Thursday, April 21, 2011

कबीरा कहे ये जग अंधा.......

                                             मित्रो, ...........   नेट पर तफरी करते हुए यह फोटो मुझे दिखाई दे गया . हमारे बहुत से ऐसे पूजा स्थल हैं जो सड़क किनारे दो पत्थरों को सिंदूर पोत कर तैयार किये गए हैं . यहाँ कुत्ते बैठे पाए जाते हैं , यहाँ तक कि इन जगहों पर वे अक्सर टट्टी - पेशाब भी करते रहते हैं लेकिन कोई ध्यान  नहीं देता हैं . आम तौर पर हिन्दू भगवान से मांगने जाता है और उसके बाद भूल जाता है . यहाँ देखिये ... किसकी आराधना हो रही है  !!!!!!!

आलेख 
जवाहर चौधरी 

Friday, April 15, 2011

मुर्गियां , जो अंडा देना बंद कर देती है .........


            

 
आलेख 
जवाहर चौधरी 

          हाल ही में नोएडा की 43 और 41 वर्षीय दो बहनें , जिन्होंने हमारी शिक्षा  व्यवस्था की सबसे बड़ी डिग्री पीएच.डी. हासिल  की है, पिछले सात माह से अपने घर में बंद थीं और माता-पिता की मृत्यु के दुःख में अवसाद और अकेलेपन का जीवन जी रहीं थी। दो भाई हैं लेकिन एक का पता नहीं और दूसरा बैंगलोर में नौकरी करता है । एक पालतू कुत्ता जिसे ये बहनें बहुत प्यार करती थीं, मर गया । इस सदमें में वे दोनों डिप्रेशन  में चलीं गई । किसी तरह पुलिस को खबर लगी तो उन्हें बाहर निकाल कर अस्पताल पहुंचाया गया जहां बड़ी बहन की मृत्यु हार्ट अटैक से हो गई और दूसरी की हालत स्थिर है ।
                 प्रश्न  यह है कि नगरों - महानगरों में हमने जिस समाज व्यवस्था को रच लिया है आखिर उसके सच को कब तक अनदेखा करेंगे !! सब दुःखी हैं , सब शिकार  हैं , सब तनाव में हैं लेकिन इस दुष्चक्र से बाहर आने का रास्ता किसी को सूझ नहीं रहा है । बावजूद जनसंख्या नियंत्रण के आज देश  के पास 121 करोड़ पेट हो गए हैं,  लेकिन अर्से से समझदार राष्ट्र् की एक या दो बच्चों की मांग का सम्मान करते आ रहे हैं । पढ़-लिख कर बच्चे नौकरी के लिए यहां-वहां चले गए और घर में बूढ़े मां-बाप अकेले रह गए । बाहर निकल कर उन्होंने देखा तो  बिना रुके दौड़ने वाली दुनिया के दर्शन  हुए । लोग इतने आत्मकेन्द्रित कि भौतिक सुख-साधनों की रेत में सिर घुसाए अपने में ही मगन रहते हैं । किसीके दुःख में शरीक हो कर बांट लेने की रस्मी आवश्यकता  भी धुमिल होती जा रही है । इधर  इंटरनेट की खिड़की से रचा जा रहा समाज सुविधाजनक है क्योंकि वहां मर्जी आपकी है , पहल आपकी है लेकिन जिम्मेदारी नहीं है । अमेरिका या जापान में क्या हो रहा है इसकी चिंता ज्यादा है , लेकिन पड़ौस में सन्नाटा क्यों है इस पर किसी का ध्यान नहीं है । नोएडा की उक्त बहनें सामान्यजन हैं किन्तु फिल्म जगत के कई नामी अपने घर में अकेले मर गए । लोगों को चार-पांच दिन बाद पता चला जब बदबू बाहर आई ।
                   छोटी जगहों पर घर के बाहर , ओटले पर बैठने का चलन होता है । आते-जाते लोग दिखते-देखते हैं , नमस्कार और बात भी हो जाती है । लेकिन नगरों में बाहर बैठने का और दूसरों को दिखाई देने का चलन नहीं है .  इसलिए कब कौन संकट में है , है या नहीं है , पता ही नहीं चलता । छुप कर रहने की इस प्रवृत्ति के पीछे ईगो-प्राबलम के अलावा सुरक्षा और विश्वास  का संकट भी है । मुंबई-दिल्ली में अकेले रह रहे बुजुर्गों की हत्याओं ने लोगों को स्वयं सलाखों में कैद हो कर रहने के लिए विवश  कर दिया है ।
         तब उपाय क्या है ?
         मैंने शिवमूर्तिजी से पूछा तो बोले - ‘‘ उपाय होता तो पश्चिम  वालों ने नहीं ढूंढ लिया होता । .... अच्छा है कि मेरी पोल्ट्री में यह समस्या नहीं है । मेरे पास एक ही उपाय है कि जो मुर्गी अंडा देना बंद कर देती है उसे मैं होटल वालों को ‘टेबल-यूज’ के लिए बेच देता हूं । ’’

Friday, April 8, 2011

नए सिरे की तलाश में .........




