Tuesday, August 15, 2017

श्री चंद्रकांत देवताले की तीन कवितायेँ



पुनर्जन्म

मैं रास्ते भूलता हूँ

और इसीलिए नए रास्ते मिलते हैं
मैं अपनी नींद से निकल कर प्रवेश करता हूँ
किसी और की नींद में
इस तरह पुनर्जन्म होता रहता है


एक जिंदगी में एक ही बार पैदा होना
और एक ही बार मरना
जिन लोगों को शोभा नहीं देता
मैं उन्हीं में से एक हूँ


फिर भी नक्शे पर 
जगहों को दिखाने की तरह ही होगा

मेरा जिंदगी के बारे में कुछ कहना
बहुत मुश्किल है बताना
कि प्रेम कहाँ था किन-किन रंगों में
और जहाँ नहीं था प्रेम उस वक्त वहाँ क्या था

पानी, नींद और अँधेरे के भीतर इतनी छायाएँ हैं

और आपस में प्राचीन दरख्तों की जड़ों की तरह
इतनी गुत्थम-गुत्था
कि एक दो को भी निकाल कर
हवा में नहीं दिखा सकता

जिस नदी में गोता लगाता हूँ

बाहर निकलने तक
या तो शहर बदल जाता है
या नदी के पानी का रंग
शाम कभी भी होने लगती है
और उनमें से एक भी दिखाई नहीं देता
जिनके कारण चमकता है
अकेलेपन का पत्थर



मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए 
मेरे होने के प्रगाढ़ अँधेरे को
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम

अपने देखने भर के करिश्मे से

कुछ तो है तुम्हारे भीतर

जिससे अपने बियाबान सन्नाटे को
तुम सितार सा बजा लेती हो समुद्र की छाती में

अपने असंभव आकाश में

तुम आजाद चिड़िया की तरह खेल रही हो
उसकी आवाज की परछाई के साथ
जो लगभग गूँगा है
और मैं कविता के बंदरगाह पर खड़ा
आँखे खोल रहा हूँ गहरी धुंध में

लगता है काल्पनिक खुशी का भी

अंत हो चुका है
पता नहीं कहाँ किस चट्टान पर बैठी
तुम फूलों को नोंच रही हो
मैं यहाँ दुःख की सूखी आँखों पर
पानी के छींटे मार रहा हूँ
हमारे बीच तितलियों का अभेद्य परदा है शायद

जो भी हो

मैं आता रहूँगा उजली रातों में
चंद्रमा को गिटार सा बजाऊँगा
तुम्हारे लिए
और वसंत के पूरे समय
वसंत को रुई की तरह धुनकता रहूँगा
तुम्हारे लिए


यमराज की दिशा 
माँ की ईश्वर से मुलाकात हुई या नहीं
कहना मुश्किल है

पर वह जताती थी
 जैसे ईश्वर से उसकी बातचीत होते रहती है
और उससे प्राप्त सलाहों के अनुसार
जिंदगी जीने और 
दुःख बर्दास्त करने का रास्ता खोज लेती है

माँ ने एक बार मुझसे कहा था 

दक्षिण की तरफ़ पैर कर के मत सोना
वह मृत्यु की दिशा है
और यमराज को क्रुद्ध करना
बुद्धिमानी की बात नही है


तब मैं छोटा था

और मैंने यमराज के घर का पता पूछा था
उसने बताया था
तुम जहाँ भी हो 
वहाँ से हमेशा दक्षिण में


माँ की समझाइश के बाद
दक्षिण दिशा में पैर करके मैं कभी नही सोया
और इससे इतना फायदा जरुर हुआ
दक्षिण दिशा पहचानने में
मुझे कभी मुश्किल का सामना नही करना पड़ा



मैं दक्षिण में दूर-दूर तक गया
और हमेशा मुझे माँ याद आई
दक्षिण को लाँघ लेना सम्भव नहीं था
होता छोर तक पहुँच पाना
तो यमराज का घर देख लेता



पर आज जिधर पैर करके सोओं
वही दक्षिण दिशा हो जाती है
सभी दिशाओं में यमराज के आलीशान महल हैं
और वे 
सभी में एक साथ
अपनी दहकती आखों सहित विराजते हैं



माँ अब नही है
और यमराज की दिशा भी अब वह नहीं रही
जो माँ जानती थी.

Tuesday, June 27, 2017

कवि माया मृग .......इस तरह पढ़ना दुख को !


इस तरह पढ़ना दुख को .........
दुख को जब भी पढ़ना- उलटा पढ़ना !
आखिरी पन्‍ने से शुरु करना
और शुरुआत का संबंध ढूंढ लेना
पहले पन्‍ने पर लिखे उपसंहार से
ये जानकर पढ़ना कि जो पढ़ा, उसे भूल जाना है----।

उलटे होते हैं दुख के दिन
रात भर खंगाले जाते हैं रोशनी भरे लम्‍हे
आंख बंद रखना अगर देखना है सब----।

दुख को फुनगी से काटना                                          पहली कोंपल का हरा सुख--पहला दुख है
पहला सुख निकालना होगा मिट्टी खोद खोदकर
जो दबा रह जाए उसे रहने देना
इसलिए कि इस दबे का ताल्‍लुक बढ़ने से नहीं है
जो दब गया उसे दबते जाना है---बस---।

उलटाकर देखना तकिए के नीचे रखी
पोस्‍ट ना की गई चिट्ठी
चिट्ठी के कागज को उलट कर देखना
कि कहां लिखा था कुछ जो पढ़ना था उसे
कितने शब्‍द उलटे पलटे पर कहां लिखी गई सीधी सी बात----।

दुख में उलटी चलती हैं घड़ियां
वक्‍त लौटता है हर बार पीछे
चादर को कोने से पकड़ना और उलट देना
रात भर जागे दुख को भनक ना लगे
यह उसके सुख के सपनों में सोने का वक्‍त है....!

