Saturday, March 14, 2015

ठहराव के खिलाफ जिंदगी

                      

आलेख 
जवाहर चौधरी 

  आज की भागती जिन्दगी ने हर तरह के ठहराव को नकार दिया लगता है। परिवार को ही लीजिए, इस समय लाखों की संख्या में तलाक के प्रकरण कोर्ट में लंबित हैं और प्रतिदिन सैकड़ों नए प्रकरणों की भूमिका तैयार हो रही है। मुंबई, दिल्ली या बैंगलोर के आंकडे सुर्खियों में दिखाई दे जाते हैं लेकिन छोटी जगहों में भी पारिवारिक तनाव हर चौथे घर में जगह बना चुका दीखता है। जहां तलाक का सब्र और समझ नहीं हैं वहां आत्महत्या और हत्या तक हो रही हैं। हाल ही में दिल्ली के एक इंजीनियर पर पत्नी को क्रिकेट के बैट से पीट कर मार डालने की खबर चौंका रही है। छोटे शहर में भी पारिवारिक तनाव/विवाद के चलते आत्महत्या की खबरें प्रायः छपती रहती हैं। यह अच्छा है कि स्त्रियों में शिक्षा, सामर्थ्य  और चेतना बढ़ी है, इसके साथ ही उनकी अपेक्षाएं और साहस भी बढ़ा है। इस विषय पर कारण आदि पर जाने से विस्तार अलग हो जाएगा। दरअसल इस पृष्ठभूमि पर मुझे एक बहुत पुरानी घटना याद आ रही है।
                लगभग पैंतालीस साल पहले का वाकया है, हमारे एक साथी रामेन की शादी होना तय हुआ। उन दिनों लड़की देखने या लड़के से पूछने का रिवाज नहीं था। बड़े अपने हिसाब से देखभाल कर सब तय कर लिया करते थे। लड़कों की हिम्मत नहीं कि कोई सवाल कर लें। खेती करने वाले परंपरावादी कृषक संयुक्त परिवार, और हर घर में सामंती रवैया। ऐसे में रामेन को पता चला कि जिस लड़की से उसका विवाह होने जा रहा है वह सांवली और लंगड़ी है। उस जमाने में इधर लड़कियों के पढ़ेलिखे होने का तो सवाल ही नहीं था। खुद रामेन किसी तरह दसवीं कक्षा तक पहुंचा था। रामेन की हिम्मत नहीं कि अपने पिता से या अपने घर में किसी से इस विषय में कुछ कह पाए। मैं दूसरे परिवार का, चौधरी पुत्र। हमारा बीज यानी सीड्स का व्यापार भी था। रामेन के पिता प्रायः हमारे प्रतिष्ठान पर बैठते थे सो मेरा उनसे राफ्ता था। रामेन मुझसे सालेक भर छोटा है। इस दृष्टि से मैं भी उसके पिता का सामना करने का अधिकार तो नहीं ही रखता था। लेकिन बात जब कहीं बन नहीं पा रही हो तो साहस किया। कहा कि रामेन लंगडी लड़की से विवाह नहीं करना चाहता है। सुन कर वे गंभीर हो गए। बोले- अगर लड़की विवाह के बाद लंगड़ी होती तो क्या हम या रामेन उसे निकाल देते ? मैंने कहा वो बात अलग होती। लेकिन अभी तो ......। 
                        वे बोले -‘‘ अगर कहीं रामेन लंगडा होता तो क्या उसका विवाह नहीं हो पाता ? कोई न कोई लड़की तो उसे पति बनाती ही ना ?
                         इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाया मैं। उन्होंने साफ किया कि - ‘‘ शादी -ब्याह दो परिवारों का संबंध है, बच्चे उसमें निमित्त मात्र होते हैं। रिश्तेदारी  में खानदान देखा जाता है। लड़की लंगडी सही पर उसके बच्चे अच्छे होंगे। परिवार को और क्या चाहिए। ...... और अब हमने जुबान दे दी है। बात अटल है और उससे पीछे हटना कतई संभव नहीं है। ’’
                         रामेन की नहीं चली। हम विवाह में शामिल हुए। उस जमाने में वैसे भी पत्नी को ले कर घूमने का रिवाज नहीं था। विवाह होते ही सारी समस्याएं भी समाप्त हुई मान ली गईं। जीवन की चक्की प्रेम से चल पड़ी। एक पैर का दोष  कहीं बाधा नहीं बना और वे जीवन का पहाड़ लांध गए। 
                       हाल ही में रामेन के बेटे के विवाह का निमंत्रण मिला तो गुजरा हुआ सामने आ गया। लड़की ठीक है लेकिन गरीब घर की है। रोमन बोला- ‘‘ अंग की पूरी है और यही हमारे लिए बड़ी बात है। बच्चे खुश  रहें और क्या चाहिए। लगा उसने पैतालीस साल पुरानी कमी को आज सुधार लिया है। लेकिन तलाक कोई विचार न पहले कहीं था और पक्के तौर पर आगे भी नहीं होगा। पारिवारिक गरिमा की वैसी मिसाल शायद अब तो पिछड़ापन ही माना जाएगा। 
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Monday, September 8, 2014

आईने में भ्रम

                            