आलेख 
जवाहर चौधरी     


    कई बार ऐसा होता है जब हम नए सिरे  से जिंदगी शुरू करना चाहते हैं . जैसे बालू रेत में अपना संसार रचते बच्चे , जब मन का नहीं होता तो,  सारा रचा मिटा देते हैं और नये सिरे से काम शुरू करते हैं . लेखन में तो अक्सर ऐसा होता है , अपने लिखे को जब नए सिरे से लिखा जाता है तो वह सचमुच नया हो जाता है , पहले से भिन्न और बेहतर . बेहतर कि चाह ही पिछले को ख़ारिज करने का साहस देती है.  जीवन में भी ऐसे मौके आते हैं जब यह इच्छा तीव्र हो जाती है कि पिछला विलोपित हो जाये . संसार में कोई चीज स्थाई नहीं है , इसलिए बुरे वक्त को भी बीतना ही पड़ता है . लेकिन कभी कभी वह भूकंप  कि तरह आ कर बीतता है और अपने हस्ताक्षर छोड़ जाता है . तब मन होता है कि सब कुछ नए सिरे से शुरू किया जाए .

                कहने , सोचने में यह सहज लगता है लेकिन जीवन में नया सिरा ढूंढ़ लेना कठिन है . हमारे जीवन काल में ऐसा कोई समय नहीं होता है जिसे काट  कर अलग किया जा सके . समय अपनी सुक्रतियों - विकृतियों के साथ हमारे बीच हमेशा मौजूद रहता है . इसमें से मीठा - मीठा और अच्छा - अच्छा चुन लेने कि स्वतंत्रता हमें नहीं है . आप बदलाव के लिए नौकरी छोड़ सकते  हैं , घर बदल सकते हैं , अपने शौक बदलते हैं , संवाद बदलते हैं लेकिन फिर भी जीवन का नया सिरा नहीं मिलता . हर बदलाव में बीता समय  अनचाहे प्रवेश कर लेता है . लगता है हमारा अस्तित्व कुछ और नहीं बीते हुए समय का पुंज है , अतीत कि गठरी मात्र  !! और इस गठरी से मुक्ति का  नाम म्रत्यु है . एक शरीर में हम दो बार जन्म क्यों नहीं  ले सकते हैं ?


              विस्मरण या भूलने को एक ईश्वरीय वरदान कहा जाता है . किन्तु भूलने कि प्रक्रिया क्या है ? किसी को कैसे भूला जा सकता है ! होता विपरीत है , जिसे हम भूलना चाहते हैं वह ज्यादा याद रहता है . तमाम फोटो और अल्बम अलमारी में बंद करके रख दीजिये और मान लीजिये कि स्मृतियाँ कैद हो गईं , लेकिन क्या सच में ? उसका उपयोग किया सामान , किताबें , कपड़े , जब आँखों के सामने पड़ते हैं तो जीवित प्राणियों कि तरह उदास और अकेले दिखाई देते हैं.  रेडिओ पर उसकी पसंद का गीत बजता है या रसोई से रोटी की  महक उठती है तो दीवारें उसका नाम बोलने लगती हैं . जो है वही नहीं छुट रहा , .... कैसे मिलेगा नया सिरा !  .... जीवन में शायद एक ही सिरा होता  है ..... और हम उसी पर चल रहे होते हैं .

Thursday, March 31, 2011

मन को करें प्रशिक्षित .

