Monday, September 13, 2010

आँख वालों में अंधा राजा !! / LEADER WITHOUT EYES.






आलेख 
जवाहर चौधरी 

देखने में आ रहा है कि शहरों के आसपास के गांवों और छोटी व पिछड़ी जगहों से आए लोग नगरों का नेतृत्व करने लगते हैं । उनकी जड़ें शहरों में नहीं ] कहीं और होतीं हैं और वे प्रतिनिधित्व कहीं और का करते हैं । इसमें शायद बुराई न हो । हमारे राष्ट्र्ीय नेताओं ने छोटे स्थानों से निकल कर पूरे देश का नेतृत्व किया किन्तु उन्होंने ज्यादातर मामलों में स्थानीय समाज या समूहों की उपेक्षा नहीं की । गांधीजी को ही लें ] आजादी की लड़ाई में वे देश का नेतृत्व कर रहे थे ] वहीं स्त्री शिक्षा ] बाल विवाह ] छुआछूत ] संाप्रदायिकता जैसी ज्वलंत सामाजिक समस्याओं पर उनकी चिंता व सक्रियता कम नहीं थी । फिर आज दिक्कत क्या है !\


आज महानगरों में नेतागिरी चमकाने वालों पर एक नजर डालकर देखिए । वे समारोहों में भाषण करते हैं ] कुरीतियों पर टिप्पणी करते हैं । विकास और सुधार के मुद्दों पर सरकार को गरियाते हैं लेकिन स्वयं जिस समूह ] समाज या जाति से निकल कर आए हैं वहां की बुराइयों के प्रति आंखें मूंदे रहते हैं ! बाल विवाह रोकना है तो सरकार रोके ] कानून काम करे ] पुलिस देखे । हम तो जनभावना और परंपरा के खिलाफ नहीं बोलेंगे । क्या जनप्रतिनिधि होना कुरीतियों का समर्थक होना भी है !! हाल ही में हमारे कुछ नेता खाप पंचायतों की हिमायत में राष्ट्र्पति तक जा पहुंचे ! क्या जनता के कल्याण की जिम्मेदारी सिर्फ संविधान की है !\ 

नेता ऐसा भाव रखते हैं मानों संविधान से उनका नाता सिर्फ शपथ लेने तक ही था । भले ही स्कूल कालेजों में जा कर वे प्रगतिशीलता की बकवास कर आएं पर अपनी जाति या अपने घर की लड़कियों को नहीं पढ़ाएंगे । जब भी वजह पूछी जाए दांत दिखाते हुए कहेंगे कि हमारे समाज में लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नहीं है । तमाम बड़े नगरों की नाक पर ऐसे नेता बैठे मिल जाएंगे जिनके समाज में चार-पांच साल की लड़कियों के विवाह की परंपरा आज के युग में भी जारी है और वे निर्लज्जतापूर्वक इस ओर से आंख फेरे हुए हैं ! नेता मान कर चलते हैं कि यह सब काम सरकार का है । दुःख की बात है कि जनता भी यही माने बैठी है । कहीं भी नेता से यह सवाल नहीं किया जा रहा है कि आप जो देश की किसी समस्या पर संसद को सफलतापूर्वक मच्छीबाजार बना डालते हैं कभी अपने समूह-समाज की समस्या पर लोगों को मार्गदर्शन देते हैं
\- यदि वर्तमान युग में भी हमारे नेता अपने समूह का पिछड़ा नजरिया नहीं बदल पाए हैं तो यह किसके लिए शर्मनाक है \ और क्या हक बनता है उन्हें नगरीय और विकसित समाजों का नेतृत्व करने का \!

Monday, August 30, 2010

"फाड़ दी".....!!!! यह किसकी भाषा है !?