आलेख 
जवाहर चौधरी 


यों तो बुढ़ापा काफी समय से मुझे आंखें दिखा रहा था लेकिन मैं  खिजाब की ढ़ाल बना कर ढीठ बना रहा । मैं किसी तरह मानने को तैयार ही नहीं कि रवायत के तौर पर ही सही, उसे आना है और वह आएगा ही। आखिर एक दिन मैं  ‘अभी तो मैं जवान हूं’ सोचते हुए, अनचाहे रिटायर हो गया  और सिर कटे घड़ की तरह घर लौट रहा था।  बुढ़ापा मेरे आगे आगे, बिना इजाजत, पूरी बदतमीजी से मुझे  ठेलते हुए घर में मुझसे पहले घुस आया और पूरे कमीनेपन से बोला, -‘‘अब कहां जाओगे बच्चू, अब इस जहां में मैं हूं और तुम हो, ध्यान रखो तुम्हें मेरे साथ ही बचा समय गुजारना होगा !’’ 
                    अपने बुढ़ापे को मैं  किसी भी सूरत में और किसी भी कीमत पर नहीं देखना चाहता था । जोर का गुस्सा आया मुझे , इच्छा हुई कि उठा कर पटक मारूं  बुढ़ापे को। इतनी ताकत तो छोड़ी है नौकरी कराने वालों ने मुझ में। अभी तमतमा कर सोच ही रहा  था कि वह फिर बोला- ‘‘ गुस्सा मत करना प्यारे, ब्लडप्रेशर एक्सप्रेस ट्रेन  सा छूट जाएगा। लोग कहेंगे कि कमजोर था रिटायरमेंट बरदश्त  नहीं हुआ। .... तीन दिन बाद दुनिया सबको भूल जाती है।’’
               ‘‘आखिर चाहते क्या हो तुम !?’’ मैनें  हथियार डाले।
                ‘‘ यही कि मैं तुम्हारा बुढ़ापा हूं मुझसे डरो मत। मेरा आदर करो, थोड़ी समझ से काम लो तो मुझ पर गर्व भी कर सकते हो। तुम खुद जिन्दगी भर इस चिंता में रहे हो कि बुढ़ापा बिगड़े नहीं। आज जब मैं सामने हूं तो नजरें चुरा रहे हो ! सोचो अगर मैं बिगड़ गया तो क्या तुम मुझसे जीत जाओगे ?’’ वह बोला।
               ‘‘ तो तुम्हीं बताओ अब मैं क्या करूं ? टिप्स दो कुछ ।’’ मैं  शांत हुआ ।
                  ‘‘ सबसे पहले आंखें बंद रखना सीखो। दुनिया को कम से कम देखो। अपने भीतर झांको, जो कि आज तक तुमने नहीं किया है। सुखी रहना है तो भीतर देखो, मन की आंखें खोलो। ’’ पहला लेसन मिला।
                 लेकिन मैं  नहीं माना , बोला -‘‘ ये कैसे हो सकता है महाराज !! जीवन भर का अनुभव है मेरे पास। ज्ञान बांटना अब मेरा विशेषाधिकार है। लोगों को सिखाने के लिए मैंने तो कमर कस रखी है।’’
                  ‘‘ तुम ज्ञानी हो इस बात का प्रमाण क्या है ?’’ उसने पूछा।
                   ‘‘ रिटायर आदमी को प्रमाण की अलग से क्या जरूरत है !? ’’ 
                   ‘‘ तुम आईना देखते होगे, .... क्या दिखता है तुम्हें ? एक बूढ़ा आदमी ?’’
                   ‘‘ मैं क्यों बूढ़ा दिखूं ... मैं नहीं हूं बूढ़-उढ़ा ।’’
                  ‘‘ जब कोई बूढ़ा आईना देखे और उसे बूढ़ा ही दिखाई दे तो समझो कि वो ज्ञानी है। वरना वह भ्रमित है। भ्रम और ज्ञान दोनों एक साथ कैसे रह सकते हैं श्रीमान ? दूसरों को भी भ्रमित करने का काम मत करो।’’
                    बात समझ में आई। और भी गूढ बातें जानना चाहता हूँ  इसलिए बैठे बैठे बातें करते रहता  हूँ । .... लोग समझ रहे हैं … शायद पागल । 
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Wednesday, April 30, 2014

दुःख का जनक विकास !



आलेख 
जवाहर चौधरी 


लगता है तकनीकी विकास और तेज रफ्तार जिन्दगी ने समाज को दो भागों में बांट दिया है। एक वे हैं जो भौंचक से पचास पार की उम्र जी रहे हैं और दूसरी है हमारी नई पीढ़ी, जिसके मूल्य और आदर्श अभी भी किसी परिभाषा की प्रतीक्षा में हैं। वे धरती पर आ गए हैं और एक मुक्त उपभोक्ता की तरह मौजूद हैं। उन्हें किसी तरह की बंदिश सहन नहीं है, न घर-परिवार की, न परंपराओं की और न ही नैतिकता-वैतिकता की। चमत्कारों से भरे संसार में उन्हें जन्म मिला है तो वे किसी की परवाह किए बगैर भरपूर जी लेना चाहते हैं। बाजार उन्हें बताता है कि ‘असली जिन्दगी’ क्या करने में है। उनके पास क्या होना चाहिए, पचास हजार का स्मार्ट फोन और लाख रुपए की बाइक तो बनती है। उन्हें क्या पीना और खाना जरूरी है, नाइट क्लबों, होटलों, जुआघरों, रेव पार्टियों आदि में असली मजा मिलता है। इस सब के लिए पैसा चाहिए तो मां-बाप एटीएम की तरह मौजूद हैं। उन्हें पता है कि मां की नाक दबाने से बाप का मुंह खुलता है, या इसका उल्टा भी। शुरू में संतान-प्रेम के कारण उनकी जेबें खुलती है और बाद में अनेक दबाव यह काम करवाते हैं। बच्चे चाहते हैं कि पैसा देते वक्त मां-बाप उनसे कोई कारण न पूछें। वे मान कर चलते हैं कि जो भी कमा कर रखा गया है वह सिर्फ उनके लिए है। जैसे बैंक नहीं पूछती कि आप पैसा ले जा कर क्या करोगे वैसे ही घर के लोगों को भी नहीं पूछना चाहिए। इधर पैसा पैसा जोड़ कर जो इकट्ठा किया था वह फिजूल खर्च होता देख आखिर बुजुर्गों की हिम्मत जवाब देने लगती है। हारते हुए आखिर एक दिन वे उस डर की परवाह भी छोड़ देते कि ‘बेटा कुछ ऐसा-वैसा न कर ले’ और हाथ उंचे कर देते हैं। ऐसी स्थिति में खबरें अलग ढंग से सामने आती हैं। किसी भी बड़े अखबार में देख लीजिए, प्रतिदिन दस से बारह जाहिर सूचना के विज्ञापन मिलेंगे जिसमें माता-पिता अपने बेटे-बहु को अपनी संपत्ती से बेदखल कर रहे हैं। कारण भी साफ लिखा है कि उनका चाल चलन ठीक नहीं हैं। वे कहना नहीं सुनते हैं और उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं। यह भी कि उनसे किये गये किसी भी व्यवहार, विशेषकर आर्थिक, के लिए वे उत्तरदायी नहीं होंगे। जहां एक से अधिक पुत्र हैं वहां संपत्ती के बटवारे को ले कर खूनी संधर्ष भी हो जाते हैं। कुछ घटनाएं ऐसी हुई हैं कि बंटवारे में हुए किसी पक्षपात को लेकर पुत्रों ने पिता को पीट पीट कर बैकुण्ठ भी पहुंचाया है। मां-बाप को घर से बाहर कर देने की खबरें अब चौंकाती नहीं हैं। वो तो सचमुच ही सपूत हैं जो अपने बूढ़ों को ‘आदर पूर्वक’ वृद्धाश्रम में छोड़ देते हैं। सोचने में आता है कि सभ्यता के किस मुकाम पर पहुंच गए हैं हम ! घर में एक या दो बच्चों का चलन इसलिए अपनाया गया कि उनको काबिल बनाया जा सके। यह देखना होगा कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में और हमारी शिक्षा पदृति में कौन सी कमियां है जहां निर्माण की बुनियाद विखण्डन पर रखी जा रही है। यदि बाजार बुद्धि भ्रष्ट कर रहा है तो उसे रोकना होगा। तकनीकी विकास यदि संबंधों रौंद रहा है तो उस पर नियंत्रण जरूरी है। यदि यह विकास है तो इसे दुःख का जनक क्यों होना चाहिए ! ----

