फैशन का टेंशन |
जवाहर चौधरी |
आलेख जवाहर चौधरी आज का फैशन सफलता की ऊंचाइयों को स्पर्श करते हुए कमर की नीचाइयों पर चमत्कारिक रूप से टिका हुआ है। कट-रीनाओं से लेकर मल्लिकाओं तक की कमर के अंतिम छोर पर एक रेखा होती है, जिसे सिनेमाई शहर में ‘एलओसी’ कहा जाता है। जैसे गरीबी की रेखा होती है, लेकिन दिखाई नहीं देती, वैसे ही फैशन की भी रेखा होती है, जो कितनी भी आंखें फाड़ लो, दिखाई नहीं देती है। एलओसी एक आभासी रेखा होती है, सुधीजन जिसकी कल्पना करते पाए जाते हैं। मैडम दुशाला दास का टेंशन इसी एलओसी से शुरू होता है। दुशाला जी को चिंता तो तभी होने लगी थी, जब सुंदरियां मात्र डेढ़ मीटर कपड़े का ब्लाउज पहनने लगीं थीं। लेकिन अब डेढ़ मीटर कपड़े में दस ब्लाउज बन रहे हैं, तो वे टीवी खोलते ही तमतमाने लगती हैं। उस पर दास बाबू का दीदे फाड़ कर टीवी देखना उनकी बर्दाश्त के बाहर हो जाता है। मुए मर्द हय-हय, अश-अश करते बस बेहोश ही नहीं हो रहे हैं। जी चाहता है कि बेवफाओं को दीवार में जिंदा चुनवा कर अनारकली की वफा का हिसाब बराबर कर लें नामुरादों से। पिछले दिनों कट-रीनाओं ने असंभव होने के बावजूद जब एलओसी को नीचे की ओर जरा और खिसका दिया तो मैडम दुशाला को मेडिकल चेकअप के लिए ले जाना पड़ा। डाक्टर ने आदतन सवाल किया कि ‘आपको किस बात का टेंशन है?’ जवाब में उनके टेंशन का लावा बह निकला, बोलीं - ‘ हवा-पानी के असर से कभी-कभी पहाड़ भी भरभरा कर गिर जाते हैं। किसी दिन लगातार जीरो साइज होती जा रही कमर घोखा दे गई तो... टीवी वाले हफ्तों तक, बल्कि तब तक दिखाते रहेंगे तब तक कि देश की पूरी एक सौ पंद्रह करोड़ जनसंख्या की दो सौ तीस करोड़ आंखें तृप्त नहीं हो जातीं । हमारी सरकार किसी ‘एलओसी’ की रक्षा नहीं कर पा रही है! क्या होगा देश का?’ 15 दिन के बेड रेस्ट और टीवी न देखने की हिदायत के साथ वे लौटीं। अभी हफ्ता भी नहीं गुजरा था कि एक दिन दास बाबू रात दो बजे फैशन-टीवी का पारायण करते हुए रंगी आखों बरामद हुए।यहाँ ‘एलओसी’ की समस्या नहीं थी , वह मात्र एक रक्षा-चौकी में बदल गई थी । खुद दास बाबू इतने विभारे थे कि जान ही नहीं पाए कि मैडम दुशाला ने दबिश डाल कर उन्हें गिरी हुई अवस्था में जब्त कर लिया है । सुबह तक दुशालाजी की पाठशाला चली, किंतु वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं पा सकीं कि दास बाबू आखिर उसमें देख क्या रहे थे! दरअसल दास बाबू को टीवी में जो दिख रहा था, उससे ज्यादा उत्सुक होकर वे ‘संभावना’ देख रहे थे। चैनल भी बार-बार ब्रेक से टीआरपी को कैश कर रहा था और ‘कमिंग-अप’ की पट्टी लगा कर संभावनाएं बनाए हुए था। हर ब्रेक के बाद ‘संभावना’ बढ़ रही थी और दास बाबू को दास बनाती जा रही थी। वे सारांश पर आए कि संभावना से आदमी को ऊर्जा मिलती है। दुशालाजी दुःखी इस बात से हैं कि टीवी वाले पत्रकार इतना खोद-खोद कर पूछते हैं कि जवाब देने वाला लगातार गड्ढ़े में धंसता चला जाता है, लेकिन इन देवियों से नहीं पूछते कि कमर को पासपोर्ट की तरह इस्तेमाल करना आखिर कब बंद करेंगी? संयोगवश एक दिन उनकी यह तमन्ना पूरी हो गई। टीवी के ‘बहस और चिंता’ कार्यक्रम में वे सवाल पूछ रहीं थीं कि आपको डर नहीं लगता, अगर कहीं सारा फैशन भरभरा कर गिर पड़े तो...। उपस्थित कट-रीनाओं में से एक ने जवाब दिया, ‘काश ऐसा होता ! ..... गिरने की संभावना फैशन का सबसे बड़ा कारण है, ...... लेकिन अब तक गिरा तो नहीं ..।’ ‘लेकिन टेंशन तो बना रहता है . ऐसा फैशन आखिर किस लिए?’ वे बोलीं।‘ जिसे आप डर कह रही है, दरअसल वो अमूल्य संभावना है। फैशन का काम ही संभावना पैदा करना है।‘ दुशाला-दास’ होने में आज की दुनिया कोई संभावना नहीं देखती है। और जिसमें ‘संभावना’ नहीं होती वो भगवान के भरोसे होता है।’ दुशालाजी को जैसे डाक्टर से जवाब मिल गया। एक नए टेंशन के साथ वे लौट रही हैं। |
ग़ालिब-ए-खस्ता के बगैर, कौन से काम बंद हैं ... रोइए ज़ार ज़ार क्या, कीजिये हाय हाय क्यों .
गोइंका व्यंग्यभूषण सम्मान
Friday, March 18, 2011
HOLI HAI !!! /....... बुरा न मानो होली है !!!
Thursday, March 10, 2011
जाउं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के..