आलेख 
जवाहर चौधरी 


            हाल ही में टीवी चैनल बदते हुए एक जगह भाषाई धमाका सुन रुकना पड़ा । एंकर एक अल्प-परिधाना युवती थी और किसी प्रसंग पर बोल रही थी - ‘‘... वो भोत बड़ा फट्टू है । ’’ लगभग बीस मिनिट में उसने धाराप्रवाह और निर्विकार भाव से फाड़ दी’ , ‘फट गई ’ , ‘चौड़ी हो गई ’ , ‘उंगली कर दी’ , काड़ी कर दी , जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया । ये शब्द बाकायदा सुने गए लेकिन कुछ शब्दों के स्थान पर सीटी की आवाज थी , जिनके बारे में कल्पना की जा सकती है कि वे क्या होगें ।  कहने की आवश्यकता नहीं कि युवती कॉन्वेंट शिक्षित और महानगरीय आधुनिकता के हिसाब से कल्चर्डश्रेणी में रखी जाती होगी ।
                  जहां तक घरों का सवाल है वहां भी पढ़ने का चलन लगभग समाप्त हो गया है । टीवी/वीडियो से बचा समय माॅल/ शापिंग में खर्च हो जाता है । साहित्य और पुस्तकों के लिए घर के किसी कोने में जगह नहीं है । स्कूल/कालेजों में बच्चे अब अपने अभिभावकों के बारे में बात करते हैं तो उनकी भाषा होती है -- ‘‘ ... आता जरुर पर ज्यादा देर बाहर रहो तो मेरा बाप भौंकने लगता है । ’’ या  ‘‘ मेरा बुढ्ढ़ा पाकेटमनी नहीं बढ़ा रहा है यार । ’’ इसी तरह के अनेक शब्द हैं जिनका उल्लेख करना अपनी पीढ़ी की बेइज्जती करना है । ये शब्द दुर्भाग्यवश इन पंक्तियों के लेखक ने सुने हैं । टोकने पर उनका उत्तर था ‘‘ बाप को बाप बोलने में क्या गलत है ? ’’ यानी संस्कार की आवश्यकता पहले पाठ से ही है ।

              भाषाई संस्कार के संदर्भ में हमारी चिंता प्रायः अंग्रेजी को लेकर होती है । शहरों में हमारे बच्चे जिनमें युवा भी शामिल हैं, हिन्दी के अखबार और पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने में कठिनाई महसूस करते हैं । खासकर संपादकीय पृष्ठ, साहित्य और विचार सामग्री को वे छोड़ देते हैं । उनका पाठ सबसे अधिक विज्ञापनों का होता है । राष्ट्र्ीय-अंतराष्ट्र्ीय खबरों की सुर्खियों के अलावा अपराध-समाचारों पर उनकी नजरें टिकतीं हैं । इनके अलावा फोटोयुक्त समाचार और सूचनाएं भी देखेजाते हैं । देखने की प्रवृत्ति अधिक हो गई है । जहां भी भी पढ़ने की जरुरत होती है या भाषा का मामला आता है वे बचते हैं ।
                    भाषा के संदर्भ में इनदिनों शिक्षकों के हाल भी उल्लेखनीय नहीं हैं । विज्ञान के शिक्षकों से शायद भाषा की अपेक्षा कम हो किन्तु कला एवं वाणिज्य के शिक्षक भी भाषा की दरिद्रता से पीड़ित दिखाई देते हैं । ज्यादातर गाइड़, गेसपेपर और वन-डे-सिरिज जैसी बाजारु सामग्री से नोट्स बना कर नौकरी संपन्न होती है ।  सरकारी और निजी गैर शैक्षणिक कार्यों की अधिकता के कारण उनके पास स्वाध्याय के लिए समय ही नहीं है । यदि मौके-बे-मौके एक पृष्ठ लिखने की जरुरत पड़ जाए तो भाषा के पतले हाल उजागर हो जाते हैं । रटंत अध्ययन पद्धति के कारण भाषा अर्थहीन स्थिति में चलती रहती है । ऐसे में नई पीढ़ी को भाषाई संस्कार मिलने में कठिनाई आना ही है ।
             
                    अगर ये हमारी अगली पीढ़ी की हांड़ी का चावल है तो गंभीरता पूर्वक सोचने की आवश्यकता है कि गलती कहां हो रही है । 

Friday, May 28, 2010

* Caste census / जातिवार जनगणना




आलेख 
जवाहर चौधरी 
         

          पहली बात तो यह कि हम मानते हैं कि जाति बुरी है । लेकिन यह भी मानना होगा कि हम , अगड़े-पिछड़े सब , चाहे-अनचाहे इससे चिपटे बैठे हैं । जो लोग कहते हैं कि हम जाति नहीं मानते वे कच्छा-बनियान जाति का ही पहनते पाए जाते हैं ।




यह देखना होगा कि इसकी जिम्मेदारी किसकी है ? पिछड़े और दलित यदि हीन स्थिति में नहीं हों तो उन्हें अपमानित हो कर आरक्षण लेने की क्या जरुरत है ! उनकी इस हीन दशा की जड़ों में कौन है ? अगड़े यदि अपनी जाति-गौरव को परचम की तरह प्रयोग करेंगे , जाति उनका परिचय-पत्र /आई-कार्ड/ होगा , वे जाति के आधार पर आर्थिक ,सामाजिक, राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संगठित होंगे तो शेष रहे लोग अपने आप निम्न जाति के घोषित हो जाएंगे । अगर हम बकरियों के झुण्ड में से दस को श्रेष्ठ नस्ल का घोषित करेंगे तो शेष रही अपने आप नस्लहीनता की श्रेणी में आ जाएंगी । अपने को श्रेष्ठता के पद से मंडित करने वालों के लिए कहीं यह गले की हड्डी साबित होता प्रतीत हो रहा है ।