Wednesday, March 19, 2014

आखिर कौन है कार्यकर्ता !

             
 
आलेख 
जवाहर चौधरी 


 कहते हैं श्वान एक वफादार प्राणी है तो इस वाक्य में श्वान  के प्रति वफा से पैदा हुई वो इज्जत होती है जो अब शायद सब इंसानों या यों ही कहें कि राजनीति क्षेत्र के लोगों को नसीब नहीं है। सफाई में हमें यह भी सुनने को मिल सकता हैं कि "कुछ  तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।" चाहे राजनीतिक ही क्यों न हो, विचारधारा एक संस्कार की तरह होती है, जो हवा के झोंकों के साथ बदलती नहीं रह सकती है, चाहे सही हो या गलत। संसार में पूर्ण सही या पूर्ण गलत को लेकर विद्वान माथाफोड़ी करते रहे हैं किन्तु नतीजा शून्य ही रहता आया है। ऐसे कई हैं जो स्वयं को दल के प्रति निष्ठावान घोषित करते चले आ रहे थे, अचानक उस ओर चल देते हैं जिसकी घोर निंदा करते रहे हैं। किस लिए भई !! आज ऐसा क्या हो गया आखिर कि विचारधारा ही बदल गई ! उस पर ताज्जुब यह कि वे अपने कार्यकर्ताओं के साथ दल बदलते हैं ! ये कार्यकर्ता कौन होते हैं ? क्या वे रोबोट की तरह होते हैं ? उनमें बुद्धि नहीं होती ! या फिर वे खरीदे गुलाम होते हैं ! वे सोचते विचारते नहीं हैं क्या ? दल से संबंधित संस्कार या विचारधारा का उनसे कोई नाता नहीं होता है!? कहने को ग्रासरूट पर कार्यकर्ता ही काम करता है, तो सवाल ये है कि वो स्वैच्छा से करता है या दल का दैनिक भुगतान वाला मजदूर है ? वो अपने नेता का बंधुवा मजदूर है ? यदि है तो उसमें और जमींदार के मजदूरों में कोई फर्क है ? मालिक ने निष्ठा बदली और सारा अमला दूसरी तरफ काम करने लगा !! लोकतंत्र के यज्ञ में कार्यकर्ता सबसे अहम इकाई है, तो वह कहीं भी हांकी जाने वाली भेड़ों की रेहड से अलग क्यों नहीं है, अगर नेता के प्रति कार्यकर्ता का निष्ठावान होना जरूरी है तो नेता के लिए निष्ठागत स्वतंत्रता क्यों ?  दलबदल के इस मौसम में मूर्ख बन रहा कार्यकर्ता जान रहा है कि उसका आका किसी सौदे के तहत बिक रहा है ! अगर उसका कोई ईमान नहीं है तो कार्यकर्ता उसके प्रति क्यों ईमानदार रहे ! अवसर छोटे ही सही, छोटों के पास भी आते हैं। बड़ा बड़े प्रस्ताव पर बिकता है तो छोटा छोटे प्रस्ताव पर क्यों नहीं बिके ! बड़ा अपनी बेईमानी को राजनीति कहता है तो छोटे के लिए यह अलग कैसे ? सच्चाई यह है कि कार्यकर्ता दो तरह का होता है। एक. जो अपने लिए राजनीति में जगह तलाश रहा हो। ऐसे लोग प्रायः संपन्न और प्रभावी प्रष्ठभूमि से आते हैं, इन्हें सत्ता की चाह होती है अपने धन की रक्षा और वृद्धि के लिए। दूसरे. वे होते हैं जो कटी पतंग की तरह होते हैं और उसके हो जाते हैं जो उनकी डोर पकड़ ले। एक मौका होता है भियाजी की नजरों में चढ़ने का। महीना.डेढ़ महीना भियाजी का काम कर लिया तो बाद में भिया थाने से छुडवाने, जमानत करवाने या पुलिस को फोन करने के काम आते रहेंगे। इन्हें मतलब नहीं कि भियाजी किस पत्तल में खा रहे हैं और किस में छेद करके उठे हैं। यह पूरी तरह से स्थानीय मामला है और पारस्परिक लेन.देन पर टिका हुआ है। तो सवाल वहीं का वहीं रह जाता है कि दलों के पास असली कार्यकर्ता कहां है ? यदि नहीं है तो क्यों नहीं है ? फिर दल  कैसा !? और किसका !?
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Tuesday, August 20, 2013

