Tuesday, December 21, 2010

शॉर्ट स्कर्ट पहनने के चलते रेपिस्ट आकर्षित होता है. !?!


आलेख 
जवाहर चौधरी 



                   ब्रिटेन में किए गए एक सर्वे में चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं। सर्वे में शामिल महिलाओं का मानना है कि रेप के लिए रेपिस्ट से ज्यादा पीड़ित महिला जिम्मेदार होती हैं। यह सर्वे 18 से 24 साल की एक हजार महिलाओं के बीच किया गया है।
 

सर्वे में शामिल 54 फीसदी महिलाओं ने कहा कि रेप के लिए रेपिस्ट से ज्यादा पीड़ित जिम्मेदार है। इनमें 24 फीसदी महिलाओं का कहना है कि शॉर्ट स्कर्ट पहनने के चलते रेपिस्ट उनकी तरफ आकर्षित होता है और उसका मनोबल बढ़ता है। इन महिलाओं का यह भी कहना है कि रेपिस्ट के साथ ड्रिंक और उसके साथ बातचीत करना भी उसको रेप के लिए उकसाता है। इसलिए ये महिलाएं पीड़ित को रेप के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं। लगभग 20 फीसदी महिलाओं का मानना है कि अगर पीड़ित रेपिस्ट के घर जाती है तो वह कहीं ना कहीं रेप के लिए जिम्मेदार होती है। लगभग 13 फीसदी महिलाओं ने कहा कि रेपिस्ट के साथ उत्तेजक डांस और उसके साथ फ्लर्ट करना भी रेप के लिए थोड़ा बहुत उत्तरदायी है। 

                         सर्वे में एक और बात सामने आई है कि लगभग 20 फीसदी महिलाएं तो रेप की रिपोर्ट ही नहीं करती है। ये महिलाएं शर्म के चलते ऐसा नहीं करती हैं। चौंकानेवाली बात यह कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद ब्रिटेन में सिर्फ 14 फीसदी रेप केसों में ही सजा मिल पाती है .

स्थानीय बनाम बाहरी लोग



                        

आलेख 
जवाहर चौधरी 
      राज्यों में बाहरी लोगों का मुद्दा बार बार उठता रहा है । महाराष्ट्र् में शिवसेना  ने तो कई बार इस प्रसंग पर अप्रिय स्थितियां पैदा की हैं । दिल्ली में एक बार मुख्यमंत्री शीला  दीक्षित ने गंदगी फैलाने और अव्यवस्थ के लिए बाहरी लागों को कारण बता कर विवाद मोल लिया था । पंजाब में भी बाहरी के मुद्दे पर गरमाहट रही । हाल ही में गृहमंत्री चिदंबरम ने भी दिल्ली में बढ़ रहे अपराधों के लिए बाहरी लोगों की गरदन पकड़ी है । ऐसा प्रतीत होता है कि देश  के तमाम नेता अपने को राज्यों तक संकुचित कर बाहरी लोगों का विरोध कर रहे हैं । लेकिन जरा स्थिर हो कर देखें तो पता लगेगा कि यह सच है । जिस राज्य में किन्हीं भी कारणों से बाहरी लोगों का आना-जाना अधिक होगा वहां अवांछित गतिविधियां भी ज्यादा होंगी, विशेषकर  महानगरों में । स्थानीय व्यक्ति की जड़ें वहां होती हैं ।              


                        मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो उसका लगाव अपने क्षेत्र से होता है जो उसे जिम्मेदारी के भाव से भी भरता है । ये बातें उसके आचरण को नियंत्रित करती हैं । लेकिन बाहरी आदमी इस तरह के सभी दबावों से पूर्णतः मुक्त होता है । वह पहचानहीनता के कवच में अच्छा-बुरा कुछ भी कर सकता है । दूसरे शहर  में वह सड़क पर घूम कर शनि-महाराज के नाम पर भीख मांग सकता है , जूता पालिश  कर सकता है या फेरी लगा कर गुब्बारे बेच सकता है , उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा । लेकिन यही सब वह अपने क्षेत्र में नहीं करेगा क्योंकि पहचाने जाने का दबाव उसे रोकेगा । कालगर्ल अक्सर पकड़ी जाती हैं , पता चलता है कि वे स्थानीय नहीं दूसरे शहर  की हैं । विदेशों में हमारे बहुत से सम्माननीय बेबी-सिटिंग का काम ख़ुशी ख़ुशी  कर लेते हैं । कोई सफाई का काम बेहिचक करता है तो कोई ऐसे काम बड़े आराम से कर लेता है जो दूसरे नहीं करते । बाहरी आदमी एक प्रकार से मुक्त आदमी होता है । घर में हर आदमी हाथ पोछने  के लिए टावेल और जूता पोंछने के लिए रद्दी कपड़े का उपयोग करता है । लेकिन वही जब होटल में होता है तो इन्हीं कामों के लिए खिड़की के परदों और बिस्तर पर लगी कीमती चादर को बेहिचक इस्तेमाल कर लेता है । न ये सामान उसका है , न उसे इनसे लगाव है और सबसे बड़ी बात, होटल में वह एक बाहरी आदमी है ।