आलेख
जवाहर चौधरी
अट्ठावन-उनसाठ का समय याद आ रहा है । इन्दौर ...... एक छोटा सा शहर , जिसमें घोड़े से चलने वाला तांगा और बैलगाड़ियां खूब थीं । सामान्य लोग पैदल चला करते थे । युवाओं में सायकल का बड़ा क्रेज था । सूट पहने, टाई बांधे सायकल सवार को देख कर लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रहते । उस वक्त की फिल्मों में हीरो-हीरोइन भी सायकल के सहारे ही प्रेम की शुरुवात करते थे । दहेज में सायकल देने का चलन शुरू हो गया था । दूल्हे प्रायः दुल्हन की अपेक्षा सायकल पा कर ज्यादा खुश होते । सायकिल को धोने-पोंछने और चमकाने के अलावा पहियों में गजरे आदि डाल कर सजाने का शौक आम था ।
बिजली सब जगह नहीं थी, दुकानों में पेट्रोमेक्स जला करते थे । सूने इलाके में स्थित हमारा घर कंदिल से रौशन होता था । मनोरंजन के लिए लोग प्रायः ताश पर निर्भर होते थे । कुछ लोग शतरंज या चौसर भी जानते थे । लेकिन इनकी संख्या बहुत कम थी । संगीत की जरूरत वाद्ययंत्रों से पूरी हो पाती थी जिसमें ढ़ोलक सबको सुलभ थी । पिताजी ने चाबी से चलने-बजने वाला एक रेकार्ड प्लेयर खरीद लिया था जिसे ‘चूड़ी वाला बाजा’ कहते थे । घर में बहुत से रेकार्ड जमा किए हुए थे । उन्हें बाजे का बड़ा शौक था । एक डिब्बी में बाजा बजाने के लिए पिन हुआ करती थी । एक पिन से चार या पांच बार रेकार्ड बजाया जा सकता था । पिन वे छुपा कर रखते थे, मंहगी आती थी ।
उनदिनो एक गाना खूब बजाया जाता था -- ‘ चली कौन से देस गुजरिया तू सजधज के ........ जाउं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के ..... ’ । मुझे भी बाजा सुनना बहुत भाता था । यह गीत तो बहुत ही पसंद था । लेकिन इजाजत नहीं थी बजाने की । इसलिए प्रतीक्षा रहती कि पिताजी के कोई दोस्त आ जाएं । दोस्त अक्सर शाम को आते और ‘बाजा-महफिल’ जमती । कई गाने सुने जाते लेकिन ‘ चली कौन से देस ...’ दो-तीन या इससे अधिक बार बजता ।
कुछ समय बाद रेडियो के बारे में चर्चा होने लगी । पिताजी के दोस्त बाजा-महफिल के दौरान तिलस्मी रेडियो का खूब बखान करते । एक दिन रेडियो आ ही गया । बगल में रखी भारी सी लाल बैटरी से उसे चलाया जाता । सिगनल पकड़ने के लिए घर के उपर तांबे की जाली का पट्टीनुमा एंटीना बांधा गया जो बारह-तेरह फिट लंबा था । रेडियो बजा तो सब निहाल हो गए । उसकी आवाज बाजे से ज्यादा साफ और अच्छी थी । आवाज को कम-ज्यादा करने की सुविधा भी चौकाने वाली थी । कई दिनों तक लोग रेडियो को देखने के लिए आते रहे । साफ आवाज सुन कर बूढ़े और महिलाएं समझतीं कि इस डब्बे में लोग बैठे बोल रहे हैं । रेडियो सायकल से बड़ा सपना बनने जा रहा था ।
जल्द ही रेडियो सिलोन में दिलचस्पी बढ़ी , खासकर बिनाका गीतमाला में । अमीन सायानी की आवाज में जादू का सा असर था, जब वे ‘भाइयो और बहनो’ के संबोधन के साथ कुछ कहते तो कानों में शहद घुल उठती । बुधवार का दिन इतना खास हो गया कि इसे ‘बिनाका-डे’ कहा जाने लगा । शाम होते ही लोग आने लगते । आंगन में बड़ी सी दरी बिछाई जाती जो पूरी भर जाती । उन दिनों पहली पायदान पर रानी रूपमति का गीत ‘ आ लौट के आजा मेरे मीत , तुझे मेरे गीत बुलाते हैं .....’ महीनों तक बजता रहा था । सायानी एक बार मुकेश और एक बार लता मंगेषकर की आवाज में इसे सुनवाते । इस गीत के आते आते श्रोताओं का अनंद अपने चरम पर होता, वे झूमने लगते ।
इस बैटरी-रेडियो को भी बड़ी किफायत से चलाया जाता था क्योंकि बैटरी बहुत मंहगी आती थी । इसलिए अभी ‘चूड़ी वाले बाजे’ का महत्व कम नहीं हुआ था । याद नहीं कब तक ऐसा चला और बिजली आ गई । कुछ दिनों बाद ही बिजली वाला रेडियो भी ।
पहले ‘चूड़ी वाला बाजा’ बेकार हुआ , फिर बैटरी-रेडियो भी घटे दामों बाहर निकला । लेकिन इनकी यादें हैं कि टीवी युग में भी अपनी जगह बनाए हुए हैं ।
बिजली सब जगह नहीं थी, दुकानों में पेट्रोमेक्स जला करते थे । सूने इलाके में स्थित हमारा घर कंदिल से रौशन होता था । मनोरंजन के लिए लोग प्रायः ताश पर निर्भर होते थे । कुछ लोग शतरंज या चौसर भी जानते थे । लेकिन इनकी संख्या बहुत कम थी । संगीत की जरूरत वाद्ययंत्रों से पूरी हो पाती थी जिसमें ढ़ोलक सबको सुलभ थी । पिताजी ने चाबी से चलने-बजने वाला एक रेकार्ड प्लेयर खरीद लिया था जिसे ‘चूड़ी वाला बाजा’ कहते थे । घर में बहुत से रेकार्ड जमा किए हुए थे । उन्हें बाजे का बड़ा शौक था । एक डिब्बी में बाजा बजाने के लिए पिन हुआ करती थी । एक पिन से चार या पांच बार रेकार्ड बजाया जा सकता था । पिन वे छुपा कर रखते थे, मंहगी आती थी ।