कैसी रक्षा .... कैसा बंधन


आलेख 
जवाहर चौधरी 


त्योहार अब तमाम आर्थिक-राजनीतिक अवसर बन कर सामने आते हैं। पैसे और टोपियों की परिक्रमा कर रहा हमारा समाज त्योहारों के सांस्कृतिक सरोकारों से दूर होता जा रहा  है। त्योहार के मौके पर छलक आए जन-उल्लास को बाज़ार अपनी सेल में समेट लेने के लिए गलाकाट प्रयास करता है। अब तो लोग भी त्योहारों के सांस्कृतिक-पारंपरिक स्वरूप को भूलते जा रहे हैं और बाजार द्वारा चढ़ाए रंग में अपने को रंगने लगे हैं। नई पीढ़ी खरीदारी से ही त्योहार मानाती दिखाई देती हैं। सात दिनों तक देश रक्षाबंधन का त्योहार मना रहा है, बहनें अपने भाइयों की कलाई पर प्रेम का रक्षा-सूत्र बांध कर भाई के लिए सक्षम व समर्थ बनने की मंगलकामना कर रही हैं। आतताईयों वाला एक दौर ऐसा भी गुजरा है जब समाज में सामान्य रूप से स्त्रियां सुरक्षित नहीं थीं, हालाँकि आज भी स्थितियां बहुत बेहतर नहीं है। वो सुरक्षा कारण ही थे कि मां-बाप अपनी बेटी को संयुक्त परिवार में ब्याहना चाहते थे जहां दामाद के साथ उसके कई भाई भी हों। इकलौते पुत्र वाले छोटे परिवार प्रायः उपेक्षित रहते रहे हैं। आज लोकतंत्र है और सुरक्षा का भार सरकार तथा पुलिस जैसी सरकारी एजेन्सियों के पास है। कहा जा सकता है कि कुछ हद तक कानून ने भाई की जिम्मेदारी ले ली है। जमाना बदल गया है, अब भैंस उसकी नहीं है जिसके पास लाठी है। लोकतंत्र हमें आश्वस्त करता है जंगल राज अब खत्म हो चुका है, अवशेष भले ही बाकी हों।
किन्तु प्रश्न यह बना रह जाता है कि क्या हमारी बहनों को व्यवस्था पूरी सुरक्षा दे पाई है!? बलात्कार की घटनाएं जिस तेजी से हो रही हैं वो आहत करने वाली है। मूल्यों का पतन इस हद तक हो गया है कि जिन पर बच्चियों की रक्षा का उत्तरदायित्व है वही अस्मत लूटने वाले साबित हो रहे हैं!! गैंग-रेप का समाचार हर दूसरे-तीसरे दिन की खबर बन रहा है! दिल्ली में गतवर्ष दामिनी के साथ घटित होने के बाद जनता ने तीव्र विरोध दर्ज कराया लेकिन कुछ हांसिल नहीं हुआ। खबर है कि अपराधों के चलते लड़कियां  दिल्ली में अपने को बहुत असुरक्षित समझ रही हैं, यहां तक कि कई ने नौकरी छोड़ कर अपने परिवार में लौट जाना बेहतर समझा। जिम्मेदार लोग भरोसा दे रहे हैं लेकिन कोई विश्वास नहीं कर पा रहा है। जिन्हें आदर्श होना चाहिए वो यौनशोषण के लिए सुर्खियों में दिखाई दे रहे हैं!! किसी के पास वो भरोसा नहीं है जो एक बहन को भाई से प्राप्त होता है। भरोसे की आस में नेता कभी मामा बनते हैं कभी भाई लेकिन मात्र औपचारिक हो कर रह जाते है, वाजिब असर नहीं होता है। बहन के लिए भाई का स्थान बहुत अहम् होता है, उसकी जगह कोई नहीं ले सकता है। और इसीलिए आज भी रक्षाबंधन का यह त्योहार अपना वास्तविक महत्व कायम रखे हुए है।
रक्षाबंधन के दिन ऐसी तमाम बहनें हैं जिनके भाई नहीं हैं, यानी जो माँ-बाप  की भाईविहीन संतानें हैं। कुछ ऐसी भी हैं जिनके भाई अब दुनिया में नहीं हैं। इनके लिए यह त्योहार दुःख और पीड़ा के साथ आता है। जिस समाज में भाई एक सहारा ही नहीं सुरक्षा देने वाला भी माना जाता हो वहां यह बहनें अपने को कितना अकेला और भीगा हुआ महसूस करती हैं, इसे समझना बहुत कठिन है। इसके विपरीत ऐसे भाई भी हैं जिनकी बहनें नहीं हैं या जो अब संसार से चली गई हैं, वे भी इस त्योहार को अंदर से पसीजते हुए देखते हैं। जब हम अपनी कलाइयों पर रंगबिरंगे रक्षासूत्र देखें तो उन तमाम बहनों और भाइयों को भी याद करें जो आज उदास मन से टीवी या किताब खोले अपने को बहला रहे होंगे। 

