Saturday, January 16, 2010

* समय बजा रहा है मृत्यु घंटी !!



आलेख 
जवाहर चौधरी 


जनसंख्या वृद्धि को लेकर भारत जितने संकट में है उसकी तुलना में हमारी चिंता और चेतना के दर्शन नहीं हो रहे हैं । जनसंख्या विस्फोट के खतरों को भांप कर परिवार नियोजन कार्यक्रम पर जोर यदृपि बहुत उचित था किन्तु 1977 के आम चुनाव में भारी उलट-फेर के बाद आजतक राजनीतिक दल परिवार नियोजन को दूर से ही छूते नजर आते हैं । हाॅलांकि उस समय सालाना करीब एक करोड़ बच्चे पैदा हो रहे थे और जनसंख्या 1971 की जनगणना के अनुसार करीब 55 करोड़ थी । अब शिक्षा , करियर जैसे अनेक स्वस्फूर्त कारणों से जन्मदर गिरने के बावजूद हर साल एक करोड़ सत्तर लाख से अधिक बच्चे पैदा हो रहे हैं और जनसंख्या 112 करोड़ से अधिक है ! जहां तक भूभाग का सवाल है, भौगोलिक सीमाएं तो वही हैं किन्तु पैंतीस साल की जनसंख्या वृद्धि ने हमारी उपजाउ धरती को आवास में उपयोग कर इसे बहुत घटा दिया है । पिछली जनगणना में /1991-2001/ देश की जनसंख्या में 21 .34 प्रतिशत औसत वृद्धि दर्ज हुई थी ।/धर्म के हिसाब से - हिन्दू 20 प्रतिशत, मुस्लिम 29.3 प्रतिशत , ईसाई 22 .1, बौद्ध 23.2 और जैन 26 प्रतिशत बढ़े / । इस दौरान प्रतिमिनिट 33 बच्चों की पैदाइश के साथ देश एक सौ बारह करोड़ की ‘‘स्लम-कंट्र्ी’’ बन गया है, जबकि मृत्यु दर ग्यारह व्यक्ति प्रति हजार रही । आने वाले समय में रोके जाने के बावजूद जनसंख्या विस्फोटक होगी क्योंकि हमारी 35 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या चैदह वर्ष से कम उम्र की है । शीघ्र ही इन्हें उत्पाद आयु हाॅसिल होगी और ये जनसंख्या वृद्धि के नए वाहक बनेंगे । जबकि 15 से 58 वर्ष की उत्पादक आयु वाले 57 प्रतिशत लोग पहले से ही सक्रिय रहेंगे ही ।
चीन आज दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश होने का कलंक ढ़ो रहा है, लेकिन बहुत जल्द उसको इससे मुक्ति मिलने वाली है । भारत की औसत वृद्धि-दर 1.5 है जबकि चीन की मात्र .6 !! इसके चलते सन् 2050 भारत की जनसंख्या 162 करोड़ और चीन की 147 करोड़ होगी । यूनाइटेड नेशन की एक अंर्राष्ट्र्ीय रिपोर्ट के अनुसार 2030 में भारत चीन से आगे होना आरंभ कर देगा और 2035 में आगे निकल चुकेगा । यहां चीन से प्रतिस्पर्धा की नहीं, अनुकरण की बात है । यदि चीन हमसे बहुत अधिक जमीन होने के बावजूद जनसंख्या नियंत्रण में सफल है तो भारत में यह क्यों संभव नहीं हो रहा है ! यदि स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करना नागरिकों का अधिकार है तो जन्म नियंत्रण उनका दायित्व क्यों नहीं है ! ?

राजनैतिक भय के चलते शुतुरमुर्ग-सरकारें यदि कठोर कदमों का साहस नहीं जुटा पा रहीं हैं तो परिवार नियोजन के लिये एक राष्ट्र्ीय स्वतंत्र विभाग स्थापित किया जाना चाहिये , जिसका सरकारों , पार्टियों , दलों या विचारधाराओं से कोई लेना-देना न हो । लक्ष्य प्राप्ति के लिये विभाग के पास संसद से अनुमोदित स्वायत्ता के अलावा हमारी जनसंख्यानीति , संविधान और पर्याप्त बजट व बल होना चाहिये । यह विभाग राष्ट्र्ीय-अंतर्राष्ट्र्ीय जनसंख्या विभागों से संपर्क में रहते हुए लक्ष्य प्राप्ति के लिये हर संभव प्रयत्न करे । समय मृत्यु-धंटी बजा रहा है । हमें उसकी आवाज को सुनना होगा । हरित क्रांति और श्वेत क्रांति की तरह अब ‘परिवार नियोजन क्रांति’ हमारे अस्तित्व के लिये अनिवार्य है ।

Friday, January 15, 2010

* युवक के मुंह में ठूंसा मानव-मल !! ईसाई क्या सवर्ण हिन्दू बन गए हैं ?



आलेख 
जवाहर चौधरी 

15 जनवरी के जनसत्ता में पृष्ठ नौ पर खबर है कि तमिलनाडु के डिंडीगल स्थान पर 07 जनवरी 2010 को सदायंदी नाम के एक दलित युवक को पकड़ कर उसके मुंह में मानव मल/टट्टी भर दी , क्योंकि उसने ईसाइयों की सड़क पर चलते वक्त चप्पलें पहन रखीं थी !! वहां के ईसाई मोहल्ले में दलितों को चप्पल पहन कर चलने की मनाही ईसाइयों ने कर रखी है । सब जानते हैं कि भारत के ज्यादातर ईसाई हिन्दू धर्म से धर्मांतरित हुए दलित हैं । हिन्दुओं की उच्च जातियों में धर्मांतरण की प्रवृत्ति नहीं है । सदायंदी ने पुलिस में बयान दिया कि दस से अधिक ईसाइयों के एक समूह ने मुझे रोका और सड़क पर चप्पल पहने होने के कारण मेरे मुंह में मानव मल घुसेड़ दिया और शेष मल चेहरे पर मल दिया । ईसाइयों का कहना है कि बुजुर्ग दलित जब उनकी सड़क पर चलते हैं तो चप्पल नहीं पहनते हैं लेकिन युवा इस आज्ञा की अवहेलना करते हैं ।