                
आलेख 
जवाहर चौधरी 

    कहा जाता है कि समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसीको नहीं मिलता है . जीवन में जो घटता है वो भाग्य का ही लिखा होता है, दुःख भी  . इसलिए मान लो कि हमें  भाग्य के अनुसार ही सब कुछ मिला है - घर-परिवार, सम्बन्धी , कपडे़-लत्ते , भोजन, मकान, शिक्षा , देश - समाज व संगती,  सब  .  इसके अलावा अन्य  जरूरतें हो सकती हैं , वे भी पूरी हो ही रही हैं . फिर भी हममें   से ज्यादातर लोग खुश नहीं रहते। जरा-सी प्रतिकूल परिस्थिति आते ही वे दुखी  हो जाते हैं . हमारा मन यदि  कमजोर व बिखरा हो तो  दुखी होता रहता है . मन को समझना कठिन है .  जिंदगी में सब कुछ ठीक  होने पर भी कई बार मन दुःख  को तलाशता रहता है . दरअसल  मन कभी खाली नहीं रहता है . यदि हमने  मन को कहीं नहीं लगाया तो  मन खुद ही भूत या अतीत  में विचरण  करने लग जाता है । पहले कुछ बुरा  घटा हो तो  उसके बारे में सोचकर दुखी होने लगता है . सोचता है कि ऐसा नहीं हुआ  होता तो कितना अच्छा  होता . या फिर अपने से ज्यादा धनी , सुखी व सफल  लोगों, साथियों व रिश्तेदारों के बारे में सोचकर दुखी होने लगता है . अगर पास में धन-दौलत भी हो, तो भी मन किसी और छोटी बात को पकड़कर दुखी होने लगता है . मन अगर  कमजोर हो तो उसे  दुख में रहना अच्छा लगता है . मनोवैज्ञानिक द्रष्टि  से  देखें तो लगता है कि निराशा में व्यक्ति दुःख में भी सुख पाने लगता है . इससे बाहर आना बहुत जरुरी है .   
                    मन को ठीक रखने के लिए उसे प्रशिक्षण देने कि आवश्यकता होती है . इसके बिना वह  सकारात्मक नहीं हो पाता है । हमारा प्रयास यही होना चाहिए कि मन को प्रशिक्षित करें क्योंकि मन बिना सिखाए कुछ नहीं सीखता। इसके लिए अभ्यास की जरूरत होती है . अभ्यास से मन को वर्तमान में यानी यथार्थ में रखा जा सकता है , जो  बीत गया सो बीत गया . अब हमारे वश में कुछ नहीं है . जो घटित हो गया , हो गया . भाग्य का निर्णय नहीं बदला जा सकता है , लेकिन भविष्य हमसे उम्मीदें लिए सामने खड़ा होता है . हर दिन हमें कुछ नया करना है , कुछ अच्छा करना है .इसलिए जरुरी है कि  हमेशा मुस्कुराते रहें , सबके प्रति शुक्रिया का भाव रखें । इससे मन धीरे-धीरे सधने लगता है , उसे शांति मिलती है , आत्मविश्वास पैदा होता है ,  जीवन में सकारात्मकता आती है और समय  शीतल  होने लगता  है . इसलिए अपने मन को करें मजबूत , पत्थर की तरह  .

Friday, March 18, 2011

HOLI HAI !!! /....... बुरा न मानो होली है !!!

फैशन का टेंशन
जवाहर चौधरी
आलेख 
जवाहर चौधरी 


आज का फैशन सफलता की ऊंचाइयों को स्पर्श करते हुए कमर की नीचाइयों पर चमत्कारिक रूप से टिका हुआ है। कट-रीनाओं से लेकर मल्लिकाओं तक की कमर के अंतिम छोर पर एक रेखा होती है, जिसे सिनेमाई शहर में ‘एलओसी’ कहा जाता है। जैसे गरीबी की रेखा होती है, लेकिन दिखाई नहीं देती, वैसे ही फैशन की भी रेखा होती है, जो कितनी भी आंखें फाड़ लो, दिखाई नहीं देती है। एलओसी एक आभासी रेखा होती है, सुधीजन जिसकी कल्पना करते पाए जाते हैं। मैडम दुशाला दास का टेंशन इसी एलओसी से शुरू होता है।

दुशाला जी को चिंता तो तभी होने लगी थी, जब सुंदरियां मात्र डेढ़ मीटर कपड़े का ब्लाउज पहनने लगीं थीं। लेकिन अब डेढ़ मीटर कपड़े में दस ब्लाउज बन रहे हैं, तो वे टीवी खोलते ही तमतमाने लगती हैं। उस पर दास बाबू का दीदे फाड़ कर टीवी देखना उनकी बर्दाश्त के बाहर हो जाता है। मुए मर्द हय-हय, अश-अश करते बस बेहोश ही नहीं हो रहे हैं। जी चाहता है कि बेवफाओं को दीवार में जिंदा चुनवा कर अनारकली की वफा का हिसाब बराबर कर लें नामुरादों से। पिछले दिनों कट-रीनाओं ने असंभव होने के बावजूद जब एलओसी को नीचे की ओर जरा और खिसका दिया तो मैडम दुशाला को मेडिकल चेकअप के लिए ले जाना पड़ा।

