बुंदेलखंड का समृद्ध कला-फलक
# जवाहर चौधरी
मध्यप्रदेश भारत का हृदय है . तीन लाख वर्ग
किलोमीटर क्षेत्र वाला मध्यप्रदेश देश का राजस्थान
के बाद दूसरा बड़ा राज्य है . भारत के केंद्र में होने के कारण समय की हर हलचल के
निशान यहाँ की भूमि पर मौजूद हैं . मौर्यकाल से लगा कर मराठा शासकों तक और उसके
बाद ब्रिटिश शासन सहित मध्यप्रदेश की माटी विभिन्न सत्ताओं की साक्षी रही है . लगभग
साढ़े चार सौ वर्ष यहाँ मुगल शासन भी रहा . मुगलों के पतन के बाद इसके अधिकांश भाग
पर मराठा शासन स्थापित हुआ . आजादी मिलने के बाद 1950 में नए सीमांकन के साथ
मध्यप्रदेश का निर्माण हुआ . सन 2000 में छत्तीसगढ़ एक अलग राज्य बनाया गया और
वर्त्तमान मध्यप्रदेश स्वरुप में आया .
मध्यप्रदेश की वैभवशाली भूमि पहाड़ों, जंगलों,
नदियों, समृद्ध ऐतिहासिक विरासत और सामाजिक-सांस्कृतिक
विविधता व लोक कलाओं से दीप्त है . यही वजह है कि समय समय पर जिज्ञासु विद्वजन शोधकार्य के लिए मध्यप्रदेश को प्राथमिकता देते
रहे हैं . भारतीय कला-अध्येताओं को यहाँ एक विशाल फलक पर अनेक कालखंडों में समृद्ध
वास्तुशिल्प, भित्तिचित्र, लोक-कलाएँ, साहित्य आदि को देखने समझने का मौका मिलता
है . हाल ही में डॉ नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् के
आदिवासी लोक कला एवं विकास अकेदमी के लिए बुंदेलखंड के भित्तिचित्रों को लेकर महत्वपूर्ण
शोधकार्य किया है . उनका शोध ग्रन्थ “बुंदेलखंड के भित्तिचित्र” शीर्षक से अकेदमी
ने प्रकाशित किया है . भारतीय कला के क्षेत्र में डॉ उपाध्याय का लेखन व शोध देश
में बहुत गंभीरता से देखा जाता है . भारतीय चित्रांकन परंपरा, जैन चित्रांकन
परंपरा, मालवा के भित्तिचित्र, राजस्थान की चित्रशैलियाँ, भृतहरिकृत श्रंगार शतक,
भारतीय कला दृष्टि : हिमालय से हरिद्वार, भारतीय कला के अंतर्संबंध, मिनिएचर
पेंटिंग को लेकर ‘द कंसेप्ट ऑफ़ पोर्ट्रेट’,
कान्हेरी गीत गोविन्द : पेंटिंग इन कान्हेरी स्टाइल, द कलर्स फ्रेगरेंस, पेंटिंग
इन बुंदेलखंड, आदि चित्रकला पर उनके अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हैं . इसके आलावा
साहित्य व कला के विभिन्न अनुशासनों के अंतर्संबंधों, सौंदर्यशास्त्र व हिंदी
साहित्य की निबंध विधा पर केन्द्रित अनेक पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं . डॉ नर्मदा
प्रसाद उपाध्याय ने हिंदी-अंग्रेजी की अनेक पुस्तकों का संपादन भी किया है तथा उनके
ललित निबंध के अनेक संग्रह प्रकाशित हैं . डॉ उपाध्याय राज्य और राष्ट्रिय स्तर के
अनेक सम्मानों यथा, राष्ट्रीय शरद जोशी
सम्मान, कलाभूषण सम्मान, नरेश मेहता वांग्मय सम्मान, आदि से सम्मानित हैं . आपको
चार्ल्स इण्डिया वालेस ट्रस्ट लंदन, शिमेंगर लेदर जर्मनी और धर्मपाल शोधपीठ से
फेलोशिप भी प्राप्त हुई है . आज उनका मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् से हाल ही में
प्रकाशित शोध ग्रन्थ “बुंदेलखंड के भित्तिचित्र” पाठकों के सम्मुख है .