                            इसका मतलब यह कतई नहीं कि बाहरी आदमी हमेशा अपराधी ही होते हैं । किसी भी राज्य के विकास में बाहरी लोगों की भूमिका स्थानीय लोगों से कम नहीं होती । देश  में देखें तो महाराष्ट्र्, पंजाब, बंगाल आदि है , विदेशों में अमेरिका, दुबई इसके उदाहरण हैं जहां बाहरी लोगों ने अमूल्य योगदान दिया है । प्रायः हर जगह मजदूरी जैसे कठिन और जोखिम भरे काम बाहरी लोगों द्वारा ही किए जाते हैं । महानगरों में संभावनाएं होती हैं इसलिए परिश्रमी और महत्वाकांक्षी लोग वहां अधिक पहुंचते हैं । लेकिन कुछ लोगों के गलत कामों के कारण उनके योगदान पर पानी फिर जाता है ।
स्थानीय स्तर पर जब कोई अपराध करता है तो बचने-झुपने के लिए वह भीड़ वाले स्थानों की ओर ही जाता है । नगरों की भीड़ छुपने की सबसे सुरक्षित जगह होती है । प्रायः अपराधी छोटी जगहों से नगर और फिर महानगरों की ओर गति करते हैं । अपराध की पूंजी ले कर आने वाले मुक्त व्यक्ति कब क्या करेंगे कुछ कहा नहीं जा सकता है, अच्छा तो शायद  नहीं ही करेंगे । इसलिए जब यह कहा जाता है कि बाहरी लोगों के कारण अपराध हो रहे हैं तो उसे सिरे से नकारा नहीं जाना चाहिए ।
                        यदि सुरक्षा हो तो  हमारा आचरण उसे चुनौती देने का नहीं होना चाहिए । सुरक्षा के कारण ही महानगरों में खुलापन अधिक होता है । एक लड़की दिल्ली में जिस तरह के परिधान इस्तेमाल करती है वैसे छोटी जगह पर नहीं करती है । क्योंकि वहां के लोगों की मानसिकता सुरक्षा में कमी के कारण वैसी निश्चिन्त  नहीं है । जहां संवैधानिक सुरक्षा का इंतजाम पुख्ता नहीं होता वहां परंपराएं प्रबल होती हैं और उनसे सुरक्षा प्राप्त की जाती है । डकैत शादी -ब्याह में होने वाले तामझाम से अपना शिकार  तय करते हैं इसलिए छोटी जगहों पर सामान्य लोग सुरक्षा के लिए दिखावा करने से बचते हैं । महानगरों में दिखावे की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है । मौकों पर घन का प्रदर्शन  हो या अंग का, कोई पीछे नहीं रहना चाहता है । कहना नहीं होगा कि इसका प्रभाव अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोगों पर पड़ता है । स्थानीय लोगों के बीच सिक्का जमता है, वहीं बाहरी आदमी को एक शिकार  नजर आ जाता है । यदि तन या धन का फूहड़ प्रदर्शन  होगा तो सुरक्षा बढ़ा लेने के बावजूद जोखिम कम नहीं होंगे ।
                            

Friday, October 29, 2010

Life 3650 days ! जिन्दगी ३६५० दिन !!

आलेख 
जवाहर चौधरी  


     रेतघड़ी में झरते कणों की तरह समय का क्षरण किस तरह हो रहा है हम जान नहीं पाते हैं । जब थोड़ी सी रेत बचती है तब हमारा ध्यान जाता है ] तब चिंता होती है । शेष समय चिंता में झरने लगता है । साठ के मुहाने पर खड़े यह विचार बार बार दस्तक दे रहा है कि हिसाब करो ] क्या किया अब तक \ पूंजी सा समय खर्च दिया ] पाया क्या \ देखते देखते दिन कपूर हुए] कहां गए ! कहने को तो मित्र कहेंगे कि उम्र के बारे में सोचना नहीं चाहिए । तो क्या नहीं गिनने से समय रुक जाता है ! न गिनना समय से नजरें चुराना नहीं है क्या \ हालाकि अस्सी-नब्बे की आयु वाले आसपास ही हैं । लेकिन उनकी लंबी आयु का राज यह नहीं है कि उन्होंने अपने दिनों का हिसाब नहीं किया ।
          शुरुवात यों हुई कि पिछले जनमदिन पर ध्यान गया कि काफी आगे आ गए हैं । पिछली बार के इस दिन से अब तक 365 दिन खिसक गए । दस साल में 3650 निकल जाते हैं एक एक कर । अगर आम आदमी की आम आयु को उदारता से सत्तर साल भी मान लिया जाए तो जिन्दगी 25550 दिनों में सिमट जाती है । इसमें आरंभिक दस साल समझिए आंख खोलने-देखने में गए और बाद के दस साल खड़े होने की तैयारी में । इस तरह 7300 दिन खर्च होने के बाद बचे 18250 दिन और हासिल हुई नाक के नीचे मात्र मूंछ नाम की काली पट्टी । आगे के दस साल भीड़ भरी दुनिया में अपना पांव जमाने की कोशिश ] शादी ] एकाध बच्चा भी और फिर 3650 दिन खाते से कम होने के बाद शेष  रही केवल 14600 सुबहें । आधा जीवन अपने नाम के साथ खड़े होने के प्रयास में निकल गया ।