              डाक्टर ने आदतन सवाल किया कि ‘आपको किस बात का टेंशन है?’ जवाब में उनके टेंशन का लावा बह निकला, बोलीं - ‘ हवा-पानी के असर से कभी-कभी पहाड़ भी भरभरा कर गिर जाते हैं। किसी दिन लगातार जीरो साइज होती जा रही कमर घोखा दे गई तो... टीवी वाले हफ्तों तक, बल्कि तब तक दिखाते रहेंगे तब तक कि देश  की पूरी एक सौ पंद्रह करोड़ जनसंख्या की दो सौ तीस करोड़ आंखें तृप्त नहीं हो जातीं ।  हमारी सरकार किसी ‘एलओसी’ की रक्षा नहीं कर पा रही है! क्या होगा देश का?’ 
               15 दिन के बेड रेस्ट और टीवी न देखने की हिदायत के साथ वे लौटीं। अभी हफ्ता भी नहीं गुजरा था कि एक दिन दास बाबू रात दो बजे फैशन-टीवी का पारायण करते हुए रंगी आखों बरामद हुए।यहाँ ‘एलओसी’ की समस्या नहीं थी , वह मात्र एक रक्षा-चौकी  में बदल गई थी ।  खुद दास बाबू इतने विभारे थे कि जान ही नहीं पाए कि मैडम दुशाला  ने दबिश  डाल कर उन्हें गिरी हुई अवस्था में जब्त कर लिया है । सुबह तक दुशालाजी की पाठशाला चली, किंतु वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं पा सकीं कि दास बाबू आखिर उसमें देख क्या रहे थे!
               दरअसल दास बाबू को टीवी में जो दिख रहा था, उससे ज्यादा उत्सुक होकर वे ‘संभावना’ देख रहे थे। चैनल भी बार-बार ब्रेक से  टीआरपी को कैश कर रहा था और ‘कमिंग-अप’ की पट्टी लगा कर संभावनाएं बनाए हुए था। हर ब्रेक के बाद ‘संभावना’ बढ़ रही थी और दास बाबू को दास बनाती जा रही थी। वे सारांश पर आए कि संभावना से आदमी को ऊर्जा मिलती है।

                 दुशालाजी दुःखी इस बात से हैं कि टीवी वाले पत्रकार इतना खोद-खोद कर पूछते हैं कि जवाब देने वाला लगातार गड्ढ़े में धंसता चला जाता है, लेकिन इन देवियों से नहीं पूछते कि कमर को पासपोर्ट की तरह इस्तेमाल करना आखिर कब बंद करेंगी? संयोगवश एक दिन उनकी यह तमन्ना पूरी हो गई। टीवी के ‘बहस और चिंता’ कार्यक्रम में वे सवाल पूछ रहीं थीं कि आपको डर नहीं लगता, अगर कहीं सारा फैशन भरभरा कर गिर पड़े तो...। उपस्थित कट-रीनाओं में से एक ने जवाब दिया, ‘काश ऐसा होता ! ..... गिरने की संभावना फैशन का सबसे बड़ा कारण है, ...... लेकिन अब तक गिरा तो नहीं ..।’

                 ‘लेकिन टेंशन तो बना रहता है .  ऐसा फैशन आखिर किस लिए?’ वे बोलीं।‘ जिसे आप डर कह रही है, दरअसल वो अमूल्य संभावना है। फैशन का काम ही संभावना पैदा करना है।‘ दुशाला-दास’ होने में आज की दुनिया कोई संभावना नहीं देखती है। और जिसमें ‘संभावना’ नहीं होती वो भगवान के भरोसे होता है।’ दुशालाजी को जैसे डाक्टर से जवाब मिल गया। एक नए टेंशन के साथ वे लौट रही हैं।

Thursday, March 10, 2011

जाउं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के..


                  
आलेख 
जवाहर चौधरी 

        अट्ठावन-उनसाठ का समय याद आ रहा है । इन्दौर ...... एक छोटा सा शहर , जिसमें घोड़े से चलने वाला तांगा और बैलगाड़ियां खूब थीं । सामान्य लोग पैदल चला करते थे । युवाओं में सायकल का बड़ा क्रेज था । सूट पहने, टाई बांधे सायकल सवार को देख कर लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रहते । उस वक्त की फिल्मों में हीरो-हीरोइन भी सायकल के सहारे ही प्रेम की शुरुवात  करते थे । दहेज में सायकल देने का चलन शुरू हो गया था । दूल्हे प्रायः दुल्हन की अपेक्षा सायकल पा कर ज्यादा खुश  होते । सायकिल को धोने-पोंछने और चमकाने के अलावा पहियों में गजरे आदि डाल कर सजाने का शौक आम था ।