Thursday, June 27, 2013

ईश्वर का विकल्प नहीं है



आलेख 
जवाहर चौधरी 

केदारनाथ में आए प्रलय और उसके बाद के घटनाक्रम ने हर संवेदनशील मन को विचलित कर दिया है। हम मानते हैं कि ईश्वर अपनी शरण में आए हुओं की रक्षा करता है। हमारी शिक्षा और संस्कार कहते हैं कि ‘‘डरो नहीं, क्योंकि तुम्हारे साथ ईश्वर है’’। ईश्वर कहता है मेरी शरण में आओ. किन्तु समाचार हैं कि अनेक लोग मंदिर के अंदर, ईश्वर की लगभग गोद में थे किन्तु उन्हें कोई बचा नहीं पाया!!
प्रलय जैसी घटनाओं से मनुष्य को जितनी हानि होती है शायद उससे कहीं अधिक हानि ईश्वर को होती है। एक घटना से सर्वशक्तिमान संदेह में आ जाता है और भक्त उसकी उपेक्षा करते दिखने लगते हैं। एक रात में ही भक्त ईश्वर के भय से अपने को मुक्त कर लेता है और उसके आंगन में, उसके ही धन को ले उड़ता है!! मंदिर की दानपेटियां मौका मिलते ही तोड़ी और लूटी जा चुकी हैं! आस्था रखने वाला समाज जिन्हें साधु-संयासी कहता बिछा-बिछा रहता है, आज वह देख रहा है कि उनके झोले से लूट के लाखों रुपए और आभूषण निकल रहे हैं!! मौके का पाशविक लाभ लेते हुए तमाम लोग लाशों से चांदी-सोने के आभूषण लूटने में लगे रहे!! केदारनाथ मंदिर के पास स्थित बैंक से सारा पैसा लूट लिया गया! पता चला है कि बैंक में पांच करोड़ से अधिक रुपए थे।
प्रश्न यह उठता है कि एक तीर्थ-स्थल यानी धर्मक्षेत्र में अचानक यह पाशविकता कैसे पनप गई ! माना जाता है कि वहां तो पशु-पक्षी भी आस्थावान होते हैं। स्थानीय लोग भी सेवादार होते हैं! कहते हैं कि अनेक हताश, निराश, असफल, कुकर्मी, अपराधी किस्म के लम्पट धर्म की ओट ले कर अपना अज्ञातवास काट रहे होते हैं। उनमें ईश्वर के प्रति न भक्ति होती है न आस्था। आम दिनों में निडर वे ठगी आदि करते हैं और मौका मिलते ही लूटपाट करने से नहीं चूकते हैं। इनकी पहचान कौन करेगा ? निश्चित ही ईश्वर तो नहीं। अगर ईश्वर कर सकता तो अपने भक्तों को मृत्यु नहीं देता जो मोक्ष की कामना से आसिस लेने आए थे। हाल ही में प्रयाग के कुम्भ मेले में लाखों साधु आए और भक्तों ने उनके दर्शन किए। सुनते हैं कि वे वहीं कहीं पहाड़ों में निवास करते हैं। माना जाता है कि चमत्कारी होते हैं, इनके पास शक्तियां-सिद्धियां होती हैं। भक्तों पर या धर्मावलंबियों पर संकट आता है तो वे मार्गदर्शन करते हैं। किन्तु दुःख है कि प्रलय के बाद कोई साधुदल या अखाड़ा बचाव कार्य में सहयोग करता दिखाई नहीं दिया! जो भी मदद मिली वो सेना के जवानों और सरकार से मिली। सेना ही थी जिससे लूटेरे डर रहे थे और उनके ही द्वारा पकड़े भी गए। यदि सेना के जवान नहीं होते तो लुटेरों की बन पड़ती और कोई आश्चर्य  नहीं कि लूट के लिए हत्याओं की खबरें भी आतीं ।
लेकिन जो लौटें हैं वे ईश्वर का ही आभार मान रहे हैं। पूजा-पाठ, कथा-भागवत सब निरंतर रहने वाली हैं। इसके अलावा शायद हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं है। रोटी की तरह ईश्वर भी हमारी जरूरत है। जब तक हम रहेंगे, चाहे कितने भी प्रलय आएं, चाहे जितनी भी पाशविकता हो, ईश्वर को मानते रहेंगे। एक व्यवस्था है जो सांसों की तरह चल रही है, और उसका चलाने वाला कौन है हम नहीं जानते हैं।


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Tuesday, June 25, 2013

हम अभिषप्त समूह

                           

आलेख 
जवाहर चौधरी 


इनदिनों दयानंद सरस्वती याद आ रहे हैं। जब वे बालक थे एक बार शिवाले में अन्य भक्तों के साथ बैठे आराधना कर रहे थे। देर रात उन्होंने देखा कि एक चूहा शिवलिंग पर चढ़-उतर रहा है और चढ़ाया प्रसाद खा रहा है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि भगवान अपने उपर उछलकूद कर रहे चूहे को हटा नहीं पा रहे हैं! यदि ऐसा है तो वे सर्वशक्तिमान कैसे हुए!! ऐसे भगवान अपने भक्तों की रक्षा कैसे कर पाएंगे जो स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर पा रहे हैं!! उस वक्त चैतन्य-बोधि बालक दयानंद के मन में मूर्तिपूजा और अन्य अनेक धार्मिक मान्यताओं व व्यवस्थाओं पर प्रश्न उठे। बाद में अनेक अवसर आए जब उनका शास्त्रार्थ पंड़ितों से हुआ किन्तु उनके संदेहों और प्रश्नों का समाधान नहीं हुआ अपितु पाखण्डी समाज ने उनसे बैर बांध लिया। जैसा कि हम जानते हैं कि आर्य समान के इन संस्थापक की राजस्थान दौरे के समय विष दे कर हत्या कर दी गई।
बहरहाल, उनके वे प्रश्न अभी अनुत्तरित ही हैं। समाज वैसे ही भेड़चाल से चलता आ रहा है। जैसा कि जनमानस की प्रवृत्ति है, निश्चित ही तीर्थयात्रा से पहले लोगों ने ज्योतिषी से अच्छा मुहूर्त निकलवाया है, यात्रापूर्व की पूजा की है, ग्रह-चैघडिया, शुभ-लाभ, दान-पुण्य आदि हर बात को साध कर घर से निकले थे । आज भी पंडितों-बाबाओं की चक्की के साथ घूम रहा हमारा समाज अंधआस्था की मोटी परत के नीचे कुछ भी सोचने-समझने की क्षमता खो कर दयनीय स्थिति में है। हजारों लोग इस आपदा में अपनी जान गंवा चुके हैं किन्तु अन्धविश्वास अक्षत है। धर्मसमर्थक इस पर दंभ कर सकते हैं, लेकिन यह चिंता का विषय होना चाहिए। जो किसी तरह बच आए हैं उनका भी लौट कर पूजा-पाठ, कथा-भागवत में व्यस्त दिखाई देना तय है।
हाल ही में प्रयाग कुंभ मेले से हिन्दू समाज लाखों साधु-संतों के दर्शन कर धन्य हुआ है। यह समाचार कितना दुखद है कि केदारनाथ और अन्य प्रभावित क्षेत्रों में साधुओं ने जम का लूटपाट की!! क्षेत्र से बाहर निकल भागने की जुगत में लगे साधुओं की तलाशी में करोड़ो रुपए नगद और सोने के जेवर बरामद किए जा रहे हैं!! केदारनाथ मंदिर की सारी दान पेटियां तोड़ी जा चुकी हैं जिनमें हजारों रुपए होने का अनुमान व्यक्त किया गया है! मंदिर के पास ही स्टेट बैंक की शाखा पूरी लूटी जा चुकी है जिसमें पांच करोड़ से अधिक नगद राशि थी!