प्रिंट मीडिया के ‘वन मैन सॉल्यूशन’ हैं यशवंत व्यास (फेम इंडिया-एशिया पोस्ट मीडिया सर्वे 2017)


आलेख 
जवाहर चौधरी 


यशवंत व्यास एक ऐसे पत्रकार हैं जिन्हें साहित्यकार, मीडिया आलोचक, सलाहकार, डिजाइनर और स्तंभकार सभी कुछ कहा जाता है। प्रिंट मीडिया की हर विधा में उन्हें महारत हासिल है और इसके पीछे उनका 30 से भी अधिक वर्षों का अनुभव काम करता है। कई मीडिया हाउस में संपादक व सलाहकार रहे यशवंत व्यास उन गिने-चुने पत्रकारों में शामिल हैं जो अखबार की डिजाइनिंग का भी अनुभव रखते हैं और अपने हिसाब से लेआउट बनवाने पर विश्वास करते हैं। फिलहाल वह अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित मीडिया समूह के सलाहकार संपादक हैं जो उत्तर भारत में अपने 20 संस्करणों के साथ अपनी विशेष पहचान रखता है।

1964 में मध्यप्रदेश में पैदा हुए यशवंत व्यास ने हाई स्कूल स्तर तक की पढ़ाई स्थानीय हायर सेकेंडरी स्कूल से की। इसके बाद गर्वमेंट कालेज रामपुरा से उन्होंने  बीएसी की पढ़ाई की। इंदौर के डीएवी यूनिवर्सिटी  से उन्होंने हिंदी लिटरेचर में एमए किया, वह गोल्ड मेडलिस्ट रहे और  लिटरेचर में पीएचडी की।

यशवंत व्यास से अपनी पत्रकारिता का आगाज नई दुनिया से 1984 में किया। यहां उन्होंने बतौर उप संपादक ज्वाइन किया था। नई दुनिया से उनका नाता 1995 तक रहा यानी अपने जीवन के शुरुआती 11 साल उन्होंने यहां बिताये। यहीं से उन्होंने सीखा कि एक कम्पलीट एडीटर को प्रोडक्शन -डिजाइनिंग का भी ज्ञान होना जरूरी है। उन्होंने दैनिक नवज्योति ग्रुप के साथ बतौर ग्रुप एडिटोरियल एडवाइजर 1996 से 1999 तक काम किया। सिंतबर 2000 से मार्च 2010 तक वे डीबीकार्प से जुड़े रहे, जहां  दैनिक भास्कर के एडीटर रहे। 2005 में उन्होंने अपने तरह की अलग और नये कलेवर वाली मैगजीन ‘अहा जिंदगी’ लांच की। यह पत्रिका हिंदी और गुजराती में थी, को काफी सराही गयी। उन्होंने इसे 1.5 लाख प्रिंट ऑर्डर के साथ लॉन्च किया जिसकी रीडरशिप 10.6 लाख से भी अधिक थी। अप्रैल 2010 से यशवंत व्यास अमर उजाला प्रकाशन लिमिटेड के समूह सलाहकार हैं।

यशवंत व्यास, आउटलुक और ओपन के संपादक रहे दिवंगत विनोद मेहता और प्रीतीश नंदी से काफी प्रभावित रहे हैं । उन्होंने इन संपादकों से सीखा है कि एक अच्छा कंटेंट , क्रेडिबलिटी और प्रेजेंटेशन से प्रभाव बदल सकता है।   कॉलम साइज से लेकर  तथ्यों और चित्रों की प्रस्तुति ,  विजुअलाइजेशन का ज़रूरी  हिस्सा है। यह सब उनके सभी  प्रयोगों और अमर उजाला के नये स्टाइल में भी शामिल है जो यशवंत व्यास की पारखी परख की देन है।  यशवंत को अपने शुरुआती कॅरियर के जमाने से ही कंटेंट के साथ-साथ लेआउट और डिजाइनिंग  उनके प्रयोगात्मक दृष्टिकोण के लिये जाना जाता है।वे बखूबी जानते हैं कि उपलब्ध संसा धनों और मौजूदा कर्मियों से बेहतर आउटपुट कैसे निकाला जाता है। यह एक लीडर की क्वॉलिटी है जो उनमें है। यशवंत व्यास को पता है कि सही जूते में ही जब सही पैर जायेगा तो संतुलन अपने-आप ही बन जायेगा। उनकी देखरेख में कई ब्रांडिंग कैंपेन बने जिन्हे  पाठकों ने  सराहा ।

साहित्य और पत्रकारिता में कैसे सामंजस्य होता है, इसका जवाब यशवंत व्यास की साहित्यिक रचनाओं से मिलता है। वे साहित्य को अभिव्यक्ति का एक माध्यम मानते हैं।  अब तक उनकी 11 किताबें आ चुकी हैं जो अलग-अलग फ्लेवर लिये हुए हैं।  यारी दुश्मनी, तथास्तु, रसभंग और नमस्कार सहित उनके कई लोकप्रिय कॉलम रहे हैं।

