ग़ालिब-ए-खस्ता के बगैर, कौन से काम बंद हैं ... रोइए ज़ार ज़ार क्या, कीजिये हाय हाय क्यों .
गोइंका व्यंग्यभूषण सम्मान
Saturday, July 3, 2021
Sunday, May 23, 2021
कहानी संग्रह "कोमा ..." पर प्रकाश कान्त जी की टिपण्णी .
मार्च -अप्रेल २०२१ में मेरा नया कहानी संग्रह
"कोमा एवं अन्य कहानियाँ " बोधि प्रकाशन
से छप कर आया . इसमें पंद्रह कहानियां हैं .
वरिष्ठ कथाकार आदरणीय प्रकाश कान्त जी
ने कहानियों पर अपनी प्रतिक्रिया और राय
दी है, जो भोपाल के अख़बार सुबह सवेरे में
आज (२३ मई २१ ) को प्रकाशित हुई है .
मित्रों प्रकाश जी देवास के हैं और कई
कहानी संग्रहों और उपन्यासों के रचयिता
हैं . वे देश भर की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में
बहुत आदर से छपते आ रहे हैं . उनकी राय
किसी भी लेखक के लिए महत्वपूर्ण है .
Saturday, April 3, 2021
अनिल करमेले- ( कविता ) बाकी बचे कुछ लोग
Friday, January 22, 2021
बोसकीयाना की खिड़की से ज़िन्दगी के झोंके
समीक्षा
फ़िल्में हमारे जीवन में इतनी रच बस गई हैं कि लगता है लोकमानस को दिशा देने का काम करती हैं . यदि फ़िल्मकार गुलज़ार हों तो यह प्रभाव बहुत सलीके से गहरे तक उतरता है . जब १९७१ में फिल्म ‘मेरे अपने’ प्रदर्शित हुई तो हिंदी सिनेमा का मानो एक नया अध्याय खुला. हर उम्र के दर्शक को लगा कि ये उनकी कहानी है, जो घट रहा है वो ठीक उसके आसपास का है. समय की आग, एक आक्रोश को कविता की तरह हर दर्शक ने महसूस किया. अपनी पहली फिल्म से ही गुलज़ार भारतीय जनमानस में संजीदा फ़िल्मकार के रूप में दर्ज हुए. बाद में परिचय, कोशिश, खुशबू, आंधी, मौसम, किनारा, मीरा, अंगूर, टीवी सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब वगैरह तमाम फ़िल्में किसको याद नहीं हैं ! गीतकार की हैसियत से हिंदी और उर्दू के लिए गुलज़ार वैसे भी एक बड़ा और महत्वपूर्ण नाम है . इसीलिए गुलज़ार को गहराई से जानने की इच्छा प्रायः हर आदमी में रही है. उनको ले कर तमाम लेख, इंटरव्यू, रिपोर्ट वगैरह चाव से पढ़े सुने जाते रहे हैं लेकिन प्यास है की बुझती नहीं. इस बात को शायद जाने-पहचाने प्रयोगशील लेखक, पत्रकार, संपादक डॉ. यशवंत व्यास ने शिद्दत से महसूस किया. वे गुलज़ार के संपर्क में दशकों से हैं. अनेक इंटरव्यू- बातचीत उन्होंने कविता और फिल्मों को लेकर समय समय पर की हैं . ‘बोसकीयाना’ यशवंत व्यास की ताजा पेशकश है जिसमें वे गुलज़ार को पाठकों के लिए यथासंभव खंगालते दिखाई देते हैं . सवा दो सौ पृष्ठों में जितने गुलज़ार हैं उतने ही यशवंत भी उपस्थित दिखाई देते हैं. बोसकीयाना सिर्फ गुलज़ार को जानने की किताब नहीं है, इसमे आप यशवंत व्यास से भी उतना ही मिलते चलते हैं. किताब राधाकृष्ण प्रकाशन ने छापी है लेकिन प्रस्तुति यानी साज-सज्जा, प्रश्नोत्तरी में भाषा-भाव और सौन्दर्य, कलात्मक शोध की बुनावट और कसी हुई सामग्री पेशकार के खाते में दर्ज होती है. वे लिखते हैं- “गुलज़ार से जब भी मिलो, बस मिल जाओ. उनके सामने किसी और के बारे में भी जरा-सा हल्का नहीं बोल सकते. वकार, जुबान और जेब की जाँच हो जाएगी. ये मेरी नहीं हर मिलाने वाले की राय है ”. उर्दू गुलज़ार के लिए ग़ज़ल की, गीत की भाषा है तो संवाद की भी है. यशवंत लिखते हैं कि “मुझे उर्दू नहीं आती, खासतौर से नुक्ते के मामले में मैंने कई बार कहा, सिर्फ ‘ज़िन्दगी’ में नुक्ता ठीक लगना चाहिए, बाकी तो बाकी देख ही लेंगे. उनका कहना था कि लगा दो तो बेहतर ही होगा. मायने बदलने से रह जाएँगे.”
