Friday, February 19, 2010

* बदली भूमिका में कौरव





आलेख 
जवाहर चौधरी 


तेलुगु लेखक वाई. लक्ष्मीप्रसाद के उपन्यास ‘द्रोपदी’ को किन्हीं लोगों ने पढ़ लिया है ! उसके चरित्र के बारे में समझ लिया है ! उसमें अश्लीलता दिखी ! वे आहत हुए हैं और इसे मुद्दा बना कर उन्होंने हंगामा मचाया है ! यह जान कर बड़ा संतोष होता है और यह बात भ्रम प्रतीत होती है कि हमारे यहां लोग साहित्य पढ़ते नहीं है, उनके पास उपन्यास जैसी बड़ी कृतियों को पढ़ने का समय नहीं है । इस बात पर मतभेद हो सकते हैं कि पढ़ने वालों ने तथ्यों को किस रुप में लिया । अनेक विद्वननुमा लोगों के बयान पढ़ने को मिले हैं कि मिथकों से ‘छेड़छाड़’ नहीं की जाना चाहिये । कुछ का कहना है कि यह बरदाश्त से बाहर है । मिथकों को ले कर यह अतिसंवेदनशीलता है , नादानी है या राजनीति इस पर शोध किये जाने की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जाना चाहिये ।

बहरहाल , मिथक पर ही आएं । जैसा कि अन्य धर्मो में भी है , हिन्दू धर्म में अनुयाइयों को भी कथाओं के माध्यम से संदेश दिये गए हैं। कथाओं के पात्र कभी अस्तित्व में रहे हैं इस पर आस्था के अनुरुप मतभिन्नता हो सकती है । कथाओं के पात्र आदर्श , चमत्कारी या अतिमानवीय गुणों से सज्जित होने के कारण आमजन के मनोविज्ञान में ईश्वर के रुप में अपना स्थान बना लेते हैं । धर्म-कर्म में लगे लोग भी अपने प्रयासों से इस भावना को दृढ़ करने में अपनी युक्ति-शक्ति लगाते और सफल होते रहते हैं ।



जहां तक द्रोपदी का प्रश्न है , इस पात्र का स्थान देवी या ईश्वर के रुप में नहीं है । महाभारत में केवल कृष्ण ही देवपात्र हैं । उन्हीं की पूजा होती है , उन्हीं के मंदिर देशभर में पाए जाते हैं । किन्तु महाभारत के अन्य सैकड़ों पात्र कहीं भी देव-समान नहीं माने जाते हैं । अपवाद स्वरुप महाभारत के एक-दो पात्रों के मंदिर हो सकते हैं लेकिन हमारे यहां मंदिर तो अमिताभ बच्चन और एश्वर्या के भी हैं ! रही बात अश्लीलता और अपमान की तो बहुत सी बातों पर गौर करने की जरुरत है । देश भर में कहीं भी देखा जा सकता है कि बहुरुपिये शिवजी, राम, कृष्ण, माता कालका, दुर्गा , सरस्वती , लक्ष्मी आदि का रुप धरे भीख मांगते रहते हैं । क्या यह देवी-देवताओं का और उससे ज्यादा स्थापित हो चुकी आस्थाओं का अपमान नहीं है ! दीवाली जैसे त्योहार पर लक्ष्मीजी के चित्र की पूजा करने लक्ष्मीछाप पटाखे निलिप्त भाव से चलाते हैं । अखबारों में ईश्वरों के जन्मदिन पर फोटो छपते हैं और उनका जिस तरह रद्दीकरण होता है उसका विवरण न ही दिया जाए तो ठीक है । शहरों-गांवों में जगह जगह मंदिर बना कर उन्हें लावारिस हालत में छोड़ देने की प्रवृत्ति आम है । प्रायः उन जगहों पर अगरबत्ती या दीपक लगाना तो दूर की बात है कोई सफाई करने भी नहीं आता है । बेचारे ईश्वर निरीह अवस्था में पड़े धूल सेवन करते रहते हैं । महत्वपूर्ण देव शनीमहाराज हर हप्ते भीख का कितना बड़ा जरिया बनते हैं इस पर किसी की नजर नहीं है !! उपन्यास में किसी चरित्र पर कुछ लिखे जाने पर जो लोग आहत होते हैं वे उपरोक्त बातों से अनभिज्ञ हैं ऐसा तो नहीं ही कहा जाना चाहिये , ये हो सकता है कि इस पर राजनीति करना अभी शेष है ।
               आश्चर्य और दुःख है कि साहित्य अकादेमी के पुरस्कार समारोह में उस समय अश्लील नारे लगाए गए जब वाय. लक्ष्मीप्रसाद का नाम पुकारा गया और प्रशस्तिवाचन आरंभ हुआ । ऐसी तख्तियां दिखाई गईं जिस पर लिखा था- ’ वाई. लक्ष्मीप्रसाद को जूते मारो ’ ! नारे लगाए गए कि ‘ भारतीय मूल्यों का अपमान, नहीं सहेगा हिन्दुस्तान ’ ! कुछ लोगों ने अतिथियों पर पुस्तिकाएं फैंकी जिनका वजन दो सौ ग्राम तक था । किसी व्यक्ति ने कहा कि ‘ यह भारतीय संस्कृति के खिलाफ है और हमारे पूर्वजों का अपमान है ’। द्रोपदी जब  पूर्वज है तो कौरव भी है , घ्रतराष्ट्र् भी हैं !! क्या इस बौद्धिक-दीनता पर कोई टिप्पणी करने की जरुरत है ? वाई. लक्ष्मीप्रसाद ने सवाल किया कि विरोध करने वालों में से कितने हैं जिन्होंने इस उपन्यास को पढ़ा है !? अभी हिन्दी भाषी क्षेत्र में यह पुस्तक अधिक नहीं पढ़ी गई है, लेकिन अब लोग इसे अवश्य पढ़ना चाहेंगे । क्या परिषदों, समितियों, मंचों, संघों या कोई सेना में केवल ऐसे लोग ही हैं जिन्हें रोबोट की तरह इस्तेमाल किया जाता है । एक प्रोग्रामिंग कर दी कि इस बात के खिलाफ हंगामा करना है और वह होता रहता है  ! जहां तक मिथकों से छेड़छाड़ का सवाल है , कलाओं में यह कोई नई बात नहीं है । छोटे से लेख में विस्तार संभव नहीं है किन्तु गणपतिजी को ही लें । उनकी आकृति से जो होता है वह किसी छेड़छाड़ से कम है !! बाइक चलाते , हैट और पतलून-बूशर्ट पहने, तरह तरह की पगड़ियां पहने गणेश किसने नहीं देखे हैं ! रामलीलाओं में हनुमान और दूसरे पात्रों से मनोरंजन नहीं करवाया जाता है ? सिनेमा और नाटकों में मिथकीय पात्र हमेशा गंभीरता के साथ ही प्रस्तुत किये जाते हैं ? इसकी वजह यह है कि सहिष्णुता हमारी संस्कृति है , व्यापक दृष्टि और उदार सोच हमारा आधार है । तब प्रश्न यह है कि एक साहित्यिक कृति और उसके लेखक पर ही वक्रदृष्टि क्यों !?
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1 comment:

  1. लक्ष्मी प्रसाद जी ने क्या आपत्तिजनक लिख दिया नहीं जानती लेकिन अपने देश के आपत्तिकर्ताओं की प्रवृत्ति ज़रूर जानती हूं. किसी कृति को पढना और फिर उसके अर्थ को तोड-मरोड के प्रस्तुत करने में ये वर्ग सक्षम है. सारगर्भित आलेख के लिये बधाई.

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