यशवंत व्यास कई किताबें लिख चुके हैं, जिनमें पत्रकारिता पर ‘अपने गिरेबान में’ और ‘कल की ताजा खबर’ प्रमुख मानी जाती हैं। उनके दो उपन्यास ‘चिंताघर’ और ‘कॉमरेड गोडसे’ पुरस्कृत हो चुके हैं। इसके साथ ही वे एक आला दर्जे के व्यंग्यकार भी है। उनके व्यंग्य संग्रह ‘जो सहमत हैं सुनें’, ‘इन दिनों प्रेम उर्फ लौट आओ नीलकमल’, ‘यारी दुश्मनी’ और ‘अब तक छप्पन’ को लोगों ने काफी सराहा है। उन्हें एक अलग पहचान दी उनके अमिताभ बच्चन के ब्रांड विश्लेषण पर लिखी किताब ‘अमिताभ का अ’ ने। साथ ही उनकी कॉरपोरेट मैनेजमेंट पर हिन्दी-अंग्रेजी में लिखी किताब ‘द बुक ऑफ रेज़र मैनेजमेंट-हिट उपदेश’ भी काफी पसंद की गयी।

उन्हें राष्ट्रीय पत्रकारिता फेलोशिप से सम्मानित किया जा चुका है। डिजिटल मीडिया में शुरुआत से  ही सक्रिय  रहे हैं।  साथ ही वह अंतरा इन्फोमीडिया के सह-संस्थापक हैं, जो मीडिया को समर्पित एक बहु-उद्देशीय संस्था है जो कई प्रकाशनों और  विशेष परियोजनाओं पर काम कर रही है। वह वरिष्ठ नागरिकों और नई पीढ़ी के बीच एक पुल बनाने के लिये एक विशेष परियोजना गुल्लक पर भी काम कर रहे हैं।  और कई अन्य प्रयोग भी उनके कामों की फेहरिस्त में शामिल हैं।  फेम इंडिया-एशिया पोस्ट मीडिया सर्वे 2017 में यशवंत व्यास को भारतीय प्रिंट मीडिया के एक प्रमुख सरताज के तौर पर पाया गया है।

