आलेख
जवाहर चौधरी
कई बार ऐसा होता है जब हम नए सिरे से जिंदगी शुरू करना चाहते हैं . जैसे बालू रेत में अपना संसार रचते बच्चे , जब मन का नहीं होता तो, सारा रचा मिटा देते हैं और नये सिरे से काम शुरू करते हैं . लेखन में तो अक्सर ऐसा होता है , अपने लिखे को जब नए सिरे से लिखा जाता है तो वह सचमुच नया हो जाता है , पहले से भिन्न और बेहतर . बेहतर कि चाह ही पिछले को ख़ारिज करने का साहस देती है. जीवन में भी ऐसे मौके आते हैं जब यह इच्छा तीव्र हो जाती है कि पिछला विलोपित हो जाये . संसार में कोई चीज स्थाई नहीं है , इसलिए बुरे वक्त को भी बीतना ही पड़ता है . लेकिन कभी कभी वह भूकंप कि तरह आ कर बीतता है और अपने हस्ताक्षर छोड़ जाता है . तब मन होता है कि सब कुछ नए सिरे से शुरू किया जाए .
कहने , सोचने में यह सहज लगता है लेकिन जीवन में नया सिरा ढूंढ़ लेना कठिन है . हमारे जीवन काल में ऐसा कोई समय नहीं होता है जिसे काट कर अलग किया जा सके . समय अपनी सुक्रतियों - विकृतियों के साथ हमारे बीच हमेशा मौजूद रहता है . इसमें से मीठा - मीठा और अच्छा - अच्छा चुन लेने कि स्वतंत्रता हमें नहीं है . आप बदलाव के लिए नौकरी छोड़ सकते हैं , घर बदल सकते हैं , अपने शौक बदलते हैं , संवाद बदलते हैं लेकिन फिर भी जीवन का नया सिरा नहीं मिलता . हर बदलाव में बीता समय अनचाहे प्रवेश कर लेता है . लगता है हमारा अस्तित्व कुछ और नहीं बीते हुए समय का पुंज है , अतीत कि गठरी मात्र !! और इस गठरी से मुक्ति का नाम म्रत्यु है . एक शरीर में हम दो बार जन्म क्यों नहीं ले सकते हैं ?

विस्मरण या भूलने को एक ईश्वरीय वरदान कहा जाता है . किन्तु भूलने कि प्रक्रिया क्या है ? किसी को कैसे भूला जा सकता है ! होता विपरीत है , जिसे हम भूलना चाहते हैं वह ज्यादा याद रहता है . तमाम फोटो और अल्बम अलमारी में बंद करके रख दीजिये और मान लीजिये कि स्मृतियाँ कैद हो गईं , लेकिन क्या सच में ? उसका उपयोग किया सामान , किताबें , कपड़े , जब आँखों के सामने पड़ते हैं तो जीवित प्राणियों कि तरह उदास और अकेले दिखाई देते हैं. रेडिओ पर उसकी पसंद का गीत बजता है या रसोई से रोटी की महक उठती है तो दीवारें उसका नाम बोलने लगती हैं . जो है वही नहीं छुट रहा , .... कैसे मिलेगा नया सिरा ! .... जीवन में शायद एक ही सिरा होता है ..... और हम उसी पर चल रहे होते हैं .












राज्यों में बाहरी लोगों का मुद्दा बार बार उठता रहा है । महाराष्ट्र् में शिवसेना ने तो कई बार इस प्रसंग पर अप्रिय स्थितियां पैदा की हैं । दिल्ली में एक बार मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने गंदगी फैलाने और अव्यवस्थ के लिए बाहरी लागों को कारण बता कर विवाद मोल लिया था । पंजाब में भी बाहरी के मुद्दे पर गरमाहट रही । हाल ही में गृहमंत्री चिदंबरम ने भी दिल्ली में बढ़ रहे अपराधों के लिए बाहरी लोगों की गरदन पकड़ी है । ऐसा प्रतीत होता है कि देश के तमाम नेता अपने को राज्यों तक संकुचित कर बाहरी लोगों का विरोध कर रहे हैं । लेकिन जरा स्थिर हो कर देखें तो पता लगेगा कि यह सच है । जिस राज्य में किन्हीं भी कारणों से बाहरी लोगों का आना-जाना अधिक होगा वहां अवांछित गतिविधियां भी ज्यादा होंगी, विशेषकर महानगरों में । स्थानीय व्यक्ति की जड़ें वहां होती हैं । 