            दूसरी बात , जाति है तो उसकी गणना करने में क्या दिक्कत है ! अगर शरीर में कोई बीमारी है तो रक्त परीक्षण से बचना कोई उपाय नहीं है । सरकार उन्हें कोई आरक्षण दे न दे, कोई योजना बनाए न बनाए किन्तु इससे हमारी सामाजिक संरचना तो स्पष्ट होगी । यह तो साफ होगा कि ‘वोट हमारा-राज तुम्हारा’ जैसे नारों की हकीकत क्या है । मलाई मारने वाले किस जाति के लोग ज्यादा है और सड़क-भवन जैसे निमार्ण कार्यों व कृषि जैसे कामों में हाड़ तोड़ने वाले कौन और कितने हैं । अभी एक परदा है और उसके पीछे सत्ता का अवैध देह व्यापार हो रहा है । यह परदा हटना चाहिए ।




सूचना का अधिकार जबसे समाज को मिला है बहुत सी बेजा हरकतों पर डर सा बैठ गया है । देश की जनता जानना चाहती है कि जो जाति प्रथा समाज, धर्म और राजनीति को इतने गहरे तक प्रभावित कर रही है वास्तव में इसकी स्थिति क्या है । जो नासूर सदियों से शरीर में मौजूद है , उसे पाले रखने की बजाए एक बार नश्तर से गुजर जाने देना अच्छा है । जो भी होगा जन्नत की हकीकत सामने आएगी ।




शंका व्यक्त की जाती है कि लोग लालच में अपनी जाति बदलने में संकोच नहीं करते हैं । यह सही है कि लालच के कारण ही लोग अपमानों के बावजूद अपनी जाति से चिपके रहना चाहते हैं । हमें अपने चिंतन में इस सत्य को शामिल रखना चाहिए कि आजाद भारत में आरक्षण ही जिसने दलितों को हिन्दू समाज में रोके रखा है वरना उन्हें बौद्ध, सिक्ख, ईसाई या मुसलमान हो जाने में ज्यादा लाभ है । हालांकि यह बहस का विषय हो सकता है ।



बहुत दिनों बाद आप पानी की टंकी साफ करना चाहते हैं तो जरुरी है कि पहले उसे अच्छी तरह मचाया जाए । इससे बेशक पानी गंदा होगा , लेकिन टंकी की सफाई के लिए यह आवश्यक है । जातिवार जनगणना से जिनकी बंधी मुट्ठी लाख की है और खुल जाने पर जिसके खाक हो जाने का डर जिन्हें ज्यादा है वे शोर ज्यादा मचा रहे हैं ।




Sunday, May 16, 2010

KHAP KE KHILADI खाप के खिलाड़ी

     
आलेख 
जवाहर चौधरी 
 
         हरियाणा की खाप पंचायतों की चर्चा इनदिनों देश के सुदूर कोनों तक में हो गई है । हिन्दुओं में विवाह तय करते समय मंगल- शनि व गोत्र का ध्यान रखने की पंरपरा सामान्य रही है । किन्तु पिछले कुछ समय से इस मामले जिस तरह की कट्टरता देखने को मिल रही है वह चौंकाने वाली और दुखःद है । दरअस्ल समय के बदलाव के साथ हमारी जीवन शैली और परिस्थितियों में बहुत बदलाव हुआ है । जहां शिक्षा और समझदारी थी वहां बदलाव को जल्दी स्वीकारा गया और जहां पिछड़ापन बना हुआ है वहां अभी भी पंरपराओं के पीछे लोग अपने ही बच्चों की जान लेने पर अविश्वसनीय रुप से आमादा हैं ।



चिंताजनक बात यह है कि खाप पंचायतों का फितूर जाने अनजाने अन्य लोगों को भी अपनी चपेट में ले रहा है । मीडिया में चर्चाएं हो रहीं हैं, जहां लोग गोत्र को भूल चुके थे वहां प्रयास करके इसकी धूल झाड़ी जाने लगी है ।

राजस्थान में वर्षों बाद रुपकुंवर नाम की युवती सती हुई थी तो सती प्रथा के पुनर्जीवित हो जाने का खतरा पैदा हो गया था । अनेक विद्वानों और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इसके समर्थन में लिखना-कहना आंरभ कर दिया था । लेकिन सौभाग्य से कानून ने सख्ती कम नहीं की और देश वापस दलदल में गिरने से बच गया ।