उनदिनो एक गाना खूब बजाया जाता था -- ‘ चली कौन से देस गुजरिया तू सजधज के ........ जाउं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के ..... ’ । मुझे भी बाजा सुनना बहुत भाता था । यह गीत तो बहुत ही पसंद था । लेकिन इजाजत नहीं थी बजाने की । इसलिए प्रतीक्षा रहती कि पिताजी के कोई दोस्त आ जाएं । दोस्त अक्सर शाम को आते और ‘बाजा-महफिल’ जमती । कई गाने सुने जाते लेकिन ‘ चली कौन से देस ...’ दो-तीन या इससे अधिक बार बजता ।
कुछ समय बाद रेडियो के बारे में चर्चा होने लगी । पिताजी के दोस्त बाजा-महफिल के दौरान तिलस्मी रेडियो का खूब बखान करते । एक दिन रेडियो आ ही गया । बगल में रखी भारी सी लाल बैटरी से उसे चलाया जाता । सिगनल पकड़ने के लिए घर के उपर तांबे की जाली का पट्टीनुमा एंटीना बांधा गया जो बारह-तेरह फिट लंबा था । रेडियो बजा तो सब निहाल हो गए । उसकी आवाज बाजे से ज्यादा साफ और अच्छी थी । आवाज को कम-ज्यादा करने की सुविधा भी चौकाने वाली थी । कई दिनों तक लोग रेडियो को देखने के लिए आते रहे । साफ आवाज सुन कर बूढ़े और महिलाएं समझतीं कि इस डब्बे में लोग बैठे बोल रहे हैं । रेडियो सायकल से बड़ा सपना बनने जा रहा था ।
जल्द ही रेडियो सिलोन में दिलचस्पी बढ़ी , खासकर बिनाका गीतमाला में । अमीन सायानी की आवाज में जादू का सा असर था, जब वे ‘भाइयो और बहनो’ के संबोधन के साथ कुछ कहते तो कानों में शहद घुल उठती । बुधवार का दिन इतना खास हो गया कि इसे ‘बिनाका-डे’ कहा जाने लगा । शाम होते ही लोग आने लगते । आंगन में बड़ी सी दरी बिछाई जाती जो पूरी भर जाती । उन दिनों पहली पायदान पर रानी रूपमति का गीत ‘ आ लौट के आजा मेरे मीत , तुझे मेरे गीत बुलाते हैं .....’ महीनों तक बजता रहा था । सायानी एक बार मुकेश और एक बार लता मंगेषकर की आवाज में इसे सुनवाते । इस गीत के आते आते श्रोताओं का अनंद अपने चरम पर होता, वे झूमने लगते ।
इस बैटरी-रेडियो को भी बड़ी किफायत से चलाया जाता था क्योंकि बैटरी बहुत मंहगी आती थी । इसलिए अभी ‘चूड़ी वाले बाजे’ का महत्व कम नहीं हुआ था । याद नहीं कब तक ऐसा चला और बिजली आ गई । कुछ दिनों बाद ही बिजली वाला रेडियो भी ।
पहले ‘चूड़ी वाला बाजा’ बेकार हुआ , फिर बैटरी-रेडियो भी घटे दामों बाहर निकला । लेकिन इनकी यादें हैं कि टीवी युग में भी अपनी जगह बनाए हुए हैं ।
Friday, January 21, 2011
सोने का सुख !!!
आलेख
जवाहर चौधरी
नरेश एक भले इंसान हैं और अपने व्यवसाय की इस चालाकी से दुखी भी । उन्होंने बताया कि सोना हमेशा सुनार का होता है । पहनने वाले इसे उधार में पहनते हैं । सोने का जो गणित उन्होंने बताया वह चैंकाने वाला है । आप भी देखिए----
जेवर बनाने के लिए सोने में तांबा मिलाया जाता है जिसे " खार " कहते हैं । कहा जाता है कि खार 10 प्रतिशत मिलया जाता है लेकिन वास्तव में यह 20 प्रतिशत होता है ।
1. माना कि आप दस ग्राम सोने का जेवर खरीदते हैं तो आपको वास्तव में आठ ग्राम सोना मिलेगा । इसमें दो ग्राम खार होगा .
2. दोबारा तब उसे तुड़वा कर नया बनवाने जाते हैं तो सुनार दो ग्राम खार काटेगा और उसे ही नया बना कर देते वक्त दो ग्राम खार जोड़ेगा । इस तरह चार ग्राम का घपला हो जाएगा । अब तक कुल घपला छः ग्राम का हो गया ।
3. अब अगर आप दूसरी बार तुड़वा कर नई डिजाइन का जेवर बनवाते हैं तो फिर चार ग्राम का घपला होगा ।
इस तरह दो बार जेवर तुड़वाने-बनवाने में आपका सारा सोना सुनार के पास चला जाता है और आपको पता भी नहीं चलता है ।
अगली बार जब सोने का सुख उठाना चाहें तो जरा सोच समझ कर .
अच्छी बात यह है कि नरेश जैसे लोग इस बात से दुखी हैं । लेकिन बाजार की इस चालाकी को ठीक करवाना उनके हाथ में नहीं है . सोने के मामले में सावधानी ही सुरक्षा है . जहाँ तक संभव हो सोने से बचिए .
Saturday, January 1, 2011
गीतकार कैफी आज़मी की एक रचना .......
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा
जब लाद चलेगा बंजारा
धन तेरे काम न आवेगा
जब लाद चलेगा बंजारा
जो पाया है वो बाँट के खा
कंगाल न कर कंगाल न हो
जो सबका हाल किया तूने
एक रोज वो तेरा हाल न हो
इस हाथ से दे उस हाथ से ले
हो जावे सुखी ये जग सारा
हो जावे सुखी ये जग सारा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा
जब लाद चलेगा बंजारा
क्या कोठा कोठी क्या बँगला
ये दुनिया रैन बसेरा है
क्यूँ झगड़ा तेरे मेरे का
कुछ तेरा है न मेरा है
सुन कुछ भी साथ न जावेगा
जब कूच का बाजा नक्कारा
जब कूच का बाजा नक्कारा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा
जब लाद चलेगा बंजारा
धन तेरे काम न आवेगा
जब लाद चलेगा बंजारा
एक बंदा मालिक बन बैठा
हर बंदे की किस्मत फूटी
था इतना मोह खजाने का
दो हाथों से दुनिया लूटी
थे दोनो हाथ मगर खाली
उठा जो सिकंदर बेचारा
उठा जो सिकंदर बेचारा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा
जब लाद चलेगा बंजारा
Thursday, December 30, 2010
इस तरह भी जिन्दगी की शाम न हो !
