Friday, February 19, 2010

* बदली भूमिका में कौरव





आलेख 
जवाहर चौधरी 


तेलुगु लेखक वाई. लक्ष्मीप्रसाद के उपन्यास ‘द्रोपदी’ को किन्हीं लोगों ने पढ़ लिया है ! उसके चरित्र के बारे में समझ लिया है ! उसमें अश्लीलता दिखी ! वे आहत हुए हैं और इसे मुद्दा बना कर उन्होंने हंगामा मचाया है ! यह जान कर बड़ा संतोष होता है और यह बात भ्रम प्रतीत होती है कि हमारे यहां लोग साहित्य पढ़ते नहीं है, उनके पास उपन्यास जैसी बड़ी कृतियों को पढ़ने का समय नहीं है । इस बात पर मतभेद हो सकते हैं कि पढ़ने वालों ने तथ्यों को किस रुप में लिया । अनेक विद्वननुमा लोगों के बयान पढ़ने को मिले हैं कि मिथकों से ‘छेड़छाड़’ नहीं की जाना चाहिये । कुछ का कहना है कि यह बरदाश्त से बाहर है । मिथकों को ले कर यह अतिसंवेदनशीलता है , नादानी है या राजनीति इस पर शोध किये जाने की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जाना चाहिये ।

बहरहाल , मिथक पर ही आएं । जैसा कि अन्य धर्मो में भी है , हिन्दू धर्म में अनुयाइयों को भी कथाओं के माध्यम से संदेश दिये गए हैं। कथाओं के पात्र कभी अस्तित्व में रहे हैं इस पर आस्था के अनुरुप मतभिन्नता हो सकती है । कथाओं के पात्र आदर्श , चमत्कारी या अतिमानवीय गुणों से सज्जित होने के कारण आमजन के मनोविज्ञान में ईश्वर के रुप में अपना स्थान बना लेते हैं । धर्म-कर्म में लगे लोग भी अपने प्रयासों से इस भावना को दृढ़ करने में अपनी युक्ति-शक्ति लगाते और सफल होते रहते हैं ।



जहां तक द्रोपदी का प्रश्न है , इस पात्र का स्थान देवी या ईश्वर के रुप में नहीं है । महाभारत में केवल कृष्ण ही देवपात्र हैं । उन्हीं की पूजा होती है , उन्हीं के मंदिर देशभर में पाए जाते हैं । किन्तु महाभारत के अन्य सैकड़ों पात्र कहीं भी देव-समान नहीं माने जाते हैं । अपवाद स्वरुप महाभारत के एक-दो पात्रों के मंदिर हो सकते हैं लेकिन हमारे यहां मंदिर तो अमिताभ बच्चन और एश्वर्या के भी हैं ! रही बात अश्लीलता और अपमान की तो बहुत सी बातों पर गौर करने की जरुरत है । देश भर में कहीं भी देखा जा सकता है कि बहुरुपिये शिवजी, राम, कृष्ण, माता कालका, दुर्गा , सरस्वती , लक्ष्मी आदि का रुप धरे भीख मांगते रहते हैं । क्या यह देवी-देवताओं का और उससे ज्यादा स्थापित हो चुकी आस्थाओं का अपमान नहीं है ! दीवाली जैसे त्योहार पर लक्ष्मीजी के चित्र की पूजा करने लक्ष्मीछाप पटाखे निलिप्त भाव से चलाते हैं । अखबारों में ईश्वरों के जन्मदिन पर फोटो छपते हैं और उनका जिस तरह रद्दीकरण होता है उसका विवरण न ही दिया जाए तो ठीक है । शहरों-गांवों में जगह जगह मंदिर बना कर उन्हें लावारिस हालत में छोड़ देने की प्रवृत्ति आम है । प्रायः उन जगहों पर अगरबत्ती या दीपक लगाना तो दूर की बात है कोई सफाई करने भी नहीं आता है । बेचारे ईश्वर निरीह अवस्था में पड़े धूल सेवन करते रहते हैं । महत्वपूर्ण देव शनीमहाराज हर हप्ते भीख का कितना बड़ा जरिया बनते हैं इस पर किसी की नजर नहीं है !! उपन्यास में किसी चरित्र पर कुछ लिखे जाने पर जो लोग आहत होते हैं वे उपरोक्त बातों से अनभिज्ञ हैं ऐसा तो नहीं ही कहा जाना चाहिये , ये हो सकता है कि इस पर राजनीति करना अभी शेष है ।
               आश्चर्य और दुःख है कि साहित्य अकादेमी के पुरस्कार समारोह में उस समय अश्लील नारे लगाए गए जब वाय. लक्ष्मीप्रसाद का नाम पुकारा गया और प्रशस्तिवाचन आरंभ हुआ । ऐसी तख्तियां दिखाई गईं जिस पर लिखा था- ’ वाई. लक्ष्मीप्रसाद को जूते मारो ’ ! नारे लगाए गए कि ‘ भारतीय मूल्यों का अपमान, नहीं सहेगा हिन्दुस्तान ’ ! कुछ लोगों ने अतिथियों पर पुस्तिकाएं फैंकी जिनका वजन दो सौ ग्राम तक था । किसी व्यक्ति ने कहा कि ‘ यह भारतीय संस्कृति के खिलाफ है और हमारे पूर्वजों का अपमान है ’। द्रोपदी जब  पूर्वज है तो कौरव भी है , घ्रतराष्ट्र् भी हैं !! क्या इस बौद्धिक-दीनता पर कोई टिप्पणी करने की जरुरत है ? वाई. लक्ष्मीप्रसाद ने सवाल किया कि विरोध करने वालों में से कितने हैं जिन्होंने इस उपन्यास को पढ़ा है !? अभी हिन्दी भाषी क्षेत्र में यह पुस्तक अधिक नहीं पढ़ी गई है, लेकिन अब लोग इसे अवश्य पढ़ना चाहेंगे । क्या परिषदों, समितियों, मंचों, संघों या कोई सेना में केवल ऐसे लोग ही हैं जिन्हें रोबोट की तरह इस्तेमाल किया जाता है । एक प्रोग्रामिंग कर दी कि इस बात के खिलाफ हंगामा करना है और वह होता रहता है  ! जहां तक मिथकों से छेड़छाड़ का सवाल है , कलाओं में यह कोई नई बात नहीं है । छोटे से लेख में विस्तार संभव नहीं है किन्तु गणपतिजी को ही लें । उनकी आकृति से जो होता है वह किसी छेड़छाड़ से कम है !! बाइक चलाते , हैट और पतलून-बूशर्ट पहने, तरह तरह की पगड़ियां पहने गणेश किसने नहीं देखे हैं ! रामलीलाओं में हनुमान और दूसरे पात्रों से मनोरंजन नहीं करवाया जाता है ? सिनेमा और नाटकों में मिथकीय पात्र हमेशा गंभीरता के साथ ही प्रस्तुत किये जाते हैं ? इसकी वजह यह है कि सहिष्णुता हमारी संस्कृति है , व्यापक दृष्टि और उदार सोच हमारा आधार है । तब प्रश्न यह है कि एक साहित्यिक कृति और उसके लेखक पर ही वक्रदृष्टि क्यों !?
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Monday, February 8, 2010

* बेटों के हाथ में मां की मौत की लकीर !