भारत में जाति प्रथा की जड़े और उससे जुड़ी कडवाहटें कितनी गहरे तक अपना असर रखती हैं इसे देश में कहीं भी देखा जा सकता है । उच्च जातियों ने उन्हें वो स्थान भी नहीं दिया जो एक पालतू पशु को प्राप्त रहता है । उनकी न्यून आवश्यकताओं के बारे में कुछ न भी कहा जाए , किन्तु घरती पर सामान्य रुप से चलने-फिरने तक में सदियों से अनेक प्रतिबंध रहे हैं । मंदिर में प्रवेश की बात तो आज भी सोची नहीं जा सकती है । राजनीति करने वाले पुलिस के दबाव के साथ एकाध बार मंदिर में इन्हें दर्शन करवा दें परंतु जनभावना में यह स्वीकार्य नहीं है । अंबेडकर भी मंदिर प्रवेश की मांग करते रहे किन्तु वे सफल नहीं हुए ।



दुःख की बात यह है कि जातीय भेदभाव के कारण निम्नजाति के जो लोग धर्मातंरण कर गए और ईसाई या मुस्लिम बन गए वे भी जाति के इस जंजाल से मुक्त नहीं हो पाए हैं । वे जहां गए हैं वहां उन्हें जाति-मुक्त सम्मान नहीं मिला है । अपमानित हो कर अगर किसी समूह में कोई जाता है तो उसे प्रायः आश्रय मिलता है सम्मान नहीं । तो धर्मांतरण से फर्क क्या पड़ा ? फर्क यह पड़ा कि जिस निम्नजाति का वह सदस्य था अब वो उनसे ही घ्रणा करने लगा । अपनी ही पूर्व जाति के शेष रह गए लोगों से वह उच्च हो गया । अब उसके लिये वे निम्न हो गए ! अछूत हो गए ! मौका मिलते ही उन पर अब वह सवर्णों जैसा व्यवहार करता है !

प्रश्न यह है कि धर्मांतरण भी जाति समस्या का हल नहीं है । पीड़ित स्वयं मौका मिलते ही वही करने लगता है जिससे दुःखी हो कर उसने अपना धर्म छोड़ा था ! अपने को उच्च दिखाने की यह प्रवृति मानसिक रोग तो नहीं है !!

Wednesday, January 13, 2010

* आंखें मत खेलिये, बाजार का दैत्य नाच रहा है !



आलेख 
जवाहर चौधरी 

हम क्या पसंद करेंगे, क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, हमारे बच्चे किस विशय को पढ़ेंगे, कैसी नौकरी करेंगे , किस देश में करेंगे, महिलाएं कितना और कैसा परिधान ‘धारण’ करेंगी , हमारा घर कैसा होगा, हमारी जीवनशैली कैसी होगी, कौन से उपकरण हमारे लिये बहुत जरुरी हैं, किन चीजों से हमारा जीवन मनुष्य का जीवन कहलाएगा यह सब हम नहीं बाजार तय करता है । आर्थिक ताकतें हमें सुझाव देती हैं , हमारे आगे विकल्प रखतीं हैं और अंततः हमें वही चुनने में ‘मदद’ /?/ करती हैं जिसमें उनका फायदा हो । उस विज्ञापन को याद कीजिये जिसमें एक डाक्टर संतरे को सेहत और सुन्दरता के लिये बहुत जरुरी बताता है । अगले क्षण एक सुन्दरी संतरों को सड़क पर फेंकती नजर आती है । नेपथ्य से आवाज आती है - छोड़ दीजिये पुराना ढंग, नए अंदाज में लीजिये संतरे के गुण । अगले दृश्य में नारंगी रंग के तरल पदार्थ से भरी एक बोतल उभरती है , संगीत गूंजता है और उमंग ही उमंग , नौजवान, बच्चे - बूढ़े सब उछलते-कूदते खुश ! अंत में वही डाक्टर बोतल हाथ में लिये मुस्कराता नजर आता है । जिस तरह असली संतरों को फेंक देने का सुझाव आता है और नारंगी तरल पदार्थ को उससे श्रेष्ठ बताया जाता है उसी तरह अन्य असली चीजों को भी हमारे सामने से हटाया जा रहा है । ध्यान दें कि किस तरह से हमारा लिबास बदल गया है ! हमारी भाषा गुम होने लगी है ! और संस्कृति पर तो संकट कहर बन कर टूटा है । हमारे तीज-त्योहार बिलाते जा रहे हैं । जो चलन में हैं उनका भी सांस्कृतिक महत्व कम व्यावसायिक महत्व अधिक हो गया है । दिवाली - दशहरा जैसे त्योहार को लें तो पाएंगे कि इनमें परंपरा लगातार सिमटती जा रही है और बाजार द्वारा आरोपित आचरण प्रधान होते जा रहे हैं ।शैक्षणिक संस्थाओं से कला और समाजविज्ञान के जरुरी विषय लगातार समाप्त हो रहे हैं क्योंकि बाजार में इनकी मांग नहीं है । बच्चों को इंजीनिरिंग और मेनेजमेंट में जबरन झौंका जा रहा है । मां-बाप समझते हैं कि निर्णय वे ले रहे हैं, जबकि निर्णय बाजार करता है । कानून ने विवाह की आयु 18-21 तय की है लेकिन बाजार ने इसे तीस-प्लस कर दिया है । लोगों को भ्रम है कि वे अपने निर्णय से विवाह और बच्चे पैदा कर रहे हैं ! सब बहुत खामोशी से हो रहा है । चिंता की बात यह है कि यही प्रवृत्ति रही तो नकली यानी बुरे व अमानक आचरण समाज में स्वीकृत होते जाएंगे । जिस तरह भ्रष्टाचार होता जा रहा है, बल्कि यों कहना ज्यादा ठीक होगा कि हो गया है । हर कोई भ्रष्टाचार की निंदा करता है लेकिन इसे ‘शिष्टाचार’ का नाम किसने दिया ? ‘लेन-देन’ को एक अचूक तरीका किसने बनाया ? साफसुथरे आदमी को भ्रष्ट करने वाली व्यवस्था का पोषण कहां से हो रहा है ? कर चोरी या बिजली चोरी जैसे कामों को क्यों सामान्य समझा जाने लगा है !? क्या इसलिये नहीं कि इसमें प्रायः बाजार के श्रेष्ठी लिप्त होते हैं !?