Thursday, February 16, 2017

बिन गुरु ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोक्ष

आलेख 
जवाहर चौधरी 


गुरुदेवों में सबसे पहले दीक्षित जी याद आते हैं, उम्र कोई चालीस पैंतालीस, कद काठी के मजबूत, देखने में सौम्य, रंग खूब गोरा कि अंग्रेज होने का भ्रम होता था, समय के पाबंद भी इतने कि समझ में नहीं आता था कि वे घड़ी से चलते हैं या घड़ी उनसे. सख्ती के मामले में किसी कसाई से कम नहीं थे, ठुकाई-पिटाई में उनका विश्वास उस काल के गुरुओं के अनुरूप था. घरों में ट्यूशन लगाने का चलन हो गया था. तो दीक्षित जी ट्यूशन पढाने आया करते थे. मै और मेरा भाई, यूँ समझिए कि न पढ़ने पर आमादा थे. स्कूल में मस्ती और उसके बाद पूरी आजादी के साथ मस्ती. जहाँ हमारा घर है उसे नवलखा कहा जाता है, लोग कहते हैं कि राजे रजवाडों के समय इस क्षेत्र में नौ लाख पेड़ हुआ करते थे. चारों तरफ प्राकृतिक वातावरण, जैसा कि आजकल फिल्मों में भी कम दिखाया जाता है. घर में पूजा-पाठ और ईश्वर पर आस्था का माहौल था. दीक्षित जी ढेर सारा होमवर्क देते थे जो हम प्रायः नहीं करते थे. शुरू शुरू में उन्होंने रूटीन की डांट -फटकर और थप्पड़ों से काम चलाया लेकिन जल्द ही मामले को दिल पर लेने लगे. देखने में उनके गोरे हाथ, लाली लिए हुए, बहुत कोमल और सुन्दर दीखते थे, लेकिन जब मारते थे तो लगता था कोई तीसरा हाथ भी है उनके पास. वे सजा देने की ऐसे ऐसे तरीके अपनाने लगे कि मुझे अब लगता है यदि वेसाइंस पढ़े होते तो उनके नाम कई अविष्कार अवश्य दर्ज होते. जब मारपीट का असर नहीं हुआ तो उन्होंने मुर्गा बनाने का संकल्प ले लिया. लेकिन जल्द ही मुर्गा बनने में हम दक्ष हो लिए. दस-पन्द्रह मिनिट में उनका धैर्य टूट जाता लेकिन हमारी हिम्मत कायम रहती. वे किसी दिन एक टांग पर खड़ा करते, कभी उठक बैठक आजमाते. डेढ़ महीने में वे मल्टीटास्क नीति अपनाने लगे. अब वे पढाने वाले गुरु कम फिजियोथेरेपिस्ट ज्यादा लगते थे. लेकिन बच्चे तो बच्चे होते हैं जी, कब तक दम भरते आखिर. घंटा भर की फिजियोथेरेपी भारी पडने लगी तो जवाबी कार्रवाई में उनके आते ही शौचालय में बंद हो कर अपनी रक्षा की. सोचा था यह एक दीर्ध कालीन योजना होगी किन्तु तीन चार दिनों बाद ही ये युक्ति बेअसर कर दी गई. आखिर जैसा कि अक्सर होता है, जब कहीं सम्भावना नहीं होती तो लोग ईश्वर की शरण हो लेते हैं. पता नहीं क्यों मुझे ईश्वर में बड़ा विश्वास था. मैंने ईश्वर के पास जा कर प्रार्थना की कि भगवान आज दीक्षित जी ना आयें. ठीक साढ़े चार बजे वे आ जाते थे, पौने पांच हो गए ! पांच हो गए, और उस दिन वे नहीं आये. अब हाल ये कि मेरे तो बस भगवानजी दूसरों न कोई . जैसे तुरुप का इक्का हाथ लग गया. दूसरे दिन साढ़े चार बजे फिर वही प्रार्थना. और उस दिन भी दीक्षित जी के दर्शन नहीं हुए. उत्साह में जबरदस्त इजाफा, मन में जो डर था वो गायब हुआ सा लगने लगा. तीसरे दिन भी साढ़े चार बजे और इधर प्रार्थना का शक्ति परिक्षण शुरू हुआ. लेकिन ये क्या !! दीक्षित जी हाजिर थे ! ईश्वर का ये मजाक मुझे पसंद नहीं आया. भगवान से कुछ नाराजी व्यक्त करते हुए आखिर कसाईवाडे में समर्पित होना पड़ा. दीक्षित जी ने दो दिन की कसर भी पूरी कर ली. उसके बाद कुछ रोज तक प्रार्थनाएं हुईं और जैसा कि होना था ईश्वर पर से मेरा विश्वास उठ गया.
बहुत समय बाद एक गुरुदेव मिसिर जी उत्तर प्रदेश से हमारे घर आये. नवलखा में ही एक सरकारी कालेज है, वहाँ उनकी नौकरी लगी थी, प्रोफ़ेसर हो कर आये थे. हमारा बड़ा परिवार, खूब जगह, आसपास खेत-बगीचे, रहने के लिए कई कमरे, बहुत से खाली, उन दिनों किराये से देने का चलन नहीं था. गुरुदेव ब्राह्मण, सो पूज्य भी. तीस-पैंतीस की उम्र, विनय पूर्वक उन्हें स्थान दिया, वे साथ ही रहने लगे. तीन घंटे कालेज में रह कर लौट आते. एक बड़ा कुँआ था जिस पर सुबह नहाते वे एक मन्त्र सा बोला करते थे  बम्म गौरा टन्न गणेश- पादे गौरा हँसे गणेश. सुन कर हम हँसते. उनके प्रोफ़ेसर होने का खौफ शीघ्र खत्म हो गया. मै मिडिल स्कूल पास हो गया था. गुरुदेव के साथ शतरंज खेलते, चर्चा करते दिन गुजर जाता.  हमारे घर में कुछ किताबें थीं, कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी, प्रेमचंद आदि की और चंद्रकांता संतति वगैरह भी जिन्हें थोड़ा बहुत पढ़ने का मौका मिल रहा था. मिसिरजी ने मेरी रूचि जान कर महेंद्र भल्ला एक उपन्यास दिया भोली-भाली. भारत-पाकिस्तान सीमा पर एक लड़की अनजाने में सीमा पर कर जाती है और लगातार मुसीबतों में पड़ती है. रोमांचक कहानी थी, हाल में हमने सबरजीत प्रसंग के रूप में इसे देखा है. भल्ला का उपन्यास दूसरी तरफ भी साप्ताहिक हिंदुस्तान में पढ़ा जो विदेशी जमीन पर भारतियों की स्थिति का चित्रण करता है. स्कूल में वार्षिक पत्रिका निकाली जाना थी. छात्रों से रचनाएँ आमंत्रित की गईं थीं. मिसिरजी से कहा कि कुछ बताएं कि कैसे लिखूं, कोई कविता या कोई लेख, कहानी कुछ. उन्होंने कुछ लिखवाया जो जमा नहीं. रचना देने की अंतिम तिथि पास आ रही थी तो किसी कालेज की पत्रिका देते हुए बोले ये लो इसमें से ये दो पेज की कहानी अपने हाथ से लिख कर देदो. उन्होंने बताया कि यह पत्रिका उत्तर प्रदेश की है, यहाँ कोई जान नहीं पायेगा, पूछे तो कहना कि मैंने ही लिखी है. कहानी मैंने जमा कर दी. कुछ दिनों बाद क्लास टीचर ने चलती कक्षा में पूछा कि ये कहानी तुमने लिखी है !? ये मजुमदार सर थे, और सख्त मिजाज थे. मैं डरा, लेकिन कहा कि जी हाँ मैंने लिखी है. इधर आओ, उनका आदेश हुआ. मुझे लगा चोरी पकड़ी गई है, अब शायद पिटाई भी हो सकती है. अपमान का डर, घिघ्घी सी बांध गई. बदन कांप रहा था. लेकिन पास गया तो उन्होंने शाबाशी दी, खूब पीठ ठोकी. लड़कों को कहा कि देखो इस लडके को. इसने इतनी अच्छी कहानी लिखी है. बोले बेटा तुममे बहुत प्रतिभा है. इसी तरह से लिखते रहो. एक दिन तुम बड़े लेखक बनोगे और अपने स्कूल का नाम रौशन करोगे. अब मेरे लिए एक विचित्र अनुभव की स्थिति थी. सच बोलना संभव नहीं था, उतने ही भारी पड़ रहे थे मजुमदार सर के आसीस. दीक्षित जी वाले प्रसंग के बाद पहली बार मुझे भगवान याद आने लगे. सिर झुकाए देख वे और प्रभावित हुए, बोले तुम बहुत विनम्र भी हो, ये अच्छी निशानी है. शाबाश, जाओ, बैठो .
शाम को मैंने यह बात ग्लानी के साथ मिसिर जी को बताई. वे खूब हँसे. बोले –“ ये बढ़िया हुआ. अब कोई कुछ नहीं बोलेगा.... देखो दुनिया ऐसे ही चलती है.
यों तो बात आई गई हो गई. लेकिन सख्त मिजाज मजुमदार सर जब भी मुझे देखते मुस्करा देते. उनकी मुस्कराहट से बचने के लिए मै कोशिश करता कि सामने ना पडूँ. लेकिन मौका आ ही  जाता. एक चोर अंदर ही अंदर मुझे खाए जा रहा था. आखिर एक दिन पत्रिका प्रकाशित हुई और मैंने उसे छुपा लिया, किसी को दिखाया नहीं. मिसिर जी को भी नहीं. वे भूल गए थे, लेकिन मैं नहीं भूल पा रहा था. मन में एक अपराध बोध घर कर गया था. मन बहुत होता कि कोई कहानी खुद लिखूं और चोरी के इस बोझ को उतर दूँ . पढ़ने के शौक में एक  बार मुझे पर्ल बक की किताब हाथ लगी. डायरी की तरह लिखी यह किताब मुझे अच्छी लगी और मैं भी डायरी लिखने लगा. पता नहीं चला कि शब्द कब डायरी से निकल कर रचनाओं में बदलने लगे. जो भी हुआ, आज मैं अपने गुरुदेवों को खूब याद करता हूँ .
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Monday, August 1, 2016