          जीवन आरंभ हुआ तो लगा कि अब जियंेगे । लेकिन जल्द ही पता चला जीने के लिए घर चाहिए] रसोई चाहिए ] वाहन होना ] बच्चों के लिए शिक्षा ] स्वास्थ्य वगैरह न जाने क्या क्या । इनके चक्कर में 7300 दिन कब ] कैसे खिसक गए पता ही नहीं चला । पचास पार खुद अपने शरीर ने हायतौबा मचाना शुरु कर दिया । दवाएं ] डाॅक्टर ] अस्पताल और बीमा ] मेडीक्लेम आदि में साठ हो गए । आज जब देखते हैं तो सांसों के पर्स में 3650 दिन ही बचे हैं । कवि भवानीप्रसाद मिश्र की पंक्तियों में कहूं तो ^^ जीवन गुजर गया जीने की तैयारी में **
 
          क्या हो सकता है 3650 में ! पिछला देखने पर लगता है कि कुछ नहीं किया । मन बहुत कुछ करना चाहता है किन्तु आगे विस्तार नहीं । पछतावा है ] चिंता भी है ] लेकिन समय की चिड़िया चुग गई खेत । सोचता हूं ऐसा हुआ होता तो अच्छा था या ऐसा नहीं हुआ होता तो बेहतर था ] लेकिन समय के एलबम में कोई तस्वीर नहीं बदल सकती है । जो गया वो कभी वापस नहीं आता है । ये समय की तासीर है ] यही वक्त का जादू है । फिर भी बता समय ] 3650 दिनों की जिन्दगी के बदले मुझे तुझसे क्या मिलेगा \

Tuesday, October 26, 2010

* हमारे विभीषण और भस्मासुर !




आलेख 
जवाहर चौधरी 

     

     पिछले दिनों कश्मीर के भारत में विलय पर सवाल उठाकर विवाद खड़ा करने वाली अरुंधति रॉय ने श्रीनगर में एक सेमिनार के दौरान कहा है कि कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा है.  दिल्ली में कश्मीर पर हुए उस सेमिनार में भी अरुंधति मौजूद थीं, जिसको लेकर काफ़ी बवाल मचा था. कश्मीरी अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाने की मांग उठी थी.
        लेकिन रविवार को एक बार फिर अरुंधति रॉय ने सेमिनार में कश्मीर के भारत का अभिन्न अंग होने पर ही सवाल उठा दिया कि कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा है. यह ऐतिहासिक तथ्य है. भारत सरकार ने भी इसे स्वीकार किया है

श्रीनगर में आयोजित इस सेमिनार का विषय था- मुरझाया कश्मीर: आज़ादी या दासता. इस सेमिनार का आयोजन किया था 'कोअलिशन ऑफ़ सिविल सोसाइटीज़' ने.

                  अरुंधती राय का उक्त बयान चौकाने वाला है . कश्मीर की समस्या को जिस तरह उन्होने लिया है 
वो अलगाववादियो की समझ और भाषा है . कोई भी प्रांत या राज्य के कुछ लोग किन्हीं भी कारणों 
को लेकर अलगाववादी राजनीति करने लगेंगे तो क्या पचास साठ साल बाद उनका समर्थन किया जाना चाहिए ? इतिहास के मायने क्या है ? इतिहास को उसकी पूर्णता के साथ देखा जाना चहिए . अखंड भारत की सीमा कहाँ तक थी सबको पता है . उसमे कश्मीर भारत का हिस्सा था या नहीं यह किसी अनपढ़ को भी बताने की ज़रूरत नही है . राजनीति को छोड़ दिया जाए तो कश्मीर का इतिहास उसकी माटी , संस्कृति और कश्मीरी पंडितों से भी जाना जा सकता है .
                     यदि देश अलगाववादियो की सुनता रहे तो समस्या किस सूबे मे नहीं है ! कल नक्सलवादियो की माँग आ जाएगी अलग होने की तो लोग उसे भी जस्तीफई करने लगेंगे ! देश को टुकड़ों मे विभाजित होने मे देर लग़ेगी क्या ? देश के नागरिक देश को जोड़ने के लिए है . इसकी एकता को चोट पहुँचना देशद्रोह है . 


                 कुछ लोग अपने को बुद्धिजीवी  मानने लगते है और न्याय की लड़ाई  के नाम पर खुद अपनी लड़ाई लड़ने लगते हैं . चाहे वो कितनी छोटी क्यों ना हो . भारत मे बोलने की आज़ादी है तो क्या इस आज़ादी के दुरुपयोग की छूट भी मिली हुई है ! भस्मासुर को देश बर्दाश्त करेगा क्या ? हमारे बीच मे पल रहे विभीषणों को हम माला पहनाते रहेंगे !! यह कट्टरवाद की भाषा नही है , अस्तित्व रक्षा की भाषा है . अलगाववादियो को अंधे बुद्धिजीवी चाहिए जो न्याय के नाम पर उनकी बेजा माँगो का समर्थन कर सकें . 