Tuesday, January 12, 2010

* कैसी नागरिकता ! कौन सभ्य !!



आलेख 
जवाहर चौधरी 



कभी कभी ऐसा लगता है कि समाज में जो सबसे महत्वपूर्ण और जरूरी है उसके प्रति सबसे अधिक उपेक्षा कर दृष्टिकोण रखा जाता है । जैसे सफाई को ही लें , घर में हो या बाहर , बिना सफाई के हमारा ‘स्वर्ग ’ नरक बनने में देर नहीं लगाएगा । घर में काम वाली बाई या महरी है , बाहर नगर निगम के सफाई कर्मचारी हैं । क्या हमने कभी सोचा है कि ये हमारे जीवन का कितना अहम हिस्सा हैं । किन्तु इनके प्रति हमारा आचरण प्रायः असंवेदना से भरा होता है । सड़कों पर आएदिन जलसे होते रहते हैं, बारातें, जुलूस वगैरह निकलते रहते हैं । खाने-पीने की दुकानेे , खोमचे आदि तो हैं ही । किसी दिन सुबह जल्दी उठ कर देखिये सफाईकर्मी हमारी कितनी ढ़ेर सारी करतूत साफ कर रहा होता है । हमें सभ्य बनाए रखने में उसकी कमर कितनी झुक आई है ! एक दिन पहले जुलूस निकला जिसमें उत्साही - धर्मप्राण सभ्यजनों ने पीले रंग का पावडर, जिसे रामरज कहा जाता है, पूरी सड़क पर बिछा दी । जिससे जुलूस मार्ग कितना पवित्र हुआ पता नहीं किन्तु पूरा रास्ता प्रदूषण का शिकार अवश्य हुआ । उन्हें लगा होगा कि उन्होंने बहुत ही अच्छा काम किया है , लेकिन यह नही सोचा कि ये कलयुग की सड़कें हैं सतयुग की कच्ची पगडंडियां नहीं । जुलूस निकल गया, भक्तगण अपने अपने ‘बिजनेस’ में लग गए , लेकिन सफाईकर्मी के माथे रोज से कई गुना ज्यादा कचरा चढ़ गया, यह किसीने नहीं देखा । यही हाल बारातों का है । यदि किसी सड़क पर आइस्क्रीम के कप्स, प्लेटें, चम्मच बिखरे दिखाई दें या अतिशबाजी का कचरा फैला मिले तो मान लें कि सभ्य लोगों की बारात निकली है । यहां ध्वनिप्रदूषण या ट््रेफिक जाम का जिक्र नहीं किया जा रहा है हालंाकि यह भी छोटी समस्या नहीं है । पीछे छूटा यह कचरा किसी के प्रति क्रूरता है , क्या यह विचार पैदा ही नहीं होता !! यह कैसी श्वान प्रवृत्ति है जिसमें हम खंबा दर खंबा अपनी निशनी छोड़ते चलते हैं ! चाट-पकौडी , अंडा-मछली-मुर्गी या अन्य खानपान की दुकानें रात तक कितना कचरा सड़क पर छोड़ जाते हैं इसका हिसाब है ! क्या हमें इस बात की स्वतंत्रता या अधिकार है कि हम गैरजिम्मेदाराना तरीके से दूसरों के लिये काम बढ़ा कर रखें या सार्वजनिक स्थानों को अपने उन्माद का शिकार बनाएं । माना कि सफाई कर्मियों का काम है सफाई और इसके लिये उन्हें बाकायदा वेतन भी दिया जाता है । यद्पि वे बिना शिकायत अपना ये काम करते भी हैं, लेकिन यहाॅं सवाल सफाई कर्मियों का नहीं , नागरिक या सभ्य कहे जाने वालों का है । यदि हममे इतनी भी समझ और संवेदना नहीं है तो यही विचार आता है कि कैसी नागरिकता और कौन सभ्य !

Monday, January 11, 2010

* गधों की खाल में आदमखोर !