               बिजली सब जगह नहीं थी, दुकानों में पेट्रोमेक्स जला करते थे । सूने इलाके में स्थित हमारा घर कंदिल से रौशन  होता था । मनोरंजन के लिए लोग प्रायः ताश  पर निर्भर होते थे । कुछ लोग शतरंज  या चौसर  भी जानते थे । लेकिन इनकी संख्या बहुत कम थी । संगीत की जरूरत वाद्ययंत्रों से पूरी हो पाती थी जिसमें ढ़ोलक सबको सुलभ थी । पिताजी ने चाबी से चलने-बजने वाला एक रेकार्ड प्लेयर खरीद लिया था जिसे ‘चूड़ी वाला बाजा’ कहते थे । घर में बहुत से रेकार्ड जमा किए हुए थे । उन्हें बाजे का बड़ा शौक  था । एक डिब्बी में बाजा बजाने के लिए पिन हुआ करती थी । एक पिन से चार या पांच बार रेकार्ड बजाया जा सकता था । पिन वे छुपा कर रखते थे, मंहगी आती थी ।
उनदिनो एक गाना खूब बजाया जाता था -- ‘ चली कौन से देस गुजरिया तू सजधज के ........ जाउं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के ..... ’ । मुझे भी बाजा सुनना बहुत भाता था । यह गीत तो बहुत ही पसंद था । लेकिन इजाजत नहीं थी बजाने की । इसलिए प्रतीक्षा रहती कि पिताजी के कोई दोस्त आ जाएं । दोस्त अक्सर शाम को आते और ‘बाजा-महफिल’ जमती । कई गाने सुने जाते लेकिन ‘ चली कौन से देस ...’ दो-तीन या इससे अधिक बार बजता ।

कुछ समय बाद रेडियो के बारे में चर्चा होने लगी । पिताजी के दोस्त बाजा-महफिल के दौरान तिलस्मी रेडियो का खूब बखान करते । एक दिन रेडियो आ ही गया । बगल में रखी भारी सी लाल बैटरी से उसे चलाया जाता । सिगनल पकड़ने के लिए घर के उपर तांबे की जाली का पट्टीनुमा एंटीना बांधा गया जो बारह-तेरह फिट लंबा था । रेडियो बजा तो  सब निहाल हो गए । उसकी आवाज बाजे से ज्यादा साफ और अच्छी थी । आवाज को कम-ज्यादा करने की सुविधा भी चौकाने  वाली थी । कई दिनों तक लोग रेडियो को देखने के लिए आते रहे । साफ आवाज सुन कर बूढ़े और महिलाएं समझतीं कि इस डब्बे में लोग बैठे बोल रहे हैं । रेडियो सायकल से बड़ा सपना बनने जा रहा था ।
जल्द ही रेडियो सिलोन में दिलचस्पी बढ़ी , खासकर बिनाका गीतमाला में । अमीन सायानी की आवाज में जादू का सा असर था, जब वे ‘भाइयो और बहनो’ के संबोधन के साथ कुछ कहते तो कानों में शहद  घुल उठती ।  बुधवार का दिन इतना खास हो गया कि इसे ‘बिनाका-डे’ कहा जाने लगा । शाम  होते ही लोग आने लगते । आंगन में बड़ी सी दरी बिछाई जाती जो पूरी भर जाती । उन दिनों पहली पायदान पर रानी रूपमति का गीत ‘ आ लौट के आजा मेरे मीत , तुझे मेरे गीत बुलाते हैं .....’ महीनों तक बजता रहा था । सायानी एक बार मुकेश  और एक बार लता मंगेषकर की आवाज में इसे सुनवाते । इस गीत के आते आते श्रोताओं का अनंद अपने चरम पर होता, वे झूमने लगते ।

इस बैटरी-रेडियो को भी बड़ी किफायत से चलाया जाता था क्योंकि बैटरी बहुत मंहगी आती थी । इसलिए अभी ‘चूड़ी वाले बाजे’ का महत्व कम नहीं हुआ था । याद नहीं कब तक ऐसा चला और बिजली आ गई ।  कुछ दिनों बाद ही बिजली वाला रेडियो भी ।
पहले ‘चूड़ी वाला बाजा’ बेकार हुआ , फिर बैटरी-रेडियो भी घटे दामों बाहर निकला । लेकिन इनकी  यादें हैं कि टीवी युग में भी अपनी जगह बनाए हुए हैं ।

Friday, January 21, 2011

सोने का सुख !!!


              
आलेख 
जवाहर चौधरी 

            पुराने समय में जमींदारों के घर में औरतें सोने के जेवर तुडवाती- बनवाती रहती थीं । यही उनका काम था । सुनार भी उन्हें तुडवा कर नया बनवाने के लिए प्रेरित करते रहते थे ।
                नरेश एक भले इंसान हैं और अपने व्यवसाय की इस चालाकी से दुखी भी । उन्होंने बताया कि सोना हमेशा सुनार का होता है । पहनने वाले इसे उधार में पहनते हैं । सोने का जो गणित उन्होंने बताया वह चैंकाने वाला है । आप भी देखिए----