Monday, September 13, 2010

आँख वालों में अंधा राजा !! / LEADER WITHOUT EYES.






आलेख 
जवाहर चौधरी 

देखने में आ रहा है कि शहरों के आसपास के गांवों और छोटी व पिछड़ी जगहों से आए लोग नगरों का नेतृत्व करने लगते हैं । उनकी जड़ें शहरों में नहीं ] कहीं और होतीं हैं और वे प्रतिनिधित्व कहीं और का करते हैं । इसमें शायद बुराई न हो । हमारे राष्ट्र्ीय नेताओं ने छोटे स्थानों से निकल कर पूरे देश का नेतृत्व किया किन्तु उन्होंने ज्यादातर मामलों में स्थानीय समाज या समूहों की उपेक्षा नहीं की । गांधीजी को ही लें ] आजादी की लड़ाई में वे देश का नेतृत्व कर रहे थे ] वहीं स्त्री शिक्षा ] बाल विवाह ] छुआछूत ] संाप्रदायिकता जैसी ज्वलंत सामाजिक समस्याओं पर उनकी चिंता व सक्रियता कम नहीं थी । फिर आज दिक्कत क्या है !\


आज महानगरों में नेतागिरी चमकाने वालों पर एक नजर डालकर देखिए । वे समारोहों में भाषण करते हैं ] कुरीतियों पर टिप्पणी करते हैं । विकास और सुधार के मुद्दों पर सरकार को गरियाते हैं लेकिन स्वयं जिस समूह ] समाज या जाति से निकल कर आए हैं वहां की बुराइयों के प्रति आंखें मूंदे रहते हैं ! बाल विवाह रोकना है तो सरकार रोके ] कानून काम करे ] पुलिस देखे । हम तो जनभावना और परंपरा के खिलाफ नहीं बोलेंगे । क्या जनप्रतिनिधि होना कुरीतियों का समर्थक होना भी है !! हाल ही में हमारे कुछ नेता खाप पंचायतों की हिमायत में राष्ट्र्पति तक जा पहुंचे ! क्या जनता के कल्याण की जिम्मेदारी सिर्फ संविधान की है !\ 

नेता ऐसा भाव रखते हैं मानों संविधान से उनका नाता सिर्फ शपथ लेने तक ही था । भले ही स्कूल कालेजों में जा कर वे प्रगतिशीलता की बकवास कर आएं पर अपनी जाति या अपने घर की लड़कियों को नहीं पढ़ाएंगे । जब भी वजह पूछी जाए दांत दिखाते हुए कहेंगे कि हमारे समाज में लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नहीं है । तमाम बड़े नगरों की नाक पर ऐसे नेता बैठे मिल जाएंगे जिनके समाज में चार-पांच साल की लड़कियों के विवाह की परंपरा आज के युग में भी जारी है और वे निर्लज्जतापूर्वक इस ओर से आंख फेरे हुए हैं ! नेता मान कर चलते हैं कि यह सब काम सरकार का है । दुःख की बात है कि जनता भी यही माने बैठी है । कहीं भी नेता से यह सवाल नहीं किया जा रहा है कि आप जो देश की किसी समस्या पर संसद को सफलतापूर्वक मच्छीबाजार बना डालते हैं कभी अपने समूह-समाज की समस्या पर लोगों को मार्गदर्शन देते हैं
\- यदि वर्तमान युग में भी हमारे नेता अपने समूह का पिछड़ा नजरिया नहीं बदल पाए हैं तो यह किसके लिए शर्मनाक है \ और क्या हक बनता है उन्हें नगरीय और विकसित समाजों का नेतृत्व करने का \!

Monday, August 30, 2010

"फाड़ दी".....!!!! यह किसकी भाषा है !?



आलेख 
जवाहर चौधरी 


            हाल ही में टीवी चैनल बदते हुए एक जगह भाषाई धमाका सुन रुकना पड़ा । एंकर एक अल्प-परिधाना युवती थी और किसी प्रसंग पर बोल रही थी - ‘‘... वो भोत बड़ा फट्टू है । ’’ लगभग बीस मिनिट में उसने धाराप्रवाह और निर्विकार भाव से फाड़ दी’ , ‘फट गई ’ , ‘चौड़ी हो गई ’ , ‘उंगली कर दी’ , काड़ी कर दी , जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया । ये शब्द बाकायदा सुने गए लेकिन कुछ शब्दों के स्थान पर सीटी की आवाज थी , जिनके बारे में कल्पना की जा सकती है कि वे क्या होगें ।  कहने की आवश्यकता नहीं कि युवती कॉन्वेंट शिक्षित और महानगरीय आधुनिकता के हिसाब से कल्चर्डश्रेणी में रखी जाती होगी ।
                  जहां तक घरों का सवाल है वहां भी पढ़ने का चलन लगभग समाप्त हो गया है । टीवी/वीडियो से बचा समय माॅल/ शापिंग में खर्च हो जाता है । साहित्य और पुस्तकों के लिए घर के किसी कोने में जगह नहीं है । स्कूल/कालेजों में बच्चे अब अपने अभिभावकों के बारे में बात करते हैं तो उनकी भाषा होती है -- ‘‘ ... आता जरुर पर ज्यादा देर बाहर रहो तो मेरा बाप भौंकने लगता है । ’’ या  ‘‘ मेरा बुढ्ढ़ा पाकेटमनी नहीं बढ़ा रहा है यार । ’’ इसी तरह के अनेक शब्द हैं जिनका उल्लेख करना अपनी पीढ़ी की बेइज्जती करना है । ये शब्द दुर्भाग्यवश इन पंक्तियों के लेखक ने सुने हैं । टोकने पर उनका उत्तर था ‘‘ बाप को बाप बोलने में क्या गलत है ? ’’ यानी संस्कार की आवश्यकता पहले पाठ से ही है ।