आलेख 
जवाहर चौधरी 


नीतिवादियों की माने तो पांव ज्यादा से ज्यादा उतने फैलाना चाहिये जितनी लंबी चादर हो और कब्र कम से कम उतनी खोदना चाहिये जितने लंबे पांव हों । इससे अच्छी और जरुरी समझाइष और क्या हो सकती है ! मेनेजमेंट के कोर्स इनदिनों भजिये के घान की तरह उतारे जा रहे हैं । एक वातावरण निर्मित हो गया है मेनेजमेंट का और हर छोटा-बड़ा हिसाब लगा कर काम कर रहा है । लेकिन सरकारी कामकाज अपने ढर्रे पर ही चल रहा है । जनता का पैसा डंपरों में भर कर आता है और न जाने किन गड्ढों में ‘कूड़ कर’ चला जाता है । आम आदमी वोट दे कर अपने लिये सरकार बनाता है किन्तु देखता है कि सरकार तो उद्योग‘पतियों’ के नाम का सिंदूर मांग में भरे बैठी है !हमारा मूल्यवान मुद्राभण्डार पेट्र्ोल आयात करने में खर्च हो रहा है ! लेकिन देष में कारों का उत्पादन लगातार बढ़ाया जा रहा है ! कारें आयात भी की जा रही हैं ! षहरों में यातायात बेतरतीब हो रहा है । जो ले नहीं सकते हैं उन्हें भी लोन दे-दे कर कार थमाई जा रही है ! झांसे में आ चुका आम आदमी पेट्र्ोल की कीमतों से धुंआ-धुंआ होने लगता है तब भी झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण इससे बाहर नहीं निकल पाता है । कहने को कहा जा सकता है कि सरकार किसीको लोन या कार लेने के लिये बाध्य नहीं कर रही है । लेकिन नीतियां इसे झूठ साबित करती हैं । टारगेट के चक्कर में बेचारे बैंक वाले अपमानित हो-हो कर लोन ‘बांट’ रहे हैं । जिन घरों में एक बकरी नहीं पाली जा सक रही थी उनके दरवाजे पर पेट्र्ोल की प्यासी एक कार खड़ी पगुरा रही है । यही हाल बिजली का है । लगभग पूरा देष बिजली की कमी भुगत रहा है । घोषित-अघोषित काटौतियां बारहों महीने चलती रहती है । किसान सिंचाई तक नहीं कर पा रहे हें , उद्योगों की मांग भी पूरी नहीं हो पाती है । अस्पताल, स्कूल, आॅफिस, संचार जैसी जरुरी इकाइयों को भी बिजली संकट की मार पड़ती है । सरकारें बिजली के नाम पर बन-बिगड़ रही हैं । लेकिन मजाक देखिये एसी, गीजर जैसी ज्यादा खपत वाले उपकरणों की बिक्री चरम पर है । माना कि जो सक्षम हैं वे बिजली का बिल देते हैं, लेकिन इससे उन्हें बिजली के अपव्यय का अधिकार नहीं मिल जाता है । दिखाने के लिये सरकारी महकमों में बल्ब की जगह सीएफएल के उपयोग हो रहा है किन्तु एसी, हीटर , गीजर आदि का अनावष्यक उपयोग धडल्ले से हो रहा है । इस मामले में नैतिकता, नीति और मेनेजमेंट सब मौन हैं । लाखों घर ऐसे हैं जहां षाम का चूल्हा नहीं जल पाता है और करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें रोटी को पानी में भिगो कर खाना पड़ता है । हमारी आधी जनसंख्या गरीबी की रेखा के आसपास जी रही है । कर्ज और मौसम की बेरुखी के कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं । जो जी रहे हैं उनकी हालत भी नारकीय है ! इन सब के चलते कुछ क्षेत्रों में वेतनमान आसमान छू रहे हैं !! देष में लाख रुपए माह से अधिक वेतन पाने वालों की संख्या खासी है । वहीं दूसरी ओर दिन भर की मजदूरी पचास-साठ रुपए ही है ! यानी ड़ेढ-दो हजार रुपए महीना !! लगता है एक देष में दो अलग-अलग देष हैं जिनका एक दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है ! लोकतंत्र का उदृेष्य तो सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने का है ! माना कि बौद्धिक-षारीरिक कार्य में अंतर , लेकिन कितना ? हर पांच साल में चुनाव आते ही जिम्मेदार लोग अपनी असफलता छुपाने के लिये ‘अषिक्षा’ के नाम पर छाती कूटने लगते हैं । कहा जाता है कि षिक्षा बढेगी तो स्तर बढेगा, विकास होगा , बेरोजगारी दूर होगी, लोग सरकारी योजनाओं का लाभ ले सकेंगे , गैरबराबरी मिटेगी वगैरह । लेकिन षिक्षा सबको मिलेगी कैसे ? सरकारी स्कूलों की हालत गौषाला जैसी हैं और प्रायवेट स्कूलों की फीस !! आम आदमी सुन कर ही चक्कर खा जाता है । क्या सरकार जानती है कि इनदिनों अनेक प्राथमिक स्कूलों में एक बच्चे की सालाना फीस 30 से 35 हजार रुपए वसूली जा रही है ! इसमें कन्वेन्स जैसी अन्य सुविधाओं की फीस सम्मिलित नहीं है ! लोकतंत्र से छल करते हुए कौन सा देष बना रहे हैं हम ! कुछ राजा और षेष प्रजा का इरादा तो नहीं पल रहा है कहीं ! षेर की खाल औढ़े गधे फसल चर रहे हैं , होना तो यह भी नहीं चाहिये लेकिन इधर गधों की खाल औढ कर षेर घुस आए हैं और हमें पता नहीं !

Sunday, January 10, 2010

* मनी प्लांट!!