आलेख 
जवाहर चौधरी 



दिल्ली देश की राजधानी ही नहीं आधुनिक नगर भी है । यहां लोग शिक्षित , उद्यमी , सम्पन्न और दूसरों से प्रायः हर दृष्टि से आगे दिखाई देते हैं । राजधानी होने के कारण दिल्ली वालों में अन्यों की तुलना में जागरूकता भी अधिक है । पुलिस और कानून व्यवस्था अन्य राज्यों की अपेक्षा चुस्त-दुरूस्त है । बावजूद इनके पिछली साल की यह खबर दुखद है कि गाजियाबाद में तीन भइयों ने तांत्रिकों के चक्कर में अपनी मां की हत्या कर दी । चैंकाने वाली बात यह है कि इन भाइयों में एक इंजीनियरिंग का छात्र है दूसरा एमबीए की पढ़ाई कर रहा है और तीसरा बारहवीं की परीक्षा दे चुका है !! इन लोगों ने हत्या के लिये अपने एक चचेरे भाई की मदद भी ली , वह भी शिक्षित है । बाद में तांत्रिक के इस सुझाव पर कि मां को वापस जीवित करने के लिये चार लड़कियों की बलि दी जाना जरूरी है , भाइयों ने अपनी बहन और उसकी तीन ननदों को यह कह कर बुलवाया कि मां की तबियत ठीक नहीं है फौरन आ जाओ । उनके आते ही चारों भाइयों ने इन लड़कियों पर दरातों से जानलेवा हमला किया किन्तु चीख-पुकार से भीड़ जुट जाने के कारण वे बच गईं और गंभीर हालत में अस्पताल पहुंचाईं गईं । चारों भाई दबोचे गए और अब सलाखों के पीछे हैं ।




यह घटना हमारे सामने कई सवाल खड़े करती है । आखिर वो कौन सी स्थितियां हैं जो हमारे युवाओं को तांत्रिकों के चक्कर में डालती है ! उपरोक्त घटना किसी पिछड़े इलाके में अपढ़ लोगों के बीच घटती हुई होती तो इसके कारण तय करना कठिन नहीं था । दिल्ली में रहते हुए , इंजीनियरिंग और एमबीए जैसी विज्ञान सम्मत पढ़ाई करने वाले तांित्रकों की शरण में चले जांए और मां की हत्या तक कर दें !! यह चिंता और चिंतन के लिये उच्च प्राथमिकता वाला विषय है । यह जानना जरूरी है कि वो कौन सा भय है जो हमारे युवाओं को तंत्र-मंत्र, अंगूठी-नगीनों और छू-छा की ओर ले जाता है । हमारी शिक्षा में जरूर कोई कमी है जो डिग्रियां तो दे रही है लेकिन विज्ञान का ज्ञान या वैज्ञानिक दृष्टि नहीं । टीवी, कम्प्यूटर, आईपाड, लेपटाप, मोबाइल, बाइक जैसे विज्ञान के चमत्कारों से लदी-फंदी रहने वाली पीढ़ी कैसे अन्धविश्वास के दलदल में फंस रही है ।

Thursday, February 4, 2010

* पांच दिनों से टेबल पर पड़ी लाश !



आलेख 
जवाहर चौधरी 


आज बच्चा जिस समाज में जन्म लेता है वो समाज भागता-दौड़ता, प्रतिस्पर्धा में हांफता समाज होता है । हर घर में जीवन से ज्यादा चिंता जीवन चलाने की होती है । प्रायः बच्चा ढ़ाई साल की उम्र में ही प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में धकेल दिया जाता है । तीस-पैंतीस साल की आयु तक हमारे बच्चे हाथ पैर मार रहे होते हैं लेकिन ज्यादातर को ढ़ंग का ठौर ठिकाना या करियर नहीं मिल पाता है । जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा जीने की तैयारी में निकल जाता है और कुछ करने-रचने की स्थिति आते आते दोपहर ढलती दिखाई देने लगती है ।


पश्चिम को अपना आदर्ष मानने और अनुकरण करने वाले हम गरीब देश प्रायः उन बातों को अनदेखा कर देते हैं जो धीमे जहर की तरह हमारे लिये घातक बन रही है । गत वर्ष की एक घटना है । अमेरिका में जार्ज नाम का व्यक्ति एक कंपनी में पिछले तीस वर्षों से काम कर रहा था । इस दफ्तर में अन्य कई लोग भी काम करते हैं , कार्य सतत् शिफ्टों में चलता है । जार्ज के पास भी उसके कार्य का दायित्व था जिसकी साप्ताहिक रिपोर्ट देना होती थी । एक सोमवार दफ्तर में उसे हार्ट अटैक हुआ और वह अपनी टेबल पर सर रखे अचेत हो गया तथा बाद में मर गया । लेकिन टारगेट हांसिल करने के चक्कर में कागजों में डूबे रहने वाले कर्मचारियों में से किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं गया । सब अपना काम करते आते और जाते रहे । सप्ताहंत में जब सफाई कर्मचारी काम कर रहा था तो उसने देखा कि जार्ज मर चुका है । पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पाया गया कि उसकी मृत्यु पांच दिन पूर्व हो चुकी है ।

यह खबर चैंकाने वाली है किन्तु पश्चिम समाज में आज के समय में यह संभव है । समझ में यह नहीं आता कि घन के पीछे सब कुछ भूल कर रात दिन भागते रहने का कारण क्या है ! आखिर संपन्नता का लक्ष्य क्या है ? दफ्तर के साथी काम के इतने दबाव में क्यों हैं कि उन्होंने पांच दिनों से मरे पड़े अपने साथी की सुध नहीं ली ! परिवार वाले कहां व्यस्त थे ! माना कि वहां परिवार के सदस्य अलग अलग समय में आ कर विश्राम कर वापस काम पर लौट जाते हैं और प्रायः सप्ताहांत में ही मिलते हैं । लेकिन क्या पांच दिनों तक उन्हें फोन पर संवाद करने का भी समय नहीं मिला ! जरूरत नहीं होने पर भी संवाद करना क्या वहां परिवार की आवश्यकता नहीं है ?! किसी अनजानी सफलता या लक्ष्य को पा लेने में अपने को काम में झोंके रखना एक नशा या लत तो नहीं है ! जिनकी आवश्यकता हजारों की है उन्हें लाखों क्यों चाहिये ! जो लाखों पा रहे हैं वे करोडों के लिये क्यों दौड़े जा रहे हें ! उन्हें क्यों पता नहीं पड़ता कि इस दौड़ के चलते वे कब मनुष्य से मशीन बन गए हैं । उनके पास अपने परिवार के लिये समय नहीं हैं , न मित्रों के लिये है और न ही स्वयं अपने लिये । ज्यादा समय वे थके और चिड़चिड़े से रहते हैं । उन्हें ठीक से नींद भी नहीं आती है । प्रायः वे सिर दर्द , बदन दर्द और पेनकिलर्स को अपना जीवन साथी बना चुकते हैं । उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियां कब प्रेयसी की तरह दिल में जगह बना लेतीं हैं पता नहीं चलता ! अक्सर युवावस्था में ही हमारी मानव मशीनें डाक्टर और दवा के सहारे हो जाती हैं । हासिल होने के बाद भी दौलत काम आ जाए यह जरूरी नहीं है । विकास के नाम पर ये किस तरह के समाज की रचना कर ली है हमने !