आलेख
जवाहर चौधरी उनसे मेरा परिचय पुराना है । 80 के दशक में वे नगर के कला जगत में एक चर्चित व्यक्ति हुआ करते थे । पेशे से सिविल इंजीनियर, शौक से चित्रकार, अच्छे साहित्य के गंभीर पाठक, बैठकबाज, चेन स्मोकर, फनकारों की मेहमानवाजी का ऐसा नशा कि पूछिए मत और शहर में सालाना चार-पांच कार्यक्रम करवा कर बाकी समय उसकी जुगाली में व्यस्त-मस्त रहने वाले निहायत सज्जन आदमी । उनके द्वारा आयोजित चित्रकला प्रदर्शनियां और कला बहसों को याद करने वाले बहुत हैं । आज के अनेक चित्रकार और विज्ञापन जगत में सक्रिय उस समय के युवा उनके सहयोगी हुआ करते थे ।
उनका मन था कि वे कला के लिए ऐसा कुछ करें कि लोग लंबे समय तक उन्हें याद रखें । यही सब कारण रहे कि वे अपने मूल काम सिविल इंजीनियरिंग पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाए । प्रतियोगिता के जमाने में उंघने की इजाजत किसी को नहीं होती है । समय न किसी की प्रतीक्षा करता है, न भूल सुधारने का मौका देता है और न ही क्षमा करता है । वे लगातार पीछे होते गए और नब्बे के दशक में उन्हें अपना कामकाज समेट लेना पड़ा ।
घर में वे अपने मिजाज के अकेले रह गए । संतान हुई नहीं , पत्नी ने समाजसेवा का रास्ता चुन प्रस्थान कर लिया । परिवार में भाई आदि हैं और संपन्न हैं । लेकिन बिगड़े दिल का किसी से इत्तफाक होने की परंपरा कब थी जो इनकी होती । तकदीर के रिवाज के मुताबिक अब डायबिटिज है, हाथों में कंपन और वृद्धावस्था के साथ अकेलापन । चूंकि पढ़ने का नशा रहा सो घर में जमा सैकड़ों किताबों के बीच पाठ और पुनर्पाठ के जरिए समय से मुठभेड़ करती आंखें ।
लेकिन आवश्यकताओं से नजरें चुरा कर कोई कितने दिन जी सकता है ! कहने भर को ही है जिन्दगी चार दिनों की । जब काटना पड़ जाए तो पहाड़ हो जाती है । एक सुबह चार किताबें ले कर आए । किताबों की तारीफ की और कहा ये तुम्हारे लिए हैं । बदले में अंकित मूल्य की मांग की । ये क्षण चैंकाने से ज्यादा दुःखदायी थे । स्वाभिमान की रक्षा का भ्रम उन्हें अब भी एक आवरण दे रहा था लेकिन अंदर जैसे वे पिघल रहे थे । मैंने तुरंत मूल्य चुकाया और आग्रह के बावजूद वे चाय पिए बगैर रवाना हो गए ।
उनके जाने के बाद ऐसे कितने ही दीवाने याद आए जिन्होंने स्वाति की एक बूंद की आस में जीवन को सुखा दिया । चले खूब लेकिन कहीं पहूंच नहीं सके । हमारे यहां तो सितारों की शाम कहां गुम हो जाती है, पता नहीं चलता । बार-बार लगता है कि काश जिन्दगी के इस खेल में आदमी के पास निर्णय बदलने के लिए कोई "लाइफ लाइन" होती । बरबस ये शब्द जुबां पर आते हैं --
उनका मन था कि वे कला के लिए ऐसा कुछ करें कि लोग लंबे समय तक उन्हें याद रखें । यही सब कारण रहे कि वे अपने मूल काम सिविल इंजीनियरिंग पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाए । प्रतियोगिता के जमाने में उंघने की इजाजत किसी को नहीं होती है । समय न किसी की प्रतीक्षा करता है, न भूल सुधारने का मौका देता है और न ही क्षमा करता है । वे लगातार पीछे होते गए और नब्बे के दशक में उन्हें अपना कामकाज समेट लेना पड़ा ।
घर में वे अपने मिजाज के अकेले रह गए । संतान हुई नहीं , पत्नी ने समाजसेवा का रास्ता चुन प्रस्थान कर लिया । परिवार में भाई आदि हैं और संपन्न हैं । लेकिन बिगड़े दिल का किसी से इत्तफाक होने की परंपरा कब थी जो इनकी होती । तकदीर के रिवाज के मुताबिक अब डायबिटिज है, हाथों में कंपन और वृद्धावस्था के साथ अकेलापन । चूंकि पढ़ने का नशा रहा सो घर में जमा सैकड़ों किताबों के बीच पाठ और पुनर्पाठ के जरिए समय से मुठभेड़ करती आंखें ।
लेकिन आवश्यकताओं से नजरें चुरा कर कोई कितने दिन जी सकता है ! कहने भर को ही है जिन्दगी चार दिनों की । जब काटना पड़ जाए तो पहाड़ हो जाती है । एक सुबह चार किताबें ले कर आए । किताबों की तारीफ की और कहा ये तुम्हारे लिए हैं । बदले में अंकित मूल्य की मांग की । ये क्षण चैंकाने से ज्यादा दुःखदायी थे । स्वाभिमान की रक्षा का भ्रम उन्हें अब भी एक आवरण दे रहा था लेकिन अंदर जैसे वे पिघल रहे थे । मैंने तुरंत मूल्य चुकाया और आग्रह के बावजूद वे चाय पिए बगैर रवाना हो गए ।
उनके जाने के बाद ऐसे कितने ही दीवाने याद आए जिन्होंने स्वाति की एक बूंद की आस में जीवन को सुखा दिया । चले खूब लेकिन कहीं पहूंच नहीं सके । हमारे यहां तो सितारों की शाम कहां गुम हो जाती है, पता नहीं चलता । बार-बार लगता है कि काश जिन्दगी के इस खेल में आदमी के पास निर्णय बदलने के लिए कोई "लाइफ लाइन" होती । बरबस ये शब्द जुबां पर आते हैं --
इस तरह भी जिन्दगी की शाम न हो
मांगू कतरा-रौशनी और इंतजाम न हो
Tuesday, December 21, 2010
शॉर्ट स्कर्ट पहनने के चलते रेपिस्ट आकर्षित होता है. !?!
