Monday, January 11, 2010

* गधों की खाल में आदमखोर !


आलेख 
जवाहर चौधरी 


नीतिवादियों की माने तो पांव ज्यादा से ज्यादा उतने फैलाना चाहिये जितनी लंबी चादर हो और कब्र कम से कम उतनी खोदना चाहिये जितने लंबे पांव हों । इससे अच्छी और जरुरी समझाइष और क्या हो सकती है ! मेनेजमेंट के कोर्स इनदिनों भजिये के घान की तरह उतारे जा रहे हैं । एक वातावरण निर्मित हो गया है मेनेजमेंट का और हर छोटा-बड़ा हिसाब लगा कर काम कर रहा है । लेकिन सरकारी कामकाज अपने ढर्रे पर ही चल रहा है । जनता का पैसा डंपरों में भर कर आता है और न जाने किन गड्ढों में ‘कूड़ कर’ चला जाता है । आम आदमी वोट दे कर अपने लिये सरकार बनाता है किन्तु देखता है कि सरकार तो उद्योग‘पतियों’ के नाम का सिंदूर मांग में भरे बैठी है !हमारा मूल्यवान मुद्राभण्डार पेट्र्ोल आयात करने में खर्च हो रहा है ! लेकिन देष में कारों का उत्पादन लगातार बढ़ाया जा रहा है ! कारें आयात भी की जा रही हैं ! षहरों में यातायात बेतरतीब हो रहा है । जो ले नहीं सकते हैं उन्हें भी लोन दे-दे कर कार थमाई जा रही है ! झांसे में आ चुका आम आदमी पेट्र्ोल की कीमतों से धुंआ-धुंआ होने लगता है तब भी झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण इससे बाहर नहीं निकल पाता है । कहने को कहा जा सकता है कि सरकार किसीको लोन या कार लेने के लिये बाध्य नहीं कर रही है । लेकिन नीतियां इसे झूठ साबित करती हैं । टारगेट के चक्कर में बेचारे बैंक वाले अपमानित हो-हो कर लोन ‘बांट’ रहे हैं । जिन घरों में एक बकरी नहीं पाली जा सक रही थी उनके दरवाजे पर पेट्र्ोल की प्यासी एक कार खड़ी पगुरा रही है । यही हाल बिजली का है । लगभग पूरा देष बिजली की कमी भुगत रहा है । घोषित-अघोषित काटौतियां बारहों महीने चलती रहती है । किसान सिंचाई तक नहीं कर पा रहे हें , उद्योगों की मांग भी पूरी नहीं हो पाती है । अस्पताल, स्कूल, आॅफिस, संचार जैसी जरुरी इकाइयों को भी बिजली संकट की मार पड़ती है । सरकारें बिजली के नाम पर बन-बिगड़ रही हैं । लेकिन मजाक देखिये एसी, गीजर जैसी ज्यादा खपत वाले उपकरणों की बिक्री चरम पर है । माना कि जो सक्षम हैं वे बिजली का बिल देते हैं, लेकिन इससे उन्हें बिजली के अपव्यय का अधिकार नहीं मिल जाता है । दिखाने के लिये सरकारी महकमों में बल्ब की जगह सीएफएल के उपयोग हो रहा है किन्तु एसी, हीटर , गीजर आदि का अनावष्यक उपयोग धडल्ले से हो रहा है । इस मामले में नैतिकता, नीति और मेनेजमेंट सब मौन हैं । लाखों घर ऐसे हैं जहां षाम का चूल्हा नहीं जल पाता है और करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें रोटी को पानी में भिगो कर खाना पड़ता है । हमारी आधी जनसंख्या गरीबी की रेखा के आसपास जी रही है । कर्ज और मौसम की बेरुखी के कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं । जो जी रहे हैं उनकी हालत भी नारकीय है ! इन सब के चलते कुछ क्षेत्रों में वेतनमान आसमान छू रहे हैं !! देष में लाख रुपए माह से अधिक वेतन पाने वालों की संख्या खासी है । वहीं दूसरी ओर दिन भर की मजदूरी पचास-साठ रुपए ही है ! यानी ड़ेढ-दो हजार रुपए महीना !! लगता है एक देष में दो अलग-अलग देष हैं जिनका एक दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है ! लोकतंत्र का उदृेष्य तो सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने का है ! माना कि बौद्धिक-षारीरिक कार्य में अंतर , लेकिन कितना ? हर पांच साल में चुनाव आते ही जिम्मेदार लोग अपनी असफलता छुपाने के लिये ‘अषिक्षा’ के नाम पर छाती कूटने लगते हैं । कहा जाता है कि षिक्षा बढेगी तो स्तर बढेगा, विकास होगा , बेरोजगारी दूर होगी, लोग सरकारी योजनाओं का लाभ ले सकेंगे , गैरबराबरी मिटेगी वगैरह । लेकिन षिक्षा सबको मिलेगी कैसे ? सरकारी स्कूलों की हालत गौषाला जैसी हैं और प्रायवेट स्कूलों की फीस !! आम आदमी सुन कर ही चक्कर खा जाता है । क्या सरकार जानती है कि इनदिनों अनेक प्राथमिक स्कूलों में एक बच्चे की सालाना फीस 30 से 35 हजार रुपए वसूली जा रही है ! इसमें कन्वेन्स जैसी अन्य सुविधाओं की फीस सम्मिलित नहीं है ! लोकतंत्र से छल करते हुए कौन सा देष बना रहे हैं हम ! कुछ राजा और षेष प्रजा का इरादा तो नहीं पल रहा है कहीं ! षेर की खाल औढ़े गधे फसल चर रहे हैं , होना तो यह भी नहीं चाहिये लेकिन इधर गधों की खाल औढ कर षेर घुस आए हैं और हमें पता नहीं !

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