जिस तरह पश्चिम और उसकी कार्य संस्कृति हमारे यहां फैल रही है वह चिंता जनक है । भरपूर वेतन के प्रस्ताव के साथ सात दिन-चैबीस घंटों की मांग करने वाले विज्ञापन दिखाई देने लगे हैं । क्या अधिक वेतन के लालच में हम अपने बच्चों या परिवार के किसी भी सदस्य को इस तरह के दलदल में फैंक देंगे ? परिवार की भूमिका इस मामले में अहम होनी चाहिये । स्वास्थ्य या जान की कीमत पर कुछ गैरजरूरी आवश्यकताएं तत्काल पूरी होने से रह भी जाएं तो परिवार को धैर्य रखना चाहिये ।

Saturday, January 30, 2010

* क्या गांधी केवल एक मूर्ति का नाम है ?

आलेख 
जवाहर चौधरी 



उत्तर प्रदेश की विधान सभा में 29 जनवरी को मुख्यमंत्री मायावती ने विपक्षी दलों पर दलित महापुरुषों की मूर्तियों के मुद्दे पर ‘‘करारे हमले’’ किये । करना भी चाहिये , एक तो वे मुख्यमंत्री हैं इसलिये उनका अधिकार बनता है कि वे जो भी सही-गलत करें उसका मजबूती से बचाव करें । दूसरा इसलिये भी कि महापुरुषों की आड़ में उन्होंने खुद मूर्ति बन कर महानता हड़प लेने का भ्रम पाल लिया है । जब दुनिया महापुरुष को देखेगी तो मजबूरन उन्हें निरखना ही पड़ेगा । तीसरा ये कि जब दूसरों ने , यानी अ-दलितों ने अपने महापुरुषों की मूर्तियों से देश की जमीन आंट दी है तो मौका मिलते ही पांच-दस सालों में सैकड़ों सालों का हिसाब बराबर भी किया जाना है वरना बाद में लोग कहने से नहीं चूकेंगे कि इतना भी नहीं कर पाईं । यू.पी. का पानी है भई , हिसाब मांगता है । चौथा ये कि मूर्तियों का मुद्दा है तो सारे विपक्षी इसी पर छाती कूट रहे हैं अन्यथा और भी गम हैं जमाने में फजीहत करने के लिये । उससे बचने का अच्छा तरीका है ।


लेकिन केवल मूर्तियों के सहारे न तो भगवान बना जा सकता है और न ही महान । अगर विचार जिन्दा नहीं रह पाएं तो सचमुच के महापुरुषों की मूर्तिया भी परिन्दों का शौचालय बन जातीं हैं । विचारों का संवर्धन केवल ‘करारे हमले’ करने से नहीं होता हैं, बढ़िया राजनीति भले ही हो जाए ।

विचारों के केन्द्र होते हैं पुस्तकालय, किताबें, पत्र-पत्रिकाएं, लेखक-चिंतक, लेखक- संगठन, कवि-साहित्यकार आदि । इस समय दलित चिंतन शिखर पर है किन्तु उसे कहीं से भी उचित संरक्षण प्राप्त नहीं है । दलित साहित्य और विचार पूरी गरिमा के साथ सामने नहीं आ पा रहा है । केवल मुख्यमंत्रीजी की प्रशस्ति में माटे-मोटे ग्रंथ निकालना दलित साहित्य या विचार नहीं हो सकता है । महापुरुष अपनी प्रशस्ति में किताबें प्रयोजित नहीं करवाते हैं , वे विचार प्रकट करते हैं और अन्यों के विचारों को आगे बढ़ाते हैं । उ.प्र. सरकार ने पुस्तकालयों के लिये ऐसी कोई योजना नहीं बनाई है जिसकी चर्चा देश में हुई हो । न ही उन्होंने दलित विचारधारा वाले लेखकों - चिंतकों का कोई उल्लेखनीय राष्ठ्र्ीय सम्मेलन उ.प्र. में करवाया है जिससे समाज कल्याण के नए सूत्र-समीकरण और विचार उभर कर आएं । देशभर में इनदिनों दलित लेखन से जुड़े बड़े लेखक-विचारक चर्चित हैं , लेकिन दलितों की पैरोकार सरकार ने इनका नोटिस नहीं लिया प्रतीत होता है । मूर्तियों के लिये लोगों की परवाह किये बिना ,करोड़ों का वित्त-प्रावधान और कानूनी प्रावधान करने वाली सरकार ने विचार के लिये क्या प्रावधान किया है इसका कहीं कोई जिक्र क्यों नहीं है ? कांग्रेस ने गांधी और नेहरु की मूर्तियां केवल किसी राजनीतिक प्रतिक्रिया स्वरुप स्थापित नहीं करवाई हैं , उनके विचारों पर भी काम किया है । क्या गांधी भारत में केवल एक मूर्ति का नाम है ? दुनिया में , इतिहास में, जहां गांधी की मूर्ति नहीं है वहां क्या गांधी नहीं है ?

Friday, January 29, 2010

* सो जाओ कि भाषा मरती है !!


आलेख 
जवाहर चौधरी 


अंग्रेज़ी अंग्रेज़ों के राज यानी दो सौ साल में उतनी नहीं बढ़ी जितनी पिछले साठ साल में। इस यथार्थ का की पड़ताल के लिए हिंदी वालों को अपना अंतस खंगालना होगा। पैसा, सुख-समृद्धि इसके कारण प्रतीत होते हैं तो भी इसकी सूक्ष्मता में जाने की ज़रूरत है। जो बाज़ार अंग्रेज़ी की अनिवार्यता घोषित करते हुए नौकरियां देता है वही अपना "धंधा' करने के लिए हिंदी सहित दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं पर निर्भर दिखाई देता है।