गुलज़ार बहुत
कम,
बोलते / खुलते हैं. वे अपनी बनाई लक्ष्मण रेखा में रहना पसंद करते
हैं. जाहिर है ऐसे में उनसे उनका बहुत कुछ जानने के लिए यशवंत व्यास ने बहुत कोशिश
की होगी. किताबें उनका पहला शौक है, यही आज भी है. फ़िल्में
उन्होंने की लेकिन मौका मिलते ही किताबों की और लौटे. वे कहते हैं “फ़िल्में
आर्ट का बेहद ताकतवर फार्म है. पर यह भी सही है कि इल्म फिल्मों से नहीं किताबों
से हासिल होता है.” फिल्मों ने उन्हें शोहरत दी, लेकिन
फ़िल्में ही सब कुछ नहीं हैं. “मैं दो-एक वजहों से फिल्मों में गीत लिखता हूँ.
पहला मुझे शायरी से प्यार है और गीत उसका मौका देते हैं. दूसरा मेरी तमाम क्वालिफिकेशन मिलाकर .... इंटर
फेल है, कोई मुझे पंद्रह सौ की नौकरी भी नहीं देगा.
ये गीत मेरे घर कमाई लाते हैं. इससे मेरा किचन चलता है.”
लेकिन उनके गीत केवल ‘व्यावसायिक’ नहीं हैं, उनका साहित्यिक,
इंसानी मूल्य अधिक है. वे कहते हैं “जब तक आप यह न जानें कि
ज़िन्दगी आम आदमी के साथ कैसे पेश आती है, आपकी
संवेदनशीलता का दायरा बड़ा अधूरा रह जाता है, एकदम संकरा रहता
है.” “कुछ अफसाने यों हुए कि फोड़ों की तरह निकले. वह हालात, माहौल
और सोसाइटी के दिए हुए थे. कभी नज्म कहके खून थूक लिया और कभी अफसाना लिख कर जख्म
पर पट्टी बांध ली”.
“शायरी मेरे
लिए एक रिले रेस की तरह है . आप कुछ भाव चुनते हैं,
कुछ नया जोड़ देते हैं. यह हमेशा आपको जगाए हुए रखती है. मैं उस क्षण
की चमक को जीने की कोशिश करता हूँ और यही मुझे आगे बढ़ने के लिए चार्ज कर देती
है.” “बड़े लोगों का लिखा पढ़ते हुए महसूस
करता हूँ जितना जाना है उससे कितना ही गुना जानना बाकि है”.
यशवंत व्यास
बहुत उलझे हुए सवाल भी पूछते हैं और गुलज़ार से. मसलन “रचना किसी आदमी को किस हद
तक निर्मल करती है ? क्योंकि कहा जाता है कि कला आदमी को उद्दात्त बनाती है. मगर
हम देखते हैं कि कभी कभी एक अच्छे कलाकार का दूसरा पक्ष बड़ा डार्क होता है. कविताएँ
गज़ब की लिखते हैं मगर अफसरी पर बैठते हैं तो घूसखोरी आयर चरित्रहीनता में सानी
नहीं गज़ब के हिंसक मगर कविताओं का मफलर डाले साहित्य के जंगल में शान से टहल रहे
हैं !” गुलज़ार का उत्तर संक्षिप्त लेकिन बहुत सधा हुआ है.
