पी. का पानी है भई , हिसाब मांगता है । चौथा ये कि मूर्तियों का मुद्दा है तो सारे विपक्षी इसी पर छाती कूट रहे हैं अन्यथा और भी गम हैं जमाने में फजीहत करने के लिये । उससे बचने का अच्छा तरीका है ।


लेकिन केवल मूर्तियों के सहारे न तो भगवान बना जा सकता है और न ही महान । अगर विचार जिन्दा नहीं रह पाएं तो सचमुच के महापुरुषों की मूर्तिया भी परिन्दों का शौचालय बन जातीं हैं । विचारों का संवर्धन केवल ‘करारे हमले’ करने से नहीं होता हैं, बढ़िया राजनीति भले ही हो जाए ।

विचारों के केन्द्र होते हैं पुस्तकालय, किताबें, पत्र-पत्रिकाएं, लेखक-चिंतक, लेखक- संगठन, कवि-साहित्यकार आदि । इस समय दलित चिंतन शिखर पर है किन्तु उसे कहीं से भी उचित संरक्षण प्राप्त नहीं है । दलित साहित्य और विचार पूरी गरिमा के साथ सामने नहीं आ पा रहा है । केवल मुख्यमंत्रीजी की प्रशस्ति में माटे-मोटे ग्रंथ निकालना दलित साहित्य या विचार नहीं हो सकता है । महापुरुष अपनी प्रशस्ति में किताबें प्रयोजित नहीं करवाते हैं , वे विचार प्रकट करते हैं और अन्यों के विचारों को आगे बढ़ाते हैं । उ.प्र. सरकार ने पुस्तकालयों के लिये ऐसी कोई योजना नहीं बनाई है जिसकी चर्चा देश में हुई हो । न ही उन्होंने दलित विचारधारा वाले लेखकों - चिंतकों का कोई उल्लेखनीय राष्ठ्र्ीय सम्मेलन उ.प्र. में करवाया है जिससे समाज कल्याण के नए सूत्र-समीकरण और विचार उभर कर आएं । देशभर में इनदिनों दलित लेखन से जुड़े बड़े लेखक-विचारक चर्चित हैं , लेकिन दलितों की पैरोकार सरकार ने इनका नोटिस नहीं लिया प्रतीत होता है । मूर्तियों के लिये लोगों की परवाह किये बिना ,करोड़ों का वित्त-प्रावधान और कानूनी प्रावधान करने वाली सरकार ने विचार के लिये क्या प्रावधान किया है इसका कहीं कोई जिक्र क्यों नहीं है ? कांग्रेस ने गांधी और नेहरु की मूर्तियां केवल किसी राजनीतिक प्रतिक्रिया स्वरुप स्थापित नहीं करवाई हैं , उनके विचारों पर भी काम किया है । क्या गांधी भारत में केवल एक मूर्ति का नाम है ? दुनिया में , इतिहास में, जहां गांधी की मूर्ति नहीं है वहां क्या गांधी नहीं है ?

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