टीवी, फ़िल्में और अख़बार आज संचार के मुख्य माध्यम है। इनमें ९५ प्रतिशत विज्ञापन हिंदी के होते हैं। रामायण, महाभारत जैसे कार्यक्रम तो थे ही हिंदी के, लेकिन कौन बनेगा करोड़पति या इसी श्रृंखला के तमाम लॉटरी-जुआ सरीखे कार्यक्रम हिंदी में ही चलाए गए। धंधेबाज़ उसी भाषा का दामन पकड़ लेते हैं जिसमें उन्हें पैसा मिलने की गुंजाइश दिखाई देती हो। पैसा मिले तो हमारा हीरो सीख कर हर भाषा बोलने लगता है। साक्षात्कार देते समय जो सुंदरी अंग्रेज़ी के अलावा कुछ नहीं उगलती वह पैसा मिलने पर भोजपुरी, अवधी, खड़ी बोली, आदि सभी तरह की हिंदी बोल लेती है।

हाल ही में एक नवोदित गायिका को हिंदी गाने के लिए अवार्ड मिला। आभार व्यक्त करते हुए उसने अंग्रेज़ी झाड़ी तो संचालक ने उससे हिंदी में बोलने का आग्रह किया। हिंदी के चार-छह शब्द उसने जिस अपमानजनक ढंग से बोले उसे भूलना कठिन है। भाषा का सरोकार धन और धंधे से हो गया है और यही चिंता का विषय माना जाना चाहिए। थैली दिखाते सामंती बाज़ार के आगे लगता है हमारी ज़बान पतुरिया हो जाती है!

बहुत-सी पत्र-पत्रिकाएँ भाषा के सामान्य, लेकिन आवश्यक मानदंडों की उपेक्षा करते हुए जिस तरह की भाषाई विकृतियां प्रस्तुत कर रही हैं उस पर हल्ला मचाने की आवश्यकता है। लेकिन हम में यानी हिंदीभाषियों में अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम और प्रतिबद्धता अभी तक जागृत नहीं हो पाई है जबकि अन्य भारतीय भाषाओं में यह विकसित है। उर्दू, मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, मलयालम आदि भाषाएं प्रतिबद्धता के साथ विकसित हो रही हैं। ये सारी अंग्रेज़ी का प्रयोग करतीं हैं, लेकिन यह उनकी प्राथमिकता नहीं होती है।दो मराठी या बांग्ला भाषी लोग अंग्रेज़ी जानते हुए भी अपनी भाषा में बात करते हुए गर्व करते हैं। लेकिन हिंदी में प्रायः ऐसा नहीं होता। हिंदी वाला अपनी अच्छी हिंदी को किनारे कर कमज़ोर अंग्रेज़ी के साथ खुद को ऊंचा समझने के भ्रम को पुष्ट करता है। यदि हम ऐसी जगह फंसे हों जहां बर्गर और पित्ज़ा ही उपलब्ध हों तो मजबूरी में उसे खाना ही है, पर इसका मतलब नहीं है कि अपने पाकशास्त्र को खारिज ही कर दें। आज की शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेज़ी का हस्तक्षेप अधिक है। इसलिए माना कि फ़िलहाल विकल्प नहीं है। अंग्रेज़ी में ही पढ़िए, लेकिन शेष कामों में अंग्रेज़ी को जबरन घुसेड़ने और गर्व करने की क्या ज़रूरत है.

गांधीजी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की वकालत की थी। वे स्वयं संवाद में हिंदी को प्राथमिकता देते थे। आज़ादी के बाद सरकारी काम शीघ्रता से हिंदी में होने लगे, ऐसा वे चाहते थे। राजनीतिक संगठनों से कुछ आशा बंधी थी कि कि वे हिंदी को लेकर ठोस और गंभीर कदम उठाएंगे। भाजपा, सपा और अन्य क्षेत्रीय दलों में उम्मीदें अधिक थीं। लेकिन भारतीय सभ्यता और संस्कृति से ऑक्सीज़न लेने वाले दल भी अंग्रेज़ी में दहाड़ते देखे जा सकते हैं। हिंदी को वोट मांगने और अंग्रेज़ी को राज करने की भाषा हम ही बनाए हुए हैं। कुछ लोग सोचेते हैं कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिए अंग्रेज़ी ज़रूरी है। ऐसा सोचते वक्त यह भुला दिया जाता है कि लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शीर्ष पर बैठै नेता बिना अंग्रेज़ी की दक्षता के सक्रिय और सफल है।

Sunday, January 24, 2010

* उदार नेतृत्व को मौका दें मुसलमान

आलेख 
जवाहर चौधरी 



इस समय देश का जनमानस एक गंभीर आत्ममंथन के दौर से गुजर रहा है । राजनीतिक शक्तियां अपने समीकरण और गणित शोध रही हैं । दल चाहे बयान कुछ भी दें, घर्मसंकट महसूस कर रहे हैं । मीडिया, जिसका प्रभाव आज सबसे ज्यादा है, कचोरी-समोसे की दुकान हो गया लगता है, माल गरमा-गरम हो तभी बिकता है । चैनल समाचार नहीं सुनाते फेरी वालों की तरह हांक लगाते हैं । सबसे पहले समाचार देने की होड में न केवल वे संवेदनहीन सिद्व हो रहे हैं बल्कि कई बार तो वे तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते, चिंगारी को आग में बदलने की नादानी करते प्रतीत होते हैं । आम आदमी बेबस और प्रबुद्वजन खीझते दिखाई देते हैं ।

न चाहते हुए भी बात हमें धर्म और संप्रदायों के संदर्भं में करना पड़ेगी । इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत का मुसलमान दुनिया के अन्य मुसलमानों से भिन्न है । इसके कारणों में इतिहास, संस्कृति और परिवेश हैं जिनके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है । यह सच्चाई है कि मुसलमानों में शिक्षा का प्रतिशत अन्य समुदायों की तुलना में बहुत कम है । लेकिन जितने लोग शिक्षित हैं वे नाकाफी नहीं हैं । हिन्दुओं की तरह इनमें भी उदार और प्रगतिशील विचारों वाले शिक्षित उपेक्षा के शिकार हैं । चंद कट्टरवादी अपने स्वार्थ के लिये , मुस्लिम समुदाय को भय दिखा कर लामबंद किये रहते हैं । ऐसा करने के लिये वे प्रायः विवादास्पद बयान देते हैं । जिसका परिणाम यह हुआ है कि हिन्दू कट्टर मानसिकता जन्म लेती है और फैलती है ।