किताब के
पन्ने पलटते हुए महसूस होता है कि गुलज़ार के कितने करीब से गुजर रहे हैं आप. सादगी
इतनी कि लगता है दो घर छोड़ कर रहने वाला पड़ौसी हैं कोई. और बातें उनकी हैं या आपके
दिल की कहना कठिन. जब वे कहते हैं कि ”मशीनों को हेंडल करना सीख सकते हैं लेकिन
इंसानी रिश्तों को हेंडल करना सीखना मुश्किल है”. तब बरबस मुँह से निकलता है ‘यही
तो’. बार बार हम चौंकते हैं कि हर बार उनसे सहमत हैं !! कम शब्दों में, बहुत नपातुला और सारवान ! हर
वक्तव्य शोधा सा. वे कहते हैं “जब आप
ज्यादा बोलने लगते हैं तो जनता आपको सुनना बंद कर देती है. ज्यादा बार कही किसी
बात का असर घट जाता है और वह निरर्थक हो जाती है. थोड़े शब्द ज्यादा ताकतवर,
ज्यादा असरदार होते हैं”.
यहाँ सिर्फ अपनी बात नहीं है, इंडस्ट्री के चलन और चाल पर भी दिलचस्प चर्चा है. फिल्म
बनाने का आसान दिखने वाला काम कितना कठिन है, पता चलता है. चर्चा में गुलज़ार की
तमाम फिल्मों के लिखने-बनने की तफसील है जो न केवल जानकारी से भरी है अपितु गज़ब की
रोचक भी है. कई पृष्ठों में फैली फिल्म निर्माण की अंदरूनी अनुभवजनित बातचीत किताब
को अलग तरह से मूल्यवान बनाती है. बेटी बोस्की के बहाने पिता गुलज़ार को जानना भी
अलग तरह का अनुभव है. गुलज़ार और बोस्की की कहानी पर काफी पृष्ठ है और हमारी
जिज्ञासा को शांत करते हैं. वे कहते हैं –“बोसकी के ताल पाताल’ तेरहवें जन्मदिन
की किताब थी. यह साल कुछ खास था. एक मैसेज देना था,जो पहले से अलग था.” इसके
बाद संगीत और शब्द की गहराई पर क्लासिक संवाद पाठक को समृद्ध करता है. यशवंत यहाँ
उनसे शनदार जुगलबंदी करते नजर आते हैं. संजीव की भीगी सी याद और उनकी बरसी पर लिखी
कविता पाठक को भी नम कर देती है. आखरी में आभार और काम की फेहरिस्त के साथ अध्ययन
कक्ष के बीच यशवंत व्यास और गुलज़ार की कहती-सुनती तस्वीर आपकी नज़रों में ठहर जाती
है.
पन्नों से
उतर कर एक गुलज़ार की एक कविता जैसे आपको बिदा करने आती है --
मैं
अपनी फिल्मों में सब जगह हूँ
सजावटें
और बनावटें सारी मुझसे उतारी हैं, मैंने दी हैं
वो
ढलते सूरज की शान-ओ-शौकत, गुरुर मैं हूँ
वो
दिन भी मेरी ही सल्तनत था जो लुट गया
वो
सुबह जो पत्तियों के पीछे नाहा कर तैयार हो रही है
उसे
भी मैंने ही उस जगह पर खड़ा किया है
कहानियों
के बहुत से किरदार हैं जो मैं हूँ
सभी
में से कोई न कोई हिस्सा है मेरी अपनी जिंदगी का
किसी
अपाहिज के दस्त-ओ-बाजू उतारके मैंने रख लिए हैं
कहीं पर मैं
अपनी जात पर रहम खा रहा हूँ
कहीं पे अपनी
जात से इन्तेकाम लेकर, हरीफ पर चोट कर रहा हूँ
वो शौक मेरे.
खौफ मेरे
अधूरे पूरे, जो
मेरे अन्दर बसे हुए हैं
ग्लेशियर की
तरह खड़े हैं
मेरी
उम्मीदें भी पस-मंजर अलाप कराती सुनाई देंगी
मेरी ये
फ़िल्में हैं और मैं हूँ .