प्रियदर्शन की कहानियाँ

प्रियदर्शन की कहानियाँ महानगरीय परिवेश की होने के बावजूद व्यवस्था को इस तरह से सामने रखती हैं कि सर्वव्यापी लगती है . कथा कथन का अंदाज सीधा पाठक को जोड़ लेता है. शीर्षक कहानी बारिश, धुंवा और दोस्त २४ की उन्मुक्त लड़की और ४२ वर्षीय पुरुष के बीच अपरिभाषित संवेगों को बहुत खूबसूरती से चित्रित करती है . शैफाली चली गई और सुधा का फोन स्त्री मन को अच्छे से पढ़ती हैं. वहीँ घर चले गंगा जी, थप्पड़, बांये हाथ का खेल और उठते क्यों नहीं कासिम  भाई कहानियाँ अपने  चरित्रों के साथ न्याय ही नहीं करती सोचने पर भी विवश करती हैं . प्रियदर्शन की भाषा सरल और आत्मीयता से भरी है जो पाठक को कहानी के प्रवाह में आसानी से ले लेती है. जहां सिस्टम की खामियां आयीं हैं वहाँ भाषा में व्यंग्य का पुट दिखाई देता है. निसंदेह प्रियदर्शन का यह संग्रह न केवल सामान्य पाठकों के बीच बल्कि सहित्य समाज में भी सम्मान प्राप्त करेगा. 

कहानी संग्रह ‘शब्द’ -- बसंत त्रिपाठी

कहानी संग्रह शब्द बसंत त्रिपाठी को एक गंभीर कथाकार के रूप में हमसे परिचित करवाता है. इन कहानियों में समकालीन परिवेश और परिस्थितियों का अच्छा चित्रण है. शैली थोड़ी क्लिष्ट है जो सामान्य पाठक को संभवतः कठिन लगे. कुछ कहानियों में बसंत त्रिपाठी ने परिवेश चित्रण को इतना सूक्ष्म और विस्तारित कर दिया है कि वह गैरजरुरी सा लगने लगता है. हालाँकि संग्रह में उनकी कुछ छोटी कहानियाँ भी बहुत अच्छी हैं, जैसे पिता, अंतिम चित्र और पन्द्रह ग्राम वजन. शीर्षक कहानी शब्द चलन से बहार हो रहे शब्दों को लेकर एक फंतासी में बुनी गई अच्छी रचना है. बसंत त्रिपाठी जो विषय उठाते हैं वह उनके सोच और दृष्टि को दूसरों से भिन्न साबित करती है. कहन शैली में मार्मिकता तो है ही, चिंतन और चिंता भी है. भाषा में कहीं कहीं व्यंग्य और चुटीलापन भी देखने को मिलता है. 

Wednesday, July 27, 2016

सुभाष चन्द्र कुशवाह की कहानियाँ .....

सुभाष चन्द्र कुशवाह के इस कथा संग्रह उत्तर भारत के गांवों कि झलक मिलती है. कहन शैली कुछ कहानियों में दादी-नानी के किस्सों कि याद दिलाती है, जो रोचक भी है. कौवाहंकनी में सुभाष किस्सों को विस्तार दे कर आधुनिक छल-प्रपंच तक ले जाते हैं. वहीँ भटकुइयाँ इनार का खजाना और लाला हरपाल के जूते में लेखक की व्यंग्य दृष्टि मुखर होती है. नई हवा में जहां गाँव में पेप्सी-कोला पहुँच रहे हैं वहीँ जहरीली शराब चुस्की के पाउच भी. लोग बीमार हो रहे है, मर रहे हैं लेकिन सरकारी मदद को ले कर खेंच-पकड़ भी है. जात-बिरादरी, मुखैती, सरपंची के बीच गाँव की प्रधानी पर इस बार दलित महिला का आरक्षण है  जो व्यवस्था की अनेक परतें खोलता है. भौतिक संसार से अलग होने के द्वंद्व में डॉ.अशोक की माई का चित्रण है तो अन्य कहानी में लंगड जोगी हैं जिनकी सारंगी घर वालों ने रखवा ली  है, पाबन्दी का कारण मंदिर-मस्जिद के झगड़े हैं. सुभाष चन्द्र कुशवाह की ये कहानियाँ परपरागत गांवों में बदलाव और संक्रमण को बहुत अच्छे से दिखाने वाला साहित्य का समाजशास्त्र कही जा सकती हैं. मुहावरेदार भाषा, रोचक ग्रामीण परिवेश के नए शब्द भी पाठकों के हिस्से में आते है.