भारत उससे अलग हुए दो भूखण्ड़ों से लगा हुआ है जो न केवल अपने को इस्लामिक राष्ट्र घोषित किये हैं अपितु उनकी गतिविधियां भी भारत विरोधी है । सब जानते हैं कि पाकिस्तान और बांगलादेश दोनों ही जगहों पर अल्पसंख्यक हिन्दुओं की स्थिति अच्छी नहीं है । वहां अनेक मंदिर व पूजास्थल हस्तगत कर व्यावसायिक उपयोग में लिये जा रहे हैं । भारत में जब भी सांप्रदायिक तनाव होता है वहां के पूजास्थल संकट में पड़ जाते हैं । कई बार तो प्रशासन के नियंत्रण में तोड़-फोड़ हुई है । तात्पर्य यह कि भारत के पडौसी देश आतंकवाद के जरिये भारत विरोधी गतिविधियां संचालित करते हैं हुए हिन्दू विरोधी भी हो जाते हैं । भारत में भले ही हिन्दुत्व और भारतीयता को एक मानने में कठिनाई महसूस की जा रही हो किन्तु हमारे पड़ौसियों ने इसे एक ही मान लिया है । भारतीय मुसलमान, जिनमें से अधिसंख्य हिन्दू धर्म की जातिवादी कू्ररता के कारण धर्मान्तरण कर गए हैं, इस हिन्दू विरोधी अवधारणा से बहुत आसानी से उनके पक्ष में हो जाते हैं । यह ध्यान रखने वाली बात है कि भारत का मुसलमान जातिशोषण की पीड़ा के कारण बहुत स्वाभाविक रूप से हिन्दुओं का विरोधी होगा , यह बात हिन्दुओं को अभी भी समझ में नहीं आई है । यदि हिन्दुओं को अपनी ऐतिहासिक अमानवीय त्रुटियों का कोई मलाल नहीं है, वे सुधार की मुद्रा या मंशा नहीं रखना चाहते हैं तो यह क्यों नहीं माना जाना चाहिये कि वे हाथ से निकल गए दासों-दलितों पर अब भी दांत पीस रहे हैं !! देवता हाथ में जूता लिये बैठे हैं और चाहते हैं कि दलित चरणों में लोटें, लेकिन कुछ छिटक कर मुसलमान हो गए ! और बात बे बात आंखें दिखाते हैं !! हजारों साल से सामाजिक सत्ता का सुख भोग रहे श्रेष्ठीजनों को यह कैसे रास आ सकता है । बावजूद इसके वे अपनी धार्मिक जटिलताओं में इस तरह जकड़े हैं कि उन्होंने आज तक हिन्दूधर्म में पुनः प्रवेश का कोई सर्वमान्य विधान तय नहीं किया है !!

इधर मुसलमानों का दुर्भाग्य है कि ऐसा नेतृत्व नहीं मिला जो उन्हें हिन्दू विरोधी मनोविज्ञान से बाहर निकाल कर उनमें राष्ट्र्वादी मानसिकता का विकास कर सके । इसलिये बुखारी जैसों की बन आती है और वे राख में दबी आग को हवा देने का मौका पा जाते हैं । यदि जिन्हा, शाहबुद्धीन और बुखारी जैसे लोग नहीं होते तो ठाकरे, सिंघल और तोगडिया भी नहीं होते । भारत के मुसलमानों को अब यह समझ लेना चाहिये कि उनके उग्र नेतृत्व की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ कट्टर हिन्दूत्व आम हिन्दू के लिये भी एक समस्या बना हुआ है । आम हिन्दू की नाराजी इस्लाम से नहीं , मुसलमानों की इस चूक से अधिक है कि उन्होंने गलत नेतृत्व चुना । हिन्दू प्रायः शांतिप्रिय और उदार होता है । यही वजह है कि कट्टर हिन्दू की जितनी अलोचना आम हिन्दू कर रहा है उतना किसी और के लिये संभव नहीं है । स्वयं कट्टरवादी हिन्दू भी यह जानते और कहते हैं कि मुसलमान हमारी उतनी बड़ी समस्या नहीं हैं जितने कि प्रगतिशील हिन्दू । शिक्षित और मध्यवर्गीय समाज ने हिन्दुओं के कट्टरवाद को नकार दिया है । यही वजह है कि गुजरात के परिणाम अन्य कहीं भी दोहराए जा सकेंगे इस पर किसी को विश्वास नहीं है । इस प्रकार सामाजिक स्तर पर मुसलमानों को हिन्दुओं से उस तरह का खतरा नहीं ही है जैसा कि उनके नेता उन्हें बताते हैं ।

अब आवश्यकता इस बात की है कि मुसलमानों में ऐसे लोग आगे आएं जो उन्हें काल्पनिक भय और थोपी गई कट्टरता से बाहर निकालें । ऐसा नेतृत्व विकसित हो जो राष्ट्रीय विकास के मुद्दों पर मुसलमानों को भागीदार बनाए । जब किसी उपलब्धि की घोषणा हो तो वे भी अन्य लोगों के समान प्रसन्न हों , खुशी व्यक्त करें । ऐसा करते हुए एक संदेह, जो कि अभी व्यापक है, दूर होगा और वे हिन्दू समाज के अधिक निकट पहुंचेंगे , दूसरी ओर कट्टरपंथियों द्वारा फैलाए गए भ्रम का भी खण्डन होगा ।

हमारे राजनैतिक दल कितने धर्मनिरपेक्ष हैं इस पर बहस हो सकती है लेकिन स्वंय् हिन्दू-मुस्लिम समाजों को एक दूसरे के प्रति सहिष्णु होना होगा इसमें कोई संदेह नहीं है । इसका उपाय यह हो सकता है कि उदारवादी शिक्षित व प्रगतिशील मुस्लिम नेतृत्व आगे आए और हिन्दुओं की उदारता व सहिष्णुतता का सम्मान करे व मुस्लिम समाज में जन जन तक यही भावना पहुंचाए । प्रगतिशील हिन्दुओं को इससे बल मिलेगा, उनकी शक्ति दूनी होगी और दोनों समाजों को निकट लाने में अपेक्षाकृत अधिक सफल होंगे । यदि इस तरह की पहल हो पाती है तो विद्वानों, साहित्यकरों, समाजशास्त्रियों, कलाकारों आदि के गैर राजनीतिक संगठन भी सक्रिय किये जा सकते हैं ।

Saturday, January 16, 2010

* समय बजा रहा है मृत्यु घंटी !!



