Sunday, January 10, 2010

* मनी प्लांट!!



आलेख 
जवाहर चौधरी 


यदि साहित्य और हिन्दी को लेकर हमारी चिंता न भी हो तो कम से कम यह देखने-समझने की जरूरत है कि हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं । भाषा और संस्कृति मनुष्य की पहचान ही नहीं होते बल्कि उन्हें गढ़ते-रचते भी हैं । भारत में संभवतः हिन्दी भाषियों में ऐसे तबकों का विकास हो रहा है जो अपनी भाषा और संस्कृति से तेजी से दूर होते जा रहे है । शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने से हिन्दी लगातार अपमानित हो रही है इसकी पीड़ा अलग है, लेकिन नई पीढ़ी का हिन्दी से अपरिचय बढ़ रहा है यह खतरनाक है । खासकर इस घारणा का बढ़ना कि हिन्दी बोलना-पढ़ना पिछड़ापन है ! त्रुटिपूर्ण या चालू अंग्रेजी शुद्ध और प्रभावी हिन्दी पर भारी पड़ती देखी जा सकती है । सवाल हिन्दी-अंग्रेजी का नहीं है, एक गलत प्रवृति या दृष्टिकोण के बढ़ने का है । कोई अपनी भाषा, अपने धर्म, अपनी परंपराओं, अपने परिधानों की ओर झुकाव रखता है तो मानों पाप करता है ! प्रमाण-पत्र देने वाले चाहे साहित्य में हों, राजनीति में हों, शिक्षाजगत में हों या और कहीं, वे उसे कुड़क-मुर्गी घोषित करने में देर नहीं करते । ऐसा नहीं है कि हमारी भाषा, धर्म, परंपराओं में सब अच्छा ही अच्छा है और उसमें सुधार की गुंजाइश नहीं है । लेकिन स्वनामधन्य प्रगतिशील तोपें कुछ इस तरह से गरजतीं हैं कि लोगों को अपनी पूजा-पाठ भी छुप कर करना पड़ती है । यहां देखने वाली बात यह है कि यह प्रवृति हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही तेजी से फैल रही है । अन्य भाषायी समूहों में इसके विपरीत भाषा और संस्कृति के प्रति आस्था अधिक है और वे हिन्दी भाषियों की तुलना में काफी आगे भी हैं । महाराष्ट्र्, बंगाल, गुजरात या दक्षिण भारत के अन्य राज्यों को देखा जा सकता है । निज भाषा साहित्य के मामले में उनकी प्रगति, अंग्रेजी की उपस्थिति और महत्व के बावजूद उल्लेखनीय है ! इसका कारण निसंदेह यह है कि उनमें स्वाभिमान है अपनी भाषा और साहित्य के प्रति । अंग्रेजी उनके लिये नौकरी या व्यापार करने की भाषा हो सकती है,.....है भी, लेकिन किसी भी हालत में निज भाषा से उपर नहीं है । आगे चल कर यह स्थिति शायद ऐसी भी बनी नहीं रह पाएगी । अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाली पीढ़ी को हिन्दी अखबार पढ़ने में कठिनाई होने लगी है । उसे सैंतीस-सैंतालीस में अंतर तब तक समझ में नहीं आता जब तक कि थर्टी सेवन-फोट्टी सेवन न बोला जाए । साहित्य पढ़ने का चलन भी लगातार कम होता जा रहा है । पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने की कम देखने की अधिक हो रही हैं । लापरवाही या अनजाने में हम ऐसा समाज रच रहे हैं जिसकी जड़े अपनी माटी से दूर हैं । पता नहीं किन अतृप्त इच्छाओं के कारण हम गमलों में पराया कूड़ा-कचरा और खाद भर कर उसमें अपने बच्चों, अपने कल के समाज को मनी प्लान्ट समझ कर रोप रहे हैं !

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