Thursday, July 21, 2016

मानव कौल का कहानी संग्रह

मानव कौल का यह पहला कहानी संग्रह  है जिसमें उनकी बारह कहानियां पाठकों के सामने हैं. मानव बहुमुखी हैं, लेखन के आलावा वे फिल्मों, थिअटर में अभिनय कर रहे हैं. नाटकों का निर्देशन वे करते रहे हैं . काई पो चे  और वजीर जैसी फिल्मों में काम मानव के करियर को रेखांकित करते हैं. किताब के फ्लेप पर लिखा है कि उनके लेखन की तुलना निर्मल वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल के लेखन से की जाती  है. 
संग्रह की सभी कहानियाँ मनोवैज्ञानिक जटिलता और संवेगों के स्वर में हैं. हर कहानी प्रथम पुरुष यानी मैं से शुरू होती है और पाठक को लगता है कि कहानीकार अपनी  आपबीती सुना रहा है. आसपास कहीं, अभी अभी से ...., मौन के बादलकी, टीस आदि कहानियाँ हालाँकि नए ढंग से कही गई हैं किन्तु इनके आंतरिक गठन में इतनी अमूर्तता और क्लिष्टता है कि पाठक को  साथ चलने में कठिनाई होती है. दूसरा आदमी, गुना-भाग , माँ’ ‘मुमताज भाई  पतंग वाले और तोमाय गान शोनाबो अपेक्षाकृत अधिक संप्रेषित होती हैं तो इसलिए कि इनमें पाठक संवाद कर पाता है. कथानक अपनी क्लिष्टता के बावजूद लीक से हट कर हैं और कुछ कहानियों में रोचक भी है. लेकिन सामान्य पाठक के लिए कहानी के अंत तक पहुंचना चुनौती प्रतीत होता है. 
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Thursday, June 16, 2016

एक बादशाह और दो गज जमीन की मुराद

आलेख 
जवाहर चौधरी 

बादशाह बहादुरशाह जफ़र को भारत में मुग़ल शासन के आखरी चराग की तोहमत के साथ याद  किया जाना, सच्चाई के बावजूद  इतिहास की क्रूरता है. वे एक प्रतिभाशाली शायर, कुशल लेखक, उदारवादी शासक और सूफी मिजाज थे. ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा उनकी राजनितिक ताकत लगातार कम की गई बावजूद इसके वे परम्परागत शाही दरबार और शान-ओ-शौकत को कायम रहे रहे. उन्हें अपनी बदकिस्मती का आभास नहीं था ऐसा नहीं है , वे अपनी बेबसी को भी देख रहे थे.
विलियम डेलरिंपल की किताब लास्ट मुग़ल पिछले दिनों से चर्चा में है. जकिया जाहिर ने इसका हिंदी अनुवाद किया है . यह किताब उनके लिए भी बहुत दिलचस्प है जो इतिहास में रस नहीं ले पाते हैं. हिंदुस्तान से मुग़ल साम्राज्य के अंत के वे निर्णायक दिनों को जानना बेहद रोमांचक है.
मई १८५७ की एक सुबह मेरठ से कारतूस में चर्बी होने के सन्दर्भ के साथ तमाम विद्रोही और सैनिक दिल्ली में आ गए और ईसाइयों, अंग्रेजों को जहाँ भी मिले मरते गए. ऐसा ही वे छोटी छोटी जगहों से भी करते और विजयी होते आये थे. जल्द ही दिल्ली उनके कब्जे में थी. चूँकि बादशाह जफ़र देश के एक सर्वमान्य व्यक्ति थे, विद्रोहियों ने उनसे  नेतृत्व, धन, हथियार और अन्य व्यवस्थाओं की आशा की. इधर जफ़र का खजाना खाली था, वे खुद तंगहाल थे. विद्रोहियों को वेतन और खाना तक उपलब्ध नहीं करा सके. नतीजतन विद्रोहियों ने शहर में लूटपाट करना शुरू कर दिया. वे अब जफ़र की इज्जत नहीं करते थे, उन्होंने महल का दुरूपयोग भी शुरू कर दिया था. हताशा और अनिश्चय के इस दौर में अंग्रेज अपनी ताकत इकठ्ठा कर वापस लौटे और हजारों जवाबी हत्याओ के बाद बादशाह भी बगावत के जुर्म में गिरफ्तार कर लिए गए. समय ने करवाट ली और अपना सब कुछ लुटा कर, सोलह में से चौदह बेटों और तमाम बेगमों, रिश्तेदारों, सेवकों, दासियों और शाही रुतबे को आँखों के सामने तबाह देखते हुए ८३ वर्षीय बादशाह आखिर सात अक्टूबर की एक अँधेरी सुबह जब अंग्रेज घड़ियों में तीन बज रहा था, एक बैलगाड़ी में अपनी प्यारी दिल्ली से हमेशा के लिए रुखसत हुए. बाद में उनके साथ तमाम बेअदबी होती रही, मखुल तक उदय जाता रहा. अंत में लंबे मुकदमे के बाद उन्हें दिसंबर १८५७ में रंगून भेज दिया गया. यहाँ बादशाह और उनके खानदान वगैरह  के जिनकी संख्या इकत्तीस थी, खानेपीने का खर्च ग्यारह रूपये प्रतिदिन तय किया गया. सात अक्टूबर १८६२ को सुबह पांच बजे उन्होंने प्राण त्यागे. उनके जनाजे में बमुश्किल सौ-दो सौ लोग जमा हुए जिनमे से ज्यादातर दूसरे कामों से निकले शहरी थे.
लेखक कहते है,--  .... उनकी जिंदगी को नाकामयाबी के अध्ययन की तरह देखा जा सकता है  : आखिर हिंदुस्तान कि गंगा जमुनी तहजीब का अंत उनके दौर में हुआ और १८५७ के गदर में उनका योगदान कतई बहादुरी भरा नहीं था. कुछ इतिहासकार उन पर इल्जाम लगते हैं कि बगावत के दौरान उन्होंने अंग्रेजों से खतो किताबत जारी रखी, कुछ कहते हैं कि उन्होंने बागियों का नेतृत्व करके विजय हासिल करने में रूचि नहीं ली. लेकिन यह समझ पाना मुश्किल नहीं है कि ८२ साल की उम्र में जफर और क्या कर सकते थे. शारीरिक रूप से वह  कमजोर थे, दिमाग थोड़ा असंतुलित हो गया था और उनके पास इतना पैसा नहीं था कि वह सिपाहियों को तनख्वाह तक दे पाते, जो उनके झंडे के नीचे जमा हुए थे. अस्सी साला बुजुर्ग घुडसवार फ़ौज का नेतृत्व नहीं कर सकते थे. उन्होंने बहुत कोशिश की लेकिन बागी फौजों को दिल्ली की लूटमार करने से नहीं रोक पाए.  
ब्लूम्सबरी पब्लिशिंग से प्रकाशित ५८० पेज पूरी किताब १८५७ के उन आठ महीनों के लगभग हर दिन का एक प्रामाणिक ब्यौरा प्रस्तुत करती है. लेखक ने सैकड़ों दस्तावेजों, पत्रों और दूसरे सबूतों से अपने काम उल्लेखनीय बनाया है . खुशवंत सिंग लिखते हैं कि (द लास्ट मुगल) रास्ता दिखाती है कि इतिहास किस तरह लिखा जाना चाहिये .....