आलेख
जवाहर चौधरी
ब्रिटेन में किए गए एक सर्वे में चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं। सर्वे में शामिल महिलाओं का मानना है कि रेप के लिए रेपिस्ट से ज्यादा पीड़ित महिला जिम्मेदार होती हैं। यह सर्वे 18 से 24 साल की एक हजार महिलाओं के बीच किया गया है।
सर्वे में शामिल 54 फीसदी महिलाओं ने कहा कि रेप के लिए रेपिस्ट से ज्यादा पीड़ित जिम्मेदार है। इनमें 24 फीसदी महिलाओं का कहना है कि शॉर्ट स्कर्ट पहनने के चलते रेपिस्ट उनकी तरफ आकर्षित होता है और उसका मनोबल बढ़ता है। इन महिलाओं का यह भी कहना है कि रेपिस्ट के साथ ड्रिंक और उसके साथ बातचीत करना भी उसको रेप के लिए उकसाता है। इसलिए ये महिलाएं पीड़ित को रेप के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं। लगभग 20 फीसदी महिलाओं का मानना है कि अगर पीड़ित रेपिस्ट के घर जाती है तो वह कहीं ना कहीं रेप के लिए जिम्मेदार होती है। लगभग 13 फीसदी महिलाओं ने कहा कि रेपिस्ट के साथ उत्तेजक डांस और उसके साथ फ्लर्ट करना भी रेप के लिए थोड़ा बहुत उत्तरदायी है।
सर्वे में एक और बात सामने आई है कि लगभग 20 फीसदी महिलाएं तो रेप की रिपोर्ट ही नहीं करती है। ये महिलाएं शर्म के चलते ऐसा नहीं करती हैं। चौंकानेवाली बात यह कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद ब्रिटेन में सिर्फ 14 फीसदी रेप केसों में ही सजा मिल पाती है .
सर्वे में शामिल 54 फीसदी महिलाओं ने कहा कि रेप के लिए रेपिस्ट से ज्यादा पीड़ित जिम्मेदार है। इनमें 24 फीसदी महिलाओं का कहना है कि शॉर्ट स्कर्ट पहनने के चलते रेपिस्ट उनकी तरफ आकर्षित होता है और उसका मनोबल बढ़ता है। इन महिलाओं का यह भी कहना है कि रेपिस्ट के साथ ड्रिंक और उसके साथ बातचीत करना भी उसको रेप के लिए उकसाता है। इसलिए ये महिलाएं पीड़ित को रेप के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं। लगभग 20 फीसदी महिलाओं का मानना है कि अगर पीड़ित रेपिस्ट के घर जाती है तो वह कहीं ना कहीं रेप के लिए जिम्मेदार होती है। लगभग 13 फीसदी महिलाओं ने कहा कि रेपिस्ट के साथ उत्तेजक डांस और उसके साथ फ्लर्ट करना भी रेप के लिए थोड़ा बहुत उत्तरदायी है।
सर्वे में एक और बात सामने आई है कि लगभग 20 फीसदी महिलाएं तो रेप की रिपोर्ट ही नहीं करती है। ये महिलाएं शर्म के चलते ऐसा नहीं करती हैं। चौंकानेवाली बात यह कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद ब्रिटेन में सिर्फ 14 फीसदी रेप केसों में ही सजा मिल पाती है .
स्थानीय बनाम बाहरी लोग
आलेख
जवाहर चौधरी
राज्यों में बाहरी लोगों का मुद्दा बार बार उठता रहा है । महाराष्ट्र् में शिवसेना ने तो कई बार इस प्रसंग पर अप्रिय स्थितियां पैदा की हैं । दिल्ली में एक बार मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने गंदगी फैलाने और अव्यवस्थ के लिए बाहरी लागों को कारण बता कर विवाद मोल लिया था । पंजाब में भी बाहरी के मुद्दे पर गरमाहट रही । हाल ही में गृहमंत्री चिदंबरम ने भी दिल्ली में बढ़ रहे अपराधों के लिए बाहरी लोगों की गरदन पकड़ी है । ऐसा प्रतीत होता है कि देश के तमाम नेता अपने को राज्यों तक संकुचित कर बाहरी लोगों का विरोध कर रहे हैं । लेकिन जरा स्थिर हो कर देखें तो पता लगेगा कि यह सच है । जिस राज्य में किन्हीं भी कारणों से बाहरी लोगों का आना-जाना अधिक होगा वहां अवांछित गतिविधियां भी ज्यादा होंगी, विशेषकर महानगरों में । स्थानीय व्यक्ति की जड़ें वहां होती हैं ।
मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो उसका लगाव अपने क्षेत्र से होता है जो उसे जिम्मेदारी के भाव से भी भरता है । ये बातें उसके आचरण को नियंत्रित करती हैं । लेकिन बाहरी आदमी इस तरह के सभी दबावों से पूर्णतः मुक्त होता है । वह पहचानहीनता के कवच में अच्छा-बुरा कुछ भी कर सकता है । दूसरे शहर में वह सड़क पर घूम कर शनि-महाराज के नाम पर भीख मांग सकता है , जूता पालिश कर सकता है या फेरी लगा कर गुब्बारे बेच सकता है , उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा । लेकिन यही सब वह अपने क्षेत्र में नहीं करेगा क्योंकि पहचाने जाने का दबाव उसे रोकेगा । कालगर्ल अक्सर पकड़ी जाती हैं , पता चलता है कि वे स्थानीय नहीं दूसरे शहर की हैं । विदेशों में हमारे बहुत से सम्माननीय बेबी-सिटिंग का काम ख़ुशी ख़ुशी कर लेते हैं । कोई सफाई का काम बेहिचक करता है तो कोई ऐसे काम बड़े आराम से कर लेता है जो दूसरे नहीं करते । बाहरी आदमी एक प्रकार से मुक्त आदमी होता है । घर में हर आदमी हाथ पोछने के लिए टावेल और जूता पोंछने के लिए रद्दी कपड़े का उपयोग करता है । लेकिन वही जब होटल में होता है तो इन्हीं कामों के लिए खिड़की के परदों और बिस्तर पर लगी कीमती चादर को बेहिचक इस्तेमाल कर लेता है । न ये सामान उसका है , न उसे इनसे लगाव है और सबसे बड़ी बात, होटल में वह एक बाहरी आदमी है ।