आलेख 
जवाहर चौधरी 


यदि साहित्य और हिन्दी को लेकर हमारी चिंता न भी हो तो कम से कम यह देखने-समझने की जरूरत है कि हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं । भाषा और संस्कृति मनुष्य की पहचान ही नहीं होते बल्कि उन्हें गढ़ते-रचते भी हैं । भारत में संभवतः हिन्दी भाषियों में ऐसे तबकों का विकास हो रहा है जो अपनी भाषा और संस्कृति से तेजी से दूर होते जा रहे है । शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने से हिन्दी लगातार अपमानित हो रही है इसकी पीड़ा अलग है, लेकिन नई पीढ़ी का हिन्दी से अपरिचय बढ़ रहा है यह खतरनाक है । खासकर इस घारणा का बढ़ना कि हिन्दी बोलना-पढ़ना पिछड़ापन है ! त्रुटिपूर्ण या चालू अंग्रेजी शुद्ध और प्रभावी हिन्दी पर भारी पड़ती देखी जा सकती है । सवाल हिन्दी-अंग्रेजी का नहीं है, एक गलत प्रवृति या दृष्टिकोण के बढ़ने का है । कोई अपनी भाषा, अपने धर्म, अपनी परंपराओं, अपने परिधानों की ओर झुकाव रखता है तो मानों पाप करता है ! प्रमाण-पत्र देने वाले चाहे साहित्य में हों, राजनीति में हों, शिक्षाजगत में हों या और कहीं, वे उसे कुड़क-मुर्गी घोषित करने में देर नहीं करते । ऐसा नहीं है कि हमारी भाषा, धर्म, परंपराओं में सब अच्छा ही अच्छा है और उसमें सुधार की गुंजाइश नहीं है । लेकिन स्वनामधन्य प्रगतिशील तोपें कुछ इस तरह से गरजतीं हैं कि लोगों को अपनी पूजा-पाठ भी छुप कर करना पड़ती है । यहां देखने वाली बात यह है कि यह प्रवृति हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही तेजी से फैल रही है । अन्य भाषायी समूहों में इसके विपरीत भाषा और संस्कृति के प्रति आस्था अधिक है और वे हिन्दी भाषियों की तुलना में काफी आगे भी हैं । महाराष्ट्र्, बंगाल, गुजरात या दक्षिण भारत के अन्य राज्यों को देखा जा सकता है । निज भाषा साहित्य के मामले में उनकी प्रगति, अंग्रेजी की उपस्थिति और महत्व के बावजूद उल्लेखनीय है ! इसका कारण निसंदेह यह है कि उनमें स्वाभिमान है अपनी भाषा और साहित्य के प्रति । अंग्रेजी उनके लिये नौकरी या व्यापार करने की भाषा हो सकती है,.....है भी, लेकिन किसी भी हालत में निज भाषा से उपर नहीं है । आगे चल कर यह स्थिति शायद ऐसी भी बनी नहीं रह पाएगी । अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाली पीढ़ी को हिन्दी अखबार पढ़ने में कठिनाई होने लगी है । उसे सैंतीस-सैंतालीस में अंतर तब तक समझ में नहीं आता जब तक कि थर्टी सेवन-फोट्टी सेवन न बोला जाए । साहित्य पढ़ने का चलन भी लगातार कम होता जा रहा है । पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने की कम देखने की अधिक हो रही हैं । लापरवाही या अनजाने में हम ऐसा समाज रच रहे हैं जिसकी जड़े अपनी माटी से दूर हैं । पता नहीं किन अतृप्त इच्छाओं के कारण हम गमलों में पराया कूड़ा-कचरा और खाद भर कर उसमें अपने बच्चों, अपने कल के समाज को मनी प्लान्ट समझ कर रोप रहे हैं !

Friday, January 8, 2010

* कहां है बेहतर आदमी !!


आलेख 
जवाहर चौधरी 


बेहतर आदमी की हमारी परिभाषा क्या हो सकती है ? इस समय जबकि शब्दकोष में दर्ज अर्थ और परिभाषाएं केवल किताबी मानी जा कर व्यवहार में नहीं हैं, बेहतर आदमी के लिये स्पष्ट चित्र बनाना कठिन है । यदि बेहतर जिन्दगी जीने वालों को हम बेहतर आदमी मान रहे हैं तो हमें निश्चित रूप से आंखें खोलने की जरूरत है । जिनके पास बड़ी डिग्रियां और ओहदे हैं उन्हें भी बेहतर आदमी मानना एक प्रकार की लापरवाही हो सकती है । कारण यह कि उपर से बेहतर दिखाई देने वाली इन बेहतर चीजों के पीछे प्रायः बेहतर आचरण नदारद होता है । यह सही है कि शिक्षित आदमी बेहतर जिन्दगी के लिये ही शिक्षा प्राप्त करता है । लेकिन उसकी बेहतर जिन्दगी की फ्रेम में कहीं भी बेहतर आचरण प्राथमिकता में नहीं होते हैं । बंगला, मोटर, जमीन की इच्छा शीघ्र ही बंगलों, मोटरों और जमीनों में तब्दील हो जाती है और बेहतर जिन्दगी एक अंधी रेस में बदल जाती है । तब बेहतर आचरण एक बाधा या रूकावट की तरह सामने आते हैं, जिन्हें अनचाहे गर्भ की तरह निकाल का फैंक दिया जाता है । ऐसा ही सोचने और करने वाले दूसरे व्यक्ति इसे उचित ठहरा कर वर्ग विषेष की मान्यता प्रदान करते हैं । कहा जाता है कि सफलता को प्रमाण की आश्यकता नहीं होती है । जो सफल हैं वही सही है । तब सफल जीवन ही बेहतर जीवन कहा जाने लगता है, चाहे उसमें बेहतर आचरण न हो । लेकिन प्रश्न रह जाता है कि बेहतर आदमी कौन !? वह आदमी जिसके एक या कुछ आचरण बेहतर हैं या समग्र रूप में, स्वभाव व संस्कारों से भी उसे बेहतर होना चाहिये । यदृपि इसमें सापेक्षता दिखाई दे सकती है । एक जेबकतरे के लिये रिश्वत ले कर छोड़ देने वाला सिपाही बेहतर हो सकता है । एक चोर इसलिये बेहतर कहा जा सकता है कि वह एक बेसहारा बुढ़िया की मदद करता है । एक न्यायाधीश, वकील, डाक्टर या प्रोफेसर बेहतर आदमी हैं लेकिन तब जबकि वे बेसहारा बुढ़िया की मदद कर रहे होते हैं । लेकिन जब वे चोरी कर रहे हैं, बेशक यहां चोरी का तरीका अलग है, तब वे बेहतर आदमी कैसे कहे जा सकते हैं !? हाल के दिनों में न्यायाधीषों द्वारा लाखों रूपए रिष्वत लेने के मामले प्रकाष में आए हैं । उत्तर प्रदेष में बड़े अधिकारियों के यहां बिजली चोरी के काफी सारे प्रकरण उजागर हुए हैं । सत्तर प्रतिषत विधायक और मंत्री आयकर रिटर्न दाखिल नहीं करते हैं और न ही अपनी आय का कोई खुलासा देते हैं । आई. ए. एस. स्तर के अधिकारी अवैध संबंधों और हत्या के जुर्म में सलाखों के पीछे खड़े हैं !! गबन, घोटाले, ठगी, बेईमानी जैसे कर्मो की फेहरिस्त बनाइये, इनमें बेहतर आदमी बहुतायत में दिखाई देंगे । सामाजिक मूल्यों, संस्कारों, मान-मर्यादा का ख्याल रखने वालों, समाज से डर कर आत्मानुषासित रहने वालों में ज्यादातर सीधे-साधे, अपढ़, ग्रामीण आदमी ही दिखाई देंगे । यदि नेकी, ईमानदारी, दया, प्रेम, सच्चाई जैसे मूल्यों की सांसें अभी चल रही हैं तो इसका श्रेय उनको जाता है जिन्हें बेहतर आदमी कहे समझे जाने में कोताही बरती जाती है । षिक्षा हमारी समझ को बेहतर बनाती है या यों कहना ठीक होगा कि षातीर बनाती है । लेकिन बेहतर आदमी अपने संपूर्ण बेहतर आचरण से बनता है । तो फिर वो क्या है जो आदमी के आचरण को बेहतर बनाती है !? - जवाहर चौधरी , 16 कौशल्यापुरी, चितावद रोड़, इन्दौर - 452001 फोन - 98263 61533 , 0731-2401670