अंत में जफ़र कि मशहूर गजल -----

लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलमे नापयादर में

उम्रे-दराज मांग कर लाए थे चार दिन
दो आरजू में कट गए दी इंतजार में

बुलबुल को पासबां से न सैयाद से गिला
किस्मत में कैद लिखी थी फसले बहार में

कह दो हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ दिले दागदार में

एक शाखे-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा  दिए हैं दिले लालाजार में

दिन जिंदगी के खत्म हुए  शाम हो गई
फैला के पांव सोयेंगे कंजे-मजार में

कितना है बदनसीब जफर  दफ्न के लिए
दोग्ज जमीन भी ना मिली कू-ए-यार में


Monday, June 6, 2016

‘मेक इन इंडिया’ का समाजशास्त्र !!

आलेख 
जवाहर चौधरी 

इन दिनों मेक इन इंडिया की ओर सबका ध्यान है. देश की जनसंख्या  एक सौ बत्तीस करोड़ से अधिक हो गई है. हर साल लगभग एक करोड़ नए हाथ काम मांगने के लिए तैयार हो रहे हैं, जबकि पिछले वर्षों के रह गए बेरोजगारों की बड़ी तादात भी मौजूद होती है. उस पर देश भर में हर कोई चाहता है कि उसे सरकारी नौकरी ही मिले. हर साल एक करोड़ रोजगारों का सृजन करना किसी भी सरकार के लिए असंभव ही कहा  सकता है.
गाँधी जी का मत था कि आजाद भारत में ग्रामीण और कुटीर उद्योगों को सरकार प्राथमिकता दे, ताकि लोग छोटे उद्योगों में पीढ़ी दर पीढ़ी खपें और धन का विकेन्द्रीकरण भी हो. लेकिन नेहरु वैश्विक प्रवृतियों को देख रहे थे. दुनिया के साथ चलने और बढने के लिए बड़े उद्योग का चुनाव उन्होंने किया. यह नीति कितनी सफल रही है इस पर लंबी बहस हो सकती है, होती रही है. कलकत्ता, कानपुर, दिल्ली, मुंबई, देवास, इंदौर जैसे तमाम औद्योगिक नगरों को याद किया जा सकता है जहां प्रदूषण, भीड़, झुग्गी बस्तियां, अपराध, गन्दगी, बीमारी जैसी दिक्कतें विकराल रूप में मौजूद हैं. नदियाँ, और दूसरे जल स्त्रोत बर्बाद हैं, आज तक हम गंगा और यमुना को भी साफ नहीं कर पाए हैं, जबकि उनसे  धार्मिक भावना भी जुडी हुई है आमजन की. नगरों से पेड़ गायब हैं और हवा हानिकारक हो गई है, झुग्गियों में जीवन नारकीय है.
इतनी बातें  इसलिए याद आ रहीं हैं कि सरकार मेक इन इण्डिया के तहत दुनियाभर के उद्योगों को भारत में आमंत्रित कर रही है. निश्चित ही वे अपने साथ बड़े बड़े उद्योग ले कर आयेंगें, हमारी जमीनों का उपयोग करेंगे (यहाँ ध्यान रखना होगा कि भारत में जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है और अनुमानों के अनुसार २०३० में देश की जनसंख्या एक सौ बावन करोड़ से अधिक होने जा रही है.) ये उद्योग बिजली और पानी का भी उपयोग करेंगे ( देश में जलसंकट और बिजलीसंकट की स्थिति है.) माना कि बिजली बना लेंगे लेकिन जल का क्या होगा ? पर्यावरण को लेकर अलग से कुछ कहने की जरुरत नहीं है.