आलेख 
जवाहर चौधरी 


जनसंख्या वृद्धि को लेकर भारत जितने संकट में है उसकी तुलना में हमारी चिंता और चेतना के दर्शन नहीं हो रहे हैं । जनसंख्या विस्फोट के खतरों को भांप कर परिवार नियोजन कार्यक्रम पर जोर यदृपि बहुत उचित था किन्तु 1977 के आम चुनाव में भारी उलट-फेर के बाद आजतक राजनीतिक दल परिवार नियोजन को दूर से ही छूते नजर आते हैं । हाॅलांकि उस समय सालाना करीब एक करोड़ बच्चे पैदा हो रहे थे और जनसंख्या 1971 की जनगणना के अनुसार करीब 55 करोड़ थी । अब शिक्षा , करियर जैसे अनेक स्वस्फूर्त कारणों से जन्मदर गिरने के बावजूद हर साल एक करोड़ सत्तर लाख से अधिक बच्चे पैदा हो रहे हैं और जनसंख्या 112 करोड़ से अधिक है ! जहां तक भूभाग का सवाल है, भौगोलिक सीमाएं तो वही हैं किन्तु पैंतीस साल की जनसंख्या वृद्धि ने हमारी उपजाउ धरती को आवास में उपयोग कर इसे बहुत घटा दिया है । पिछली जनगणना में /1991-2001/ देश की जनसंख्या में 21 .34 प्रतिशत औसत वृद्धि दर्ज हुई थी ।/धर्म के हिसाब से - हिन्दू 20 प्रतिशत, मुस्लिम 29.3 प्रतिशत , ईसाई 22 .1, बौद्ध 23.2 और जैन 26 प्रतिशत बढ़े / । इस दौरान प्रतिमिनिट 33 बच्चों की पैदाइश के साथ देश एक सौ बारह करोड़ की ‘‘स्लम-कंट्र्ी’’ बन गया है, जबकि मृत्यु दर ग्यारह व्यक्ति प्रति हजार रही । आने वाले समय में रोके जाने के बावजूद जनसंख्या विस्फोटक होगी क्योंकि हमारी 35 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या चैदह वर्ष से कम उम्र की है । शीघ्र ही इन्हें उत्पाद आयु हाॅसिल होगी और ये जनसंख्या वृद्धि के नए वाहक बनेंगे । जबकि 15 से 58 वर्ष की उत्पादक आयु वाले 57 प्रतिशत लोग पहले से ही सक्रिय रहेंगे ही ।
चीन आज दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश होने का कलंक ढ़ो रहा है, लेकिन बहुत जल्द उसको इससे मुक्ति मिलने वाली है । भारत की औसत वृद्धि-दर 1.5 है जबकि चीन की मात्र .6 !! इसके चलते सन् 2050 भारत की जनसंख्या 162 करोड़ और चीन की 147 करोड़ होगी । यूनाइटेड नेशन की एक अंर्राष्ट्र्ीय रिपोर्ट के अनुसार 2030 में भारत चीन से आगे होना आरंभ कर देगा और 2035 में आगे निकल चुकेगा । यहां चीन से प्रतिस्पर्धा की नहीं, अनुकरण की बात है । यदि चीन हमसे बहुत अधिक जमीन होने के बावजूद जनसंख्या नियंत्रण में सफल है तो भारत में यह क्यों संभव नहीं हो रहा है ! यदि स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करना नागरिकों का अधिकार है तो जन्म नियंत्रण उनका दायित्व क्यों नहीं है ! ?

राजनैतिक भय के चलते शुतुरमुर्ग-सरकारें यदि कठोर कदमों का साहस नहीं जुटा पा रहीं हैं तो परिवार नियोजन के लिये एक राष्ट्र्ीय स्वतंत्र विभाग स्थापित किया जाना चाहिये , जिसका सरकारों , पार्टियों , दलों या विचारधाराओं से कोई लेना-देना न हो । लक्ष्य प्राप्ति के लिये विभाग के पास संसद से अनुमोदित स्वायत्ता के अलावा हमारी जनसंख्यानीति , संविधान और पर्याप्त बजट व बल होना चाहिये । यह विभाग राष्ट्र्ीय-अंतर्राष्ट्र्ीय जनसंख्या विभागों से संपर्क में रहते हुए लक्ष्य प्राप्ति के लिये हर संभव प्रयत्न करे । समय मृत्यु-धंटी बजा रहा है । हमें उसकी आवाज को सुनना होगा । हरित क्रांति और श्वेत क्रांति की तरह अब ‘परिवार नियोजन क्रांति’ हमारे अस्तित्व के लिये अनिवार्य है ।

Friday, January 15, 2010

* युवक के मुंह में ठूंसा मानव-मल !! ईसाई क्या सवर्ण हिन्दू बन गए हैं ?



आलेख 
जवाहर चौधरी 

15 जनवरी के जनसत्ता में पृष्ठ नौ पर खबर है कि तमिलनाडु के डिंडीगल स्थान पर 07 जनवरी 2010 को सदायंदी नाम के एक दलित युवक को पकड़ कर उसके मुंह में मानव मल/टट्टी भर दी , क्योंकि उसने ईसाइयों की सड़क पर चलते वक्त चप्पलें पहन रखीं थी !! वहां के ईसाई मोहल्ले में दलितों को चप्पल पहन कर चलने की मनाही ईसाइयों ने कर रखी है । सब जानते हैं कि भारत के ज्यादातर ईसाई हिन्दू धर्म से धर्मांतरित हुए दलित हैं । हिन्दुओं की उच्च जातियों में धर्मांतरण की प्रवृत्ति नहीं है । सदायंदी ने पुलिस में बयान दिया कि दस से अधिक ईसाइयों के एक समूह ने मुझे रोका और सड़क पर चप्पल पहने होने के कारण मेरे मुंह में मानव मल घुसेड़ दिया और शेष मल चेहरे पर मल दिया । ईसाइयों का कहना है कि बुजुर्ग दलित जब उनकी सड़क पर चलते हैं तो चप्पल नहीं पहनते हैं लेकिन युवा इस आज्ञा की अवहेलना करते हैं ।

भारत में जाति प्रथा की जड़े और उससे जुड़ी कडवाहटें कितनी गहरे तक अपना असर रखती हैं इसे देश में कहीं भी देखा जा सकता है । उच्च जातियों ने उन्हें वो स्थान भी नहीं दिया जो एक पालतू पशु को प्राप्त रहता है । उनकी न्यून आवश्यकताओं के बारे में कुछ न भी कहा जाए , किन्तु घरती पर सामान्य रुप से चलने-फिरने तक में सदियों से अनेक प्रतिबंध रहे हैं । मंदिर में प्रवेश की बात तो आज भी सोची नहीं जा सकती है । राजनीति करने वाले पुलिस के दबाव के साथ एकाध बार मंदिर में इन्हें दर्शन करवा दें परंतु जनभावना में यह स्वीकार्य नहीं है । अंबेडकर भी मंदिर प्रवेश की मांग करते रहे किन्तु वे सफल नहीं हुए ।



दुःख की बात यह है कि जातीय भेदभाव के कारण निम्नजाति के जो लोग धर्मातंरण कर गए और ईसाई या मुस्लिम बन गए वे भी जाति के इस जंजाल से मुक्त नहीं हो पाए हैं । वे जहां गए हैं वहां उन्हें जाति-मुक्त सम्मान नहीं मिला है । अपमानित हो कर अगर किसी समूह में कोई जाता है तो उसे प्रायः आश्रय मिलता है सम्मान नहीं । तो धर्मांतरण से फर्क क्या पड़ा ? फर्क यह पड़ा कि जिस निम्नजाति का वह सदस्य था अब वो उनसे ही घ्रणा करने लगा । अपनी ही पूर्व जाति के शेष रह गए लोगों से वह उच्च हो गया । अब उसके लिये वे निम्न हो गए ! अछूत हो गए ! मौका मिलते ही उन पर अब वह सवर्णों जैसा व्यवहार करता है !

प्रश्न यह है कि धर्मांतरण भी जाति समस्या का हल नहीं है । पीड़ित स्वयं मौका मिलते ही वही करने लगता है जिससे दुःखी हो कर उसने अपना धर्म छोड़ा था ! अपने को उच्च दिखाने की यह प्रवृति मानसिक रोग तो नहीं है !!