Thursday, January 7, 2010

* लोकतंत्र में राजनीति सिर्फ होने के लिये नहीं है



आलेख 
जवाहर चौधरी 

लोकतंत्र में राजनीति सिर्फ होने के लिये नहीं है महिला आरक्षण बिल के मामले में , जैसा कि मसौदे का वर्तमान स्वरूप है , महिलाओं को 33 प्रतिषत आरक्षण देने में किसी बड़े दल ने फिलहाल आपत्ती नहीं जताई है । किन्तु जैसे सामंती और पुरूष-दंभ के लक्षण भारतीय समाज में मौजूद हैं वे इस बिल को लेकर चितंन-मनन की वकालात करते हैं । यही नहीं हमारे यहां आर्थिक, सामाजिक , षैक्षिक व धार्मिक रूप से दबंग किसी भी सुधार या कल्याण योजनाओं का लाभ उठाने में आगे होते हैं तथा जिनके नाम पर या जिनके लिये योजनाएं लाई जाती हैं वे उनसे वंचित चले आते हैं । भारतीय राजनीति में अभी भी महिलाओं की सक्रियता बहुत कम है । पिछड़े तबके की महिलाएं तो नाम मात्र ही हैं । मायावती और राबड़ीदेवी जैसे दो-चार नामों के अलावा कोई उल्लेखनीय महिला राजनीतिक फलक पर दिखाई नहीं देती है । जबकि भूतपूर्व राजघरानों, वर्तमान राजनीतिक ;राजद्धघरानों, उद्योग-घरानों या फिल्म इंडस्ट्र्ीज जैसे स्थानों से महिलाएं प्रायः अपनी चमक व घमक बढ़ाने के उद्ेष्य से राजनीति में होती दिखाई देती हैं । लोकतंत्र में राजनीति सिर्फ होने के लिये नहीं कुछ करने के लिये होती है । तब तो अवष्य ही जब समाज में स्त्रियों के खिलाफ पषुवत् व्यवहार किया जाता हो , उनके मानवीय-सामाजिक अधिकारों की हत्या की जाती हो और उनकी पुकार सुनने वाले हो कर भी नहीं हों । हर दो-तीन माह में यह खबर दोहरा जाती है कि फलां जगह दबंगों ने किसी औरत को डायन घोषित कर पीटा और चैपाल पर नंगा कर गांवभर में घुमाया या हत्या की ! लेकिन यह खबर पढ़ने में नहीं आती है कि इस कुकृत्य के दोषियों के साथ कानून ने क्या किया । कुत्ते-बिल्लियों के लिये आवाज उठाने को मषहूर नेत्रियां इस मुद्दे पर कौन सा दही जमा कर बैठ जाती हैं यह गौर करने की बात है । इसका कारण उनकी अभिजात्य संवेदनहीनता के अलावा और क्या हो सकता है ! गरीबों के वोट पर फलने-फूलने वाले व भारतीय संस्कृति के रक्षक होने का दावा करने वाले राजनीतिक दल और उनकी स्वयंभू ‘कल्चरल पुलिस’ ऐसे मौकों पर पता नहीं कहां और किनके केक के टुकड़े चाटने में व्यस्त रहती है ! क्या यह सोचने की जरूरत नहीं है कि आजादी के बासठ साल बाद भी हमारे लोकतांत्रिक समाज में असंवैधानिक दबंग मौजूद और सक्रिय हैं ! आष्चर्य यह है कि इनकी दबंगई स्त्री के विरूद्ध षुरू होती है और पुलिस , कानून, नेता , न्याय प्रक्रिया आदि सभी को अपनी चपेट में ले लेती है । यदि संविधान इन दमित स्त्रियों के हक में आवाज उठाने का मौका नहीं देता है या इनको संसद में प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है तो हमारे लोकतंत्र और विकास के मायने क्या होंगे ?!महिला आरक्षण बिल पास होने के बाद संसद में 55 करोड़ भारतीय स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करने के लिये लगभग 180 महिलाएं होंगी । इस अल्प संख्या में उनकी उपस्थिति तभी कारगर हो सकती है जबकि अनारक्षित सामान्य वर्ग के अलावा अजा, अजजा, ओबीसी, विकलांग और अल्पसंख्यक स्त्रियों को भी उनके हक का प्रतिनिधित्व मिले । यह उम्मीद करना कि सामान्य वर्ग के नेता या दलित वर्ग के पुरूष नेता भ्रष्टाचार की मलाई छोड़ कर उनके हक में आवाज उठाएंगे तो यह मुंगेरी सपना होगा ।