स्थानीय स्तर पर जब कोई अपराध करता है तो बचने-झुपने के लिए वह भीड़ वाले स्थानों की ओर ही जाता है । नगरों की भीड़ छुपने की सबसे सुरक्षित जगह होती है । प्रायः अपराधी छोटी जगहों से नगर और फिर महानगरों की ओर गति करते हैं । अपराध की पूंजी ले कर आने वाले मुक्त व्यक्ति कब क्या करेंगे कुछ कहा नहीं जा सकता है, अच्छा तो शायद नहीं ही करेंगे । इसलिए जब यह कहा जाता है कि बाहरी लोगों के कारण अपराध हो रहे हैं तो उसे सिरे से नकारा नहीं जाना चाहिए ।
यदि सुरक्षा हो तो हमारा आचरण उसे चुनौती देने का नहीं होना चाहिए । सुरक्षा के कारण ही महानगरों में खुलापन अधिक होता है । एक लड़की दिल्ली में जिस तरह के परिधान इस्तेमाल करती है वैसे छोटी जगह पर नहीं करती है । क्योंकि वहां के लोगों की मानसिकता सुरक्षा में कमी के कारण वैसी निश्चिन्त नहीं है । जहां संवैधानिक सुरक्षा का इंतजाम पुख्ता नहीं होता वहां परंपराएं प्रबल होती हैं और उनसे सुरक्षा प्राप्त की जाती है । डकैत शादी -ब्याह में होने वाले तामझाम से अपना शिकार तय करते हैं इसलिए छोटी जगहों पर सामान्य लोग सुरक्षा के लिए दिखावा करने से बचते हैं । महानगरों में दिखावे की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है । मौकों पर घन का प्रदर्शन हो या अंग का, कोई पीछे नहीं रहना चाहता है । कहना नहीं होगा कि इसका प्रभाव अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोगों पर पड़ता है । स्थानीय लोगों के बीच सिक्का जमता है, वहीं बाहरी आदमी को एक शिकार नजर आ जाता है । यदि तन या धन का फूहड़ प्रदर्शन होगा तो सुरक्षा बढ़ा लेने के बावजूद जोखिम कम नहीं होंगे ।
Friday, October 29, 2010
Life 3650 days ! जिन्दगी ३६५० दिन !!
आलेख
जवाहर चौधरी
रेतघड़ी में झरते कणों की तरह समय का क्षरण किस तरह हो रहा है हम जान नहीं पाते हैं । जब थोड़ी सी रेत बचती है तब हमारा ध्यान जाता है ] तब चिंता होती है । शेष समय चिंता में झरने लगता है । साठ के मुहाने पर खड़े यह विचार बार बार दस्तक दे रहा है कि हिसाब करो ] क्या किया अब तक \ पूंजी सा समय खर्च दिया ] पाया क्या \ देखते देखते दिन कपूर हुए] कहां गए ! कहने को तो मित्र कहेंगे कि उम्र के बारे में सोचना नहीं चाहिए । तो क्या नहीं गिनने से समय रुक जाता है ! न गिनना समय से नजरें चुराना नहीं है क्या \ हालाकि अस्सी-नब्बे की आयु वाले आसपास ही हैं । लेकिन उनकी लंबी आयु का राज यह नहीं है कि उन्होंने अपने दिनों का हिसाब नहीं किया ।
शुरुवात यों हुई कि पिछले जनमदिन पर ध्यान गया कि काफी आगे आ गए हैं । पिछली बार के इस दिन से अब तक 365 दिन खिसक गए । दस साल में 3650 निकल जाते हैं एक एक कर । अगर आम आदमी की आम आयु को उदारता से सत्तर साल भी मान लिया जाए तो जिन्दगी 25550 दिनों में सिमट जाती है । इसमें आरंभिक दस साल समझिए आंख खोलने-देखने में गए और बाद के दस साल खड़े होने की तैयारी में । इस तरह 7300 दिन खर्च होने के बाद बचे 18250 दिन और हासिल हुई नाक के नीचे मात्र मूंछ नाम की काली पट्टी । आगे के दस साल भीड़ भरी दुनिया में अपना पांव जमाने की कोशिश ] शादी ] एकाध बच्चा भी और फिर 3650 दिन खाते से कम होने के बाद शेष रही केवल 14600 सुबहें । आधा जीवन अपने नाम के साथ खड़े होने के प्रयास में निकल गया ।
जीवन आरंभ हुआ तो लगा कि अब जियंेगे । लेकिन जल्द ही पता चला जीने के लिए घर चाहिए] रसोई चाहिए ] वाहन होना ] बच्चों के लिए शिक्षा ] स्वास्थ्य वगैरह न जाने क्या क्या । इनके चक्कर में 7300 दिन कब ] कैसे खिसक गए पता ही नहीं चला । पचास पार खुद अपने शरीर ने हायतौबा मचाना शुरु कर दिया । दवाएं ] डाॅक्टर ] अस्पताल और बीमा ] मेडीक्लेम आदि में साठ हो गए । आज जब देखते हैं तो सांसों के पर्स में 3650 दिन ही बचे हैं । कवि भवानीप्रसाद मिश्र की पंक्तियों में कहूं तो ^^ जीवन गुजर गया जीने की तैयारी में ** ।
क्या हो सकता है 3650 में ! पिछला देखने पर लगता है कि कुछ नहीं किया । मन बहुत कुछ करना चाहता है किन्तु आगे विस्तार नहीं । पछतावा है ] चिंता भी है ] लेकिन समय की चिड़िया चुग गई खेत । सोचता हूं ऐसा हुआ होता तो अच्छा था या ऐसा नहीं हुआ होता तो बेहतर था ] लेकिन समय के एलबम में कोई तस्वीर नहीं बदल सकती है । जो गया वो कभी वापस नहीं आता है । ये समय की तासीर है ] यही वक्त का जादू है । फिर भी बता समय ] 3650 दिनों की जिन्दगी के बदले मुझे तुझसे क्या मिलेगा \
Tuesday, October 26, 2010
* हमारे विभीषण और भस्मासुर !