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पुस्तक – बोसकीयाना
पेशकार – यशवंत व्यास
प्रकाशक- राधकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
-११० ०५१
मूल्य – रू.१२००/---
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Wednesday, July 8, 2020
नाटक ‘बकरी’ : हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का दस्तावेज़
आलेख
जवाहर चौधरी
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म: 15 सितम्बर, 1927; मृत्यु: 23 सितम्बर, 1983) वे प्रसिद्ध कवि एवं कथाकार थे । सर्वेश्वर दयाल सक्सेना 'तीसरे सप्तक' के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं । कविता के अतिरिक्त उन्होंने कहानी, नाटक और बाल साहित्य भी रचा । वे आकाशवाणी में सहायक निर्माता; दिनमान के उपसंपादक तथा पराग के संपादक रहे । र्वेश्वर दयाल सक्सेना का साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ । ‘चरचे और चरखे’ स्तम्भ में दिनमान में छपे आपके लेख विशेष लोकप्रिय रहे । सन 1983 में कविता संग्रह ‘खूँटियों पर टंगे लोग’ के लिए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया । यहाँ उनके व्यंग्य नाटक बकरी पर एक टिप्पणी ।
सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना के इस
राजनीतिक व्यंग्य नाटक का कथा सारांश यह है कि कुछ बेकार, अपराधी, उचक्कों को एक भिश्ती दिखता है जो मसक (बकरी की खाल में पानी भर कर
छींटने-सींचने में उपयोग किया जाता है) से पानी छींटते और गाते उधर से गुजरता है ।
उसे देख उन्हें एक षड्यंत्रकारी युक्ति सूझती है । वे गाँव से एक बकरी पकड़ कर उसे
गांधीजी की बकरी घोषित कर देते हैं । गरीब बकरी वाले का विरोध अनसुना कर दिया जाता
है । वह गाँव वालों को लेकर आता है लेकिन उनकी भी नहीं चलती है । बकरी को
महिमामंडित कर उसके प्रति आस्था जगाई जाती है और पूजा-पैसा सब मिलने लगता है ।
बकरी उनके लिए राजनीति चमकाने का साधन हो जाती है । दारोगा,
पंडित, कानून और धन
सहयोगी होते हैं । बकरी सेवा संघ, बकरी सेवा प्रतिष्ठान, बकरी सेवा मण्डल आदि बनाए जाते हैं । एक युवा गाँव वालों को समझता है कि
वे लोग तुम्हें मूर्ख बना रहे हैं । आज गांधी कि बता कर बकरी ले गए, कल कृष्ण कि बता कर गाय ले लेंगे परसों बलराम के बैल कह कर उन्हें छीन ले
जाएंगे । लेकिन डरे, दबे, अशिक्षित, धर्मभीरु, असुरक्षित, निरुपाय
गरीब गाँव वाले नहीं मानते । उधर बकरी उठाने वाले चुनाव चिन्ह ‘बकरी’ पर वोट लेने
में सफल हो जाते हैं । जीत के बाद के होने वाले जश्न में उसी बकरी को पकाया जाता
है । अब सत्ता है, सरकार है तो ईनाम,
पुरस्कार, सहायता आदि का सिलसिला चलता है । चूंकि मसक वाले
से ही उन्हें आइडिया मिला था, इसलिए उसको पुरस्कार के तौर पर
बकरी की खुबसूरत ताजा खाल दी जाती है ताकि वह नयी मसक बना कर पूरे जोश के साथ अपना
काम करे । नाटक का अंत भिश्ती के बेटे और
गाँव वालों के उग्र विरोध से होता है ।
1974
में लिखा गया सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का यह नाटक भारतीय लोकतन्त्र के उन छिद्रों
को रेखांकित करता है जिनको आज भी दुरुस्त नहीं किया जा सका है । बल्कि यह कहा जा
सकता है कि इनमें वृद्धि हुई है । पाँच दशकों में कई सरकारें बदलीं, अनेक पार्टियां सत्ता में आईं गईं लेकिन सत्ता
का चरित्र नहीं बदला । विचारधाराएँ भिन्न हो सकती हैं, झंडे
अलग हो सकते हैं, आदर्शों में होड हो सकती है लेकिन एक