Wednesday, January 6, 2010

* हुन्डी और मुंडी के बीच कानून



आलेख 
जवाहर चौधरी 


कानून को देश की जीवनरेखा कहना शायद अतिष्योक्ति सा लगे किन्तु भारत जैसे देश में जहां कई धर्म, जातियां और समुदाय हैं तथा सामाजिक नियंत्रण बनाने और बनाए रखने के लिये उनकी निजी व्यवस्थाएं हैं तथा विशेष मौकों पर लोग कानून की अपेक्षा अपने रीति-रिवाज और परंपराओं को ही अधिक महत्व देते हैं, बावजूद इसके सबसे उपर हमारा संविधान ही है । कानून लोकतांत्रिक सरकार बनाती है, जाहिर है प्रायः हर कानून के पीछे परोक्ष रूप से जनता की सहमति होती है । कानून का पालन कर नागरिक देश, संविधान और सामूहिकता के प्रति अपनी निष्ठा भी व्यक्त करता है। लेकिन मूल मुद्दा यह है कि कानून की खुद उसके घर में क्या हालत है ! जिन्होंने देखा है वे जानते हैं कि प्रायः न्याय परिसरों में कानून के नाम की सुपारिया किस तादात में ली-दी जाती हैं ! यह भी लगता है कि कानून उस राजा की तरह है जिसे उसके महल में , उसके अपने लोगों ने कैद कर लिया हो और अक्सर जायज-नाजायज आदेशों पर वे राजा के जबरिया हस्ताक्षर ले लेते हों । आज कानून को लाचार सा बना देने वाले खुद कानूनकर्मी ही हैं । जिन पर संविधान की रक्षा का दायित्व है, जिन्हें कानून की आत्मा को अक्षत बनाए रखना है वे ही बगल में बैठ कर गिद्ध की तरह कानून को नोंच रहे हैं ! कानून का चीरहरण उनकी रोजी है ! न्यायलय परिसर में एक अलग ही दुनिया दिखाई देती है जहां ‘एक हाथ में मुंडी और दूसरे हाथ में हुंडी ’ को सफलता की इबारत समझा जाता है ! आज प्रायः हर कानूनकर्मी जानता है कि उसका मवक्किल किस तरह का और कितना अपराधी है । लेकिन ज्यादातर मामलों में उसे ‘बाइज्जत’ बरी कराने का प्रयास होता है, संविधान में गलियां ढूंढी जाती हैं । नहीं हों तो तर्कों-कुतर्को से नई गलियों के निर्माण की कोषिष होती है और संविधान को भविष्य के लिये भी विकलांगता दे दी जाती है । इस तरह जिनके हाथ में हुंडी होती है उन्हीं के दूसरे हाथ में कानून की मुंडी होती है ! ऐसे कानूनकर्मी बड़े और सफल माने जाते हैं जो सिद्ध अपराधी को निरपराधी सिद्ध कर दे । उसकी शिक्षा, उसका ज्ञान, अनुभव, कला , कौशल सब उसके इसी गलत काम से सम्मानित होते जाते हैं । यही कारण है कि ज्यादातर कानूनकर्मियों में संविधान के प्रति आदर का भाव नहीं होता और न ही ‘अपराधी भाइयों’ में उसके प्रति डर । बल्कि अनेक कारणों से अपराधीगण अब कानून और जेल के साए में अपने को अधिक सुरक्षित और सुविधाजनक समझते हैं । पिछले दिनों एक अंतर्राष्ट्र्ीय ‘भाई’ ने भारतीय कानून/पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण की पेशकश की थी । खबर के साथ यह भी लिखा था कि भाई ऐसा करके सुविधाजनक स्थिति में आ जाना चाहते हैं । क्योंकि पैसा फैंक कर वे अपने पक्ष में बड़े-बड़े कानून कर्मी खड़े कर सकते हैं । अनेक बड़े कानूनकर्मी एक साथ चिल्लाएंगे तो संविधान के कपड़े गीले होने में कितनी देर लगेगी ! रहा जेलों का सवाल तो ‘भाई’ और ‘भैया’ लोगों के लिये इनकी औकात किसी फार्म हाउस से ज्यादा नहीं है । कहा जाता है कि छोटे अपराधी पुलिस के आगे दुम हिलाते हैं और बड़े अपराधीगणों के सामने पुलिस । कानून का अंधा होना शायद लाजमी हो लेकिन उसका संवेदनहीन बने रहना उचित नहीं है । कानून पत्थर के भालेवाले द्वारपाल की तरह प्रतीत होते हैं जिन्हें दूर से देखने वाले बच्चों को डर लगता है लेकिन मूंछवाले उस पर तम्बाकू की पीक थूकते निकल जाते हैं । कानूनकर्मी संविधान की संतान हैं । क्या इन बेटों को चंद सिक्कों के लिये अपनी मां से सामंतों के सामने मुजरा करवाना चाहिये !?