              भाषाई संस्कार के संदर्भ में हमारी चिंता प्रायः अंग्रेजी को लेकर होती है । शहरों में हमारे बच्चे जिनमें युवा भी शामिल हैं, हिन्दी के अखबार और पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने में कठिनाई महसूस करते हैं । खासकर संपादकीय पृष्ठ, साहित्य और विचार सामग्री को वे छोड़ देते हैं । उनका पाठ सबसे अधिक विज्ञापनों का होता है । राष्ट्र्ीय-अंतराष्ट्र्ीय खबरों की सुर्खियों के अलावा अपराध-समाचारों पर उनकी नजरें टिकतीं हैं । इनके अलावा फोटोयुक्त समाचार और सूचनाएं भी देखेजाते हैं । देखने की प्रवृत्ति अधिक हो गई है । जहां भी भी पढ़ने की जरुरत होती है या भाषा का मामला आता है वे बचते हैं ।
                    भाषा के संदर्भ में इनदिनों शिक्षकों के हाल भी उल्लेखनीय नहीं हैं । विज्ञान के शिक्षकों से शायद भाषा की अपेक्षा कम हो किन्तु कला एवं वाणिज्य के शिक्षक भी भाषा की दरिद्रता से पीड़ित दिखाई देते हैं । ज्यादातर गाइड़, गेसपेपर और वन-डे-सिरिज जैसी बाजारु सामग्री से नोट्स बना कर नौकरी संपन्न होती है ।  सरकारी और निजी गैर शैक्षणिक कार्यों की अधिकता के कारण उनके पास स्वाध्याय के लिए समय ही नहीं है । यदि मौके-बे-मौके एक पृष्ठ लिखने की जरुरत पड़ जाए तो भाषा के पतले हाल उजागर हो जाते हैं । रटंत अध्ययन पद्धति के कारण भाषा अर्थहीन स्थिति में चलती रहती है । ऐसे में नई पीढ़ी को भाषाई संस्कार मिलने में कठिनाई आना ही है ।
             
                    अगर ये हमारी अगली पीढ़ी की हांड़ी का चावल है तो गंभीरता पूर्वक सोचने की आवश्यकता है कि गलती कहां हो रही है । 

Friday, May 28, 2010

* Caste census / जातिवार जनगणना




आलेख 
जवाहर चौधरी 
         

          पहली बात तो यह कि हम मानते हैं कि जाति बुरी है । लेकिन यह भी मानना होगा कि हम , अगड़े-पिछड़े सब , चाहे-अनचाहे इससे चिपटे बैठे हैं । जो लोग कहते हैं कि हम जाति नहीं मानते वे कच्छा-बनियान जाति का ही पहनते पाए जाते हैं ।




यह देखना होगा कि इसकी जिम्मेदारी किसकी है ? पिछड़े और दलित यदि हीन स्थिति में नहीं हों तो उन्हें अपमानित हो कर आरक्षण लेने की क्या जरुरत है ! उनकी इस हीन दशा की जड़ों में कौन है ? अगड़े यदि अपनी जाति-गौरव को परचम की तरह प्रयोग करेंगे , जाति उनका परिचय-पत्र /आई-कार्ड/ होगा , वे जाति के आधार पर आर्थिक ,सामाजिक, राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संगठित होंगे तो शेष रहे लोग अपने आप निम्न जाति के घोषित हो जाएंगे । अगर हम बकरियों के झुण्ड में से दस को श्रेष्ठ नस्ल का घोषित करेंगे तो शेष रही अपने आप नस्लहीनता की श्रेणी में आ जाएंगी । अपने को श्रेष्ठता के पद से मंडित करने वालों के लिए कहीं यह गले की हड्डी साबित होता प्रतीत हो रहा है ।