खाप के खिलाड़ी नेता इनदिनों राजनीतिक रुप से दबाव बनाना चाहते हैं कि उनकी गोत्र मान्यता के अनुरुप संविधान में संशोधन किया जाए । जाति-राजनीति करने वाले लोकदल के नेता ओमप्रकाश चौटाला को तो खाप- शरण होने में कोई शरम नहीं आई होगी किन्तु कांग्रेस के शिक्षित और युवा सांसद नवीन जिन्दल का खाप की चपेट में आना चौंकाने वाला है । ये दोनों हाल ही में खाप-पंचायत में उपस्थित हुए, उनका समर्थन किया और उन्हें कानूनी मान्यता दिलवाने का भरोसा भी दे आए । चौटाला  तो खाप-दूत बन कर गृहमंत्री चिदंबरम से मिले भी और हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन की मांग भी कर आए । यह शुरुवात है , यदि वे खाप के सामने घुटने नहीं टेकते तो चुनाव में उनके विरुद्ध वोट न देने का ‘फतवा’ जारी हो सकता है ।

सवाल यह है कि हिन्दू विवाह अधिनियम देश के नब्बे करोड़ के लिए प्रभावी है । एक क्षेत्र या जाति समूह के हिसाब से इसमें बदलाव की मांग नहीं की जा सकती । जातियों में अपने स्तर पर अनेक परंपराएं होती हैं जिनके पालन को लेकर लोग कानून की उपेक्षा करते भी हैं । किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि कोई परंपरा कानून से उपर हो गई । पुराने समय में सती प्रथा एक परंपरा ही थी । जिस समय राजा राममोहन राय ने अपनी भाभी के सती हो जाने के बाद इस मुद्दे को उठाया, देश में प्रतिवर्ष लगभग एक हजार आठ सौ स्त्रियां सती हो रही थीं, और यह उस समय संबंधित जातियों का मान्य आचरण था । राजस्थान, हरियाणा, उ.प्र., बिहार और म.प्र. में भी अक्षय तृतिया और देवउठनी ग्यारस पर बालविवाह बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं । दहेज प्रथा ,घूंघट प्रथा आदि अनेक परंपराएं हैं जिनके प्रति जातियों का दुराग्रह होता ही है । क्या इन्हें कानून सम्मत बनाने की हम कल्पना भी कर सकते हैं ? नवीन जिन्दल जैसे युवा व शिक्षित नेताओं से अपेक्षा यह है, चूंकि वे नई दुनिया को समझने वाले हैं अतः पिछड़े लोगों की दृष्टि पर जमी धुंध साफ करें । उन्हें नई दिशा दें और नए विचारों के लिये जमीन तैयार करें । गांधीजी जब देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तब समाज में छूआछूत और सवर्णों के अनुदार आचरण की परंपरा मौजूद थी । लेकिन उन्होंने अपनी शक्ति इन्हें ठीक करने में लगाई, जो उस समय आसान काम नहीं था । तर्क दिया जा सकता है कि गांधीजी को किसी से वोट नहीं चाहिए थे । लेकिन आज कांग्रेस में राहुल गांधी हैं जिन्हें वोट चाहिए और वे उ.प्र. के दौरों में, घोर जातिवादियों के बीच जाते हुए भी जातिप्रथा या खाप जैसी बेहूदा बातों का समर्थन नहीं कर रहे हैं ! स्पष्ट, आधुनिक और प्रगतिशील विचारों व आचरण वाले नेता कभी जातियों के वोट से नहीं बने हैं । नेहरु, इंदिरा, शास्त्री, अटलबिहारी या अड़वानी अपनी जातियों के वोट से देश के नेता नहीं बने । जाति से केवल चौटाला  जैसों की राजनीति चलती है जो कितनी दीर्घकालीन और कितना विस्तार पाती है यह किसी से छुपा नहीं है ।


Tuesday, May 11, 2010

Matrubhoomi: A Nation Without Women

आलेख 
जवाहर चौधरी 


मातृभूमि
ए नेशन विदाउट वुमन



                    भारत में कन्या भ्रूण हत्या का प्रसंग सदियों पुराना है । इसके कारणों को दोहराने की आवष्यकता नहीं है । पिछली जनगणना में हमारे अनेक राज्यों में स्त्री-पुरुष अनुपात में चिंताजनक अंतर सामने आया है । पंजाब और हरियाणा में तो लड़कियों की इतनी कमी है कि वहां दक्षिण भारत और अन्य जगहों से लड़कियां खरीद कर विवाह करने के प्रकरण सामने आए हैं । आज भी लड़कियों को मारने की प्रथा बंद नहीं हुई है । फर्क केवल यह हुआ है कि भ्रूण परीक्षण से पता करके अब उन्हें जन्म से पहले ही मार दिया जाता है ।