* उपेक्षित न रहें लेखक


आलेख 
जवाहर चौधरी 


प्रख्यात साहित्यकारों की बीमारी और आर्थिक तंगी का समाचार लेखक समाज के लिये प्रायः चिंता का विषय बनते रहे हैं । पिछले दिनों श्री विष्णु प्रभाकर के अकेलेपन और अन्य कठिनाइयों का समाचार था । श्री अमरकांत , श्री त्रिलोचन भी ऐसी स्थितियों से गुजरे । हिन्दी के अनेक साहित्यकार इनदिनों आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं जिनकी खबर सामने नहीं आ पाई है । यह सब उस समय है जबकि हिन्दी का प्रकाशन व्यवसाय फलफूल रहा है । पुस्तक मेलों के आयोजन हो रहे हैं और उनमें लोगों की भीड़ उमड़ रही है , पुस्तकें बिक रही हैं , पत्र-पत्रिकाएं चल रहीं हैं , पढ़ने वाले बढ़े हैं लेकिन हिन्दी लेखकों की हालत खराब है । प्रकाशकों, पुस्तक विक्रेताओं के संगठन हैं , पत्र-पत्रिकाओं के भी संगठन हैं जो अपन हितों के लिये संवाद या संघर्ष करते हैं । उनकी आवाज है जो कहीं न कहीं उनके पक्ष में माहौल बनाती है लेकिन लेखकों का ऐसा कोई संगठन नहीं है । जलेस, प्रलेस जैसे कुछ संगठन हैं भी तो वे अपने मत/मक्सद के आगे बीन बजाने में व्यस्त रहते हैं । लेखक अक्सर इनमें इस्तेमाल हो कर गुम हो जाता हैं । स्थानीय स्तर पर कुछ ‘ वाह-वाह ’ नुमा संगठन होते हैं जो प्रायः रचनापाठ वाले आयोजनों के बाद अपनी थकान उतार कर दूसरे आयोजन की तैयारी में लग जाते हैं । स्वयं लेखकों में भी यह चिंता नहीं होती कि अपने अंतिम संघर्ष पूर्ण दिनों के लिये वे कुछ करें । जब तक सब ठीक चलता है वे चलाते रहते हैं । हालांकि यह भी सही है कि लेखक से दुनियादार होने की उम्मीद करना भी उचित नहीं है । यों भी श।यर , सिंह और सपूत लीक छोड़ कर चलने वाले होते हैं । लेखन हमारे यहां एक केरियर की तरह नहीं है । वैसे तो शो- बिजनेस में आर्डर पर गीत, कहानियां या संवाद लिखने वाले हैं किन्तु गंभीर और स्तरीय लेखन से बाजार अपनी पीठ फेर लेता है । प्रेमचंद , अमृतलाल नागर , हरिकृष्ण प्रेमी, रेणू आदि अनेक नाम याद आ सकते हैं जिन्हें फिल्मी दुनिया ने तब लौटा दिया जब वहां बहुत कुछ स्तरीय घटित हो रहा था । लेकिन अब लेखन ‘ पार्ट टाइम जाब ’ मान लिया गया है । हमारा समाज लेखन को काम मानता ही नहीं है । लेखक की कोई जरुरत हो सकती है , या वह भी इंसान है , उसे भी हवा-दवा कुछ चाहिये , यह सोच में नहीं आता है । कोई छाप कर कुछ दे दे उसका भला , नहीं दे तो उसका भी भला ! सोचने वाली बात यह है कि लेखकों ने इस स्थिति को कभी जोरदार तरीके से मुद्दा नहीं बनाया । चर्चाए अवश्य होती रही हैं । प्रकाशन से जुड़े लोग कागज , स्याही ,बिजली , ए-सी, आफिस , विक्रेताओं के कमीशन आदि सब का भुगतान करते हैं लेकिन लेखक को दिया जाने वाले पारिश्रमिक को सम्मानजनक नहीं बना पाते हैं ! लेखक और किसान की स्थिति आज लगभग एक समान है । फर्क केवल इतना है कि लेखकांे की संख्या लोकतंत्र में हस्तक्षेप करने लायक नहीं है । संख्याबल पर आधारित आज हमारे लोकतंत्र का जो स्वरूप है उसमें यह उम्मीद करना ज्यादती होगी कि लेखक अपनी रचनाओं से उसे प्रभावित कर लेंगे । लेखकों के सर्वाधिक हितैषी वामपंथी दल अनेक मुद्दों पर सरकार की नाक में काड़ी करते रहते हैं लेकिन साहित्यकारों के मामले में चुप्पी लगाए रखते हैं । कांग्रेस से उम्मीद रखी जाती है किन्तु वे एक ‘ घर ’ से बाहर निकलें तो उन्हें कुछ सूझे ! अन्य दल तो खुद ही राम भरोसे हैं !!जाहिर है हिन्दी लेखकों को स्वयं् ही मिल कर कुछ करना होगा । पहल करने पर एक प्रभावी संगठन का निर्माण किया जा सकता है जो लेखकों के अर्थिक मुद्दों पर केन्द्रित हो । यदि लेखक का योगदान साहित्य में है, उसकी आयु साठ वर्ष , या जो भी तय की जाए, से अधिक है और यदि वो नियमित मानदेय वाले पद या पीठ पर आसीन नहीं है तो उसे मासिक पेंशन उपलब्घ कराई जाना चाहिये । इसके लिये हमें यह बताना होगा कि साहित्य समाज और संस्कृति के लिये महत्वपूर्ण कर्म है । जब सांसदों, विधायकों, अधिकारियों आदि को पेंशन दी जा रही है तो लेखकों को क्यों नहीं !? केन्द्र या राज्य के बजट में इसका प्रावधान किया जाना चाहिये । यदि राज्य प्रतिवर्ष कुछ करोड़ रूपयों का एक कोष निर्मित करें तो यह कार्य आसानी से किया जा सकता है ।