प्रश्न यह है कि एक तरफ तो आस्थाएं इतनी गहरी हैं कि प्रलय से भी हिलती नहीं हैं और दूसरी तरफ कुछ लोग धर्म की नब्ज को इस तरह नापे हुए हैं कि बिना डरे भगवान की नाक के नीचे सब कुछ करते रहते हैं!! वही साधु लोग, सुना है कि लाखों की संख्या में हैं और वहीं पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हैं, वे इस आपदा में कहां थे !? जो सिंहस्थ और कुंभ मेलों में अपने लिंग से बड़े बड़े पत्थर खींचते दहाड़ते रहे हैं, क्या वे अपने हाथ-पैर के बल से श्रद्धालुओं को बचाने नहीं आ सकते थे!! आर्थिक दृष्टि से निष्क्रिय, और जिनका अस्तित्व श्रधालुओं की आस्था पर निर्भर है, वे इस समय मुंह छुपाए कैसे बैठे रहे !! सेना के जवान रातदिन जुटे नहीं होते तो लाखों लोगों की गत कीड़े मकोड़ों सी हो जाती। यदि प्रलय का ये पानी हमारी चेतना को भिगोता नहीं है तो मानना चाहिए कि हम अभिषप्त समूह हैं।

Thursday, June 6, 2013

तांत्रिक और उनका माउज़र !!!

         
आलेख 
जवाहर चौधरी  


एक दिन उन्होंने बताया कि उनका माउजर पिस्टल चोरी हो गया है. पिस्टल उनके बेडरूम में, बिस्तर पर तकिये के नीचे रखा रहता था. आश्चर्य हुआ कि घर में इतने अंदर तक कौन जा सकता है भला ! मुझे माउजर की कीमत नहीं मालूम थी, मंहगा होगा यह समझता था. कौन ले गया होगा ? उन्होंने पूछा . मुझे कुछ सुझा नहीं, कैसे सूझता, मैं हमेशा तो वहाँ बना नहीं रहता था. घर में किन-किन लोगों का आना-जाना है यह भी पता नहीं था. मैंने कहा -कहीं रख कर भूल तो नहीं गए हो ..... सब जगह ठीक से देख लिया या नहीं. उन्होंने बताया कि सब जगह देख लिया है. पिस्टल तकिये के नीचे से ही गायब हुआ है.
        वो मेरा परिवार जैसा ही है, समझिए अपना ही घर. बात पुरानी है, उनके घर में मेरा आना-जाना भी काफी था, तब मैं एक कालेज में नया-नया नौकरी पर लगा था, विवाह भी हो चुका था. यानी एक गरिमा और जिम्मेदारी की जद में था और ऐसा मान रहा था कि वे इसी हैसियत से मुझसे परामर्श कर रहे हैं.
       पिस्टल हर किसी के काम की तो है नहीं ! उन्होंने फिर कहा.
       पुलिस में रिपोर्ट डाल देना चाहिए. मैं बोला .
       उन्होंने सहमति जताई लेकिन तुरंत कुछ नहीं किया, कम से कम मेरे सामने तो नहीं.
       पिस्टल नहीं मिली, लंबा समय गुजर गया. इस बीच मैं उनसे मिलता रहा. वे अनमने और खिन्न रहते, कभी-कभी पिस्टल का जिक्र भी करता लेकिन उनकी उदासी और चिंता देख अधिक विस्तार में नहीं जाता.
              एक दिन पता चला कि पिस्टल मिल गई. पुलिस ने एक नामी बदमाश के पास से जब्त की. वे खुश थे. अब सवाल था ही कि उसके पास पिस्टल कैसे पहुंची!! लेकिन इस बात का उत्तर उन्होंने नहीं दिया. मैंने भी ज्यादा शोध नहीं किया, सोचा बड़े लोग, बड़ी बातें. होगा कुछ, अंत भला तो सब भला.
       चार-छ: महीने बाद एक दिन बोले, - पिस्टल चोरी के बाद हम एक तांत्रिक के पास गए थे. उसने क्रिया करने के बाद तमाम बातें बताई. ....... मैं यह सुन कर दंग रह गया कि तांत्रिक ने पिस्टल चोर का हुलिया मुझसे मिलता हुआ बताया. सबसे दुख:द बात यह थी कि इस बीच मेरे आने-जाने पर परिवार के लोगों द्वारा सावधानी पूर्वक निगाह रखी जाती रही. तांत्रिक के कहने पर उनका मुझ पर संदेह बना रहा. बाद में सच्चाई कुछ और निकली तो मुझ पर शंका की यह बात बता कर वे अपने अपराध बोघ से तो मुक्त हो गए. लेकिन चालीस वर्ष हो गए मैं आज भी माउज़र वाले अपनों से डरता हूँ.