                       जेवर बनाने के लिए सोने में तांबा मिलाया जाता है जिसे " खार " कहते हैं । कहा जाता है कि खार 10 प्रतिशत मिलया जाता है लेकिन वास्तव में यह 20 प्रतिशत होता है ।
                   1. माना कि आप दस ग्राम सोने का जेवर खरीदते हैं तो आपको वास्तव में आठ ग्राम सोना मिलेगा । इसमें दो ग्राम खार होगा .
                   2. दोबारा तब उसे तुड़वा कर नया बनवाने जाते हैं तो सुनार दो ग्राम खार काटेगा और उसे ही नया बना कर देते वक्त दो ग्राम खार जोड़ेगा । इस तरह चार ग्राम का घपला हो जाएगा ।  अब तक कुल घपला छः ग्राम का हो गया ।
                   3. अब अगर आप दूसरी बार तुड़वा कर नई डिजाइन का जेवर बनवाते हैं तो फिर चार ग्राम का घपला होगा ।
इस तरह दो बार जेवर तुड़वाने-बनवाने में आपका सारा सोना सुनार के पास चला जाता है और आपको पता भी नहीं चलता है ।
            
   अगली बार जब सोने का सुख उठाना चाहें  तो जरा सोच समझ कर  .                
                  अच्छी बात यह है कि नरेश जैसे लोग इस बात से दुखी हैं । लेकिन बाजार की इस चालाकी  को ठीक करवाना उनके हाथ में नहीं है . सोने के मामले में सावधानी ही सुरक्षा है . जहाँ तक संभव हो सोने से बचिए .


Saturday, January 1, 2011

गीतकार कैफी आज़मी की एक रचना .......


सब ठाठ पड़ा रह जावेगा

जब लाद चलेगा बंजारा

धन तेरे काम न आवेगा

जब लाद चलेगा बंजारा



जो पाया है वो बाँट के खा

कंगाल न कर कंगाल न हो

जो सबका हाल किया तूने
एक रोज वो तेरा हाल न हो
इस हाथ से दे उस हाथ से ले



हो जावे सुखी ये जग सारा

हो जावे सुखी ये जग सारा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा

जब लाद चलेगा बंजारा
 क्या कोठा कोठी क्या बँगला 
 ये दुनिया रैन बसेरा है


 क्यूँ झगड़ा तेरे मेरे का

  कुछ तेरा है न मेरा है
 सुन कुछ भी साथ न जावेगा
  जब कूच का बाजा नक्कारा
  जब कूच का बाजा नक्कारा



सब ठाठ पड़ा रह जावेगा

जब लाद चलेगा बंजारा
धन तेरे काम न आवेगा

जब लाद चलेगा बंजारा

एक बंदा मालिक बन बैठा

हर बंदे की किस्मत फूटी

था इतना मोह खजाने का
दो हाथों से दुनिया लूटी
थे दोनो हाथ मगर खाली

उठा जो सिकंदर बेचारा
उठा जो सिकंदर बेचारा

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा

जब लाद चलेगा बंजारा





Thursday, December 30, 2010

इस तरह भी जिन्दगी की शाम न हो !

आलेख 
जवाहर चौधरी                 

    उनसे मेरा परिचय पुराना है । 80 के दशक  में वे नगर के कला जगत में एक चर्चित व्यक्ति हुआ करते थे । पेशे  से सिविल इंजीनियर, शौक से चित्रकार, अच्छे साहित्य के गंभीर पाठक, बैठकबाज, चेन स्मोकर, फनकारों की मेहमानवाजी का ऐसा नशा  कि पूछिए मत और शहर में सालाना चार-पांच कार्यक्रम करवा कर बाकी समय उसकी जुगाली में व्यस्त-मस्त रहने वाले निहायत सज्जन आदमी । उनके द्वारा आयोजित चित्रकला प्रदर्शनियां और कला बहसों को याद करने वाले बहुत हैं । आज के अनेक चित्रकार और विज्ञापन जगत में सक्रिय उस समय के युवा उनके सहयोगी हुआ करते थे ।

उनका मन था कि वे कला के लिए ऐसा कुछ करें कि लोग लंबे समय तक उन्हें याद रखें । यही सब कारण रहे कि वे अपने मूल काम सिविल इंजीनियरिंग पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाए । प्रतियोगिता के जमाने में उंघने की इजाजत किसी को नहीं होती है । समय न किसी की प्रतीक्षा करता है, न भूल सुधारने का मौका देता है और न ही क्षमा करता है । वे लगातार पीछे होते गए और नब्बे के दशक में उन्हें अपना कामकाज समेट लेना पड़ा ।

घर में वे अपने मिजाज के अकेले रह गए । संतान हुई नहीं , पत्नी ने समाजसेवा का रास्ता चुन प्रस्थान कर लिया । परिवार में भाई आदि हैं और संपन्न हैं । लेकिन बिगड़े दिल का किसी से इत्तफाक होने की परंपरा कब थी जो इनकी होती । तकदीर के  रिवाज के मुताबिक अब डायबिटिज है, हाथों में कंपन और वृद्धावस्था के साथ अकेलापन । चूंकि पढ़ने का नशा रहा सो घर में जमा सैकड़ों किताबों के बीच पाठ और पुनर्पाठ के जरिए समय से मुठभेड़ करती आंखें ।