Wednesday, January 13, 2010

* आंखें मत खेलिये, बाजार का दैत्य नाच रहा है !



आलेख 
जवाहर चौधरी 

हम क्या पसंद करेंगे, क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, हमारे बच्चे किस विशय को पढ़ेंगे, कैसी नौकरी करेंगे , किस देश में करेंगे, महिलाएं कितना और कैसा परिधान ‘धारण’ करेंगी , हमारा घर कैसा होगा, हमारी जीवनशैली कैसी होगी, कौन से उपकरण हमारे लिये बहुत जरुरी हैं, किन चीजों से हमारा जीवन मनुष्य का जीवन कहलाएगा यह सब हम नहीं बाजार तय करता है । आर्थिक ताकतें हमें सुझाव देती हैं , हमारे आगे विकल्प रखतीं हैं और अंततः हमें वही चुनने में ‘मदद’ /?/ करती हैं जिसमें उनका फायदा हो । उस विज्ञापन को याद कीजिये जिसमें एक डाक्टर संतरे को सेहत और सुन्दरता के लिये बहुत जरुरी बताता है । अगले क्षण एक सुन्दरी संतरों को सड़क पर फेंकती नजर आती है । नेपथ्य से आवाज आती है - छोड़ दीजिये पुराना ढंग, नए अंदाज में लीजिये संतरे के गुण । अगले दृश्य में नारंगी रंग के तरल पदार्थ से भरी एक बोतल उभरती है , संगीत गूंजता है और उमंग ही उमंग , नौजवान, बच्चे - बूढ़े सब उछलते-कूदते खुश ! अंत में वही डाक्टर बोतल हाथ में लिये मुस्कराता नजर आता है । जिस तरह असली संतरों को फेंक देने का सुझाव आता है और नारंगी तरल पदार्थ को उससे श्रेष्ठ बताया जाता है उसी तरह अन्य असली चीजों को भी हमारे सामने से हटाया जा रहा है । ध्यान दें कि किस तरह से हमारा लिबास बदल गया है ! हमारी भाषा गुम होने लगी है ! और संस्कृति पर तो संकट कहर बन कर टूटा है । हमारे तीज-त्योहार बिलाते जा रहे हैं । जो चलन में हैं उनका भी सांस्कृतिक महत्व कम व्यावसायिक महत्व अधिक हो गया है । दिवाली - दशहरा जैसे त्योहार को लें तो पाएंगे कि इनमें परंपरा लगातार सिमटती जा रही है और बाजार द्वारा आरोपित आचरण प्रधान होते जा रहे हैं ।शैक्षणिक संस्थाओं से कला और समाजविज्ञान के जरुरी विषय लगातार समाप्त हो रहे हैं क्योंकि बाजार में इनकी मांग नहीं है । बच्चों को इंजीनिरिंग और मेनेजमेंट में जबरन झौंका जा रहा है । मां-बाप समझते हैं कि निर्णय वे ले रहे हैं, जबकि निर्णय बाजार करता है । कानून ने विवाह की आयु 18-21 तय की है लेकिन बाजार ने इसे तीस-प्लस कर दिया है । लोगों को भ्रम है कि वे अपने निर्णय से विवाह और बच्चे पैदा कर रहे हैं ! सब बहुत खामोशी से हो रहा है । चिंता की बात यह है कि यही प्रवृत्ति रही तो नकली यानी बुरे व अमानक आचरण समाज में स्वीकृत होते जाएंगे । जिस तरह भ्रष्टाचार होता जा रहा है, बल्कि यों कहना ज्यादा ठीक होगा कि हो गया है । हर कोई भ्रष्टाचार की निंदा करता है लेकिन इसे ‘शिष्टाचार’ का नाम किसने दिया ? ‘लेन-देन’ को एक अचूक तरीका किसने बनाया ? साफसुथरे आदमी को भ्रष्ट करने वाली व्यवस्था का पोषण कहां से हो रहा है ? कर चोरी या बिजली चोरी जैसे कामों को क्यों सामान्य समझा जाने लगा है !? क्या इसलिये नहीं कि इसमें प्रायः बाजार के श्रेष्ठी लिप्त होते हैं !?

Tuesday, January 12, 2010

* कैसी नागरिकता ! कौन सभ्य !!



आलेख 
जवाहर चौधरी 



कभी कभी ऐसा लगता है कि समाज में जो सबसे महत्वपूर्ण और जरूरी है उसके प्रति सबसे अधिक उपेक्षा कर दृष्टिकोण रखा जाता है । जैसे सफाई को ही लें , घर में हो या बाहर , बिना सफाई के हमारा ‘स्वर्ग ’ नरक बनने में देर नहीं लगाएगा । घर में काम वाली बाई या महरी है , बाहर नगर निगम के सफाई कर्मचारी हैं । क्या हमने कभी सोचा है कि ये हमारे जीवन का कितना अहम हिस्सा हैं । किन्तु इनके प्रति हमारा आचरण प्रायः असंवेदना से भरा होता है । सड़कों पर आएदिन जलसे होते रहते हैं, बारातें, जुलूस वगैरह निकलते रहते हैं । खाने-पीने की दुकानेे , खोमचे आदि तो हैं ही । किसी दिन सुबह जल्दी उठ कर देखिये सफाईकर्मी हमारी कितनी ढ़ेर सारी करतूत साफ कर रहा होता है । हमें सभ्य बनाए रखने में उसकी कमर कितनी झुक आई है ! एक दिन पहले जुलूस निकला जिसमें उत्साही - धर्मप्राण सभ्यजनों ने पीले रंग का पावडर, जिसे रामरज कहा जाता है, पूरी सड़क पर बिछा दी । जिससे जुलूस मार्ग कितना पवित्र हुआ पता नहीं किन्तु पूरा रास्ता प्रदूषण का शिकार अवश्य हुआ । उन्हें लगा होगा कि उन्होंने बहुत ही अच्छा काम किया है , लेकिन यह नही सोचा कि ये कलयुग की सड़कें हैं सतयुग की कच्ची पगडंडियां नहीं । जुलूस निकल गया, भक्तगण अपने अपने ‘बिजनेस’ में लग गए , लेकिन सफाईकर्मी के माथे रोज से कई गुना ज्यादा कचरा चढ़ गया, यह किसीने नहीं देखा । यही हाल बारातों का है । यदि किसी सड़क पर आइस्क्रीम के कप्स, प्लेटें, चम्मच बिखरे दिखाई दें या अतिशबाजी का कचरा फैला मिले तो मान लें कि सभ्य लोगों की बारात निकली है । यहां ध्वनिप्रदूषण या ट््रेफिक जाम का जिक्र नहीं किया जा रहा है हालंाकि यह भी छोटी समस्या नहीं है । पीछे छूटा यह कचरा किसी के प्रति क्रूरता है , क्या यह विचार पैदा ही नहीं होता !! यह कैसी श्वान प्रवृत्ति है जिसमें हम खंबा दर खंबा अपनी निशनी छोड़ते चलते हैं ! चाट-पकौडी , अंडा-मछली-मुर्गी या अन्य खानपान की दुकानें रात तक कितना कचरा सड़क पर छोड़ जाते हैं इसका हिसाब है ! क्या हमें इस बात की स्वतंत्रता या अधिकार है कि हम गैरजिम्मेदाराना तरीके से दूसरों के लिये काम बढ़ा कर रखें या सार्वजनिक स्थानों को अपने उन्माद का शिकार बनाएं । माना कि सफाई कर्मियों का काम है सफाई और इसके लिये उन्हें बाकायदा वेतन भी दिया जाता है । यद्पि वे बिना शिकायत अपना ये काम करते भी हैं, लेकिन यहाॅं सवाल सफाई कर्मियों का नहीं , नागरिक या सभ्य कहे जाने वालों का है । यदि हममे इतनी भी समझ और संवेदना नहीं है तो यही विचार आता है कि कैसी नागरिकता और कौन सभ्य !