                 ‘मातृभूमि - ए नेशन विदाउट वुमन’ मनीष झा की 2005 में रिलीज, इस मायने में एक महत्वपूर्ण फिल्म है कि यह कन्या हत्या की इस समस्या को गहरे असर के साथ दर्शक के मन में उतार देती है । फिल्म का आरंभ प्रसव के दृश्य से होता है । लड़की पैदा होती है जिसे दूध के तपेले में डुबो कर मार दिया जाता है । यह प्रथा, विकृत प्रवृत्ति और मानसिकता का प्रतिनिधि दृश्य आक्रोशित करने वाला है ।
गांव में पांच लड़कों और अधेड़ जमींदार पिता का एक परिवार है । लड़के विवाह योग्य हैं पर पंड़ित द्वारा आसपास दूर दूर तक छान मारने पर भी कोई लड़की उपलब्ध नहीं है । ब्लू फिल्म के शौकीन गांव में हालात इतने बिगड़े हुए हैं कि छोटे लड़के यौन शोषण का सहज शिकार हैं, यहां तक कि गाय-भैंस और बकरियों को भी नहीं छोड़ा जाता है । बाप दहेज की लालच में लड़के को लड़की के कपड़े पहना कर ब्याहने से नहीं चूक रहे हैं । पूरा गांव स्त्री की छाया से भी महरुम है ।

                ऐसे में पास ही कहीं एक लड़की कलकी का पता चलता है जिसे पिता ने उसे बहुत छुपा कर पाला है । पंडित जमींदार को यह सूचना देता है । बात आगे बढ़ती है पर लड़की का पिता एक लाख रुपए के प्रस्ताव के बावजूद जमींदार के बड़े लड़के से ज्यादा उम्र का होने के कारण अपनी लड़की का विवाह नहीं करता है । लेकिन पांच लाख व पांच गाएं ले कर पांचों लड़कों से लड़की ब्याह देता है । ससुराल में कलकी को अपने पतियों के साथ ससुर को भी झेलना पड़ता है । सप्ताह में हर दिन कलकी को एक के साथ सोना होता है । सारे पुरुषों में सबसे छोटा बेटा सुदर्शन और स्वभाव में मानवीय होने के कारण कलकी उसे पसंद करने लगती है । यह बात अन्य भाइयों और पिता को खटकती है और षड़यंत्र पूर्वक वे उसकी हत्या कर देते हैं । जाहिर है अब कलकी पर इनकी पशुता दूने वेग से आक्रमण करती है ।



                  मौका देख कर वह घरेलू नौकर-लड़के रघु के साथ भागने का असफल प्रयास करती है, फलस्वरुप रघु को जान गंवाना पड़ती है । अब सजा के तौर पर उसे गौशाला में सांकल से बांध दिया जाता है । बारी बारी से ‘मर्द’ उसका यौन शोषण करते रहते हैं । इसबीच गांव के दलित जमींदार के घर नौकर रहे अपने लड़के रघु की मौत का बदला लेने के लिये रात में छुप धावा बोलते हैं और गौशाला में जमीदार की बहू कलकी को बंधा देख उसके साथ बलात्कार कर लौट जाते हैं । कलकी गर्भवती हो जाती है ।

इस खबर से गांव के दलित लोग मानते हैं कि जमींदार के घर पैदा होने वाले बच्चे के बाप वे हैं । बात सामने आती है और सामूहिक संघर्ष में बदल जाती है । इधर जमींदार कुपित हो कर कलकी को मार डालना चाहता है लेकिन नया नौकर, एक लड़का, उस पर चाकू से अनेक वार कर उसकी जान ले लेता है और कलकी को बचा लेता है । अगले दृश्य में कलकी का प्रसव है , लड़की के जन्म से सुखांत होता है ।

                     दरअस्ल यह कहानी भविष्य की, चेतावनी देने वाली कहानी है । यह दुनिया में कहीं भी हो सकता है, लेकिन भारत के संदर्भ में तो है ही । भ्रूणहत्या के मामले में भारत जितना जाहिल और गंवार है उतना शायद ही कोई और देश होगा । किन्तु केवल अशिक्षित और पंरपरावादी लोगों पर दोष मढ़ कर हम या कोई भी, इस पाप से मुक्त महसूस नहीं कर सकते हैं । सैकड़ों वर्ष पुरानी इन परंपराओं के पीछे पुरुषों की कायरता ही प्रमुख है जो अपनी बेटियों का भरण-पोषण और रक्षा करने से बचते रहे हैं ।

                       बात बात में धर्म और संस्कृति को याद करने वाला समाज अपनी ही बच्चियों के मामले में इससे विमुख कैसे हो जाता है ! धर्म में ‘पवित्रता का प्रावधान’ इन हत्याओं के लिए इसलिए जिम्मेदार है कि व्यक्ति पाप करके किन्हीं पूजाओं और दान से इसे ‘धो’ सकता है ! यह धारणा किसने पैठा दी है कि विषेष मुहुर्त में गंगा स्नान करने से पापियों के पाप धुल जाते हैं । या पापी के मरने के बाद भी ब्राहम्ण-भोज और कुछ क्रियाएं करने से उसे स्वर्ग में जगह मिल जाती है । पाप से बचने के प्रावधान पाप को बढ़ाने के उपाय ही हैं । जब तक यह बात समझ में नहीं आती कायरों के समाज में न अपराध कम होंगे न पाप ।