आलेख
जवाहर चौधरी
पिछले दिनों कश्मीर के भारत में विलय पर सवाल उठाकर विवाद खड़ा करने वाली अरुंधति रॉय ने श्रीनगर में एक सेमिनार के दौरान कहा है कि कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा है. दिल्ली में कश्मीर पर हुए उस सेमिनार में भी अरुंधति मौजूद थीं, जिसको लेकर काफ़ी बवाल मचा था. कश्मीरी अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाने की मांग उठी थी.
लेकिन रविवार को एक बार फिर अरुंधति रॉय ने सेमिनार में कश्मीर के भारत का अभिन्न अंग होने पर ही सवाल उठा दिया कि कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा है. यह ऐतिहासिक तथ्य है. भारत सरकार ने भी इसे स्वीकार किया है
श्रीनगर में आयोजित इस सेमिनार का विषय था- मुरझाया कश्मीर: आज़ादी या दासता. इस सेमिनार का आयोजन किया था 'कोअलिशन ऑफ़ सिविल सोसाइटीज़' ने.
अरुंधती राय का उक्त बयान चौकाने वाला है . कश्मीर की समस्या को जिस तरह उन्होने लिया है
वो अलगाववादियो की समझ और भाषा है . कोई भी प्रांत या राज्य के कुछ लोग किन्हीं भी कारणों
को लेकर अलगाववादी राजनीति करने लगेंगे तो क्या पचास साठ साल बाद उनका समर्थन किया जाना चाहिए ? इतिहास के मायने क्या है ? इतिहास को उसकी पूर्णता के साथ देखा जाना चहिए . अखंड भारत की सीमा कहाँ तक थी सबको पता है . उसमे कश्मीर भारत का हिस्सा था या नहीं यह किसी अनपढ़ को भी बताने की ज़रूरत नही है . राजनीति को छोड़ दिया जाए तो कश्मीर का इतिहास उसकी माटी , संस्कृति और कश्मीरी पंडितों से भी जाना जा सकता है .
यदि देश अलगाववादियो की सुनता रहे तो समस्या किस सूबे मे नहीं है ! कल नक्सलवादियो की माँग आ जाएगी अलग होने की तो लोग उसे भी जस्तीफई करने लगेंगे ! देश को टुकड़ों मे विभाजित होने मे देर लग़ेगी क्या ? देश के नागरिक देश को जोड़ने के लिए है . इसकी एकता को चोट पहुँचना देशद्रोह है .
कुछ लोग अपने को बुद्धिजीवी मानने लगते है और न्याय की लड़ाई के नाम पर खुद अपनी लड़ाई लड़ने लगते हैं . चाहे वो कितनी छोटी क्यों ना हो . भारत मे बोलने की आज़ादी है तो क्या इस आज़ादी के दुरुपयोग की छूट भी मिली हुई है ! भस्मासुर को देश बर्दाश्त करेगा क्या ? हमारे बीच मे पल रहे विभीषणों को हम माला पहनाते रहेंगे !! यह कट्टरवाद की भाषा नही है , अस्तित्व रक्षा की भाषा है . अलगाववादियो को अंधे बुद्धिजीवी चाहिए जो न्याय के नाम पर उनकी बेजा माँगो का समर्थन कर सकें .
Monday, September 13, 2010
आँख वालों में अंधा राजा !! / LEADER WITHOUT EYES.
आलेख
जवाहर चौधरी
देखने में आ रहा है कि शहरों के आसपास के गांवों और छोटी व पिछड़ी जगहों से आए लोग नगरों का नेतृत्व करने लगते हैं । उनकी जड़ें शहरों में नहीं ] कहीं और होतीं हैं और वे प्रतिनिधित्व कहीं और का करते हैं । इसमें शायद बुराई न हो । हमारे राष्ट्र्ीय नेताओं ने छोटे स्थानों से निकल कर पूरे देश का नेतृत्व किया किन्तु उन्होंने ज्यादातर मामलों में स्थानीय समाज या समूहों की उपेक्षा नहीं की । गांधीजी को ही लें ] आजादी की लड़ाई में वे देश का नेतृत्व कर रहे थे ] वहीं स्त्री शिक्षा ] बाल विवाह ] छुआछूत ] संाप्रदायिकता जैसी ज्वलंत सामाजिक समस्याओं पर उनकी चिंता व सक्रियता कम नहीं थी । फिर आज दिक्कत क्या है !\
आज महानगरों में नेतागिरी चमकाने वालों पर एक नजर डालकर देखिए । वे समारोहों में भाषण करते हैं ] कुरीतियों पर टिप्पणी करते हैं । विकास और सुधार के मुद्दों पर सरकार को गरियाते हैं लेकिन स्वयं जिस समूह ] समाज या जाति से निकल कर आए हैं वहां की बुराइयों के प्रति आंखें मूंदे रहते हैं ! बाल विवाह रोकना है तो सरकार रोके ] कानून काम करे ] पुलिस देखे । हम तो जनभावना और परंपरा के खिलाफ नहीं बोलेंगे । क्या जनप्रतिनिधि होना कुरीतियों का समर्थक होना भी है !! हाल ही में हमारे कुछ नेता खाप पंचायतों की हिमायत में राष्ट्र्पति तक जा पहुंचे ! क्या जनता के कल्याण की जिम्मेदारी सिर्फ संविधान की है !\
नेता ऐसा भाव रखते हैं मानों संविधान से उनका नाता सिर्फ शपथ लेने तक ही था । भले ही स्कूल कालेजों में जा कर वे प्रगतिशीलता की बकवास कर आएं पर अपनी जाति या अपने घर की लड़कियों को नहीं पढ़ाएंगे । जब भी वजह पूछी जाए दांत दिखाते हुए कहेंगे कि हमारे समाज में लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नहीं है । तमाम बड़े नगरों की नाक पर ऐसे नेता बैठे मिल जाएंगे जिनके समाज में चार-पांच साल की लड़कियों के विवाह की परंपरा आज के युग में भी जारी है और वे निर्लज्जतापूर्वक इस ओर से आंख फेरे हुए हैं ! नेता मान कर चलते हैं कि यह सब काम सरकार का है । दुःख की बात है कि जनता भी यही माने बैठी है । कहीं भी नेता से यह सवाल नहीं किया जा रहा है कि आप जो देश की किसी समस्या पर संसद को सफलतापूर्वक मच्छीबाजार बना डालते हैं कभी अपने समूह-समाज की समस्या पर लोगों को मार्गदर्शन देते हैं \- यदि वर्तमान युग में भी हमारे नेता अपने समूह का पिछड़ा नजरिया नहीं बदल पाए हैं तो यह किसके लिए शर्मनाक है \ और क्या हक बनता है उन्हें नगरीय और विकसित समाजों का नेतृत्व करने का \!