            दूसरी बात , जाति है तो उसकी गणना करने में क्या दिक्कत है ! अगर शरीर में कोई बीमारी है तो रक्त परीक्षण से बचना कोई उपाय नहीं है । सरकार उन्हें कोई आरक्षण दे न दे, कोई योजना बनाए न बनाए किन्तु इससे हमारी सामाजिक संरचना तो स्पष्ट होगी । यह तो साफ होगा कि ‘वोट हमारा-राज तुम्हारा’ जैसे नारों की हकीकत क्या है । मलाई मारने वाले किस जाति के लोग ज्यादा है और सड़क-भवन जैसे निमार्ण कार्यों व कृषि जैसे कामों में हाड़ तोड़ने वाले कौन और कितने हैं । अभी एक परदा है और उसके पीछे सत्ता का अवैध देह व्यापार हो रहा है । यह परदा हटना चाहिए ।




सूचना का अधिकार जबसे समाज को मिला है बहुत सी बेजा हरकतों पर डर सा बैठ गया है । देश की जनता जानना चाहती है कि जो जाति प्रथा समाज, धर्म और राजनीति को इतने गहरे तक प्रभावित कर रही है वास्तव में इसकी स्थिति क्या है । जो नासूर सदियों से शरीर में मौजूद है , उसे पाले रखने की बजाए एक बार नश्तर से गुजर जाने देना अच्छा है । जो भी होगा जन्नत की हकीकत सामने आएगी ।




शंका व्यक्त की जाती है कि लोग लालच में अपनी जाति बदलने में संकोच नहीं करते हैं । यह सही है कि लालच के कारण ही लोग अपमानों के बावजूद अपनी जाति से चिपके रहना चाहते हैं । हमें अपने चिंतन में इस सत्य को शामिल रखना चाहिए कि आजाद भारत में आरक्षण ही जिसने दलितों को हिन्दू समाज में रोके रखा है वरना उन्हें बौद्ध, सिक्ख, ईसाई या मुसलमान हो जाने में ज्यादा लाभ है । हालांकि यह बहस का विषय हो सकता है ।



बहुत दिनों बाद आप पानी की टंकी साफ करना चाहते हैं तो जरुरी है कि पहले उसे अच्छी तरह मचाया जाए । इससे बेशक पानी गंदा होगा , लेकिन टंकी की सफाई के लिए यह आवश्यक है । जातिवार जनगणना से जिनकी बंधी मुट्ठी लाख की है और खुल जाने पर जिसके खाक हो जाने का डर जिन्हें ज्यादा है वे शोर ज्यादा मचा रहे हैं ।




Sunday, May 16, 2010

KHAP KE KHILADI खाप के खिलाड़ी

     
आलेख 
जवाहर चौधरी 
 
         हरियाणा की खाप पंचायतों की चर्चा इनदिनों देश के सुदूर कोनों तक में हो गई है । हिन्दुओं में विवाह तय करते समय मंगल- शनि व गोत्र का ध्यान रखने की पंरपरा सामान्य रही है । किन्तु पिछले कुछ समय से इस मामले जिस तरह की कट्टरता देखने को मिल रही है वह चौंकाने वाली और दुखःद है । दरअस्ल समय के बदलाव के साथ हमारी जीवन शैली और परिस्थितियों में बहुत बदलाव हुआ है । जहां शिक्षा और समझदारी थी वहां बदलाव को जल्दी स्वीकारा गया और जहां पिछड़ापन बना हुआ है वहां अभी भी पंरपराओं के पीछे लोग अपने ही बच्चों की जान लेने पर अविश्वसनीय रुप से आमादा हैं ।



चिंताजनक बात यह है कि खाप पंचायतों का फितूर जाने अनजाने अन्य लोगों को भी अपनी चपेट में ले रहा है । मीडिया में चर्चाएं हो रहीं हैं, जहां लोग गोत्र को भूल चुके थे वहां प्रयास करके इसकी धूल झाड़ी जाने लगी है ।

राजस्थान में वर्षों बाद रुपकुंवर नाम की युवती सती हुई थी तो सती प्रथा के पुनर्जीवित हो जाने का खतरा पैदा हो गया था । अनेक विद्वानों और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इसके समर्थन में लिखना-कहना आंरभ कर दिया था । लेकिन सौभाग्य से कानून ने सख्ती कम नहीं की और देश वापस दलदल में गिरने से बच गया ।

खाप के खिलाड़ी नेता इनदिनों राजनीतिक रुप से दबाव बनाना चाहते हैं कि उनकी गोत्र मान्यता के अनुरुप संविधान में संशोधन किया जाए । जाति-राजनीति करने वाले लोकदल के नेता ओमप्रकाश चौटाला को तो खाप- शरण होने में कोई शरम नहीं आई होगी किन्तु कांग्रेस के शिक्षित और युवा सांसद नवीन जिन्दल का खाप की चपेट में आना चौंकाने वाला है । ये दोनों हाल ही में खाप-पंचायत में उपस्थित हुए, उनका समर्थन किया और उन्हें कानूनी मान्यता दिलवाने का भरोसा भी दे आए । चौटाला  तो खाप-दूत बन कर गृहमंत्री चिदंबरम से मिले भी और हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन की मांग भी कर आए । यह शुरुवात है , यदि वे खाप के सामने घुटने नहीं टेकते तो चुनाव में उनके विरुद्ध वोट न देने का ‘फतवा’ जारी हो सकता है ।