टेबल बुक साइज़ में छः सौ से अधिक
पृष्ठों की इस पुस्तक में छः परिशिष्ट और नौ अध्याय में शोध सामग्री का विस्तार है
. मध्यप्रदेश के अंतर्गत आने वाले बुंदेलखंड के सर्वेक्षण और दस्तावेजीकरण
क्षेत्रों में ग्वालियर, पिछोर, दतिया,
निवाड़ी, ओरछा, लिघोरा, मोहनगढ़, जतारा, टीकमगढ़, पपौराजी, बल्देवगढ़, धुबेला,अलीपुरा,
छतरपुर, खजुराहो, धुवारा, शाहगढ़, खुरई, पिठौरियाजी, गढ़पहरा, राहतगढ़, सागर, रहली,
गढ़ाकोटा, दमोह, बरी कनौरा, हटा, अजयगढ़, पन्ना, सतना और चित्रकूट हैं . इन जगहों पर
ऐतिहासिक महत्त्व के महल, मंदिर और बाड़े, लोक कलाओं के संरक्षित केंद्र, इमारतें, गुफाओं
आदि को अध्ययन के दायरे में लिया गया है . पुस्तक में वास्तुकला की भव्यता के
दर्शन कराते सैकड़ों सुन्दर चित्र हैं जो पाठक के मन में पर्यटन की जिज्ञासा पैदा
करते हैं . साथ ही यह भी ध्यान आता है कि हमारी शालेय शिक्षा व्यवस्था में ऐसे प्रयास
नहीं हुए कि नयी पीढ़ी को इस मूल्यवान धरोहर का परिचय मिलता .
पुस्तक का पहला अध्याय दतिया पर है .
इतिहास विशेषज्ञ श्री केशवचंद्र मिश्र के हवाले से बताया गया है कि बुंदेलखंड शब्द
सर्वप्रथम 1335-40 ईसवी के बीच अस्तित्व में आया जब चंदेलों के बाद बुंदेले इस
क्षेत्र में प्रविष्ट हुए . ऐतिहासिक विवरण के आलावा इस क्षेत्र को लेकर कुछ
महत्वपूर्ण पौराणिक सन्दर्भ भी हैं जिनका जिक्र पुस्तक करती है . दतिया दुर्ग के
विषय में सारवान विवरण और सुन्दर चित्र संयोजित हैं . राजा भवानी सिंह के कक्ष में
बने भित्तिचित्र के फोटोग्राफ और उनका सूक्ष्म विवरण हैं . राजा पारीच्छत की समाधि
के व्यक्ति चित्र और रागरागिनियों से प्रेरित चित्रों को एक अलग परिशिष्ट में
बताया गया है . महाराजा विजय बहादुर की छतरी, महाराजा भवानी सिंह की छतरी,
गोसाइयों की छतरी, अवधबिहारी जी का मंदिर,
वीरसिंह महल आदि के विषय में विस्तृत चर्चा है . इस अध्याय में चार सौ से अधिक
फोटोग्राफ दिए गए हैं जो दतिया की ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासत और जनजीवन को समझने
में मदद करते हैं . इसी तरह निवाड़ी अध्याय भी बुन्देली राज्य ओरछा को चित्रित किया
है . यहाँ लम्बे समय तक चंदेल राजाओं का शासन रहा जो कलाप्रेमी थे . खजुराहो के
विश्वप्रसिद्ध मंदिर इसके साक्ष्य हैं . भगवान राम की मूर्तियों को लेकर विस्तृत
जानकारी दी गई है . वीरसिंह जूदेव का शासन काल और उसके बाद तेईस वर्षीय हरदौल जू
का प्रसंग जिसमें राजनितिक षड्यंत्र के तहत उनके चरित्र पर लांछन लगाने की कोशिश
की गयी . भाभी के सम्मान की रक्षा करते हुए उन्होंने जानते हुए जहर मिला भोजन