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Friday, May 31, 2013

बारात का परिस्थितिशास्त्र


      
आलेख 
जवाहर चौधरी 

   जाति समूह में बंटे हम लोग बेहद परंपरावादी और लगभग अहंकारी दिखाई देते रहे हैं। कहने को शिक्षा बढ़ी है, स्त्रीशिक्षा के आंकड़े भी बुलंद हुए हैं, किन्तु जब रूढ़ियों और अर्थहीन परंपराओं की बात आती है तो शिक्षित भी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते दिखाई देते  हैं। पिछले दिनों उ.प्र. और म.प्र. की इन खबरों ने ध्यान आकर्षित किया जब दबंगों ने फरमान जारी किया कि दलितों के विवाह पर बारात घोड़े पर दुल्हे को बैठा कर नहीं निकली जायेगी । उस समय तनाव पैदा हो गया जब बारात निकाली गई । अप्रिय स्थिति को टालने के लिए पुलिस, प्रशासन और नेताओं को भारी प्रयास करने पड़े।
         इधर शहरों में घोड़ियां दबंगों की रिश्ते में कुछ नहीं लगती हैं किन्तु हाल बुरे हैं, और अक्सर लोग बारातों से त्रस्त होते दिखाई देते है। अक्सर लोग मानते हैं कि विवाह में बारात अनिवार्य है, जबकि ऐसा कतई नहीं हैं। हिन्दू विवाह सोलह संस्कारों में से एक महत्वपूर्ण संस्कार है और इसे संपन्न करने के लिए धार्मिक विधि-विधान हैं। सप्तपदी या अग्नि के सात फेरों का ही वास्तविक महत्व है। वर-वधु की विवाह योग्य आयु, उनका स्वस्थ्य और सहमति जरुरी है । उनके अभिभावकों की सहमति कन्यादानकी रस्म में नीहित है । सगे-संबंधी और इष्टमित्रों की उपस्थिति के पीछे भी सहमति-स्वीकृति और सूचना का भाव है। किन्तु विवाह में बारात का प्रावधान एक ऐच्छिक, दंभयुक्त, संवेदनहीन-आनंदमूलक और पारंपरिक आचरण है। दूल्हे को राजा के कार्टून जैसा बना कर गाजे-बाजे के साथ जुलूस के रूप में परदर्शित करना एक तरह से अहं की तुष्टि इसलिए है कि इसमें इस अवसर पर हर तरह की शक्ति के प्रदर्शन  का आग्रह विशेष  होता है। सूट-टाईवान दूल्हे के हाथ में तलवार तो होती ही है, बाराती भी बंदूक दागते चलते हैं। गोयाकि वरण करने नहीं हरण करने जा रहे हों। पिछले कुछ समय से बारात में नाचने को लेकर भी गजब का अनुराग दिखाई देने लगा है। नाचने को लेकर बारात में हत्या की अनेक घटनाएं हुई हैं। बीच सड़क में जब दोनों ओर ट्रेफिक जाम हो रहा है, परेशान लोग गालियां बुदबुदा रहे हैं, हार्न का शोर बैंड के शोर से प्रतिस्पर्धा करता कान फाड़ रहा है, पेट्रोल-डीजल और पटाखों का धुआं नाक में दम कर रहा है और बेखबर भाई लोग प्रेत-नृत्य के साथ मद-मस्त हैं! .... आज मेरे यार की शादी है ..... नजारों में एक तरफ जेवरों से लदी-फंदी खुली तिजोरियांचल रही हैं तो दूसरी ओर लाइट उठाए नंगे पैर, फटेहाल, भूखे बच्चे भी बारात का जरूरी हिस्सा हैं।
         बड़ी मुश्किल से कुछ दूर चले होंगे कि बारात के स्वागत की व्यवस्थाहै, आइस्क्रीम-नाश्ता आदि का अव्यवस्थित वितरण-भक्षण के बाद बारात आगे रेंग जाती हैं। पीछे सड़क पर कप-प्लेट बिछी पड़ी दिखाई देती हैं। मन तब अपराध बोध से भर उठता है जब तमाम भिखारी अधखाए कप-प्लेट उठा कर चाटने लगते हैं। हममें से अनेक इस फूहड़ता को देखते हैं, नाराजगी भी व्यक्त करते हैं किन्तु मौका आने पर इसका हिस्सा भी बनना पड़ता है। सड़क पर चलता वाहन खराबी के कारण जरा देर के लिए बीच सड़क पर रुकता है तो पीछे वाहनों की लंबी कतार लग जाती है, ऐसे में बारात हो और मेरे यार की शादी ....की धमक चल रही हो तो ट्रेफिक में फंसे लोग कितनी दुआ देते होगें समझा जा सकता है।
         किन्तु अच्छी बात ये है कि इस स्थिति को कुछ लोग महसूस कर रहे हैं और बारात की भीड़ का हिस्सा नहीं बन रहे हैं। आज लोगों के पास समय कीमती है और शरीर भी। महानगरों में तो बारात निकालने की मनाही है, बाराती उपलब्ध नहीं होते हैं सो परंपरा भी ढ़ीली हो गई है। फिर भी किसी को शेखी बघारना ही हो तो उसे बाराती किराए पर लेने पड़ते हैं।
         अब अनेक विवेकशील परिवार उक्त दिक्क्तों के चलते बारात नहीं निकाल रहे हैं। उनके इस निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए।
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Thursday, March 28, 2013

कौन है संप्रभु ?


आलेख 
जवाहर चौधरी 

संजय दत्त ने कहा है कि वे देश को प्रेम करते हैं, और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का सम्मान भी. वे जेल जाने और सजा काटने के लिए भी तैयार हैं! शायद देश को उनकी इस कृपा के लिए आभारी होना चाहिए. वे समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां सत्ता और सम्रद्धि से लोगों में इस तरह की अदा विकसित हो जाती है. वो अपने को न केवल अन्य लोगों से ऊपर मानते हैं बल्कि कानून और व्यवस्था को भी जेब में पड़ा पर्स मान लेने की गलतफहमी पल लेते हैं. बोलचाल कि भाषा में जिन्हें बिगडैल बच्चे कहा जाता है वैसा ही यहाँ भी दिखाई देता है. माता-पिता या बहन को हटा कर देखें तो संजय में अभिनेता होने के आलावा ऐसा कुछ नहीं है जिससे उन पर दया का औचित्य सिद्ध होता हो. बुरी संगत से बुरे पथ का निर्माण होता है. यह पूरी तरह चुनाव का विषय है. ऐसा नहीं होगा कि माता-पिता ने उन्हें कुपथ पर जाने से रोकने का प्रयास नहीं किया होगा. किन्तु संजय ने उनके मान-सम्मान, पद, प्रतिष्ठा सबको अनदेखा किया. न उन्हें अपना ख्याल रहा और न ही समाज का. वे जो करते रहे हैं, वैसा दूसरा कोई करे तो उसे दुनिया वाले लायक पुत्र कहेंगे इसमें संदेह है. उन्होंने कहा है कि वे माफ़ी नहीं मांगेगे! सच ही कहा, उन्होंने अपने किये की माफ़ी शायद कभी भी नहीं मांगी होगी. माँ-बाप को सारी नहीं कहा होगा. कहा भी होगा तो दिल से नहीं. माफ़ी मांगना उनकी आदत में नहीं है.
लेकिन एक बात यहाँ समाज के लिए भी सोचने की भी है. संजय अपराधियों के संपर्क में आये, उनके हाथों का खिलौना बने तो क्यों !? अपराधी समाज में सक्रीय रहते आये हैं तो दोषी कौन है? सरकार कहाँ गई? और राज किसका है? कौन है संप्रभु?  गुंडे हप्ता वसूलते है, फिरौतियां लेते है, हत्याएं करते हैं, उद्योगपतियों, अभिनेताओ आदि से बड़ी रकमें मांगते हैं, और दबाव में लोगो को देना पडती है. ऐसे में असफल कौन होता रहा है? यह कानून और सरकार की नाकामयाबी है कि उसके रहते जंगल-राज पनप गया!! आज लोग गवाही देने से कतराते हैं क्योकि वे जानते हैं कि व्यवस्था इतनी ढीली है कि गवाही देने के बाद वे सुरक्षित नहीं रह पाएंगे. संजय का व्यक्तित्व ऐसा नहीं है कि वे किसी की कठपुतली बनते. लेकिन व्यवस्था से पनपी असुरक्षा ने उन्हें अपराधियों के हाथ खिलौना बनाया. सरकार का प्राथमिक कार्य है कि वो अपने नागरिकों को असामाजिक तत्वों से सुरक्षा प्रदान करे. अगर लोगों में धारणा है कि अपराधी पुलिस से मिले हैं और क़ानूनी सुराखों से वे प्रायः बाइज्जत बरी होते रहते हैं तो आसली दोषी कौन है? माफ़ी किसे मंगनी चाहिए? और किसे माफ़ किया जाना चाहिए?