सवाल यह है कि हिन्दू विवाह अधिनियम देश के नब्बे करोड़ के लिए प्रभावी है । एक क्षेत्र या जाति समूह के हिसाब से इसमें बदलाव की मांग नहीं की जा सकती । जातियों में अपने स्तर पर अनेक परंपराएं होती हैं जिनके पालन को लेकर लोग कानून की उपेक्षा करते भी हैं । किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि कोई परंपरा कानून से उपर हो गई । पुराने समय में सती प्रथा एक परंपरा ही थी । जिस समय राजा राममोहन राय ने अपनी भाभी के सती हो जाने के बाद इस मुद्दे को उठाया, देश में प्रतिवर्ष लगभग एक हजार आठ सौ स्त्रियां सती हो रही थीं, और यह उस समय संबंधित जातियों का मान्य आचरण था । राजस्थान, हरियाणा, उ.प्र., बिहार और म.प्र. में भी अक्षय तृतिया और देवउठनी ग्यारस पर बालविवाह बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं । दहेज प्रथा ,घूंघट प्रथा आदि अनेक परंपराएं हैं जिनके प्रति जातियों का दुराग्रह होता ही है । क्या इन्हें कानून सम्मत बनाने की हम कल्पना भी कर सकते हैं ? नवीन जिन्दल जैसे युवा व शिक्षित नेताओं से अपेक्षा यह है, चूंकि वे नई दुनिया को समझने वाले हैं अतः पिछड़े लोगों की दृष्टि पर जमी धुंध साफ करें । उन्हें नई दिशा दें और नए विचारों के लिये जमीन तैयार करें । गांधीजी जब देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तब समाज में छूआछूत और सवर्णों के अनुदार आचरण की परंपरा मौजूद थी । लेकिन उन्होंने अपनी शक्ति इन्हें ठीक करने में लगाई, जो उस समय आसान काम नहीं था । तर्क दिया जा सकता है कि गांधीजी को किसी से वोट नहीं चाहिए थे । लेकिन आज कांग्रेस में राहुल गांधी हैं जिन्हें वोट चाहिए और वे उ.प्र. के दौरों में, घोर जातिवादियों के बीच जाते हुए भी जातिप्रथा या खाप जैसी बेहूदा बातों का समर्थन नहीं कर रहे हैं ! स्पष्ट, आधुनिक और प्रगतिशील विचारों व आचरण वाले नेता कभी जातियों के वोट से नहीं बने हैं । नेहरु, इंदिरा, शास्त्री, अटलबिहारी या अड़वानी अपनी जातियों के वोट से देश के नेता नहीं बने । जाति से केवल चौटाला  जैसों की राजनीति चलती है जो कितनी दीर्घकालीन और कितना विस्तार पाती है यह किसी से छुपा नहीं है ।


Tuesday, May 11, 2010

Matrubhoomi: A Nation Without Women

आलेख 
जवाहर चौधरी 


मातृभूमि
ए नेशन विदाउट वुमन



                    भारत में कन्या भ्रूण हत्या का प्रसंग सदियों पुराना है । इसके कारणों को दोहराने की आवष्यकता नहीं है । पिछली जनगणना में हमारे अनेक राज्यों में स्त्री-पुरुष अनुपात में चिंताजनक अंतर सामने आया है । पंजाब और हरियाणा में तो लड़कियों की इतनी कमी है कि वहां दक्षिण भारत और अन्य जगहों से लड़कियां खरीद कर विवाह करने के प्रकरण सामने आए हैं । आज भी लड़कियों को मारने की प्रथा बंद नहीं हुई है । फर्क केवल यह हुआ है कि भ्रूण परीक्षण से पता करके अब उन्हें जन्म से पहले ही मार दिया जाता है ।

                 ‘मातृभूमि - ए नेशन विदाउट वुमन’ मनीष झा की 2005 में रिलीज, इस मायने में एक महत्वपूर्ण फिल्म है कि यह कन्या हत्या की इस समस्या को गहरे असर के साथ दर्शक के मन में उतार देती है । फिल्म का आरंभ प्रसव के दृश्य से होता है । लड़की पैदा होती है जिसे दूध के तपेले में डुबो कर मार दिया जाता है । यह प्रथा, विकृत प्रवृत्ति और मानसिकता का प्रतिनिधि दृश्य आक्रोशित करने वाला है ।
गांव में पांच लड़कों और अधेड़ जमींदार पिता का एक परिवार है । लड़के विवाह योग्य हैं पर पंड़ित द्वारा आसपास दूर दूर तक छान मारने पर भी कोई लड़की उपलब्ध नहीं है । ब्लू फिल्म के शौकीन गांव में हालात इतने बिगड़े हुए हैं कि छोटे लड़के यौन शोषण का सहज शिकार हैं, यहां तक कि गाय-भैंस और बकरियों को भी नहीं छोड़ा जाता है । बाप दहेज की लालच में लड़के को लड़की के कपड़े पहना कर ब्याहने से नहीं चूक रहे हैं । पूरा गांव स्त्री की छाया से भी महरुम है ।