                            फिल्म का सबसे अच्छा पक्ष उसका निर्देशन और फिल्मांकन है । विषय में संभावना होने के बावजूद कहीं भी अश्लीलता नहीं है । मनीष झा की समझ को देख कर आश्चर्य होता है । यदृपि वे कम आयु के, एकदम नौजवान हैं, किन्तु दर्शकों को बार-बार लगता है कि वह श्याम बेनेगल की फिल्म देख रहा है । किसी सामाजिक समस्या पर उद्श्यपूर्ण फिल्म बनाना आज वैसे भी लीक से हट कर चलना है । उस पर विषय की प्रस्तुति ऐसी है कि दर्शक में मन में गहराई तक उसका असर होता है और में वह इस समस्या से खुद को बेहद चिंतित पाता है । फिल्म को अनेक देशी-विदेशी अवार्ड मिले हैं । कलकी के रुप में तुलिक जोशी और जमींदार की भूमिका में सुधीर पांडे अद्भुत हैं । इनके अलावा सभी कलाकारों से मनीष झा ने बहुत सधा हुआ काम लिया है ।

Thursday, April 22, 2010

* हमारे गांधीजी !!!





आलेख 
जवाहर चौधरी 


गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में जिस तरह चैंकाने वाले सच को स्वीकारा है वह उनके जैसे महात्मा के लिये ही संभव था । गांधी ने स्वीकारा कि वे पत्नी पर निगरानी रखते थे । नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं के कारण वे मानते थे कि व्यक्ति को एकपत्नी-व्रत का पालन करना चाहिये , ..... फिर तो पत्नी को भी एकपति-व्रत का पालन करना चाहिये । यदि ऐसा है तो , मैंने सोचा कि मुझे पत्नी पर निगरानी रखना चाहिये ।

गांधीजी ने निडरता की बात कहीं हैं किन्तु वे डरपोक बहुत थे । वे कहते हैं - ‘‘ मैं चोर , भूत और सांप से डरता था । रात कभी अकेले जाने की हिम्मत नहीं होती थी । दिया यानी प्रकाश के बिना सोना लगभग असंभव था ।

सत्य, अहिंसा और शकाहार के समर्थक बापू ने कई बार मांसाहार किया था । ‘‘ ..... मित्रों द्वारा डाक बंगले में इंतजाम होता था । .... वहां मेज-कुर्सी वगैरह के प्रलोभन भी था । .... धीरे धीरे डबल रोटी से नफरत कम हुई ,बकरे के प्रति दया भाव छूटा और मांस वाले पदार्थो में स्वाद आने लगा । ...... एक साल में पांच-छः बार मांस खाने को मिला । ... जिस दिन मांस खा कर आता ... माताजी भोजन के लिये बुलातीं तो उन्हें झूठ कहना पड़ता कि ‘भूख नहीं है , खाना हजम नहीं हुआ है ’ ।

उन्हें बीड़ी पीने का शौक भी लगा और इसके लिये उन्होंने चोरी भी की । वे कहते हैं - ‘‘ एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी पीने का शौक लग गया । गांठ में पैसे नहीं थे इसलिये काकाजी पीने के बाद जो ठूंठ वे फेंक देते थे , उन्हें हमने बीनना शुरु कर दिया । लेकिन ठूंठ हर समय नहीं मिल पाते थे इसलिये अपने यहां के नौकर की जेब से एकाध पैसा चुराने की आदत पड़ गई और बीड़ी खरीदने लगे ’’।

एक बार उन पर पच्चीस रुपए का कर्ज हो गया । उन्होंने लिखा कि - ‘‘ हम दोनों भाई कर्ज अदायगी के बारे में सोच रहे थे यानी चिंतित थे । भाई के हाथ में सोने का कड़ा था । उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल नहीं था । कड़ा कटा । कर्ज अदा हुआ । इसके बाद ग्लानी से भरे ‘मोहन’ ने पिता को पत्र लिख कर अपनी गलती स्वीकारी ।

मोहनदास जब सोलह साल के थे तब की घटना स्तब्ध करने वाली है । ’’ ..... पत्नी गर्भवती हुई । ...... पिताजी लंबे समय से बीमार चले आ रहे थे ..... उनकी बीमारी बढ़ती जा रही थी । ... अवसान की घोर रात्रि समीप आ गई । रात साढ़े दस- ग्यारह बजे होंगे । मैं उनके पैर दबा रहा था , चाचाजी ने कहा ‘जा, अब मैं देखूंगा’ । .... मैं खुश हुआ और सीधा शयन कक्ष में पहुंचा । पत्नी बेचारी गहरी नींद में थी । पर मैं सोने कैसे देता ! .... मैंने उसे जगाया ..... पांच मिनिट बीते होंगे ....... पता चला कि पिता गुजर गए ! ..... ’’