ग्रहण किया . उनके देहांत पर नौ सौ बुंदेला वीरों ने अपनी जान दे दी थी . हरदौल जू
आज भी आसपास के अंचलों में भगवान की तरह पूजे जाते हैं . ओरछा के महलों
अट्टालिकाओं में बहुत सुन्दर चित्रण आज कला की धरोहर है जिसके सैकड़ों फोटोग्राफ
यहाँ दिए हुए हैं . डॉ नर्मदा प्रसाद
उपाध्याय ने हर फोटो को कला की बारिकी के साथ समझाया है . यहाँ ज्यादातर चित्रांकन
साफ हैं और कहीं से भी क्षतिग्रस्त नहीं हैं . वीरसिंह जूदेव जहाँगीर के अच्छे
मित्र थे . उन्होंने मित्र के सम्मान में जहाँगीर महल बनवाया था जो ओरछा की बहुत सुन्दर
इमारत है . यहाँ जहाँगीर एक दिन रुका था . इसी तरह राय प्रवीण महल, राम राजा
मंदिर, चतुर्भुज मंदिर, लक्ष्मी मंदिर, शिव मंदिर, और बेतवा के किनारे महाराजा
यशवंत सिंह की छतरी और उनके अन्दर के भित्तिचित्रों को सैकड़ों फोटोग्राफ के माध्यम
से बताने का सफल प्रयास किया गया है . टीकमगढ़ से 42 किलोमीटर दूर लिघौरा बसा हुआ
है . यहाँ तीन मंदिरों के भित्तिचित्रों को महत्वपूर्ण माने गए हैं . ये हैं श्री लक्ष्मण जू मंदिर, बड़ा मंदिर और
तीसरा भगतराम मंदिर है जो अब नष्ट हो गया है . ओरछा की अष्टगढ़ियाँ चिरगांव, बिजना,
तोड़ी फतेह्पुर, घुरवई, बंकापहारी, कारी, पसारी और टहरौली हैं जो राजा रायसिंह के
आठ पुत्रों में बंटी जागीरें हैं . सागर जिले में टीकमगढ़ भी एक ऐतिहासिक महत्त्व
का स्थान है . आल्हा, उदल और मलखान चंदेलों के वीर सरदार थे जिनके नाम से अनेक
कथाएं आज भी प्रचलित हैं . यहाँ के रामनिवास मंदिर और जुगल निवास परिसर में
भित्तिचित्र देखने को मिलते हैं . पुस्तक में दिये सुन्दर फोटोग्राफ देख कर इन्हें
समझा जा सकता है . टीकमगढ़ से 35 किलोमीटर दूर मोहनगढ़ है . इसके किले की भित्तियों
में रामलीला का अंकन है . पास ही जतारा नाम का प्राचीन नगर है . शेरशाह सूरी के
पुत्र ने जतारा पर अधिकार कर इसका नाम इस्लामाबाद रख दिया था . बाद में ओरछा नरेश
भारतीचन्द ने अफगानों को खदेड़ कर इसका नाम
पुनः जतारा रखा . यहाँ शासकों ने जलाशय, मंदिरों और घाटों का निर्माण कराया . टीकमगढ़
से 26 किलोमीटर दूर बल्देवगढ़ है इसका दुर्ग अब खंडहर हो चुका है . पपौराजी जैन
संप्रदाय का एक प्रमुख तीर्थ है . यहाँ 108 मंदिर हैं जो इसकी विशेषता माने जाते
हैं . ग्वालियर और झाँसी से लगे छतरपुर की सीमा उत्तरप्रदेश से भी जुड़ी हुई हैं . बुंदेला
राजा छत्रसाल इसके संस्थापक माने जाते हैं . निकट ही खजुराहो स्थित है जो मंदिरों
और शिल्प के लिए विश्वप्रसिद्ध है . पुस्तक