Monday, January 11, 2010

* गधों की खाल में आदमखोर !


आलेख 
जवाहर चौधरी 


नीतिवादियों की माने तो पांव ज्यादा से ज्यादा उतने फैलाना चाहिये जितनी लंबी चादर हो और कब्र कम से कम उतनी खोदना चाहिये जितने लंबे पांव हों । इससे अच्छी और जरुरी समझाइष और क्या हो सकती है ! मेनेजमेंट के कोर्स इनदिनों भजिये के घान की तरह उतारे जा रहे हैं । एक वातावरण निर्मित हो गया है मेनेजमेंट का और हर छोटा-बड़ा हिसाब लगा कर काम कर रहा है । लेकिन सरकारी कामकाज अपने ढर्रे पर ही चल रहा है । जनता का पैसा डंपरों में भर कर आता है और न जाने किन गड्ढों में ‘कूड़ कर’ चला जाता है । आम आदमी वोट दे कर अपने लिये सरकार बनाता है किन्तु देखता है कि सरकार तो उद्योग‘पतियों’ के नाम का सिंदूर मांग में भरे बैठी है !हमारा मूल्यवान मुद्राभण्डार पेट्र्ोल आयात करने में खर्च हो रहा है ! लेकिन देष में कारों का उत्पादन लगातार बढ़ाया जा रहा है ! कारें आयात भी की जा रही हैं ! षहरों में यातायात बेतरतीब हो रहा है । जो ले नहीं सकते हैं उन्हें भी लोन दे-दे कर कार थमाई जा रही है ! झांसे में आ चुका आम आदमी पेट्र्ोल की कीमतों से धुंआ-धुंआ होने लगता है तब भी झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण इससे बाहर नहीं निकल पाता है । कहने को कहा जा सकता है कि सरकार किसीको लोन या कार लेने के लिये बाध्य नहीं कर रही है । लेकिन नीतियां इसे झूठ साबित करती हैं । टारगेट के चक्कर में बेचारे बैंक वाले अपमानित हो-हो कर लोन ‘बांट’ रहे हैं । जिन घरों में एक बकरी नहीं पाली जा सक रही थी उनके दरवाजे पर पेट्र्ोल की प्यासी एक कार खड़ी पगुरा रही है । यही हाल बिजली का है । लगभग पूरा देष बिजली की कमी भुगत रहा है । घोषित-अघोषित काटौतियां बारहों महीने चलती रहती है । किसान सिंचाई तक नहीं कर पा रहे हें , उद्योगों की मांग भी पूरी नहीं हो पाती है । अस्पताल, स्कूल, आॅफिस, संचार जैसी जरुरी इकाइयों को भी बिजली संकट की मार पड़ती है । सरकारें बिजली के नाम पर बन-बिगड़ रही हैं । लेकिन मजाक देखिये एसी, गीजर जैसी ज्यादा खपत वाले उपकरणों की बिक्री चरम पर है । माना कि जो सक्षम हैं वे बिजली का बिल देते हैं, लेकिन इससे उन्हें बिजली के अपव्यय का अधिकार नहीं मिल जाता है । दिखाने के लिये सरकारी महकमों में बल्ब की जगह सीएफएल के उपयोग हो रहा है किन्तु एसी, हीटर , गीजर आदि का अनावष्यक उपयोग धडल्ले से हो रहा है । इस मामले में नैतिकता, नीति और मेनेजमेंट सब मौन हैं । लाखों घर ऐसे हैं जहां षाम का चूल्हा नहीं जल पाता है और करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्हें रोटी को पानी में भिगो कर खाना पड़ता है । हमारी आधी जनसंख्या गरीबी की रेखा के आसपास जी रही है । कर्ज और मौसम की बेरुखी के कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं । जो जी रहे हैं उनकी हालत भी नारकीय है ! इन सब के चलते कुछ क्षेत्रों में वेतनमान आसमान छू रहे हैं !! देष में लाख रुपए माह से अधिक वेतन पाने वालों की संख्या खासी है । वहीं दूसरी ओर दिन भर की मजदूरी पचास-साठ रुपए ही है ! यानी ड़ेढ-दो हजार रुपए महीना !! लगता है एक देष में दो अलग-अलग देष हैं जिनका एक दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है ! लोकतंत्र का उदृेष्य तो सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने का है ! माना कि बौद्धिक-षारीरिक कार्य में अंतर , लेकिन कितना ? हर पांच साल में चुनाव आते ही जिम्मेदार लोग अपनी असफलता छुपाने के लिये ‘अषिक्षा’ के नाम पर छाती कूटने लगते हैं । कहा जाता है कि षिक्षा बढेगी तो स्तर बढेगा, विकास होगा , बेरोजगारी दूर होगी, लोग सरकारी योजनाओं का लाभ ले सकेंगे , गैरबराबरी मिटेगी वगैरह । लेकिन षिक्षा सबको मिलेगी कैसे ? सरकारी स्कूलों की हालत गौषाला जैसी हैं और प्रायवेट स्कूलों की फीस !! आम आदमी सुन कर ही चक्कर खा जाता है । क्या सरकार जानती है कि इनदिनों अनेक प्राथमिक स्कूलों में एक बच्चे की सालाना फीस 30 से 35 हजार रुपए वसूली जा रही है ! इसमें कन्वेन्स जैसी अन्य सुविधाओं की फीस सम्मिलित नहीं है ! लोकतंत्र से छल करते हुए कौन सा देष बना रहे हैं हम ! कुछ राजा और षेष प्रजा का इरादा तो नहीं पल रहा है कहीं ! षेर की खाल औढ़े गधे फसल चर रहे हैं , होना तो यह भी नहीं चाहिये लेकिन इधर गधों की खाल औढ कर षेर घुस आए हैं और हमें पता नहीं !