लेकिन आवश्यकताओं  से नजरें चुरा कर कोई कितने दिन जी सकता है ! कहने भर को ही है जिन्दगी चार दिनों की । जब काटना पड़ जाए तो पहाड़ हो जाती है । एक सुबह चार किताबें ले कर आए । किताबों की तारीफ की और कहा ये तुम्हारे लिए हैं । बदले में अंकित मूल्य की मांग की । ये क्षण चैंकाने से ज्यादा दुःखदायी थे । स्वाभिमान की रक्षा का भ्रम उन्हें अब भी एक आवरण दे रहा था लेकिन अंदर जैसे वे पिघल रहे थे । मैंने तुरंत मूल्य चुकाया और आग्रह के बावजूद वे चाय पिए बगैर रवाना हो गए ।
उनके जाने के बाद ऐसे कितने ही दीवाने याद आए जिन्होंने स्वाति की एक बूंद की आस में जीवन को सुखा दिया । चले खूब लेकिन कहीं पहूंच  नहीं सके । हमारे यहां तो सितारों की  शाम कहां गुम हो जाती है, पता नहीं चलता । बार-बार लगता है कि काश जिन्दगी के इस खेल में आदमी के पास निर्णय बदलने के लिए कोई "लाइफ लाइन" होती । बरबस ये शब्द जुबां पर आते हैं --
इस तरह भी जिन्दगी की शाम  न हो
मांगू कतरा-रौशनी और इंतजाम न हो 



Tuesday, December 21, 2010

शॉर्ट स्कर्ट पहनने के चलते रेपिस्ट आकर्षित होता है. !?!


आलेख 
जवाहर चौधरी 



                   ब्रिटेन में किए गए एक सर्वे में चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं। सर्वे में शामिल महिलाओं का मानना है कि रेप के लिए रेपिस्ट से ज्यादा पीड़ित महिला जिम्मेदार होती हैं। यह सर्वे 18 से 24 साल की एक हजार महिलाओं के बीच किया गया है।
 

सर्वे में शामिल 54 फीसदी महिलाओं ने कहा कि रेप के लिए रेपिस्ट से ज्यादा पीड़ित जिम्मेदार है। इनमें 24 फीसदी महिलाओं का कहना है कि शॉर्ट स्कर्ट पहनने के चलते रेपिस्ट उनकी तरफ आकर्षित होता है और उसका मनोबल बढ़ता है। इन महिलाओं का यह भी कहना है कि रेपिस्ट के साथ ड्रिंक और उसके साथ बातचीत करना भी उसको रेप के लिए उकसाता है। इसलिए ये महिलाएं पीड़ित को रेप के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं। लगभग 20 फीसदी महिलाओं का मानना है कि अगर पीड़ित रेपिस्ट के घर जाती है तो वह कहीं ना कहीं रेप के लिए जिम्मेदार होती है। लगभग 13 फीसदी महिलाओं ने कहा कि रेपिस्ट के साथ उत्तेजक डांस और उसके साथ फ्लर्ट करना भी रेप के लिए थोड़ा बहुत उत्तरदायी है। 

                         सर्वे में एक और बात सामने आई है कि लगभग 20 फीसदी महिलाएं तो रेप की रिपोर्ट ही नहीं करती है। ये महिलाएं शर्म के चलते ऐसा नहीं करती हैं। चौंकानेवाली बात यह कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद ब्रिटेन में सिर्फ 14 फीसदी रेप केसों में ही सजा मिल पाती है .

स्थानीय बनाम बाहरी लोग



                        

आलेख 
जवाहर चौधरी 
      राज्यों में बाहरी लोगों का मुद्दा बार बार उठता रहा है । महाराष्ट्र् में शिवसेना  ने तो कई बार इस प्रसंग पर अप्रिय स्थितियां पैदा की हैं । दिल्ली में एक बार मुख्यमंत्री शीला  दीक्षित ने गंदगी फैलाने और अव्यवस्थ के लिए बाहरी लागों को कारण बता कर विवाद मोल लिया था । पंजाब में भी बाहरी के मुद्दे पर गरमाहट रही । हाल ही में गृहमंत्री चिदंबरम ने भी दिल्ली में बढ़ रहे अपराधों के लिए बाहरी लोगों की गरदन पकड़ी है । ऐसा प्रतीत होता है कि देश  के तमाम नेता अपने को राज्यों तक संकुचित कर बाहरी लोगों का विरोध कर रहे हैं । लेकिन जरा स्थिर हो कर देखें तो पता लगेगा कि यह सच है । जिस राज्य में किन्हीं भी कारणों से बाहरी लोगों का आना-जाना अधिक होगा वहां अवांछित गतिविधियां भी ज्यादा होंगी, विशेषकर  महानगरों में । स्थानीय व्यक्ति की जड़ें वहां होती हैं ।              