फार्मूले की तरह राजपथ के टेढ़े रास्तों में कहीं कोई बदलाव नहीं दिखाई देता है ।
हर सत्ता को धर्म, कानून, पुलिस, सेना और अपराधियों का संबल होता है । बकरी बोल नहीं सकती है सो उसका मनचाहा इस्तेमाल
किया जा सकता है । यहाँ बकरी एक प्रतीक भर है । बकरी की जगह आज गाय हो सकती है, नदियां, पेड़, पौधे, पक्षी हो सकते हैं, दिवंगत महापुरुष, लीडर, संत आदि हो सकते हैं । यही क्यों बकरी कि जगह
संस्कृति या इतिहास भी हो सकते हैं । आमजन रोटी से लड़ता रहे और विचार तक नहीं पहुंचे । लोगों को उतना ही मिलना
चाहिए कि वह अगले चुनाव में फिर वोट देते समय बहकने को तैयार किए जा सकें । हर
दल ने एक बकरी बांध रखी है, कोई गांधी की बता सकता है तो कोई अयोध्या की । बकरी को आगे करके वोट खींच
लिए जाते हैं उसके बाद जनता जनार्दन को कुछ नहीं मिलता सिवा खाल के । बकरी हमारी
लोकतान्त्रिक व्यवस्था का प्रामाणिक दस्तावेज़ है । नाटक हमारी राजनीति का कुरूप
चेहरा दिखाता है जो पाठक/दर्शक स्तब्ध कर देता है ।
नाटक
में जगह जगह पंच लाइन हैं जिनकी मार दूर तक जाती है । बकरी वाला बताता है कि उसकी
बकरी दो हजार की है तो जवाब आता “गांधीजी की बकरी है, दो हजार की नहीं सौ करोड़ की है” (अब सवा सौ )।
“गांधी जी कि बकरी शाकाहारी होती है ।“ “बकरी सादगी, प्रेम
और अहिंसा का पाठ पढ़ती है ..... जब उसने आज तक तुझे कुछ कहा (पढ़ाया) नहीं तो बकरी
तेरी कैसे हो गयी !” वगैरह । इस नाटक में पांच गीतों का
रचनात्मक प्रयोग किया गया। प्रमुख गीत 'बकरी को क्या पता था, मशक बन कर रहेगी, पानी भरेंगे लोग और यह कुछ न कहेगी', 'धर्म-ईश्वर-भाग्य
सबकी उंगलियों पर नाचता है', 'जिस धूल से शहरों में मची
रंगरेलियां जिन छप्परों के बल पर खड़ी हैं हवेलियां उस आदमी को आदमी वह मानते नहीं,
जब काम निकल जाता है पहचानते नहीं', 'हर ऐश
करा जाएगी यह गांधी जी की बकरी' और 'दिन
में दो रोटी के हो जब देश में लाले पड़े, हो सभी खामोश सबकी
जबां पर ताले पड़े' से कथानक को प्रभावी बनाते हैं ।
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Monday, May 18, 2020
वो जो रस्किन बॉन्ड है !
Tuesday, April 14, 2020
क्वारंटाइन ! ... नहीं तो !
Monday, July 22, 2019
आत्मस्वीकृतियाँ
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Thursday, May 16, 2019
कवि की भाषा
तादयुस्ज रोज़विच (पोलिश Tadeusz Różewicz - जन्म 9 अक्टूबर 1921) यूरोप के महान कवियों मे से हैं। कविता और नाटक दोनो विधाओं मे उन्होने पोलिश साहित्य मे ऐतिहासिक फेरबदल किया है। सत्ताकेंद्रित राजनीति मे मौजूद किसी भी तरह की हिंसा को उन्होने कभी भी स्वीकृति नहीं दी। दूसरे विश्वयुद्ध के परिणामों को वे कभी सह नहीं पाए। नाज़ीवाद ने जब आश्वित्ज़ मे बर्बर जन-संहार किया तब सारी दुनिया मे यह प्रश्न पूछा जाने लगा था कि क्या अब भी कविता लिखी जा सकती हैं? पोलिश कविता के नए रूप के आविष्कार के साथ रोज़विच ने कविता को संभव बनाया। उनके पास अद्भुत काव्यात्मक ईमानदारी है। रोज़विच की कविताओं की साधारणता और विलक्षण सरलता देखने लायक है।
Sunday, April 21, 2019
मौसम बदल रहे हैं...
श्री नरेंद्र शर्मा एक बहुआयामी व्यक्तित्व हैं । उनका
जीवन अनुभव विविधताओं से परिपूर्ण है । अवलोकन
की सूक्ष्म दृष्टि और संवेदना का विस्तृत फ़लक उन्हें
एक गंभीर रचनाकार के रूप में प्रस्तुत करता है । हिन्दी
के साथ वे उर्दू में भी रचते हैं । कविता और गज़लों के
माध्यम से जीवन दर्शन उनकी विशेषता है ।
यहाँ उनकी ताजा रचनाएँ ।
अवलोकनार्थ प्रस्तुत है ----