Thursday, October 11, 2012

* कमजोर दंड व्यवस्था !




आलेख 
जवाहर चौधरी 



मृत्युदंड को लेकर प्रायः बहसें होती रहती हैं और इस विचार को स्थापित करने के लिए तमाम तर्क दिये जाते  हैं कि मृत्युदंड का प्रावधान सही नहीं है । यहां लगता है कुछ तथ्यों की अनदेखी की जाती है । सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की सर्वोच्च प्राथमिकता यह होती है कि समाज में नियंत्रण बना रहे । कोई व्यक्ति, चाहे वह देश  का हो या दूसरे देश  से आया हो, यदि समाज व्यवस्था अथवा नियंत्रण को क्षति पहुंचाता है तो उसे दंडित किया जाना आवश्यक  है, क्योंकि - 1. यह नियमों का उलंघन है, गैरकानूनी कृत्य है । 2. चूंकि नियम उलंघन के साथ दंड का प्रावधान है  । 3. भविष्य में व्यवस्था और नियंत्रण को प्रभावी रखने के लिए जरूरी है । 4. राज्य की विश्वसनियता, संप्रभुता और न्याय के लिए दंड का निष्पक्ष रूप से प्रयोग किया जाना आवश्यक  है । 
जिस तरह राज्य अपने नागरिकों से कुछ आचरणों की अपेक्षा करता है उसी तरह नागरिक भी राज्य के     व्यवहार और दृष्टिकोण का आकलन और अपेक्षा करते हैं । जब जब भी राज्य कमजोर होने लगता है तब तब व्यक्ति अनियंत्रित होता है । दंड की व्यवस्था खुद राज्य के अस्तित्व के लिए आवश्यक  है । मृत्युदंड मामूली बातों पर नहीं दिया जाता है और न ही यह सड़क किनारे की दंड व्यवस्था है । बहुत विचारपूर्वक और अब तो लगभग संपूर्ण शोध  के बाद मृत्युदंड की पुष्टि होती है । नागरिक यदि यह पाते हैं कि वे जिस व्यवस्था में रह रहे हैं उसमें जघन्य अपराधियों के प्रति उदार या ‘मानवाधिकारवादी’ रुख अपनाया जा रहा है तो वे उस व्यवस्था के प्रति स्वाभाविक रूप से उपेक्षा का भाव रखेंगे । अक्सर अपराधी कहते पाए जाते हैं कि पहली हत्या की सजा फांसी है लेकिन दूसरी-तीसरी हत्या के लिए वही एक फांसी है । तो फिर इसमें अब सोचने या डरने की जरूरत ही क्या है ! पहली हत्या के लिए उसे डर लगा होगा, उसने सोचा भी होगा, लेकिन दूसरी-तीसरी हत्या के मामले में उसे डर नहीं है । मृत्युदंड का प्रावधान यदि नहीं हुआ तो पहली हत्या के समय ही उसे यह डर नहीं रहेगा । राज्य का डर खत्म होते ही समाज अराजकता की राह पर तेजी से बढ़ने लगेगा । 
कई बार यह कहा जाता है कि राज्य जीवन दे नहीं सकता तो उसे जीवन लेने का अधिकार भी नहीं है ! किन्तु ऐसा सोचना राज्य के साथ अन्याय है । राज्य अपने नागरिकों की रक्षा करते हुए उन्हें जीवन ही प्रदान  करता है । आज तो राज्य के कार्य असीम हो गए हैं । रोजगार, शिक्षा , स्वास्थ्य, बीमा, पेंशन , सहायता, सुरक्षा, विकास आदि सब का संबंध जीवन रक्षा से ही तो है । यदि सीमारक्षा के लिए शत्रु  का नाश  उचित है तो आंतरिक व्यवस्था की रक्षा के लिए नियमानुसार सभी प्रकार के दंड उचित हैं । भारत जैसे देश  में जहां जनसंख्या 120 करोड़ से अधिक है और जो धर्म, भाषा, जाति, प्रदेश  और अन्य छोटी-बड़ी भिन्नताओं से युक्त है, व्यवस्था और नियंत्रण का प्रश्न  और भी जटिल है । अमेरिका, ब्रिटेन या किसी और देश  के उदाहरणों से हम अपनी व्यवस्था को परिभाषित करना चाहेंगे तो यह बड़ी चूक होगी । देश  आज संसद पर हमला करने वालों और मुम्बई हमले के अपराधियों को सजा नहीं दे पा रहा है तो नागरिक मान रहे हैं कि केन्द्र सरकार कमजोर है । यही कारण है कि बार बार खबर छपती है कि आतंकी नए हमले का प्रयास कर रहे हैं । कमजोर दंड व्यवस्था अपराधियों के हौसले बढ़ाती है । 
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