                        मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो उसका लगाव अपने क्षेत्र से होता है जो उसे जिम्मेदारी के भाव से भी भरता है । ये बातें उसके आचरण को नियंत्रित करती हैं । लेकिन बाहरी आदमी इस तरह के सभी दबावों से पूर्णतः मुक्त होता है । वह पहचानहीनता के कवच में अच्छा-बुरा कुछ भी कर सकता है । दूसरे शहर  में वह सड़क पर घूम कर शनि-महाराज के नाम पर भीख मांग सकता है , जूता पालिश  कर सकता है या फेरी लगा कर गुब्बारे बेच सकता है , उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा । लेकिन यही सब वह अपने क्षेत्र में नहीं करेगा क्योंकि पहचाने जाने का दबाव उसे रोकेगा । कालगर्ल अक्सर पकड़ी जाती हैं , पता चलता है कि वे स्थानीय नहीं दूसरे शहर  की हैं । विदेशों में हमारे बहुत से सम्माननीय बेबी-सिटिंग का काम ख़ुशी ख़ुशी  कर लेते हैं । कोई सफाई का काम बेहिचक करता है तो कोई ऐसे काम बड़े आराम से कर लेता है जो दूसरे नहीं करते । बाहरी आदमी एक प्रकार से मुक्त आदमी होता है । घर में हर आदमी हाथ पोछने  के लिए टावेल और जूता पोंछने के लिए रद्दी कपड़े का उपयोग करता है । लेकिन वही जब होटल में होता है तो इन्हीं कामों के लिए खिड़की के परदों और बिस्तर पर लगी कीमती चादर को बेहिचक इस्तेमाल कर लेता है । न ये सामान उसका है , न उसे इनसे लगाव है और सबसे बड़ी बात, होटल में वह एक बाहरी आदमी है ।

                            इसका मतलब यह कतई नहीं कि बाहरी आदमी हमेशा अपराधी ही होते हैं । किसी भी राज्य के विकास में बाहरी लोगों की भूमिका स्थानीय लोगों से कम नहीं होती । देश  में देखें तो महाराष्ट्र्, पंजाब, बंगाल आदि है , विदेशों में अमेरिका, दुबई इसके उदाहरण हैं जहां बाहरी लोगों ने अमूल्य योगदान दिया है । प्रायः हर जगह मजदूरी जैसे कठिन और जोखिम भरे काम बाहरी लोगों द्वारा ही किए जाते हैं । महानगरों में संभावनाएं होती हैं इसलिए परिश्रमी और महत्वाकांक्षी लोग वहां अधिक पहुंचते हैं । लेकिन कुछ लोगों के गलत कामों के कारण उनके योगदान पर पानी फिर जाता है ।
स्थानीय स्तर पर जब कोई अपराध करता है तो बचने-झुपने के लिए वह भीड़ वाले स्थानों की ओर ही जाता है । नगरों की भीड़ छुपने की सबसे सुरक्षित जगह होती है । प्रायः अपराधी छोटी जगहों से नगर और फिर महानगरों की ओर गति करते हैं । अपराध की पूंजी ले कर आने वाले मुक्त व्यक्ति कब क्या करेंगे कुछ कहा नहीं जा सकता है, अच्छा तो शायद  नहीं ही करेंगे । इसलिए जब यह कहा जाता है कि बाहरी लोगों के कारण अपराध हो रहे हैं तो उसे सिरे से नकारा नहीं जाना चाहिए ।
                        यदि सुरक्षा हो तो  हमारा आचरण उसे चुनौती देने का नहीं होना चाहिए । सुरक्षा के कारण ही महानगरों में खुलापन अधिक होता है । एक लड़की दिल्ली में जिस तरह के परिधान इस्तेमाल करती है वैसे छोटी जगह पर नहीं करती है । क्योंकि वहां के लोगों की मानसिकता सुरक्षा में कमी के कारण वैसी निश्चिन्त  नहीं है । जहां संवैधानिक सुरक्षा का इंतजाम पुख्ता नहीं होता वहां परंपराएं प्रबल होती हैं और उनसे सुरक्षा प्राप्त की जाती है । डकैत शादी -ब्याह में होने वाले तामझाम से अपना शिकार  तय करते हैं इसलिए छोटी जगहों पर सामान्य लोग सुरक्षा के लिए दिखावा करने से बचते हैं । महानगरों में दिखावे की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है । मौकों पर घन का प्रदर्शन  हो या अंग का, कोई पीछे नहीं रहना चाहता है । कहना नहीं होगा कि इसका प्रभाव अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोगों पर पड़ता है । स्थानीय लोगों के बीच सिक्का जमता है, वहीं बाहरी आदमी को एक शिकार  नजर आ जाता है । यदि तन या धन का फूहड़ प्रदर्शन  होगा तो सुरक्षा बढ़ा लेने के बावजूद जोखिम कम नहीं होंगे ।