में खजुराहो पर अलग से परिशिष्ट दिया गया है . छतरपुर के राजमहल, किला और जैन मंदिर
महत्वपूर्ण भारतीय वास्तुकला की सुन्दर रचनाएँ हैं . सागर जिले में शाहगढ़, पिठौरिया जी, खुरई, गढ़पहरा,
राहतगढ़, गढ़कोटा पटनागंज और रहली आते हैं . मंदिरों, भवनों, इमारतों में भित्तिचित्रों
की सुन्दर श्रंखला यहाँ देखने को मिलती है . दमोह प्राचीन नगर है जहाँ गोंड राजाओं
का शासन था . बरी कनोरा दमोह जिले का एक गाँव है जो अब उजाड़ है . यहाँ चंदेलों का
एक मंदिर और शाही कोठी हुआ करती थी . इसी तरह पन्ना भी एक प्राचीन नगर है . इसका
उल्लेख विष्णुपुराण और पद्मपुराण में भी मिलता है . पन्ना मंदिरों के लिए भी विशेष
महत्त्व रखता है . चालीस किलोमीटर दूर अजयगढ़ है जो महल के लिए जाना जाता है .
चित्रकूट एक ऐतिहासिक-धार्मिक महत्त्व का स्थान है . इसका आधा भाग उत्तरप्रदेश में
है . यहाँ अनेक मंदिर हैं जिनमें बहुत सुन्दर भित्तिचित्र हैं . ग्वालियर जिले के पिछोर
में एक गाढ़ी है जिसमें कुछ भित्तिचित्र दिखाई देते हैं . पुस्तक में इन पर भी चर्चा
है . छः परिशिष्ट के अंतर्गत शैलचित्र व भित्तिचित्र परंपरा, खजुराहों के मंदिर,
ओरछा के शासक, रायप्रवीण, महाकवि केशव और मरण की जीवंत स्मृति यानी छतरी पर विशिष्ट
आलेख हैं .
इस शोध ग्रन्थ से गुजरते हुए
मध्यप्रदेश के प्रायः उपेक्षित कला फलक को खुलते देखने का सुख मिलता है . डॉ
नर्मदाप्रसाद उपाध्याय की भाषा साहित्यिक है किन्तु सरल है . विषय को जितनी सहजता
और तरलता से वे पाठक के मानस तक पहुंचा देते हैं ये उनकी साहित्यिक साधना का सुफल
है . पुस्तक बहुत परिश्रम और समय ले कर लिखी गयी है . उतने ही मनोयोग और उदारता से
मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् ने इसे छपा भी है . ऐसी महत्वपूर्ण कृतियाँ पाठकों के
निजी पुस्तकालय में होना चाहिए, संभवतः इस बात का ध्यान रखते हुए अकेदमी ने इसका
मूल्य मात्र बारह सौ रुपये रखा है . पूरी पुस्तक ग्लेसी पेपर पर छपी है . प्रिंटिंग
दोषरहित है . उम्मीद है मध्यप्रदेश के जागरूक व कला के प्रति संवेदनशील नागरिक इस काम
को देख कर संतुष्ट होंगे .
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पुस्तक
विवरण –
शीर्षक
– बुंदेलखंड के भित्तिचित्र
प्रकाशन
वर्ष – 2021 , मूल्य – 1200/-- (बारह सौ मात्र )
लेखक-
डॉ नर्मदाप्रसाद उपाध्याय
प्रधान संपादक- धर्मेन्द्र पारे
प्रकाशक
– आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी (म.प्र. संस्कृति परिषद् ) भोपाल .
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