विलायत में गांधी ने नाचना-गाना भी सीखा । ‘‘ विलायत में ..... सभ्य पुरुष को नाचना जानना चाहिये । ....... मैंने नृत्य सीखने का निश्चय किया । .... एक कक्षा में भर्ती हुआ , एक सत्र की फीस करीब तीन पाउण्ड जमा किये । उस समय यह रकम बड़ी थी । कोई तीन सप्ताह में छः सबक सीखे ।

पियानो बजाता था पर कुछ समझ में नहीं आता था । .... सोचा वायलियन बजाना सीख लूं ...... तीन पाउण्ड में वायलियन खरीदा और सीखने की फीस दी ’’ ।

विलायत में आहार को लेकर वे उदार रहे ,खासकर अंडों के लिये , लिखते हैं - ‘‘ ... स्टार्च वाला खाना छोड़ा , कभी डबल रोटी और फल पर ही रहा और कभी पनीर , दूध और अंडों का सेवन किया । ..... अंडे खाने में किसी जीवित प्राणी को दुख नहीं पहुंचता है । इस दलील के भुलावे में आ कर मैंने माताजी के सामने की हुई प्रतिज्ञा के रहते भी अंडे खाए । पर मेरा यह ;अंडा मोह थोड़े समय ही रहा । ’’

ब्रम्हचर्य पालन को लेकर गांधी के विचार खूब जाने जाते हैं , किन्तु इसे साधने में उन्हें बहुत कठिनाई हुई , - ‘‘ संयम पालन ब्रम्हचर्य की कठिनाइयों का पार नहीं था । हमने अलग अलग खाटें रखीं । रात में पूरी तरह थकने के बाद ही सोने का प्रयत्न किया । किन्तु इस सारे प्रयत्न का विशेष परिणाम मैं तुरंत नहीं देख सका । ’’

गांधीजी ने कभी गाली भी खाई होगी यह विश्वसनीय नहीं लगता है । कम से कम भारत में तो ऐसा नहीं हो सकता है , लेकिन हुआ । सन् 1891 के आपपास के समय वे काशी आए थे -- ‘‘ मैं काशी-विश्वनाथ के दर्शन करने गया । वहां जो देखा उससे मुझे बड़ा दुख हुआ । संकरी , फिसलन भरी गली से हो कर जाना था । शांति का नाम भी नहीं था । मक्खियों की भिनभिनाहट और दुकानदारों का कोलाहल असह्य था । ....... वहां मैंने ठग दुकानदारों का बाजार देखा । ..... मंदिर में पहुंचने पर सामने बदबूदार सड़े हुए फूल मिले । .... अंदर भी गंदगी थी । .... मैं ज्ञानवापी में गया , वहां भी गंदगी थी । दक्षिणा के रुप में कुछ भी चढ़ाने की मेरी श्रद्धा नहीं थी इसलिये मैंने सचमुच ही एक पाई चढ़ाई जिससे पुजारी तमतमा उठे । उन्होंने पाई फैंक दी । दो-चार गालियां दे कर बोले -‘ तू यों अपमान करेगा तो नरक में पड़ेगा ’ ।

ये गांधी के सच की कुछ बानगियां थीं । हमारी नई पीढ़ी को इनसे उनके सोच और जीवन के अनछुए पक्षों का पता चलता है । उन्होंने यह सच उस समय कहा जब वे महात्मा हो गए थे । गांधी का यह सच जान कर भी हमारे मन में उनके प्रति आस्था कम नहीं होती है अपितु बढ़ती है ।

Sunday, March 21, 2010

* लिपि और भाषा का जीवन


आलेख 
जवाहर चौधरी 

देवनागरी लिपि को लेकर समय समय पर चर्चा होती है । आज स्थितियां ऐसी हैं कि किसी भी ‘भाषाप्रेमी’ का चिंतित हो जाना स्वाभाविक है । युवा पीढ़ी हमें अंग्रेजी में शिक्षा लेती दिखाई दे रही है , विज्ञापनों में अंग्रेजी है , बोलचाल में अंग्रेजी के शब्द चाहे-अनचाहे अपनी जगह बना चुके लगते हैं । एसएमएस और कंप्यूटर ने रोमन लिपि की सत्ता स्थापित कर दी है, ऐसा माना जाता है । इसीलिये अनेक लोगों को लग रहा है कि हिन्दी भाषा मर जाएगी यदि उसे रोमन में नहीं लिखा गया ।


