आलेख
जवाहर चौधरी
हाल ही में नोएडा की 43 और 41 वर्षीय दो बहनें , जिन्होंने हमारी शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी डिग्री पीएच.डी. हासिल की है, पिछले सात माह से अपने घर में बंद थीं और माता-पिता की मृत्यु के दुःख में अवसाद और अकेलेपन का जीवन जी रहीं थी। दो भाई हैं लेकिन एक का पता नहीं और दूसरा बैंगलोर में नौकरी करता है । एक पालतू कुत्ता जिसे ये बहनें बहुत प्यार करती थीं, मर गया । इस सदमें में वे दोनों डिप्रेशन में चलीं गई । किसी तरह पुलिस को खबर लगी तो उन्हें बाहर निकाल कर अस्पताल पहुंचाया गया जहां बड़ी बहन की मृत्यु हार्ट अटैक से हो गई और दूसरी की हालत स्थिर है ।
प्रश्न यह है कि नगरों - महानगरों में हमने जिस समाज व्यवस्था को रच लिया है आखिर उसके सच को कब तक अनदेखा करेंगे !! सब दुःखी हैं , सब शिकार हैं , सब तनाव में हैं लेकिन इस दुष्चक्र से बाहर आने का रास्ता किसी को सूझ नहीं रहा है । बावजूद जनसंख्या नियंत्रण के आज देश के पास 121 करोड़ पेट हो गए हैं, लेकिन अर्से से समझदार राष्ट्र् की एक या दो बच्चों की मांग का सम्मान करते आ रहे हैं । पढ़-लिख कर बच्चे नौकरी के लिए यहां-वहां चले गए और घर में बूढ़े मां-बाप अकेले रह गए । बाहर निकल कर उन्होंने देखा तो बिना रुके दौड़ने वाली दुनिया के दर्शन हुए । लोग इतने आत्मकेन्द्रित कि भौतिक सुख-साधनों की रेत में सिर घुसाए अपने में ही मगन रहते हैं । किसीके दुःख में शरीक हो कर बांट लेने की रस्मी आवश्यकता भी धुमिल होती जा रही है । इधर इंटरनेट की खिड़की से रचा जा रहा समाज सुविधाजनक है क्योंकि वहां मर्जी आपकी है , पहल आपकी है लेकिन जिम्मेदारी नहीं है । अमेरिका या जापान में क्या हो रहा है इसकी चिंता ज्यादा है , लेकिन पड़ौस में सन्नाटा क्यों है इस पर किसी का ध्यान नहीं है । नोएडा की उक्त बहनें सामान्यजन हैं किन्तु फिल्म जगत के कई नामी अपने घर में अकेले मर गए । लोगों को चार-पांच दिन बाद पता चला जब बदबू बाहर आई ।
छोटी जगहों पर घर के बाहर , ओटले पर बैठने का चलन होता है । आते-जाते लोग दिखते-देखते हैं , नमस्कार और बात भी हो जाती है । लेकिन नगरों में बाहर बैठने का और दूसरों को दिखाई देने का चलन नहीं है . इसलिए कब कौन संकट में है , है या नहीं है , पता ही नहीं चलता । छुप कर रहने की इस प्रवृत्ति के पीछे ईगो-प्राबलम के अलावा सुरक्षा और विश्वास का संकट भी है । मुंबई-दिल्ली में अकेले रह रहे बुजुर्गों की हत्याओं ने लोगों को स्वयं सलाखों में कैद हो कर रहने के लिए विवश कर दिया है ।
तब उपाय क्या है ?
मैंने शिवमूर्तिजी से पूछा तो बोले - ‘‘ उपाय होता तो पश्चिम वालों ने नहीं ढूंढ लिया होता । .... अच्छा है कि मेरी पोल्ट्री में यह समस्या नहीं है । मेरे पास एक ही उपाय है कि जो मुर्गी अंडा देना बंद कर देती है उसे मैं होटल वालों को ‘टेबल-यूज’ के लिए बेच देता हूं । ’’
प्रश्न यह है कि नगरों - महानगरों में हमने जिस समाज व्यवस्था को रच लिया है आखिर उसके सच को कब तक अनदेखा करेंगे !! सब दुःखी हैं , सब शिकार हैं , सब तनाव में हैं लेकिन इस दुष्चक्र से बाहर आने का रास्ता किसी को सूझ नहीं रहा है । बावजूद जनसंख्या नियंत्रण के आज देश के पास 121 करोड़ पेट हो गए हैं, लेकिन अर्से से समझदार राष्ट्र् की एक या दो बच्चों की मांग का सम्मान करते आ रहे हैं । पढ़-लिख कर बच्चे नौकरी के लिए यहां-वहां चले गए और घर में बूढ़े मां-बाप अकेले रह गए । बाहर निकल कर उन्होंने देखा तो बिना रुके दौड़ने वाली दुनिया के दर्शन हुए । लोग इतने आत्मकेन्द्रित कि भौतिक सुख-साधनों की रेत में सिर घुसाए अपने में ही मगन रहते हैं । किसीके दुःख में शरीक हो कर बांट लेने की रस्मी आवश्यकता भी धुमिल होती जा रही है । इधर इंटरनेट की खिड़की से रचा जा रहा समाज सुविधाजनक है क्योंकि वहां मर्जी आपकी है , पहल आपकी है लेकिन जिम्मेदारी नहीं है । अमेरिका या जापान में क्या हो रहा है इसकी चिंता ज्यादा है , लेकिन पड़ौस में सन्नाटा क्यों है इस पर किसी का ध्यान नहीं है । नोएडा की उक्त बहनें सामान्यजन हैं किन्तु फिल्म जगत के कई नामी अपने घर में अकेले मर गए । लोगों को चार-पांच दिन बाद पता चला जब बदबू बाहर आई ।
छोटी जगहों पर घर के बाहर , ओटले पर बैठने का चलन होता है । आते-जाते लोग दिखते-देखते हैं , नमस्कार और बात भी हो जाती है । लेकिन नगरों में बाहर बैठने का और दूसरों को दिखाई देने का चलन नहीं है . इसलिए कब कौन संकट में है , है या नहीं है , पता ही नहीं चलता । छुप कर रहने की इस प्रवृत्ति के पीछे ईगो-प्राबलम के अलावा सुरक्षा और विश्वास का संकट भी है । मुंबई-दिल्ली में अकेले रह रहे बुजुर्गों की हत्याओं ने लोगों को स्वयं सलाखों में कैद हो कर रहने के लिए विवश कर दिया है ।
तब उपाय क्या है ?
मैंने शिवमूर्तिजी से पूछा तो बोले - ‘‘ उपाय होता तो पश्चिम वालों ने नहीं ढूंढ लिया होता । .... अच्छा है कि मेरी पोल्ट्री में यह समस्या नहीं है । मेरे पास एक ही उपाय है कि जो मुर्गी अंडा देना बंद कर देती है उसे मैं होटल वालों को ‘टेबल-यूज’ के लिए बेच देता हूं । ’’
"छोटी जगहों पर घर के बाहर , ओटले पर बैठने का चलन होता है । आते-जाते लोग दिखते-देखते हैं , नमस्कार और बात भी हो जाती है ।"
ReplyDeleteसच में हमारी ओटला संस्क्रति में इस समस्या का हल पहले से था पर हम उसे भूल गये । यह उसी का नतीजा है ।
सामयिक समस्या पर बहुत सटीक लेख के लिये आभार ।
शुक्रिया मीनाक्षी जी .
ReplyDelete