Thursday, March 10, 2011

जाउं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के..


                  
आलेख 
जवाहर चौधरी 

        अट्ठावन-उनसाठ का समय याद आ रहा है । इन्दौर ...... एक छोटा सा शहर , जिसमें घोड़े से चलने वाला तांगा और बैलगाड़ियां खूब थीं । सामान्य लोग पैदल चला करते थे । युवाओं में सायकल का बड़ा क्रेज था । सूट पहने, टाई बांधे सायकल सवार को देख कर लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रहते । उस वक्त की फिल्मों में हीरो-हीरोइन भी सायकल के सहारे ही प्रेम की शुरुवात  करते थे । दहेज में सायकल देने का चलन शुरू हो गया था । दूल्हे प्रायः दुल्हन की अपेक्षा सायकल पा कर ज्यादा खुश  होते । सायकिल को धोने-पोंछने और चमकाने के अलावा पहियों में गजरे आदि डाल कर सजाने का शौक आम था ।


               बिजली सब जगह नहीं थी, दुकानों में पेट्रोमेक्स जला करते थे । सूने इलाके में स्थित हमारा घर कंदिल से रौशन  होता था । मनोरंजन के लिए लोग प्रायः ताश  पर निर्भर होते थे । कुछ लोग शतरंज  या चौसर  भी जानते थे । लेकिन इनकी संख्या बहुत कम थी । संगीत की जरूरत वाद्ययंत्रों से पूरी हो पाती थी जिसमें ढ़ोलक सबको सुलभ थी । पिताजी ने चाबी से चलने-बजने वाला एक रेकार्ड प्लेयर खरीद लिया था जिसे ‘चूड़ी वाला बाजा’ कहते थे । घर में बहुत से रेकार्ड जमा किए हुए थे । उन्हें बाजे का बड़ा शौक  था । एक डिब्बी में बाजा बजाने के लिए पिन हुआ करती थी । एक पिन से चार या पांच बार रेकार्ड बजाया जा सकता था । पिन वे छुपा कर रखते थे, मंहगी आती थी ।
उनदिनो एक गाना खूब बजाया जाता था -- ‘ चली कौन से देस गुजरिया तू सजधज के ........ जाउं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के ..... ’ । मुझे भी बाजा सुनना बहुत भाता था । यह गीत तो बहुत ही पसंद था । लेकिन इजाजत नहीं थी बजाने की । इसलिए प्रतीक्षा रहती कि पिताजी के कोई दोस्त आ जाएं । दोस्त अक्सर शाम को आते और ‘बाजा-महफिल’ जमती । कई गाने सुने जाते लेकिन ‘ चली कौन से देस ...’ दो-तीन या इससे अधिक बार बजता ।

कुछ समय बाद रेडियो के बारे में चर्चा होने लगी । पिताजी के दोस्त बाजा-महफिल के दौरान तिलस्मी रेडियो का खूब बखान करते । एक दिन रेडियो आ ही गया । बगल में रखी भारी सी लाल बैटरी से उसे चलाया जाता । सिगनल पकड़ने के लिए घर के उपर तांबे की जाली का पट्टीनुमा एंटीना बांधा गया जो बारह-तेरह फिट लंबा था । रेडियो बजा तो  सब निहाल हो गए । उसकी आवाज बाजे से ज्यादा साफ और अच्छी थी । आवाज को कम-ज्यादा करने की सुविधा भी चौकाने  वाली थी । कई दिनों तक लोग रेडियो को देखने के लिए आते रहे । साफ आवाज सुन कर बूढ़े और महिलाएं समझतीं कि इस डब्बे में लोग बैठे बोल रहे हैं । रेडियो सायकल से बड़ा सपना बनने जा रहा था ।
जल्द ही रेडियो सिलोन में दिलचस्पी बढ़ी , खासकर बिनाका गीतमाला में । अमीन सायानी की आवाज में जादू का सा असर था, जब वे ‘भाइयो और बहनो’ के संबोधन के साथ कुछ कहते तो कानों में शहद  घुल उठती ।  बुधवार का दिन इतना खास हो गया कि इसे ‘बिनाका-डे’ कहा जाने लगा । शाम  होते ही लोग आने लगते । आंगन में बड़ी सी दरी बिछाई जाती जो पूरी भर जाती । उन दिनों पहली पायदान पर रानी रूपमति का गीत ‘ आ लौट के आजा मेरे मीत , तुझे मेरे गीत बुलाते हैं .....’ महीनों तक बजता रहा था । सायानी एक बार मुकेश  और एक बार लता मंगेषकर की आवाज में इसे सुनवाते । इस गीत के आते आते श्रोताओं का अनंद अपने चरम पर होता, वे झूमने लगते ।

इस बैटरी-रेडियो को भी बड़ी किफायत से चलाया जाता था क्योंकि बैटरी बहुत मंहगी आती थी । इसलिए अभी ‘चूड़ी वाले बाजे’ का महत्व कम नहीं हुआ था । याद नहीं कब तक ऐसा चला और बिजली आ गई ।  कुछ दिनों बाद ही बिजली वाला रेडियो भी ।
पहले ‘चूड़ी वाला बाजा’ बेकार हुआ , फिर बैटरी-रेडियो भी घटे दामों बाहर निकला । लेकिन इनकी  यादें हैं कि टीवी युग में भी अपनी जगह बनाए हुए हैं ।

3 comments:

  1. बहुत ही शानदार प्रस्तुति......बीते दिनों की । ऐसा रेडियो और चूडी वाला बाजा तो नहीं देखा पर उसकी बारे में सुना और आपकी रोचक बातें पढी तो मुझे टेलीफोन की याद आ गई । एक बार फिर बधाई ।

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  2. संगीतमय यादों का क्या कहना.... हाथ से घुमाने वाला रेकार्ड प्लेयर बहुत छोटी उम्र में मैंने भी अपने दादा जी के पास देखा था, जिसमें तब भजन के रेकार्ड बजा करते थे। उसके बाद बैटरी वाला रेडियो तो गांव में सबके मनोरंजन का प्रमुख साधन था. हमारे लिए वह सोने- जागने और पढ़ने तक का साथी था। कॉलेज की पूरी परीक्षा रेडियो में पुराने गाने सुनते हुए ही पास की है।
    इस बेहतरीन संस्मरण के लिए आपको बधाई.
    -डॉ. रत्ना वर्मा

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  3. अतीत को देख्नना एक तरह का सुखद अनुभव होता है .
    आप ने बीते समय का चित्र प्रस्तुत अछछा काम किया है ,बधाई

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