भाषा और लिपि का संबंध शरीर और आत्मा का संबंध है । दोनों हैं तो पूर्णता है । लिपि को केवल माध्यम मान लेना गलती होगी। भाषा में व्याकरण के महत्व को खारिज नहीं किया जा सकता है । लिपि भाषा की पहचान होती है , खासकर उस वक्त जब वह बोली नहीं जा रही है । कोई भी भाषा केवल बोलव्यवहार नहीं है । किसी भाषा के कुछ शब्द सीख कर काम निकाल लेना अलग बात है । महानगरों में कामवाली बाइयां, ड्र्ायवर या होटल के बैरे भी अंग्रेजी बोलते देखे जा सकते हैं किन्तु वे रोमन लिपि को कितना जानते हैं बताना कठिन है । अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुलने के बावजूद आज भी अंग्रेजी हमारे यहां बड़ी समस्या है । अंग्रेजी में स्पेलिंग और व्याकरण की समस्या हमारे यहां चरम पर होती हैं । ऐसे में यह विचार क्यों नहीं आता है कि अंग्रेजी को देवनागरी लिपि में लिखी जाए ? क्या इससे अंग्रेजी को समझना, बोल व्यवहार में लाना ज्यादा आसान नहीं होगा ?

यही नहीं लिपि के साथ भाषा का इतिहास और साहित्य होता है । भाषा की समृद्धता उसके साहित्य में है । लिपि बदलने से संचित साहित्य कोष को कूड़ा बनाने देर नहीं लगेगी ! जीवंत और समृद्ध भाषा बहते हुए पानी की तरह होती है । वह दूसरी भाषाओं के शब्द और साहित्य अपनाती है । हिन्दी में संस्कृत के अलावा अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्द बड़ी संख्या में प्रचलित हैं । न केवल बोल व्यवहार में अपितु देवनागरी में भी । ऐसे में यदि हम हिन्दी की लिपि बदल देंगे तो भाषा की पहचान समाप्त हो जाएगी । लिपि के साथ छेड़छाड़ संस्कृति और इतिहास के साथ भी छेड़छाड़ है । यदि उच्चारण दोष के कारण किन्हीं क्षेत्रों में कुछ शब्दों को भिन्न प्रकार से या गलत बोला जाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि लिपि का बदला जाना उचित है । अंग्रेजी विश्व के अनेक देशों में बोली-लिखी जाती है किन्तु सब जगह अलग ढंग से । भारत की अंग्रेजी ‘इंडियन-इंग्लिश’ है । हिन्दी में ‘जनता’ को कुछ जगहों पर ‘जन्ता’ बोला जाता है तो यह क्षेत्रीय प्रभाव या उच्चारण दोष है । जहां भी लिपि बदली है हमने भाषा को बिगाड़ा ही है । मसलन योग को ‘योगा’, मौर्य सम्राट अशोक को ‘मोरया सम्राटा अशोका’, मोतवानी को ‘मोटवानी’ , मोतीवाला को ‘मोटीवाला’ श्रीवास्तव को ‘सिरीवास्तवा’ , मिश्र को ‘मिशरा’, शुक्ल को ‘शुक्ला’ बना दिया है । उर्दू का उदाहरण देते हुए कहा जाता है कि उर्दू बोलने वाले अधिकांश पाकिस्तान चले गए और सरकारी तौर पर उर्दू की पढ़ाई बंद हो गई लेकिन अब उर्दू देवनागरी में जिन्दा है । लेकिन हिन्दी भाषी अभी कहीं नहीं गए हैं , न ही हिन्दी की पढ़ाई बंद हो गई है । हिन्दी में के अखबार और पत्र-पत्रिकाएं देवनागरी में छप रहे हैं और उनकी प्रसार संख्या लाखों में व कहीं करोड़ का आंकड़ भी छू रही है । हिन्दी की किताबें हर साल अधिक संख्या में निकल रहीं हैं और साल में कई बार आयोजित पुस्तक मेलों में इनकी बिक्री आश्चर्यजनक बढ़त लेती है । विज्ञान विषयों का हिन्दी में खूब अनुवाद हो रहा है और बिक रहा है । इंटरनेट पर हिन्दी ने बजरदस्त कब्जा कर लिया है । आज मेल ही नहीं किसी भी विषय की जानकारी हिन्दी यानी देवनागरी में डाउनलोड की जा सकती है । हिन्दी ब्लाग संसार में बहुत लोकप्रिय हो गए हैं । हिन्दी भाषी नेता अब संसद में अधिक हैं और बहसें भी हिन्दी में हो जाती हैं । अनिच्छा से ही सही परंतु अब टीवी चैनलों में हिन्दी के चेनल ही मुख्य हैं । लिपि बदलने से हिन्दी को लाभ नहीं हानि ही अधिक होगी ।