Monday, August 30, 2010
"फाड़ दी".....!!!! यह किसकी भाषा है !?
आलेख
जवाहर चौधरी
हाल ही में टीवी चैनल बदते हुए एक जगह भाषाई धमाका सुन रुकना पड़ा । एंकर एक अल्प-परिधाना युवती थी और किसी प्रसंग पर बोल रही थी - ‘‘... वो भोत बड़ा फट्टू है । ’’ लगभग बीस मिनिट में उसने धाराप्रवाह और निर्विकार भाव से ‘फाड़ दी’ , ‘फट गई ’ , ‘चौड़ी हो गई ’ , ‘उंगली कर दी’ , काड़ी कर दी , जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया । ये शब्द बाकायदा सुने गए लेकिन कुछ शब्दों के स्थान पर सीटी की आवाज थी , जिनके बारे में कल्पना की जा सकती है कि वे क्या होगें । कहने की आवश्यकता नहीं कि युवती कॉन्वेंट शिक्षित और महानगरीय आधुनिकता के हिसाब से ‘कल्चर्ड’ श्रेणी में रखी जाती होगी ।
जहां तक घरों का सवाल है वहां भी पढ़ने का चलन लगभग समाप्त हो गया है । टीवी/वीडियो से बचा समय माॅल/ शापिंग में खर्च हो जाता है । साहित्य और पुस्तकों के लिए घर के किसी कोने में जगह नहीं है । स्कूल/कालेजों में बच्चे अब अपने अभिभावकों के बारे में बात करते हैं तो उनकी भाषा होती है -- ‘‘ ... आता जरुर पर ज्यादा देर बाहर रहो तो मेरा बाप भौंकने लगता है । ’’ या ‘‘ मेरा बुढ्ढ़ा पाकेटमनी नहीं बढ़ा रहा है यार । ’’ इसी तरह के अनेक शब्द हैं जिनका उल्लेख करना अपनी पीढ़ी की बेइज्जती करना है । ये शब्द दुर्भाग्यवश इन पंक्तियों के लेखक ने सुने हैं । टोकने पर उनका उत्तर था ‘‘ बाप को बाप बोलने में क्या गलत है ? ’’ यानी संस्कार की आवश्यकता पहले पाठ से ही है ।
भाषाई संस्कार के संदर्भ में हमारी चिंता प्रायः अंग्रेजी को लेकर होती है । शहरों में हमारे बच्चे जिनमें युवा भी शामिल हैं, हिन्दी के अखबार और पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने में कठिनाई महसूस करते हैं । खासकर संपादकीय पृष्ठ, साहित्य और विचार सामग्री को वे छोड़ देते हैं । उनका पाठ सबसे अधिक विज्ञापनों का होता है । राष्ट्र्ीय-अंतराष्ट्र्ीय खबरों की सुर्खियों के अलावा अपराध-समाचारों पर उनकी नजरें टिकतीं हैं । इनके अलावा फोटोयुक्त समाचार और सूचनाएं भी ‘देखे’ जाते हैं । देखने की प्रवृत्ति अधिक हो गई है । जहां भी भी पढ़ने की जरुरत होती है या भाषा का मामला आता है वे बचते हैं ।
भाषा के संदर्भ में इनदिनों शिक्षकों के हाल भी उल्लेखनीय नहीं हैं । विज्ञान के शिक्षकों से शायद भाषा की अपेक्षा कम हो किन्तु कला एवं वाणिज्य के शिक्षक भी भाषा की दरिद्रता से पीड़ित दिखाई देते हैं । ज्यादातर गाइड़, गेसपेपर और वन-डे-सिरिज जैसी बाजारु सामग्री से नोट्स बना कर नौकरी संपन्न होती है । सरकारी और निजी गैर शैक्षणिक कार्यों की अधिकता के कारण उनके पास स्वाध्याय के लिए समय ही नहीं है । यदि मौके-बे-मौके एक पृष्ठ लिखने की जरुरत पड़ जाए तो भाषा के पतले हाल उजागर हो जाते हैं । रटंत अध्ययन पद्धति के कारण भाषा अर्थहीन स्थिति में चलती रहती है । ऐसे में नई पीढ़ी को भाषाई संस्कार मिलने में कठिनाई आना ही है ।
अगर ये हमारी अगली पीढ़ी की हांड़ी का चावल है तो गंभीरता पूर्वक सोचने की आवश्यकता है कि गलती कहां हो रही है ।
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