फिर यह चिंता भी है कि हमें मिलेगा क्या !? शायद कुछ रोजगार, कुछ टेक्स, उत्पादों पर भारत का नाम, वैश्विक प्रतिस्पर्धा में हम, दूसरे देशों के साथ आर्थिक संबंधों में कुछ लाभ. आज आधुनिक तकनीक में मैन-पावर बहुत काम लगता है. (हमारी कपडा मीलों के अधुनिकीकरण से हजारों लोग बेकार हुए हैं.) आटोमेशन की अत्याधुनिक तकनीक के साथ आने वाले ये उद्योग कितना रोजगार मुहैया करा पाएंगे पता नहीं. टेक्स भी कब मिलेगा ? पहले तो इन्हें ही तमाम छूट देना होंगी तब ये आयेंगे. मुनाफा तो वे अपने देश ही ले जायेंगे. पर्यावरण का क्या होगा, जल, बिजली और यातायात के सम्बन्ध हानि का कोई अनुमान लगाना कठिन हैं. ये कुछ प्रश्न हैं जिन पर निसंदेह विशेषज्ञों ने चिंतन किया होगा. फ़िलहाल इस योजना के लिए ९३० करोड़ का प्रावधान किया गया है लेकिन पूरी योजना पर बीस हजार करोड़ खर्च हो सकता है. सामान्यजन की चिंता मेक इन इंडिया के समाजशास्त्र को समझने की है.
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Friday, June 3, 2016

बिखरे बिखरे से दुनिया के इकलौते सौ करोड़

आलेख 
जवाहर चौधरी 


जब प्रधान मंत्री यह कहते हैं कि सबका साथ, सबका विकास तो उनकी बात पर विश्वास कर लेने को दिल चाहता है. सदियों से हमारे चिन्तक, समाजसुधारक और महापुरुष भी यही चाहते और कहते आये हैं. लोकतंत्र स्थापित हुआ, कानून बनें, शिक्षा बढ़ी, तकनीक का विकास हुआ इसने समाज के पारंपरिक स्वरुप को बदला. विभिन्न सेवाओं के लिए चली आ रही सदियों पुरानी पारस्परिक निर्भरता के बंधन ढीले होने लगे. इसमें कोई संदेह नहीं कि सामाजिक-आर्थिक स्तर पर भारतीय समाज अच्छी स्थिति में है. मात्र ८०-९० वर्ष पुराना प्रेमचंद के युग का समय तेजी से इतिहास में समा रहा है. लेकिन ग्लोबल समय में रहते हुए हमारी यह खुशफहमी कमजोर दिखाई देती है क्योंकि दूसरे देश दूसरे समाज इस यात्रा में हमसे तेज चल रहे हैं.
दरअसल हम अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं और परम्पराओं तथा तकनीक व सभ्यता के बीच द्वन्द की स्थिति में फंसे दिखाई देते हैं. जुगत सिर्फ इतनी कि जितना लाभ उतना समझौता. ना परम्पराएँ छूट रहीं हैं ना पकड़ी जा रही हैं. भारत में बहुसंख्यक समाज अपने को सौ करोड़ मानते हुए भी उस आत्मविश्वाश में नहीं होता है जिसमें उसे होना चाहिए. वह जानता है कि चार वर्ण और सैकड़ों जातियों में बंटा समाज जिसे चट्टान होना था वह अपनी अवैज्ञानिक सोच के कारण बलूरेत सा चूर चूर है.
विडंबना यह है कि दूसरे समाजों की मौजूदगी और प्रतिस्पर्धा के कारण खुद की एक ताकत भी होना जरुरी है. नकल में अक्सर अकल को नजरंदाज कर दिया जाता है. सामने वाले अपने समूह के प्रति उदार मान्यताओं के कारण कम संख्या में भी मजबूत दिखाई देते हैं. अपनी मान्यताओं को लेकर कट्टरता उन्हें मजबूत बनाती है. जबकि सनातन धर्मी जबाबी कट्टरता के प्रयास में बिखर जाते हैं.
हिंदू समाज के सामने अपने को सामाजिक स्तर पर संगठित करना सदियों से एक चुनौती रही है. हालाँकि समय बदला, हमारी व्यावहारिक समझ बदली, लेकिन सोच नहीं बदली. खासतौर से इनदिनों जबकि छोटी बड़ी जातियां अपने तथाकथित स्वाभिमान और पहचान के लिए रैलियां, जलसे, उत्सव और गौरव ग्रन्थ आदि निकलने में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं. ऐसा करते वक्त वे आने वाली पीढ़ी को भी उसी मानसिकता में ढालने का काम कर रहे हैं जिससे बाहर आने कि जरुरत है. कहा जाता है कि हिंदू समाज में उदारता बहुत है. हाँ, वह उदार दिखाई देता है, अनेक मामलों में (जिसके विस्तार में जाने की यहाँ गुंजाईश नहीं है) लेकिन अपने ही निम्न तबके, मसलन दलित, पिछड़े और छोटे काम करते हुए गुजरा करने वालों के प्रति वह सामान्यतः असहिष्णु रहा है, जबकि इनकी संख्या आधे से अधिक है. वे आँख की किरकिरी रहे हैं कभी परम्परावादी कारणों से तो इनदिनों आरक्षण जैसे कारणों से. यदि दुनिया की इस इकलौती सौ करोड़ जनसंख्या को एक मजबूत इकाई बनाना है तो उसे एक आतंरिक उदारता का विकास करना जरुरी है. कहने को चार चार शंकराचार्य नेतृत्व दे रहे हैं, हर तीन वर्ष में कुम्भ का समागम होता है लेकिन नहाने-धोने और विवादों के आलावा कुछ हासिल नहीं होता है. तकनीकी विकास और राजनितिक चेतना को छोड़ दिया जाये तो हिंदू समाज में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है. सौभाग्यवश लोकतंत्र है और कानून भी अनुकूल हैं. हमें परस्पर उदार होने की जरुरत है, इस नारे के मर्म को समझें- सबका साथ, सबका विकास .


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