                ऐसे में पास ही कहीं एक लड़की कलकी का पता चलता है जिसे पिता ने उसे बहुत छुपा कर पाला है । पंडित जमींदार को यह सूचना देता है । बात आगे बढ़ती है पर लड़की का पिता एक लाख रुपए के प्रस्ताव के बावजूद जमींदार के बड़े लड़के से ज्यादा उम्र का होने के कारण अपनी लड़की का विवाह नहीं करता है । लेकिन पांच लाख व पांच गाएं ले कर पांचों लड़कों से लड़की ब्याह देता है । ससुराल में कलकी को अपने पतियों के साथ ससुर को भी झेलना पड़ता है । सप्ताह में हर दिन कलकी को एक के साथ सोना होता है । सारे पुरुषों में सबसे छोटा बेटा सुदर्शन और स्वभाव में मानवीय होने के कारण कलकी उसे पसंद करने लगती है । यह बात अन्य भाइयों और पिता को खटकती है और षड़यंत्र पूर्वक वे उसकी हत्या कर देते हैं । जाहिर है अब कलकी पर इनकी पशुता दूने वेग से आक्रमण करती है ।



                  मौका देख कर वह घरेलू नौकर-लड़के रघु के साथ भागने का असफल प्रयास करती है, फलस्वरुप रघु को जान गंवाना पड़ती है । अब सजा के तौर पर उसे गौशाला में सांकल से बांध दिया जाता है । बारी बारी से ‘मर्द’ उसका यौन शोषण करते रहते हैं । इसबीच गांव के दलित जमींदार के घर नौकर रहे अपने लड़के रघु की मौत का बदला लेने के लिये रात में छुप धावा बोलते हैं और गौशाला में जमीदार की बहू कलकी को बंधा देख उसके साथ बलात्कार कर लौट जाते हैं । कलकी गर्भवती हो जाती है ।

इस खबर से गांव के दलित लोग मानते हैं कि जमींदार के घर पैदा होने वाले बच्चे के बाप वे हैं । बात सामने आती है और सामूहिक संघर्ष में बदल जाती है । इधर जमींदार कुपित हो कर कलकी को मार डालना चाहता है लेकिन नया नौकर, एक लड़का, उस पर चाकू से अनेक वार कर उसकी जान ले लेता है और कलकी को बचा लेता है । अगले दृश्य में कलकी का प्रसव है , लड़की के जन्म से सुखांत होता है ।

                     दरअस्ल यह कहानी भविष्य की, चेतावनी देने वाली कहानी है । यह दुनिया में कहीं भी हो सकता है, लेकिन भारत के संदर्भ में तो है ही । भ्रूणहत्या के मामले में भारत जितना जाहिल और गंवार है उतना शायद ही कोई और देश होगा । किन्तु केवल अशिक्षित और पंरपरावादी लोगों पर दोष मढ़ कर हम या कोई भी, इस पाप से मुक्त महसूस नहीं कर सकते हैं । सैकड़ों वर्ष पुरानी इन परंपराओं के पीछे पुरुषों की कायरता ही प्रमुख है जो अपनी बेटियों का भरण-पोषण और रक्षा करने से बचते रहे हैं ।

                       बात बात में धर्म और संस्कृति को याद करने वाला समाज अपनी ही बच्चियों के मामले में इससे विमुख कैसे हो जाता है ! धर्म में ‘पवित्रता का प्रावधान’ इन हत्याओं के लिए इसलिए जिम्मेदार है कि व्यक्ति पाप करके किन्हीं पूजाओं और दान से इसे ‘धो’ सकता है ! यह धारणा किसने पैठा दी है कि विषेष मुहुर्त में गंगा स्नान करने से पापियों के पाप धुल जाते हैं । या पापी के मरने के बाद भी ब्राहम्ण-भोज और कुछ क्रियाएं करने से उसे स्वर्ग में जगह मिल जाती है । पाप से बचने के प्रावधान पाप को बढ़ाने के उपाय ही हैं । जब तक यह बात समझ में नहीं आती कायरों के समाज में न अपराध कम होंगे न पाप ।

                            फिल्म का सबसे अच्छा पक्ष उसका निर्देशन और फिल्मांकन है । विषय में संभावना होने के बावजूद कहीं भी अश्लीलता नहीं है । मनीष झा की समझ को देख कर आश्चर्य होता है । यदृपि वे कम आयु के, एकदम नौजवान हैं, किन्तु दर्शकों को बार-बार लगता है कि वह श्याम बेनेगल की फिल्म देख रहा है । किसी सामाजिक समस्या पर उद्श्यपूर्ण फिल्म बनाना आज वैसे भी लीक से हट कर चलना है । उस पर विषय की प्रस्तुति ऐसी है कि दर्शक में मन में गहराई तक उसका असर होता है और में वह इस समस्या से खुद को बेहद चिंतित पाता है । फिल्म को अनेक देशी-विदेशी अवार्ड मिले हैं । कलकी के रुप में तुलिक जोशी और जमींदार की भूमिका में सुधीर पांडे अद्भुत हैं । इनके अलावा सभी कलाकारों से मनीष झा ने बहुत सधा हुआ काम लिया है ।